सोमवार, 17 अप्रैल 2023

 कानोंकान

सुरेंद्र किशोर

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 लोकतंत्र के लिए सही नहीं चुनाव सुधार में नेताओं की अनिच्छा

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चुनाव आयोग ने हाल में राजनीतिक दलों के समक्ष ‘रिमोट वोटिंग मशीन’ के इस्तेमाल का प्रस्ताव रखा था।

यदि यह प्रस्ताव मान लिया गया होता तो उसके जरिए वैसे मतदाता गण भी चुनाव में मतदान कर पाते जो अपने गृह राज्य से बाहर रह रहे हैं।

पर,राजनीतिक दलों ने उस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।

याद रहे कि इस देश की मतदाता सूचियों में नाम रहने के बावजूद करीब 30 करोड़ मतदाता मतदान नहीं कर पाते।

क्योंकि वे अपने घरों से दूर रहते हैं।

उनमंे से कुछ तो पोस्टल बैलेट के जरिए मतदान करते हैं,पर सारे मतदाता नहीं।

  यह पहली घटना नहीं है जब चुनाव सुधार का विरोध हुआ है।

नब्बे के दशक में तत्कालीन चुनाव आयुक्त टी.एन.शेषन ने मतदाता पहचान पत्र का प्रस्ताव किया तो भी कई राजनीतिक दलों ने उसका सख्त विरोध किया।पर,जब शेषन ने यह धमकी दी कि हम पहचान पत्र के बिना चुनाव की तारीख घोषित ही नहीं करेंगे तब मजबूरी में राजनीतिक दल मान गए।

 सन 2002 में चुनाव आयोग ने प्रस्ताव किया कि उम्मीदवार अपने शैक्षणिक योग्यता ,संपत्ति और आपराधिक रिकाॅर्ड का विवरण नामांकन पत्र के साथ ही दे दें।तत्कालीन केंद्र सरकार ने उसका कड़ा विरोध कर दिया।पर,सुप्रीम कोर्ट ने कड़ा आदेश देकर उसे लागू करवा दिया।

  दशकों से यह मांग हो रही है कि लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक ही साथ हों।

सन 1967 तक दोनों चुनाव एक साथ ही होते थे।

पर,राजनीतिक दल उसके लिए तैयार नहीं हो रहे हैं।

उम्मीदवार एक से अधिक सीटों से चुनाव नहीं लड़ें,यह व्यवस्था भी होनी चाहिए।पर,नहीं हो रही है।

इस तरह के अन्य अनेक चुनाव सुधारों को अधिकतर राजनीतिक दलों ने रोक रखा है।इसे लोकतंत्र के स्वस्थ विकास के लिए शुभ नहीं माना जा रहा है।

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रिमोट वोटिंग मशीन की सुविधा

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हाल में यह खबर भी आई थी कि 80 साल या उससे अधिक उम्र के मतदाताओं के लिए उनके घरों से ही मतदान करने की सुविधा प्रदान की जा सकती है।

यह सुविधा वैसे बुजुर्ग मतदाताओं को दी जानी थी जो स्वास्थ्य या अधिक उम्र के कारण मतदान केंद्रों पर जाने की स्थिति में नहीं हैं।

पता नहीं, इस प्रस्ताव का क्या हुआ।

आम तौर से आज की राजनीति ऐसे नए विचारों के पक्ष में नहीं है।

इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं होगा यदि राजनीतिक दल इस प्रस्ताव को भी नामंजूर कर दें।

  दरअसल कई राजनीतिक दल वैसे किसी भी प्रस्ताव का विरोध कर देते हैं जिससे मतदान का प्रतिशत बढ़े।

मतदान का प्रतिशत बढ़ने से चुनावों में किसी भी ‘‘वोट बैंक’’की भूमिका निर्णायक नहीं रह पाती।

इसीलिए अनिवार्य मतदान के प्रस्ताव का अब तक अधिकतर राजनीतिक दलों ने विरोध किया है। एक बार यह प्रस्ताव आया था कि जो व्यक्ति लगातार तीन चुनावों में मतदान न करंे,उन्हें कुछ सरकारी सुविधाओं से वंचित कर दिया जाए।

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खालिस्तानियों की अदूरदर्शिता

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खालिस्तानी इन दिनों पंजाब को अलग देश बनाने की मांग कर रहे हैं।इसके लिए वे देश-विदेश में तोड़फोड़ और हिंसा भी कर रहे हैं।

सन 1962 से पहले मद्रास राज्य की पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम में ऐसी ही अलगाववादी प्रवृति विकसित हुई थी।

पर,जब सन 1962 में चीन ने हमला करके भारत के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया तो डी.एम.के. के विचार बदले।

अन्ना दुरै के नेतृत्व वाले डी.एम.के.ने यह महसूस किया कि भारत संघ का हिस्सा रहने पर ही हमारी धरती की ओर कोई विदेशी आंखें नहीं उठा पाएगा।

   लेकिन खालिस्तानियों को यह बात समझ में नहीं आ रही है।जबकि पंजाब सीमावर्ती प्रदेश है और पाकिस्तान के अतिवादी तत्वों की बुरी नजरें भारत पर हैं।

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भूली-बिसरी यादें

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सन 1962 में चीन से पराजय के बाद ले.ज.बी.एम.कौल ने एक किताब लिखी थी जिसका नाम था-‘‘द अनटोल्ड स्टोरी’’।

उसमें दिवंगत कौल ने लिखा कि ‘‘प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू और रक्षा मंत्री वी.के.कृष्ण मेनन को बार-बार चीनी हमले की चेतावनी दी गयी थी।

उनसे आग्रह किया गया था कि वे हिन्दुस्तानी फौजों को नये और आधुनिक हथियारों से लैस करें।

मगर दोनों ही नेताओं ने इस पर ध्यान नहीं दिया।

जनरल कौल ने यह भी लिखा कि मंत्रिमंडल की आपसी फूट का भयंकर असर फौजों पर पड़ा।

वित मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय दोनों एक दूसरे को फूटी आखें नहीं देखते थे।

इसका नतीजा हुआ कि प्रतिरक्षा उत्पादन के प्रयत्नों में शिथिलता आई।रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन और वित मंत्री मोरारजी देसाई थे।याद रहे कि जनरल कौल ने पुस्तक की पांडुलिपि पर छपने से पहले रक्षा मंत्रालय से स्वीकृत करा ली थी।  

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और अंत में

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अतीक अहमद जैसे तत्व आपराधिक न्याय व्यवस्था की विफलता के कारण पैदा होकर फलते-फूलते हैं।

राजनीति और सत्ता उन्हें संपोषित करती है।अधिकतर राजनीतिक दल कई बार उनकी रोबिनहुड छवि का चुनावी लाभ उठाते हैं।

अतीक अहमद पर लगभग एक सौ आपराधिक मुकदमे लंबित थे।

यदि पहले के दो-तीन मुकदमों में ही अतीक को सबक सिखाने लायक सजा मिल गई होती तो लघु अतीक विकराल रूप ग्रहण नहीं करता।

अतीक तो एक प्रतीक है।देश में ऐसे अनेक छोटे-बड़े ‘अतीक’ फल-फूल रहे हैं।

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कानोंकान

प्रभात खबर

बिहार के संस्करण

17 अप्रैल 23


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