शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2022

  रिटायर पत्रकार को यदि नेता नहीं पूछते 

 तो पत्रकार भी अपवादों को छोड़ कर 

 हाशिए पर गए नेता को घास नहीं डालते

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  सुरेंद्र किशोर

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‘‘मेरे जीवन का यह अनुभव रहा है कि लोग आपको आपके पद की वजह से जानते हैं और उसी के मुताबिक आपको अहमियत देते हैं।

वे आपके करीब होने ,शुभचिंतक होने का कितना भी नाटक क्यों न करते रहें, वे यह देख कर आपसे संबंध बनाते हैं कि आप उनके कितने काम आ सकते हैं।’’

  नई दिल्ली से प्रकाशित एक चर्चित हिन्दी दैनिक के महत्वपूर्ण संवाददाता रहे पत्रकार ने ‘‘विनम्र’’ नाम से अपना अनुभव लिखा है।असली नाम उनका कुछ और है।

  तब तक वे रिटायर नहीं हुए थे।

उन्होंने लिखा कि ‘‘रिटायर होने के बाद मुझे कोई न पहचाने या मेरा काम न करे ,इसके लिए मैंने खुद को मानसिक रूप से तैयार कर लिया है।

 वैसे भी इसमें नया कुछ नहीं है।

यह तो मानव स्वभाव है।

संबंध तो कपड़ों की तरह होते हैं।

 जिस स्वेटर को सर्दियों में हम कलेजे से लगाए रखते हैं,उसे मौसम बदलते ही नजरों से दूर कर के आलमारी में बंद कर देते हैं।’’

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 अब जरा मेरा अनुभव जानिये।

यह अनुभव अन्य लोगों का भी होगा।

जब मैं बारी -बारी से अखबारों से स्टाफ के रूप में जुड़ा हुआ था,तो मुझे हर शुभ अवसर पर औसतन करीब सवा सौ फोन आते थे।

शुभ कामनाएं देने के लिए।

होली,दिपावली,15 अगस्त,26 जनवरी और 1 जनवरी को।अब उन लोगों में से किसी का फोन मुझे नहीं आता।अन्य का जरूर आता है।

जबकि, एक पत्रकार के रूप में आज भी अपने लेखन के जरिए उतने अधिक पाठकों तक पहुंचता हंू जितना किसी अखबार में था तो शायद नहीं पहुंचता था।

दरअसल उन संवाददाताओं या पत्रकारों की नेताओं की नजर में कीमत होती है जो किसी नेता का बयान या तो छाप सके या छापना रोक सके या खबर को छोटा-बड़ा कर सके।

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़अस्सी के दशक में बिहार के एक बड़े चर्चित नेता से जब मैं मिलता था तो 

वे खास तरह की बातें करते थे।

जब वे तत्कालीन मुख्य मंत्री से नाराज रहते थे तो मुझसे कहते थे कि आप अरूण शौरी की तरह लिखिए।

जब मुख्य मंत्री से खुश रहते थे कि कहते थे कि आप इंदर मेहरोत्रा की तरह लिखिए।

इस बहाने वे मुझे उन दो बड़े पत्रकारों की श्रेणी में डाल देते थे ताकि वैसी तुलना से मुझे खुशी हो।

  अरूण शैारी तब सरकार विरोधी और मेहरोत्रा सरकार समर्थक पत्रकार माने जाते थे।

वही नेता जब किसी अन्य से मिलते थे तो मेरे बारे में कहते थे कि उसको तो कुछ लिखने आता ही नहीं है।

मैं ही उसे खबर बताता रहता हूं।

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कहानी का मोरल यह है कि 

पत्रकार किसी नेता की प्रशंसा या आलोचना से तनिक भी प्रभावित न हों।

अपना काम करते जाएं जो उचित समझें या जो उचित हो।

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नेता यदि रिटायर पत्रकारों को नहीं पूछते तो हम पत्रकार भी तो हाशिए पर गए नेताओं को घास नहीं डालते !!!!

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काम के कारण संबंध है।

उनका हमसे और हमारा उनसे।

वैसे भी कितने रिटायर पत्रकार के निधन पर उस अखबार में उनके मरने की खबर छपती है जिस अखबार में वे दशकों तक नौकरी कर चुके होते हैं ? !!!  

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सुरेंद्र किशोर

19 अक्तूबर 22


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