कानोंकान
सुरेंद्र किशोर
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राजनीतिक बयानों के घटाटोप में बिहार के विकास की खबरें ओझल
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गत सात अप्रैल को पटना में मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने मेट्रो के लिए सुरंग की खुदाई के काम का समारम्भ किया।
यानी, बिहार में विकास की गाड़ी यहां तक पहुंच गई है।
सन 1969 से ही पटना में रहने के कारण मैं
पहले और अब का फर्क बताने की स्थिति मंें हूं।
मेट्रो वाली खबर के साथ ही सन 1977 का एक संवाद याद आ गया।
वह संवाद काॅफी हाउस में मेरे और नीतीश कुमार के बीच हुआ था।
उन्होंने कहा था कि ‘‘मैं एक दिन मुख्य मंत्री जरूर बनूंगा।मुख्य मंत्री के रूप में मैं अच्छा काम करूंगा।’’
उन्होंने विपरीत परिस्थितियों के बावजूद काफी हद तक अपना वादा पूरा किया है।
बिहार में विकास के कार्य सिर्फ शहरों तक ही सीमित नहीं हैं,बल्कि गांवों में भी हुए हैं और हो रहे हैं।
पहले और अब का फर्क वह व्यक्ति भी बता सकता है जिसने सन 2005 में किसी कारणवश बिहार छोड़ दिया था।तब से लौटा नहीं।यदि वह आज आकर बिहार को देखे तो उसे यह देखकर सुखद आश्चर्य होगा कि बिहार कितना बदल गया।
राजनीतिक- गठबंधन -परिवर्तन के आरोप के अलावा नीतीश कुमार पर कोई अन्य गंभीर आरोप नहीं है।इस बात पर गौर कीजिए कि इतने लंबे शासन काल में कितने नेताओं के खिलाफ गंभीर आरोप नहीं लगे।
नीतीश कुमार की इस बात में दम है कि ‘‘बिहार के अच्छे कामों की चर्चा नहीं होती।’’
यदि आप उनके गठबंधन परिवर्तन के कदमों से नाराज हैं तो जरूर रहिए।किंतु क्या सिर्फ उसी की खातिर अन्य उपलब्धियों को नकार देंगे ?
फिर विकास के काम को आगे बढ़ाने के लिए किसी अन्य शासक को कैसे प्रोत्साहन मिलेगा ?
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बेहतर होता रिकाॅर्ड
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जांच एजेंसियों के दुरुपयोग के आरोपों के बीच सी.बी.आई.के बारे में एक सकारात्मक खबर आई है।
सन 2022 में सी.बी.आई केस में सजा की दर 74 .6 प्रतिशत रही।
सन 2009 में सी.बी.आई. ने जितने मामलों में आरोप पत्र दाखिल किए,उनमें से सिर्फ 64 प्रतिशत मामलों में ही आरोपितांे को सजा हो पाई थी।
यानी, सन् 2022 में अदालतों ने कम से कम 74.6 प्रतिशत मामलों में सी.बी.आई.जांच को सही माना।इसकी तुलना आई.पी.सी.के तहत दायर मुकदमों से कीजिए।
वैसे मुकदमों में देश में सजा की दर 2021 में 57 प्रतिशत ही रही।
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एक दवा से कई इलाज
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हाल के महीनों से बिहार में सरकारी नौकरियां देने की रफ्तार बढ़ी है।
आपात काल ( 1975-77)में भी बड़े पैमाने पर बिहार सरकार ने बेरोजगारों को नौकरियां दी थी।
इन पंक्तियांे का लेखक एक ऐसे किसान परिवार को जानता है जिसके एक सदस्य को सन 1976 में सरकारी शिक्षक की नौकरी मिली थी।
उस स्टाइपेंडरी टीचर को मात्र सवा सौ रुपए मासिक मिलते थे।
पर,उतने ही पैसे से परिवार की आर्थिक स्थिति में परिवर्तन आने लग गया।
उससे पहले किसी भी बड़े काम के लिए वह किसान अपनी जमीन बेचता था।
इस बहाली के बाद जमीन बिकनी बंद हो गई।दरअसल जिस परिवार में कोई एक सरकारी कर्मचारी भी होता है,तो उसे कर्ज-उधार भी आसानी से मिल जाते हैं।
यदि देश की विभिन्न सरकारें ऐसे परिवारांे के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान कर दे जिन परिवारों में अब तक एक भी सरकारी या गैर सरकारी नौकरी नहीं हैं तो उससे गांवों की अर्थ व्यवस्था में काफी फर्क पड़ेगा।
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भूली बिसरी यादें
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यह बात तब की है जब ब्रिटेन के प्रधान मंत्री हेराल्ड मैकमिलन भारत आए थे।
नई दिल्ली स्थित ब्रिटिश हाई कमिश्नर एम.मैकडोनाल्ड के आवास पर भोज का आयोजन हुआ।
प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू उस भोज के मुख्य अतिथि थे।
ब्रिटिश हाई कमिश्नर ने जब केंद्रीय मंत्री मोरारजी देसाई को भोज के लिए आमंत्रित किया तो देसाई ने एक शर्त रख दी।उन्होंने कहा कि वहां कोई व्यक्ति शराब नहीं पिएगा।
शर्त मान ली गई।
भोज में अजीब दृश्य था।सबके हाथों में फल के रस के ग्लास थे।
उस भोज में जो अंग्रेज शामिल हुए,उन्होंने बगल के कमरे में जाकर शराब का सेवन किया।
कट्टर गांधीवादी देसाई जिन बातों में विश्वास रखते थे,उसका वे कड़ाई से पालन करते थे।
सन 1977 में जब मोरारजी देसाई प्रधान मंत्री बने तो उन्होंने देश भर में चरण बद्ध तरीके से शराबंदी लागू करनी शुरू कर दी।
उस दौरान पटना के प्रेस कांफ्रंेस में उनसे पूछा गया कि ‘‘आप कब तक पूर्ण शराबबंदी लागू करेंगे ?’’
प्रधान मंत्री ने जवाब दिया--‘‘मैं तो आज ही लागू कर दूं। किंतु तुम्हीं लोग इसके खिलाफ हो।’’
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और अंत में
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सन 2012 -13 में इस देश में कर दाताओं की कुल संख्या 2 करोड़ 82 लाख थी।
सन 2020-21 में यह संख्या बढ़कर 6 करोड़ 84 लाख हो गई है।जबकि ब्रिटेन जैसे छोटे देश में कर दाताओं की संख्या 3 करोड़ 22 लाख है।
जानकार लोग बताते हैं कि यदि भारत में भी कर वसूली में कठोर कड़ाई की जाए तो केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को पैसों की कमी नहीं रहेगी।
उससे न सिर्फ विकास और कल्याण के कामों में तेजी आएगी,बल्कि ओल्ड पेंशन योजना जैसी कल्याणकारी योजना भी लागू की जा सकेगी।
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10 अपैल 23
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