मशहूर पत्रकार-लेखक-साहित्यकार-तर्कवादी
दिवंगत राज किशोर के बहाने कुछ मूल सवाल
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सुरेंद्र किशोर
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स्वतंत्र विचार वाले मुक्त चिंतक राज किशोर के लेखन का मैं प्रशंसक रहा हूं।
उनका सन 2018 में निधन हो गया।
मैं उनके लेखों की कटिंग रखता रहा।
‘‘मेरा पतन’’ शीर्षकांतर्गत उनका एक लेख 28 मई 2013 को जनसत्ता में छपा था।
उसे मैंने देर से यानी कल ही पढ़ा।
बहुत मार्मिक लगा।
लगा कमोबेश यह मेरी भी कहानी है।
फिर मेरा ध्यान उनकी उस चिट्ठी की ओर गया जो उन्होंने मुझे करीब 20 साल पहले लिखी थी।
तब मैं के.के.बिड़ला फाउण्डेशन शोध वृति समिति का सदस्य था।
राजकिशोर जी चाहते थे कि उन्हें फेलोशिप मिले।
किंतु मैं उनकी मदद नहीं कर सका।
यह बात मुझे नहीं लिखनी चाहिए थी।
जिन बिघ्न संतोषियों के यह आरोप रहे कि वे किसी लाभ के लिए पक्ष बदलते रहे,उन्हें गलत साबित करने के लिए मैं यहां पहली बार यह बता रहा हूं।
उनके पत्र से यह बात साफ थी कि उन्हें पैसों की जरूरत थी,यदि वह सम्मानजनक तरीके से मिले।
जाहिर है कि फैलोशिप एक सम्मानजनक रास्ता था।
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जो अपनी शत्र्तों पर जीवन जीता है,चाहे वह राजकिशोर जी जैसा प्रतिभाशाली लेखक ही क्यों न हो,उसे कई बार आर्थिक कठिनाइयों से जूझना पड़ता है।
मुझे भी जूझना पड़ा।
पर, मेरे पास जमीन थी जिसे बेच कर मैंने उन पैसों का बैंक में ‘फिक्स्ड डिपोजिट’ करा दिया।
रोज ब रोज के खर्चे के लिए अब मैं निश्चिंत हूं।
मैं देश, काल, पात्र की जरूरतों के अनुसार अपने विचार व्यक्त कर सकता हूं।
पैसों के लिए ‘‘बंधुआ मजदूर’’ बनने की कोई जरूरत नहीं है।
पर, बेचारे राजकिशोर जी के पास बेचने के लिए जमीन नहीं रही होगी,अपनी जमीर बेचने वाले तो वे कत्तई नहीं थे।
उनके लेख मुझे याद आते रहते हैं जिनमें अक्सर नई बातें होती थी और लीक से हट कर और अकाट्य तर्कों के युक्त।
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अब उनका लेख पढ़िए
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मेरा पतन
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राज किशोर
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मैं नहीं जानता था कि मेरे शुभ चिंतकों में से वे भी हैं,
जिन्हें जानने का मुझे कभी अवसर नहीं मिला।
मैं यह भी नहीं जानता था कि जब मेरा पतन होगा,तो वे मुझे न बता कर सार्वजनिक रूप से उसकी चर्चा करेंगे।
अगर मैं बीच-बीच में फेसबुक पर नहीं जाता, तो मुझे अपने पतन की खबर ही नहीं मिलती।
मेरे पतन का प्रचार करने वाले वे हैं जिन्होंने मेरे उत्थान की कभी चर्चा नहीं की।
उनका सिद्धांत शायद यह है कि अच्छाई के बारे में बात करने से बुराई बढ़ती है और बुराई के बारे में बात करने से अच्छाई बढ़ती है।
मैं एतद् द्वारा यह स्वीकार करता हूं कि मेरा पतन हाल में नहीं हुआ है,मैं शुरू से ही पतित रहा हूं।
मेरा पहला पतन तब हुआ,जब माक्र्सवादियों द्वारा शासित राज्य में रहते हुए भी मैं कामरेड नहीं बना।
अगर यह गलती नहीं करता तो ,तो कम से कम रूस,पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया ,क्यूबा आदि देशों में से किसी एक देश की निःशुल्क यात्रा तो कर ही लेता।
कुछ दिन चीन में भी बिता सकता था।
मेरी पतित कलम सन 1977 से ही लिख रही थी कि पश्चिम बंगाल का हाल अच्छा नहीं है।
विद्वान लोगों को यह 30 साल बाद दिखने लगा
जब सिंगुर और नंदीग्राम जैसी बड़ी घटनाएं होने लगीं।
पतित से पतित भी उत्थान की उम्मीद करता है।
इसीलिए मैं जनवादी लेखक संघ की स्थापना के साथ ही उसका सदस्य हो गया था।
मुझे बताया गया था कि यह लेखकों का स्वतंत्र संगठन है।
साल भर तक संघ की गतिविधियों में शरीक होता रहा।
जब नए पदाधिकारियों के चुनाव का मुहूर्त आया,तब मैंने पाया कि लेखकों की इच्छाओं पर माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की मर्जी भारी पड़ रही है।
अब न मैं जनवादी लेखक संघ के लिए था और न जनवादी लेखक संघ मेरे लिए।
पतन ही मेरी नियति थी।
जब मैं साप्ताहिक पत्रिका ‘रविवार’ में आया, तब मेरे पतन का दूसरा दौर शुरू हुआ।
मैंने तय किया कि पेशेवर पत्रकारिता करते हुए मुझे किसी राजनीतिक दल से नहीं जुड़ना चाहिए।
बहुत से लोग मुझे समाजवादी रूप में जानते रहे-यह दाग अब भी धुला नहीं है।
जबकि मेरी मान्यता रही है कि डा.लोहिया के साथ उनका समाजवाद भी भस्मीभूत हो गया।
कुछ ऐसे नेता जरूर थे जिन्हें अखबारवाले अन्य विशेषण के अभाव में समाजवादी लिखते रहे।
मैं इन नेताओं के पास जाकर गिड़गिड़ा सकता था,उनकी जीवनी लिख सकता था और अपने लेखों में उन्हें महानता का अंतिम अवशेष बता सकता था।
तब मेरे पास भी नोयडा और पटना में एक बड़ा सा फ्लैट होता।
अर्जुन सिंह के घर माथा टेकता रहता तो केंद्रीय हिन्दी संस्थान का उपाध्यक्ष पद निश्चित था।
लेकिन मैं पतित का पतित ही रहा।
यह भी न बना कि तथाकथित कलावादियों से सांठगांठ कर लेता।
वहां भी रजा के नाम पर बहुत कुछ है।
नवभारत टाइम्स में मेरे पतन का स्वरूप क्या था और मेरी किन बुराइयों के कारण एक संघी संपादक ने वहां से मुझे हटवा कर ही सांस ली,यह किस्सा बहुत दिलचस्प नहीं है।
क्योंकि यह हरेक पत्र-पत्रिका और चैनल के राशि फल का अनिवार्य अंग है।
अपना यह पतन जरूर कबूल करता हूं कि जिंदगी भर अंग्रेजी का विरोध करने के बाद मैं आठ पन्नों के एक अंग्रेजी मासिक का संपादन करने लगा।
मेरी इस ग्लानि को किसी ने नहीं छेड़ा,पर यह अफवाह कइयों ने फैलाई कि मैं एक एन जी.ओ.में रंगरेलियां मना रहा हूं।
वहां की आर्थिक स्थिति ऐसी थी कि निदेशक जार्ज मैथ्यू भी चाहते तो मौज मस्ती नहीं कर पाते।
फिर भी पतन तो पतन ही है।
जब किसी और ने हिन्दी में काम करने का मौका नहीं दिया तो तब कायदे से मुझे अंग्रेजी में काम करने के बजाय भूख -प्यास सहते हुए,सरक-सरक कर निगम बोध घाट पहुंच जाना चाहिए था।
जाहिर है कि मैं किसी से कम कायर नहीं हूं।
मेरे ताजातरीन पतन का संबंध वर्धा के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्व विद्यालय से है।
यहां आवासी लेखक के रूप में रहने का अधिकार सिर्फ एक क्रांतिकारी छवि वाले कवि को था जिसे अपनी आखिरी कविता लिखे हुए दस वर्ष बीत चुके थे, जिसके उपन्यास का दूसरा संस्करण समाप्त होने ही वाला था और एक कविता संकलन हाल में प्रकाशित हो चुका था।
हिंदी समय डाॅट काॅम की जिम्मेदारी लेना पूरी तरह अनैतिक था,क्योंकि इससे विश्वविद्यालय की छवि सुधरने का अंदेशा था।
यह भी कम जघन्य नहीं है कि मैं विभूति नारायण राय की निंदा करता नहीं घूमता।
अगर मेरा पतन नहीं हुआ होता तो ,तो मुझे हर शहर में उनकी तस्वीर के साथ यह पोस्टर लगवा देना चाहिए था कि इस आदमी को जहां भी देखो गोली मार दो।
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हिन्दी दैनिक ‘जनसत्ता’
28 मई 2013
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