बुधवार, 23 दिसंबर 2009

दूरगामी परिणामों वाला एक कदम

गुजरात विधानसभा ने स्थानीय निकायों के चुनाव में मतदान को अनिवार्य बनाने वाला विधेयक पास कर दिया। यह एक ऐसा कदम है जिसे देर सवेर सभी चुनावों में लागू कर दिया जाए तो उसका दूरगामी राजनीतिक परिणाम हो सकता है। जातीय व सांप्रदायिक वोट बैंक की बुराई को कम करने के लिए ऐसी मांग पिछले कई वर्षों से की जाती रही है। पर गुजरात की नरेंद्र मोदी सरकार ने स्थानीय निकायों से इसकी शुरुआत कर दी।

इस विधेयक में यह व्यवस्था जरूर रखी गई है कि यदि कोई मतदाता अपनी अनुपस्थिति का कोई उचित कारण बता देता है तो उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होगी अन्यथा उसे अयोग्य मतदाता घोषित कर दिया जाएगा। संविधान निर्माताओं ने जब आजादी के बाद प्रत्येक बालिग नागरिक को मत देने का अधिकार दिया, तो उनसे यह उम्मीद की गई थी कि वे उस अधिकार समुचित उपयोग करके देश व प्रदशों के लिए जनसेवी सरकार बनवाएंगे। पर कई कारणों से ऐसा नहीं हो सका। उल्टे मतदाताओं की संख्या कम होने के कारण इस देश की राजनीति में कई तरह की बुराइयां पैदा होने लगीं।

कई साल पहले पटना जिले के एक विधानसभा क्षेत्र में एक बाहुबली सिर्फ इसलिए चुनाव जीत गया क्योंकि अधिकतर मतदाता मतदान के दिन अपने घरों में ही रहे। उस बाहुबली ने दो सौ मतदान केदं्रों में सिर्फ 30 मतदान केंद्रों पर कब्जा करवा कर जीत हासिल कर ली। उन दिनों मतदान केंद्रों पर कब्जा आम बात थी। यदि उस क्षेत्र के सारे नहीं तो कम से कम अधिकतर मतदाताओं ने मतदान में भाग लिया होता तो ऐसा रिजल्ट कतई नहीं होता।

पर कम मतदान का लाभ कई राजनीतिक दलों ने उठाकर इस देश की राजनीति का कचड़ा कर रखा है। पिछले दसियों साल का चुनावी अनुभव यह बताता है कि किसी दल या दलीय समूह को केंद्र की सत्ता पर कब्जा कर लेना हो तो उसे सिर्फ तीन या चार समुदाय या जाति समूहों का वोट बैंक बनाना होगा। यदि किसी प्रदेश की सत्ता हासिल करनी हो, तब तो किसी दो मजबूत समूहों से ही काम चल जाएगा।

कई मामलों में होता यह रहा है कि इस रीति से सत्ता में आया दल या नेता सिर्फ अपने समुदाय या जाति की थोड़ा बहुत जरूरतों को पूरी करता है और बाकी जनता को अपने हाल पर छोड़ देता है। इसके बावजूद उसे चुनावी जीत मिलती जाती है। क्योंकि उसके पास एक ठोस वोट बैंक जो है।

इस देश में किसी समुदाय या जाति की आबादी पूरी आबादी के 10 -15 प्रतिशत से अधिक नहीं है। यदि सौ या नब्बे प्रतिशत मतदाता मतदान केंद्रों पर जाने लगें तो फिर इन जातीय वोट बैंकों की करामात लगभग समाप्त हो जाएगी। जब वोट बैंक के कारण किसी दल या नेता के पास चुनावी निश्चिंतता नहीं रहेगी तो उसे आम जनता के लिए ईमानदारी व मेहनत से काम करना पड़ेगा, तभी वह कोई चुनाव जीत पाएगा।

अब तक के अनेक चुनावों में इस देश में जातीय व सांप्रदायिक भावनाएं भड़का कर ऐसे ऐसे नेता, दल और दलीय समूह सत्ता में आते रहे हैं,जिन्हें शाय तब सत्ता नहीं मिलती जब 90 से सौ प्रतिशत लोग मतदान करते।

ऐसा नहीं होना चाहिए कि चूंकि एक विवादास्पद मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐसा विधेयक पास कराया है तो उस विधेयक पर खराब विधेयक करार दे दिया जाए। ऐसे दूरगामी परिणाम वाले कदम पर देश में ंखुले दिलो दिमाग से विचार होना चाहिए और उसे लोकसभा व विधानसभाओं के चुनावों में भी लागू करने का प्रयास होना चाहिए।इससे यह भी होगा कि उन गरीबों को भी मत देने का अवसर मिलेगा जिन लोगों को ऐसा अवसर कम ही मिलता है। चूंकि देश के 84 करोड़ लोगों की रोज की औसत आय मात्र बीस रुपये रोजाना है, इसलिए उनके बीच के मतदाता अपने लिए सही उम्मीदवारों को ही चुनेंगे, ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए।

(साभार दैनिक जागरण:पटना संस्करण: 22 दिसंबर 09)

कांग्रेसी राज में ही क्यों बढ़ती है बेतहासा महंगाई ?

सन 1999 में गेहंू साढ़े सात रुपये प्रति किलो ग्राम की दर से बिक रहा था। सन 2004 में उसकी कीमत बढ़कर आठ रुपये प्रति किलो हो गई। आज लोग साढ़े 17 रुपये किलो गेहूं खरीदने को विवश हो रहे हैं।
साधारण चावल का दाम 1999 में साढ़े आठ रुपये किलो था। 2004 में बढ़कर दस रुपये किलो हो गया। अब कम से कम सोलह रुपये किलो चावल बिक रहा है। विभिन्न स्थानों में इनकी कीमतों में थोड़ी कमी -बेशी स्वाभाविक है। जिंसों के प्रकार के अनुसार भी दामों में कमी -बेशी स्वाभाविक है। इस विश्लेषण की मूल बात अभूतपूर्व मूल्य वद्धि की चर्चा है। मूंग दाल की हालत और भी खराब है। इस साल करीब सौ रुपये किलो बिकी। जबकि 1999 से 2004 तक इसकी कीमत 24 रुपये किलो पर स्थिर थी। चीनी और सरसों तेल की कीमतों में तो हाल के वर्षांे में अपेक्षा कत और भी अधिक बढ़ोतरी हुई है।

उपर्युक्त विवरण एनडीए के किसी आरोप पत्र से नहीं लिया गया है बल्कि दैनिक अखबारों के आर्थिक पन्नों से उतारा गया है।

आज जानकार लोग बता रहे हैं कि खाने पीने वाली सामग्री की कीमत मात्र गत एक साल में करीब 20 प्रतिशत बढ़ गई है। चीनी की कीमत तो एक साल पहले 18 रुपये प्रति किलो थी। इस साल क्यों वह 40 रुपये किलो बिकी ? जबकि किसानों को गन्ने के अलाभकर मूल्य निर्धारण के खिलाफ संसद भवन को घेरना पड़ा। क्यों गन्ने का समर्थन मूल्य तो दस साल में मात्र दुगुना किया जाता है, पर चीनी की कीमत मात्र एक साल में दुगुनी हो जाती है ? अन्य उपभोक्ता सामग्री का भी कमोवेश यही हाल है? आखिर इसमें केंद्र व राज्य सरकारों की कोई भूमिका रह भी गई है या नहीं ? या फिर आम निरीह जनता का खून चूसने के लिए विभिन्न सरकारोंने मुनाफाखार भेड़ियों को खुला छोड़ दिया है ? साफ -साफ लग रहा है कि केंद्र सरकार ने इस अभूतपूर्व महंगाई की समस्या के सामने न सिर्फ घुटने टेक दिये हैं, बल्कि संबंधित मंत्री शरद पवार ने यह कह कर मुनाफाखोरों व जमाखोरों का हौसला बढ़ा दिया है कि अगले तीन महीने तक महंगाई पर काबू नहीं पाया जा सकता है। इससे पहले कभी किसी सरकार को इतना निरीह नहीं पाया गया था। यह निरीहता है या मुनाफाखारों से सांठसांठ ?

अब तो केंद्रीय मंत्री महंगाई के लिए राज्यों को दोषी ठहरा कर अपनी राजनीतिक रोटी भी सेंक रहे हैं।

उधर विभिन्न राज्य सरकारों में व्याप्त भीषण भ्रष्टाचार के कारण सार्वजनिक जन वितरण प्रणलियां करीब करीब फेल कर गई हैं। इस विफलता ने मुनाफाखोरों व जमाखोरों की बांछें खिला दी हैं। केंद्र सरकार के अन्न भंडार भरे हुए हैं। पर उन्हें बाजारों में नहीं उतारा जा रहा है। ऐसा मुनाफाखोरों के हित को ध्यान में रख कर किया जा रहा है ? यानी जाहिरा तौर पर महंगाई के लिए केंद्र व राज्य दोनों सरकारें जिम्मेदार हैं। यह बात और है कि केंद्र सरकार अपेक्षाकत काफी अधिक जिम्मेदार है। क्योंकि उसने महंगाई बढ़ाने के लिए कुछ और कुकत्य किए हैं। विभिन्न राजनीतिक दल इसको लेकर एक दूसरे पर आरोप भले लगाएं, पर आम जनता सब कुछ जान रही है। इस पर इस गरीब देश में चर्चाएं जारी हैं। यदि सिर्फ गैर यू।पी.ए. राज्य सरकारें ही जिम्मेदार होतीं तो दिल्ली में महंगाई अन्य राज्यों की अपेक्षा कम होती क्योंकि यहां तो दोनों सरकारें एक ही दल की हैं।

यह भी कहा जा रहा है कि भीषण महंगाई के बावजूद जब कोई सत्ताधारी दल चुनाव जीतता ही चला जाए तो उसे इस पर काबू पाने की भला कौन सी मजबूरी रहेगी ? प्रतिपक्षी पार्टियां भी आधे मन से ही इसके खिलाफ आवाज उठा रही हंै। क्योंकि थोड़े बहुत उसके भी तो निहित स्वार्थ हैं ही। मर तो गरीब रहा है। लगता है कि राजनीतिक दलों का गरीबों से संबंध सिर्फ वोट का रहा गया है, भावना व सेवा गायब है। राजनीति में सांप्रदायिक, पारिवारिक व जातीय भावना जरूर मजबूती से उपस्थित है। अब तो इस देश के परंपरागत कम्युनिस्ट दलों को भी फाइव स्टार होटलों में अपने सम्मेलन करने और फाइव स्टार जीवन जीने में कोई शर्म नहीं आ रही है। कुछ अपवादों की बात और है। नई आर्थिक नीतियां आने के बाद बाजार की ताकतों को अर्थ व्यवस्था की बागडोर थमा दी गई है।

अर्थशास्त्री कमल नयन काबरा ने ठीक ही कहा है कि ‘आयात-निर्यात की मात्रा और कीमतों की अनिश्चितता तथा कीमत नियंत्रण के लिए आयात का जिम्मा मुनाफाखोर तबकों को देना, महंगाई को न्योतना है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली की खामियों का कोई इलाज नहीं किया जाता है। नेताओं, पार्टियों और व्यवसायियों के गहराते निजी रिश्ते के परिप्रेक्ष्य में जनपक्षीय मूल्य नीति की उम्मीद करना बेमानी है।’

आज दिल्ली में किसी बहुमंजिली इमारत में तैनात जो गार्ड महीने भर काम करने के बाद मात्र 47 सौ रुपये पाता है, वह खुद क्या खाएगा और क्या गांव में अपने परिवार को भेजेगा ? वैसे भी इस देश के कितने लोगों को इतने पैसे भी हर महीने मिल पाते हैं ? इस देश के गरीबों के बारे में अर्थशास्त्री अर्जुन सेनगुप्त बताते हैं कि ‘84 करोड़ लोगों की रोजाना औसत आय मात्र बीस रुपये है।’ एक अन्य उदाहरण यहां पेश है। पी।एफ. से जुडी पेंशन राशि तो पांच सौ से हजार -डेढ़ हजार रुपये तक ही है। इस पंेशन राशि में भी किसी तरह की सालाना बढ़ोतरी का कानूनी प्रावधान तक नहीं है। ऐसे दरिद्र लोगों के लिए महंगाई का क्या मतलब है, यह बात अतुल्य भारत का सपना दिखाने वाले लोग नहीं समझ पा रहे हैं।

दूसरी ओर सरकार द्वारा इस देश में ऐसी अर्थ व्यवस्था जरूर बना दी गई है ताकि करोड़पतियों व अरबपतियों की संपत्ति सचिन तेंदुलकर की रन संख्या के अनुपात से भी अधिक बढ़ती जाए। ताजा आंकड़ों के अनुसार इस देश के अरबपतियों की संख्या मात्र गत एक साल में 27 से बढ़कर 54 हो गई है। एक सौ अमीरों के पास इस देश की 25 प्रतिशत संपत्ति है। जबकि संविधान के नीति निदेशक तत्व चैप्टर के अनुच्छेद 39/ग/में यह कहा गया है कि ‘राज्य ऐसी व्यवस्था करेगा ताकि उत्पादन के साधनों का अहितकारी संकेंद्रण नहीं हो।’

आर्थिक विशेषज्ञ, अखबारों व टी।वी.के टाॅक शो में यह बताते रहते हैं कि महंगाई बढ़ने के लिए किस तरह केंद्र सरकार अधिक और राज्य सरकारें कम जिम्मेदार रही हैं। उधर लोकसभा में महंगाई पर चर्चा होती है तो उस समय सदन में एक सौ सांसद भी उपस्थित नहीं रहते। आखिर उसकी उन्हें जरूरत ही कहां है ? उन्हें तो महंगाई छू भी नहीं गई है। सदन की बैठक के आखिरी दिन बिना बहस के संसद मत्रियों व सांसदों के वेतन भत्ते आये दिन सर्वसम्मति से बढ़ाती रहती है।ं 543 में से 316 सांसद करोड़पति हैं। उन्हें संसद की कैटीन में देश में सबसे सस्ता व स्तरीय खाना उपलब्ध ही है। वे क्यों महंगाई से तनिक भी दुःखी होंगे ?

ऐसा नहीं है कि इस मामले में गैर कांग्रेसी सरकारें व पार्टियां दूध की धुली हुई हैं। आम भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के मामले में उनका रिकाॅर्ड भी लगभग कांग्रेस जैसा ही है। अब तो लगता है कि नेताओं के लिए भ्रष्टाचार कोई मुददा रहा ही नहीं। पर मुनाफाखोरों के प्रति कांग्रेस अपेक्षाकत अधिक उदार रही है। सरसों तेल की कीमत 1972 में 3 रुपये 95 पैसे प्रति लीटर थी। सन 1979 में वह घट कर 3 रुपये 50 पैसे हो गई। तब जनता पार्टी की सरकार केंद्र में थी। अन्य सामग्री की कीमतों का भी कमोवेश यही हाल था। पर सन 1980 में जब कांग्रेस सत्ता में वापस आ गई तो सरसों तेल की कीमत 1981 में बढ़कर साढ़े छह रुपये प्रति लीटर हो गई। मूंग दाल की कीमत सन 1972 में ढाई रुपये और 79 में सवा तीन रुपये थी, पर 81 में साढ़े छह रुपये हो गई। याद रहे कि यहां जो कीमतें दी जा रही हैं, उनमें से कई मद थोक कीमतों के हैं तो कुछ खुदरा के।कई साल के अखबारों की फाइलें देखने से यह लगता है कि 1999 से 2004 तक जिस रफतार से कीमतें बढ़ीं, उसकी अपेक्षा काफी अधिक गति से 2004 और 2009 के बीच में बढ़ी। मौजूदा केंद्र सरकार को इसका वाजिब जवाब देना चाहिए। क्या उसके पास जवाब है भी ? यदि नहीं है तो वह यह बात भी अच्छी तरह समझ ले कि इस मूल्य वद्धि की सर्वाधिक मार देश की 84 करोड़ आबादी पर पड़ रही है। माओवादियांे के खिलाफ किसी तरह के आपरेशन का कोई नतीजा सामने नहीं आएगा, यदि मूल्य वद्धि इसी तरह होती रहेगी।

मूल्य वद्धि की रफ्तार
(दर प्रति किलो रुपये में)

1947 --1972---1979 - 1981---1999--2004--2009
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गेहूं - 0.30 --1.25---1.80--- 2.20---7.50--8.00--17.50
मूंग दाल- 0.25 --2.50 --3.25 ---6.50-- 24.00--24.00--95.00
सरसों तेल-1.75--5.50---9.00----16.00- अनुपब्ध-33.00--91.00
चीनी--- 0.72 -3.95--3.50---- 6.50 -- 15.00--16.65--40.00
( इनमें से कुछ जिंसों का भाव थोक का है और कुछ का खुदरा का।)
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इन आंकड़ों को देखने से यह साफ है कि किसके शासन काल में कीमतों के बढ़ने का अनुपात अधिक था और किसके शासन काल में कम।शरद पवार से पहले शायद ही किसी कषि मंत्री ने यह आधिकारिक घोषणा की थी कि अगले तीन महीने तक कीमतें बढ़ेंगी ही।इससे पहले संबंधित मंत्री यह कहते थे कि सरकार कीमतों पर काबू पाने की कोशिश व उपाय कर रही है।दोनों बयानों के मतलब व संदेश जाहिर है कि मुनाफाखारों के लिए अलग अलग हैं। भला लगातार चुनाव जीतते जाने वाले नेता क्यों इसकी चिता करंेगे कि उनके बयानों का क्या अर्थ लगेगा !

(साभार प्रभात खबर: 22 दिसंबर 2009)

शनिवार, 7 नवंबर 2009

एक ऋषितुल्य संपादक की विदाई

यदि कोई संपादक अपने किसी मामूली संवाददाता के लेखन की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए भी अपनी खुद की नौकरी दांव पर लगा दे तो उसे आप क्या कहेंगे ? यदि वही संपादक अपने पुत्र के कैरियर को नुकसान पहुंचा कर भी अपने सहकर्मी पत्रकार की स्वतंत्रता की रक्षा करे तो आप क्या कहेंगे ?

आपको जो कहना है, वह कह लें, पर मैं तो कहूंगा कि वह यशस्वी संपादक प्रभाष जोशी एक पत्रकार और किसी प्राचीनकालीन ऋषि के बीच के प्राणी थे। गत 26 साल के उनसे संपर्क का मेरा तो यही अनुभव है। उपर्युक्त दोनों घटनाओं का मैं खुद पात्र रहा हूं। ऐसा अनुभव संभवतः मेरा अकेला का नहीं रहा होगा। इस देश में अनेक लोग हैं जो प्रभाष जी से खुद को सर्वाधिक करीबी मानते रहे क्योंकि प्रभाष जी ने उन्हें कुछ न कुछ दिया ही है जिस तरह उन्होंने अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में भी मुझे लिखने की स्वतंत्रता दी।

मैं सन् 1983 से सन् 2001 तक जनसत्ता का पटना संवाददाता रहा। इन 18 वर्षों में से करीब 12 साल की कालावधि में मुझे प्रभाष जी के संपादकीय व प्रशासनिक नेतृत्व में काम करने का अवसर मिला। बाद के संपादक क्रमशः राहुल देव, अच्युतानंद मिश्र और ओम थानवी का व्यवहार भी मेरे साथ जनसत्ता की परंपरा के अनुकूल ही था जिस परंपरा की नींव प्रभाष जी ने डाली थी। पर प्रभाष जोशी के संपादकत्व का काल भारी राजनीतिक उथल-पुथल का काल था। ऐसा काल जिसमें संपादकों व संवाददाताओं की पहचान हो जाती है। जनसत्ता व उसके यशस्वी संपादक उस झंझावात में खरा उतरे।

मेरा व्यक्तिगत अनुभव यह रहा कि ‘जनसत्ता’ अपने शुरुआती काल से ही न तो किसी राजनीति व प्रशासनिक ताकत के दबाव में आया और न ही सरकारी विज्ञापन के मायामोह में फंसा। एक्सप्रेस समूह के मालिक राम नाथ गोयनका की परंपरा का यह असर था। एक्सप्रेस समूह द्वारा जनसत्ता का जब प्रकाशन शुरू हुआ, उस समय बिहार के मुख्यमंत्री पद पर बैठे थे चंद्र शेखर सिंह। वे खुद तो ठीकठाक व्यक्ति थे। कायदे से काम करने में विश्वास करते थे, पर उनकी सरकार भ्रष्ट थी। जनसत्ता का कर्तव्य था कि उनकी सरकार के बारे में पाठकों तक खबरें पहुंचाई जाएं। चंद्र शेखर सिंह खबरों के प्रति काफी संवेदनशील नेता थे।

चूंकि जनसत्ता दिल्ली से निकलता है और कांग्रेस हाईकमान दिल्ली में बसता है, इसलिए किसी कांग्रेसी मुख्यमंत्री के लिए दिल्ली के अखबार में छपने वाली खबर का काफी महत्व होता है। वैेसे भी चंद्रशेखर सिंह के खिलाफ कांग्रेस का विक्षुब्ध गुट काफी सक्रिय था और वह हाईकमान को उकसाता रहता था।

जनसत्ता में उनके तथा उनकी सरकार के बारे में छप रही खबरों से मुख्यमंत्री परेशान रहा करते थे। स्टेटसमैन के पटना स्थित तत्कालीन संवाददाता और मेरे मित्र मोहन सहाय, चंद्र शेखर सिंह की शालीनता व उनके काम काज के तरीके के प्रशंसक थे। वे मुझसे अक्सर यह कहा करते थे कि ‘आप एक अच्छे मुख्यमंत्री के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं। आपकी खबर पढ़कर एक बार चंद्र शेखर सिंह की आंखों में दुःख के आंसू मेैंने देखे थे।’ मेरी गलती कहिए या सही, मैं चंद्रशेखरसिंह से मिलता नहीं था। मुझे डर था कि सत्ताधारी नेताओं से मेलजोल बढ़ाने से कहीं मेरे मन में उनके प्रति मोह पैदा न हो जाए और मैं अपने कर्तव्य से डिग न जाऊं। हार कर मुख्यमंत्री ने जन संपर्क विभाग के एक अफसर को प्रभाष जोशी से मिलने के लिए दिल्ली भेजा। उस अफसर के हाथ में एक पेज का सरकारी विज्ञापन भी था।

उस अफसर की प्रभाष जोशी से क्या बातचीत हुई, उसका विवरण बाद में मेरे एक सहयोगी ने बताया। अफसर ने जोशी जी से कहा कि आपके संवाददाता मुख्यमंत्री से नहीं मिलते और एकतरफा लेखन करते हैं।

जोशी जी ने उनसे कहा कि एकतरफा लेखन करते होंगे, पर क्या वे गलत भी लिखते हैं ? अफसर ने कहा कि गलत तो नहीं लिखते, पर पुरानी -पुरानी बातें लिखते हैं। जोशी जी ने कहा कि जिस पार्टी की प्रधानमंत्री यह कहती हंै कि एनटी रामा राव सरकार की बर्खास्तगी की खबर मैंेने टेलीप्रिंटर पर पढ़ी, उस दल के मुख्यमंत्री का बचाव करने आप आए हैं ? यह सुन कर बेचारे अफसर अपने एक पेजी विज्ञापन को समेटते हुए जोशी जी के कमरे से निकल गये।

चंद्र शेखर सिंह के कार्यकाल के बाद बिंदेश्वरी दुबे मुख्य मंत्री बने। वे स्थितप्रज्ञ व्यक्ति थे और अखबारों को अधिक महत्व नहीं देते थे। उन्हें जनसत्ता की परवाह करने की जरूरत भी नहीं थी क्योंकि कांग्रेस हाईकमान पर उनका असर अधिक था। पर भागवत झा आजाद का मुख्य मंत्रित्वकाल कई मामलों में तूफानी काल रहा। जनसत्ता ने भागवत झा आजाद के समय में एक सर्वेक्षण आयोजित किया था। कुछ चुनाव क्षेत्रों को नमूना बना कर हजारों लोगों से यह पूछा गया था कि आप किस नेता को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं। बिहार के सर्वेक्षण का भार जाहिर है कि मुझ पर था। उस सर्वेक्षण में बिहार के करीब 75 प्रतिशत लोगों ने यह कहा था कि वे अगले चुनाव के बाद भी भागवत झा आजाद को ही मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहेंगे। जनसत्ता ने इस विवरण को भी छापा था।

कहा गया कि कांग्रेस चूंकि किसी मुख्यमंत्री को किसी राज्य में लोकप्रिय होना देखना नहीं चाहती, इसलिए आजाद जी को हटा दिया गया। आजाद ने कई चैंकाने वाले काम करके बिहार के निहितस्वार्थियों के हितों पर चोट पहुंचाई थी। इससे आम जनता आजाद से खुश थी, पर कांग्रेस के अनेक नेता उनसे नाराज थे। भागवत झा आजाद के खिलाफ नाराजगी को बल इसलिए भी मिलता था क्योंकि मुख्यमंत्री बनने के बाद वे अपने वैसे कुछ खास समर्थकों के प्रति भी नरम थे जो गलत कामों मंें संलग्न थे। भागलपुर के पापड़ी बोस अपहरण कांड के अभियुक्त के प्रति नरमी दिखाने का आजाद जी पर आरोप था। ऐसे में जनसत्ता जैसे अखबार से वे कैसे बच सकते थे! क्योंकि यह आजाद साहब को दोहरा मापदंड था। ऐसा नहीं था कि आजाद साहब के कुछ अच्छे कामों की तारीफ में जनसत्ता के पटना संवाददाता ने नहीं लिखा था।

पर अधिकतर सत्ताधारी नेता तो यही चाहते हंै कि अखबार उनके अच्छे कामों की तारीफ में तो लिखे ही, पर साथ ही उनके गलत कामों को नजरअंदाज भी करता जाए। नेता जब सत्ता में होता है तो वह जनसंपर्क विभाग के प्रकाशन और किसी पेशेवर अखबार के बीच फर्क नहीं कर पाता। वह यह भी समझने लगता है कि पत्रकार या तो मेरा दोस्त हो सकता है या फिर दुश्मन। बीच की कोई स्थिति वह स्वीकार ही नहीं कर पाता। यही हुआ और भागवत झा आजाद जनसत्ता पर नाराज हो गये। दिल्ली के एक चर्चित पत्रकार के घर पर प्रभाष जोशी से आजाद साहब की भेंट हुई। उन्होंने जोशी जी से मेरी शिकायत की। आजाद साहब को उम्मीद थी कि जोशी जी वहीं से फोन उठाएंगे और सुरेंद्र किशोर को कहेंगे कि तुम क्यों आजाद साहब के खिलाफ लिख रहे हो ? पर जोशी जी ने ऐसा कुछ नहीं किया। उन्होंने आजाद साहब से कह दिया कि ‘यह बात तो वहीं हो सकती है जहां सुरेंद्र किशोर भी रहें।’

जोशी जी ने यह बात इस बात के बावजूद कही कि कीर्ति आजाद दिल्ली क्रिकेट क्लब के अध्यक्ष थे और जोशी जी के पुत्र वहां खेलने जाते थे। यानी उनके पुत्र का कैरियर कीर्ति आजाद के रुख पर निर्भर करता था।

कई महीने बाद जब हमारे सहकर्मी कुमार आनंद पटना आए तो उन्होंने आजाद जी से जोशी की मुलाकात का यह प्रकरण मुझे सुनाया। मैंने समझा कि शायद संकोचवश जोशी जी मुझे कोई निदेश नहीं दे रहे हैं। इसलिए मुझे ही पहल करके उनसे पूछना चाहिए कि अपने लेखन में भागवत झा आजाद के प्रति कैसा रुख अपनाऊं। मैंने जोशी जी को फोन किया और पूछा कि मुझे क्या करना चाहिए। प्रभाष जी ने छूटते ही कहा कि ‘यह तो आपको खुद तय करना है। आप स्थल पर हैं। आपको तय करना है कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। आई कान्ट लेट डाउन माइ्र्र रिपोर्टर फाॅर माई फ्रंेड।’

उन्होंने बड़ी आसानी से यह बात कह दी, पर इसका कुपरिणाम हुआ उनके पुत्र के क्रिकेट कैरियर पर जिसे कीर्ति आजाद ने आगे नहीं बढ़ाया। कीर्ति आजाद ने राजनीति के लिए पिता धर्म निभाया। पर प्रभाष जोशी ने पत्रकारिता की खातिर पुत्र धर्म नहीं निभाया। क्या किसी अन्य संपादक पिता ने अपने पुत्र के कैरियर को अपने ही हाथों अपने पत्रकारिता धर्म के पालन के लिए नुकसान पहुंचाया होगा ? मुझे तो कोई दूसरा उदाहरण नहीं मालूम।

शायद आम लोग नहीं जानते कि एक संपादक के लिए अपने अच्छे बुरे कामों के लिए अपने किसी संवाददाता को अनुशासित कर लेना कितना आसान है ? कोई संवाददाता, अपने संपादक की इच्छा के विपरीत एक रपट भी नहीं लिख सकता है। पर जोशी जी ने मुझे हर कदम पर लेखन की मेरी स्वतंत्रता की रक्षा की। क्योंकि वे जानते थे कि मेरा सुरंेद्र किशोर गलती कर सकता है, पर बेईमानी नहीं कर सकता।

यही बात जोशी जी ने देवीलाल से हरियाणा भवन में अस्सी के दशक में कही थी जब लालू प्रसाद मेरे खिलाफ देवीलाल को उकसा रहे थे। प्रभाष जोशी ने देवीलाल जी से कहा था कि ‘आपका लालू यादव गलत हो सकता है, पर मेरा सुरेंद्र किशोर गलत नहीं हो सकता है।’ यह तब की बात है जब एक्सप्रेस अखबार समूह राजीव गांधी की सरकार से कठिन संघर्ष कर रहा था। राजीव सरकार पत्रकारिता की स्वतंत्रता के प्रतीक एक्सप्रेस समूह को ही बर्बाद कर देने पर तुली हुई थी। उस कठिन लड़ाई में देवीलाल और आर।के हेडगे जैसे मुख्यमंत्री एक्सप्रेस समूह के बचाव में थे।

इसी पष्ठभूमि में एक दिन प्रभाष जोशी हरियाणा भवन देवीलाल से मिलने गये थे। तभी बिहार विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता लालू प्रसाद भी वहां पहुंच गये। उसी दिन लालू प्रसाद के बारे में जनसत्ता में मेरी एक खबर छपी थी। उस खबर से लालू प्रसाद मुझ पर सख्त नाराज थे। खबर यह थी कि लोकदल विधायक दल के नेता पद से लालू प्रसाद को हटाने के लिए अधिकतर विधायकों ने एक स्मारपत्र पर दस्तखत कर दिया है जिसे लोकदल हाईकमान को सौंपा जाना है। ऐसी खबरंे नेताओं के बारे में छपती रहती हंै। कई मामलों में ऐसी खबर अपुष्ट तथ्यों के आधार पर भी होती है और बाद में गलत साबित होती है। पर कई बार सही भी रहती है। ऐसी किसी खबर को लेकर आम तौर पर कोई नेता किसी अखबार या फिर संवाददाता पर उतना नाराज नहीं होता जितना लालू प्रसाद नाराज थे।

उन्होंने देवीलाल से कहा कि ‘बाबू जी, जोशी जी आपके पास यहां आकर तो बात करते रहते हैं, पर उनके अखबार में मेरे बारे में गलत -सलत खबर छपती रहती हैं। इन्हें रोकिए। अपने खास समर्थक को गुस्से में देखकर देवीलाल भी आपे से बाहर हो गये। उन्होंने भी नहले से दहला मारते हुए कहा कि हां, भाई यह तो हमारे खिलाफ भी लिखता रहता है। जरा मंगाओ इसकी फाइल। एक व्यक्ति ने जनसत्ता की कटिंगें लाकर रख दी। देवीलाल जनसत्ता के गपशप कालम की खबरों से खास तौर से नाराज थे।

उन्होंने अपनी नाराजगी अपने खास हरियाणवी लहजे में जाहिर की। सब जानते हैं कि उनका लहजा कैसा होता था। जोशी जी एक्सप्रेस ग्रूप से देवीलाल की करीबी भी जानते थे। फिर भी उन्होंने जनसत्ता का बचाव करते हुए कहा कि मेरा संबंध आपसे अलग है और जनसत्ता में जो कुछ आपलोगों के बारे में छपता है, उसका इस संबंध से कोई मतलब नहीं है। वह सब गुणदोष के आधार पर छपता है और छपेगा। उसे मैं नहीं रोक सकता। यह सब कह कर जोशी जी हरियाणा भवन से निकल गये।

इस तरह जोशी जी ने अखबार की स्वतंत्रता की रक्षा की। इस बात के बावजूद जोशी जी ने देवीलाल को खुश नहीं किया कि उस समय देवीलाल एक्सप्रेस ग्रूप के बचाव में चट्टान की तरह खड़े थे। इस प्रकरण में एक और आशंका थी। देवीलाल-प्रभाष जोशी संवाद की सूचना मिलने पर रामनाथ गोयनका नाराज भी हो सकते थे। पर उसकी भी परवाह जोशी जी ने नहीं की। हरियाणा भवन के इस संवाद का विवरण बाद में सुनने के बाद जनसत्ता में काम करने का एक बार फिर मुझे गर्व हुआ।

आज मैं पत्रकारिता में जो कुछ भी हूं, उसमें जनसत्ता, एक्सप्रेस समूह और प्रभाष जोशी का सबसे बड़ा योगदान है। ऐसा महसूस करने वाले जनसत्ता के अनेक अन्य स्टाफ भी हैं।

बिहार में लालू प्रसाद और राबड़ी देवी के मुख्यमंत्रित्व काल के दौरान जनसत्ता और उसके संपादक प्रभाष जोशी की एक अन्य तरह की उदारता भी देखने को मिली। ऐसा नहीं कि मैंने लालू प्रसाद के पक्ष में कभी नहीं लिखा। जब तक लालू प्रसाद बिहार के आरक्षणविरोधियों से लड़ते रहे, मैं लगातार उनके पक्ष को पाठकों तक पहुंचाता रहा। मैं आरक्षण समर्थक रहा हूं। पर मुझे लालू समर्थक मान लिया गया। पर जब लालू -राबड़ी सरकार के घोटाले एक-एक करके बाहर आने लगे तो मैंने जनसत्ता में अपनी पुरानी भूमिका निभाई।

दूसरी ओर लालू प्रसाद धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भाजपा और संघ परिवार के खिलाफ कुछ अधिक ही अभियान चलाते रहे हैं। प्रभाष जोशी उनके इस पक्ष के समर्थक रहे हैं। जोशी जी को लगता था कि देश की एकता-अखंडता के लिए भाजपा के खिलाफ देश भर में सक्रिय शक्तियों को उनका समर्थन मिलना चाहिए। पर जनसत्ता का संपादक रहते हुए जोशी जी ने मुझसे कभी नहीं कहा कि तुम लालू प्रसाद के खिलाफ इतना क्यों लिखते हो। कोई संपादक अपने संवाददाता को इतनी स्वतंत्रता देता हो, यह संभवतः जनसत्ता में ही संभव रहा है।

ऐसे अखबार से इस्तीफा देने का निर्णय मेरे लिए दुःखद निर्णय था। दरअसल मैं जनसत्ता में रहता तो 2005 में ही रिटायर हो जाता। तब तक मेरी एक भी पारिवारिक जिम्मेदारी पूरी नहीं हो पाई थी। मैंने मनमसोस कर अजय उपाध्याय का दैनिक हिंदुस्तान ज्वाइन करने का आॅफर स्वीकार कर लिया। यह 2001 की बात है। अजय उपाध्याय तब हिंदुस्तान के प्रधान संपादक थे। मैंने जब हिंदुस्तान ज्वाइन किया तो प्रमोद जोशी ने एक बात कही। उन्होंने कहा कि अरे सुरेंद्र जी, अजय जी ने आप पर कौन सा जादू कर दिया कि जनसत्ता छुड़वाने का जो काम राजेंद्र माथुर आपसे नहीं करा सके, वह काम हमारे संपादक ने कर दिया। उनसे मैं क्या कहता कि मेरी पारिवारिक जिम्मेदारियों ने ही मुझे यहां खींच लाया है। मेरा दिल अब भी जनसत्ता में ही बसता है। राजेंद्र माथुर ने कई बार कोशिश की थी कि मैं नभाटा ज्वाइन करूं। तब प्रमोद जी नभाटा में ही थे। वे इस बात को जानते थे।

आखिर जनसत्ता में ऐसा क्या रहा है कि कोई व्यक्ति कम पैसे में भी उसकी नौकरी स्वीकार करे ? इसका जवाब जनसत्ता व प्रभाष जोशी तथा उसके परिवर्ती संपादकों के व्यक्तित्व में खोजना होगा। हालांकि जनसत्ता और उसके पूरे परिवार का व्यक्तित्व गढ़ने में प्रभाष जोशी का ही तो हाथ रहा है।

(प्रभात खबर: 7 नवंबर 2009: से साभार)

रविवार, 11 अक्टूबर 2009

नेहरू परिवार बनाम शास्त्री परिवार

सरकार के आश्वासन के बावजूद लाल बहादुर शास्त्री की विधवा ललिता शास्त्री को इलाहाबाद में कोई भूखंड नहीं मिल सका। इलाहाबाद में ललिता शास्त्री की एक छोटे घर की आस भी पूरी नहीं हो सकी। यह आस लिए वे 1993 में वे सिधार गईं।
पर दूसरी ओर नेहरू -इंदिरा परिवार के सिर्फ एक सदस्य राहुल गांधी की घोषित संपत्ति की एक हल्की झलक देखिए। उन्होंने गत लोस चुनाव में नामांकन पत्र दाखिल करते समय यह विवरण पेश किया था। याद रहे कि यहां सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी की घोषित संपत्ति का विवरण नहीं दिया जा रहा है न ही मेनका गांधी और वरुण गांधी की संपत्ति अभी यहां बताई जा रही है।
राहुल गांधी की नई दिल्ली के साकेत में एक माॅल मंे दो दुकानें हंै जिनकी कीमत क्रमशः एक करोड़ आठ लाख और 55 लाख 80 हजार रुपये हैं। फरीदाबाद में एक फार्म हाउस है जिसकी कीमत 18 लाख 22 हजार रुपये है। सुलतान गंज और मेहरौली में स्थित संपत्ति की कीमत 9 लाख 86 हजार रुपये है। इंदिरा गांधी फार्म हाउस में भी उनका हिस्सा है।
इसके अलावा भी उनके पास संपत्ति है। बीमा है, बचत है और आभूषण भी है। उनकी संपत्ति की एक झलक इस तथ्य से भी मिलती है कि उन्होंने गत वित्तीय वर्ष में करीब 11 लाख 20 हजार रुपये आयकर दिया। उन्होंने करीब 5 लाख 32 हजार रुपये सेवा कर और और 97,115 रुपये संपत्ति कर के रूप में जमा कराया।
नेहरू परिवार ने आजादी की लड़ाई के दौरान इलाहाबाद का अपना आनंद भवन जरूर कांग्रेस को दे दिया था। शास्त्री जी के पास ऐसा कुछ देने के लिए था ही नहीं। शास्त्री और नेहरू के बीच यह फर्क जरूर रहा। याद रहे कि करीब 62 साल की आजादी के बाद भी इस देश के 84 करोड़ लोगों की रोज की औसत आय मात्र बीस रुपये ही है। गत 62 साल में से कितने साल नेहरू-इंदिरा परिवार ने इस देश पर प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से शासन किया, इसकी गणना आप खुद कर लीजिए। आज यदि माओवादी देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गए हैं तो विशेषज्ञों के अनुसार उसका सबसे बड़ा कारण गरीबी ही है।
दलित और राहुल
कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी इन दिनों दलित बस्तियों में जा रहे हैं। अपने आप में यह कोई गलत काम नहीं है। इस बात की कुछ लोग सराहना कर रहे हैं तो ठीक ही कर रहे हैं।
पर क्या दलितों के लिए इतना ही काफी है ? क्या यह सिर्फ प्रतीकवाद नहीं है ? इससे दलितों को अंततः क्या मिलने वाला है ? उनके जीवन में कितना फर्क आने वाला है ? बेहतर तो यह होता कि राहुल गांधी दलितों के यहां खुद पहंुच जाने से पहले उनके यहां वे सरकारी धन भिजवाने का समुचित प्रबंध करवाते जो धन बिचैलिये खा जाते हैं।
उनके पिता राजीव गांधी ने सन् 1984 में ही कहा था कि दिल्ली से गरीबों के लिए जो सौ पैसे चलते हैं, उनमें से 15 पैसे ही उन तक पहुंच पाते हैं। यानी बाकी के 85 पैसे बिचैलिये ही खा जाते हैं। वे बिचैलिये कौन हैं, यह बात सब जानते हैं। राहुल गांधी भी आज 25 साल बाद यही बात दुहराते फिर रहे हैं। पर सिर्फ कहने से क्या होगा ? ऐसी स्थिति को कौन बदलेगा ? राहुल गांधी चाहें तो इस दिशा में कुछ ठोस कदम उठाए जा सकते हैं जिस तरह उन्होंने बुंदेलखंड के लिए हाल में सफल पहल की है।
राहुल और बुंदेलखंड
बुंदेलखंड की गरीबी से पसीज कर राहुल गांधी ने 28 जुलाई, 2009 को प्रधानमंत्री मनमोेहन सिंह से भेंट की। मनमोहन सिंह पहले ही सार्वजनिक रूप से यह कह चुके हैं कि ‘राहुल गांधी देश के भविष्य हैं।’ फिर क्या था, इस मुलाकात के दो महीने के भीतर ही केंद्र सरकार ने बुंदेलखंड में 4000 मेगावाट के पावर प्लांट लगाने की योजना को मंजूरी दे दी। बुंदेलखंड विकास प्राधिकार का गठन किया जा रहा है और वहां के विकास के लिए हजारों करोड़ रुपये खर्च करने की योजना बन रही है। इस से यह साबित होता है कि राहुल गांधी की केंद्र सरकार पर कितनी अधिक पकड़ है और वे चाहें तो और भी अनेक ऐसे काम हो सकते हैं। पर सवाल है कि क्या राहुल गांधी को देश की मूल समस्या की समझ भी है ? क्या वे अब तक यह बात समझ पाए हैं कि मूल समस्या भीषण सरकारी भ्रष्टाचार ही है ?
याद रहे कि हाल के लोकसभा चुनाव में चुनाव प्रचार के लिए कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी को जो भारी धनराशि भेजी थी, उसमें से तीन करोड़ रुपये का कोई हिसाब ही नहीं मिल रहा है। इस आरोप में राज्य कांग्रेस के कोषाध्यक्ष दीपक गुप्त को उनके पद से हटा दिया गया है। हालांकि वे खुद को निर्दोष बता रहे हैं। इस घोटाले से भी राहुल की आंखें खुलनी चाहिए। अब सवाल है कि जो पैसे बुंदेलखंड के विकास के लिए दिल्ली से जाएंगे, उनमें से कितने पैसे अफसर, ठेकेदार और नेतागण गरीब जनता के लाभ के लिए खर्च होने देंगे ? वे पैसे वास्तव में गरीबों के विकास व कल्याण पर ही खर्च हांे, पहले तो ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए। उसके बाद ही राहुल गांधी या किसी अन्य नेता को दलितों केा अपना मुंह दिखाने उनके घर जाना चाहिए।
भ्रष्टाचार पर गौर करें राहुल
गरीब जनता तक सौ में से 15 पैसे ही इसलिए पहुंच पा रहे हैं क्योंकि पूरे देश में फैली उच्चस्तरीय ब्यूरोक्रेसी का अधिकांश भी अब भ्रष्ट हो चुका है। हिंदी प्रदेशों की हालत इस मामले में और भी खराब है। अधिकतर राजनीतिक कार्यपालिकाएं तो पहले से ही भ्रष्ट हो चुकी हंै। चूंकि बड़े भ्रष्ट सरकारी अफसरों को सजा देने की प्रक्रिया काफी जटिल बना कर रखी गई है, इसलिए उनका अंततः आम तौर पर कुछ नहीं बिगड़ता। इसलिए वे एक कांड में रिश्वत लेते पकड़े जाने के बावजूद जल्दी ही येन केन प्रकारेण कानून की गिरत फ्त से छूट जाते हैं और दुबारा जनता के धन की लूटपाट में कुछ नेताओं से मिलकर वीरप्पन की तरह लग जाते हैं।
यदि ऐसे भ्रष्ट अफसरों के खिलाफ दर्ज भ्रष्टाचार के मामलों की त्वरित अदालतों के जरिए सुनवाई हो और सुनवाई के दौरान उनकी भ्रष्टाचार से कमाई गई भारी निजी संपत्ति त्त को जब्त करने का कानूनी प्रावधान हो जाए तो वे लूट नहीं पाएंगे। और फिर गरीबों, पिछड़ों, दलितों व अन्य जरूरतमंद लोगों के पास सौ में से पंद्रह की जगह 85 पैसे पहुंच सकेंगे। यदि उसके बाद ही राहुल गंांधी दलितों की बस्ती में जाएंगे तो वे उनके चेहरों पर वास्तविक खुशी देखेंगे।
बिहार विधान मंडल ने भ्रष्ट लोक सेवकों की संपत्ति जब्त करने और उनके मामलों की सुनवाई त्वरित अदालतों के जरिए करवाने के लिए एक विधेयक मार्च में ही पास करके राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए केंद्र सरकार को भिजवा दिया है। पर लगता है कि भ्रष्ट लोग उस पर राष्ट्रपति की मंजूरी नहींे लेने दे रहे हैं। बुंदेलखंड की तरह राहुल गांधी अपने प्रभाव का उपयोग करके पहले तो बिहार विधेयक को मंजूरी दिलवाएं और बाद में ऐसा ही कानून पूरे देश के लिए बनवाएं तो दलितों तक पैसे जरूर पहुंच जाएंगे। अन्यथा एक तरफ राहुल दलित की झोपड़ी से निकलेंगे और दूसरी ओर माओवादी उस झोपड़ी में जाकर अपनी जगह बना लेंगे।
भ्रष्टाचार पर उपन्यास
भ्रष्टाचार की समस्या पर रमेश चंद्र सिन्हा का उपन्यास आया है जिसमें कुछ जगबीती है तो कुछ आपबीती हैं। उपन्यास का नाम है ‘अभय कथा।’ जिस समस्या से यह देश व प्रदेश सर्वाधिक पीड़ित रहा है, उस पर कोई उपन्यास आए तो वह स्वागतयोग्य है। अब तो भ्रष्टाचार पर चर्चा भी करने वालों का, भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा प्रभु वर्ग, आज मजाक ही उड़ाता है।
‘अभय कथा’ के लेखक ने आजादी से पहले और उसके बाद के भारतीय समाज में घटित बदलावों का तलस्पर्शी अध्ययन प्रस्तुत किया है। उपन्यास में भ्रष्टाचार के विविध आयामों को गहराई से देखने- परखने की कोशिश की गई है। लेखक पटना विश्वविद्यालय के अंग्रेजी प्रोफेसर रह चुके हैं।
और अंत में
बार -बार इस देश में एक सवाल पूछा जाता है कि चीन कैसे आगे बढ़ गया और हमारा देश क्यों पीछे रह गया ? इसका एकमात्र सही जवाब यही है कि चीन ने सरकारी खजाने के लुटेरों के लिए फांसी का प्रावधान किया और दूसरी ओर हमारे देश में जिस नेता या अफसर ने जितना अधिक सार्वजनिक धन लूटा, वह उतने ही अधिक ऊंचे पद पर पहुंचने के लायक समझा गया।
साभार प्रभात खबर

सोमवार, 5 अक्टूबर 2009

ऐसे विफल कर दी गई एक गांधीवादी की भूमि सुधार योजना

जय प्रकाश नारायण का सपना था कि कोशी क्षेत्र में माॅडल भूमि सुधार कार्यक्रम चलाया जाए। यह सन 1978 की बात है। तब कर्पूरी ठाकुर की सरकार थी। स्वाभाविक ही था कि कर्पूरी ठाकुर इस काम के लिए तत्काल राजी हो जाएं। इस काम के लिए गांधी शांति प्रतिष्ठान से गांधीवादी बी।जी. वर्गीस पटना आये थे।

इस भूमि सुधार कार्यक्रम के तहत भूमि समस्याग्रस्त पूर्णिया जिले के पांच प्रखंडों में भूमि के रिकाॅर्ड को अद्यतन करना था। हदबंदी से फालतू घोषित जमीन का अधिग्रहण व भूमिहीनों में उनका वितरण करना था। साथ ही बटाईदारों के अधिकारों को स्वीकृति दिलानी थी। फिर उन चुने हुए पांच प्रखंडों के सर्वांगीण विकास का काम करना था। इसका नाम दिया गया कोशी क्रांति योजना।

इस महत्वाकांक्षी योजना के लिए जेपी की सलाह पर बिहार सरकार ने तत्काल अलग से एक सरकारी कोषांग का गठन भी कर दिया और उसमें एक उपायुक्त व कई स्तरों के 119 अन्य लोक सेवक तैनात कर दिये गये। पर जैसे ही बनमनखी, भवानीपुर, बरहरा कोठी, धमदाहा और रुपौली में इस काम की शुरुआत करने की प्रक्रिया शुरू हुई कि भूस्वामियों और सामंती प्रवत्ति के लोगों व उनके संरक्षक नेताओं ने तगड़ा विरोध शुरू कर दिया। उस इलाके के सत्ताधारी जनता पार्टी के अनेक दबंग जन प्रतिनिधियों ने कर्पूरी सरकार के खिलाफ हल्ला बोल दिया। पटना में भी गोलबंदी शुरू हो गई। कर्पूरी सरकार के गिरने की नौबत आ गई। कर्पूरी ठाकुर दबाव में आ गए। जेपी मन मसोस कर रह गये। और बी।जी. वर्गीस अपनी आंखों में आंसू लिए दिल्ली लौट गये। कोशी क्रांति योजना निष्क्रिय हो गई।

भूमिपतियों का दबाव इतना बढ़ा कि इस संबंध में वर्गीस ने जो लम्बा लेख लिखा था, उसकी एक ही किस्त एक अखबार में छप सकी। दूसरी किस्त छापने की हिम्मत उस अखबार ने भी नहीं की। इस प्रकरण ने यह बात साबित कर दी कि बिहार में भूमि संबंधों को बदलने का मुद्दा कितना नाजुक है और यह काम कितना कठिन है।

अब उस कोशी क्रांति योजना के बारे में प्रेस ट्रस्ट आॅफ इंडिया द्वारा 2 अप्रैल, 1981 को जारी एक खबर का एक हिस्सा पढ़िए, ‘पूर्णिया, 2 अप्रैल (प्रे)। पूर्णिया जिले के पांच प्रखंडों में तीन वर्ष पूर्व शुरू की गई कोशी क्रांति योजना भूस्वामियों और भूमिहीनों के बीच सीधा टकराव उत्पन्न कर अपने ही भार से दबी जा रही है।

यहां अधिकारियों ने स्वीकार किया कि इस योजना की सफलता की उम्मीद नगण्य है। क्योंकि राजनीतिक संरक्षणप्राप्त कुछ भूस्वामी इस योजना के प्रत्येक स्तर पर अवरोध उत्पन्न कर रहे हैं। स्थानीय नेताओं ने चेतावनी दी है कि यदि भूमि सुधार के काम बंद नहीं किए गए तो परसबिगहा कांड की पुनरावत्ति हो सकती है। याद रहे कि मध्य बिहार के परसबिगहा में एक जमीन विवाद के चलते कई लोगों को उनके घर में बाहर से बंद कर उन्हें जिंदा जला दिया गया था।

प्रेस ट्रस्ट के अनुसार गांधी शांति प्रतिष्ठान के श्री बीजी।वर्गीस की कोशी क्रांति योजना को तत्कालीन जनता पार्टी सरकार ने 1978 में पूर्णिया जिले में माडल भूमि सुधार कार्यक्रम के रूप में शुरू किया था। भूमि सुधार के उपायुक्त के अनुसार दोषपूर्ण भूमि पद्धति और उपज में हिस्सा बंटाने की शोषणात्मक प्रवृत्ति आदि को देखते हुए इस योजना की आवश्यकता महसूस की गई थी। एक अधिकारी के अनुसार दो वर्षों में कार्य का केवल पहला भाग ही पूरा किया जा सका। अधिकारी ने प्रेस ट्रस्ट से बातचीत में यह स्वीकार किया कि इस गति से समस्या के समाधान में एक दशक लग जाएगा। आधिकारिक सूत्रों के अनुसार पूर्णिया जिले में लगभग 10 हजार ऐसे भूस्वामी हैं जिनके पास एक सौ एकड़ से अधिक भूमि है। इस क्षेत्र की भूमि समस्या 50 साल पुरानी है। उस समय यह पूरा क्षेत्र घना जंगल था।’

कोशी क्रांति योजना ही नहीं, बाद के वर्षों में भी जब -जब भूमि सुधार की कोशिश हुई, भूस्वामियों ने तगड़ा विरोध कर दिया। दरअसल रोजगार के अन्य साधन विकसित नहीं होने के कारण भी भूस्वामी अपनी जमीन के प्रति अधिक संवेदनशील हो गए हैं और वे अपनी जमीन पर उनके स्वामित्व के मामले में किसी तरह के हल्के खतरे का भी पूरी जी-जान से विरोध कर देते हैं। आजादी के बाद राज्य का आम विकास हुआ होता तो जमीन मोह कम होता। पर सरकारी भ्रष्टाचार के कारण विकास नहीं हुआ।

इसी तरह 1992 में जब तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने भूमि सुधार खास कर बंटाईदार कानून को सख्त करने की कोशिश की तो उनके ही वोट बैंक के तबके से भी इसका तगड़ा विरोध हो गया। भारी दबाव के बीच तब ही लालू प्रसाद ने कह दिया था कि मैं बर्र के छत्ते में हाथ नहीं डालूंगा। भ्ूमि सुधार के प्रति अपनी 1992 की नीति पर लालू प्रसाद तब तक कायम रहे जबतक वे और राबड़ी देवी सत्ता में थे।

(प्रभात खबर: 2 अक्तूबर, 2009 से साभार)

शनिवार, 26 सितंबर 2009

कैसे बदला तीन ही महीने में मतदाताओं का मूड !

मात्र तीन महीने में ही बिहार की राजनीति में क्या कुछ घट गया कि मतदाताओं का मूड ही बदल गया ? क्यों बिहार विधानसभा के इस सितंबर के उप चुनाव में 18 सीटों में से 13 सीटों पर राजग हार गया ? क्या यह बदला हुआ मूड एक बार फिर बदलेगा या यह मूड अगले साल तक कायम रहेगा ? हाल के ही लोक सभा चुनाव में बड़े बहुमत से बिहार में चुनाव जीतने वाला एन।डी.ए. बिहार विधान सभा के उपचुनावों में क्यों बुरी तरह पराजित होे गया ? क्या अगले साल होने बिहार विधान सभा के आम चुनाव में मतदाताओं का यही मूड कायम रहेगा या फिर बदलेगा ? तीन ही महीने में यह बदला हुआ मूड स्थानीय व तात्कालिक कारणों से बदला है या इसका स्थायी भाव है ?

ये कुछ सवाल हैं जिनके ठोस जवाब आने वाले दिनों में तलाशे जाएंगे और आएंगे भी। पर फिलहाल सरसरी तौर पर देखने से दो बातें सामने आती हैं। ये बातें लोक सभा चुनाव के बाद ही घटित हुई हैं। एक तो नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले बिहार राजग ने यह तय किया कि इस बार भी किसी नेता के परिजन को वह टिकट नहीं देगा। और नहीं दिया भी। इस अभियान के पीछे नीतीश कुमार की मुख्य भूमिका थी। पर इस काम में जदयू अध्यक्ष शरद यादव ने भी उनका दिल से समर्थन किया। इससे लोहियावादी समाजवादियों की छवि सुधरी। नीतीश कुमार की इस पहल की देश भर में सराहना हुई। नीतीश कुमार ने ऐसे समय में यह काम किया जबकि भाजपा भी परिवारवाद की कीचड़ में बुरी तरह धंसती जा रही है। जदयू के इस कदम को देश व प्रदेश की राजनीति के सुधारीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना गया। कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा जदयू ही देश में अब एक ऐसा प्रमुख दल है जिसमें परिवारवाद नहीं है।

पर खुद राजग यानी एन।डी.ए. के परिवारवादी नेताओं ने इसे अपने राजनीतिक भविष्य के लिए ‘घातक’ माना। जदयू सांसद पूर्णमासी राम और जदयू डा. जगदीश शर्मा ने इसपर विद्रोह भी कर दिया। इन दोनों के परिजन उम्मीदवार बने। डा.शर्मा की पत्नी जीत गई, पर पूर्णमासी राम के पुत्र हार गये।

पर यह मामला सिर्फ इन दो नेताओं को ही प्रभावित नहीं करता है। बल्कि बिहार राजग के उन अनेक नेताओं को भी प्रभावित करता हैं जो अपने परिजन के लिए भविष्य में राजग से विधायिका के टिकट व मंत्री पद चाहते हैं। कई लोगों को परिवारवाद के आधार पर पहले भी टिकट मिलते भी रहे हैं। पर अब मिलने बंद हो गये। पूरी तरह बंद हो गये। जाहिर है कि ऐसे लोग यह चाहेंगे कि नीतीश कुमार का यह परिवारवाद विरोधी अभियान फेल हो जाए। इनमें से संभव है कि कुछ लोग इस प्रयोग को फेल करने के लिए इन उप चुनावों में सक्रिय भी हुए होंगे। कुछ नेता लोग निष्क्रिय रहे होेंगे। पर राजग के कुछ लोगों की इस उप चुनाव में निष्क्रियता का भी विपरीत असर राजग उम्मीदवारों पर पड़ा होगा तो यह स्वाभाविक ही है। जहां चुनावी मुकाबला कड़ा हो वहां थोड़ा कम प्रभाव डालने वाला चुनावी तत्व भी मतदान में निर्णायक हो जाता है। इस बार हुआ भी।

सवाल उन परिवारवादी नेताओं के राजनीतिक पारिवारिक कैरियर का जो है। इसी पारिवारिक राजनीतिक कैरियर को कायम रखने के लिए तो जदयू सांसद पूर्णमासी राम ने अपने पुत्र को राजद से बगहा में उम्मीदवार बनवा दिया था। उन्होंने पहले ही कह दिया था कि मेरा पुत्र कह रहा है कि उसे उम्मीदवार नहीं बनाया जाएगा तो वह जहर खा लेगा।

राजनीति में परिवारवाद के खात्मे का काम राजनीतिक सुधार का आज मौलिक काम हो चुका है। यह सती प्रथा व बलि प्रथा की कानूनी समाप्ति से भी अधिक कठिन काम लगता है। सुधार के काम करने वाले सुधारकगण इस दुनिया में कई बार गोलियां भी खाते रहे हैं। यहां तो मात्र गद्दी जाने का खतरा नीतीश कुमार के सामने है। पर ऐसे ही सुधारक लोग इतिहास पुरूष हुआ करते हैं। अब भला बताइए कि परिवारवाद के आधार पर ही हर जगह टिकट मिलने लगे तो वाजिब राजनीतिक कार्यकर्ताओं की बलि हुई या नहीं ? किसी चुनावी सीट को किसी राजनीतिक परिवार के साथ सती क्यों हो जाने दिया जाना चाहिए ? यह लोकतंत्र है या राजतंत्र ? अब यह नीतीश कुमार पर निर्भर करता है कि वे अगले किसी चुनाव में ‘इस सुधार कार्यक्रम की गलती को सुधार कर’ अपनी गद्दी बचाने की कोशिश करते हैं या फिर इतिहास में अपना गौरवशाली नाम को दर्ज करा देना चाहते हैं। याद रहे कि पूरे देश की राजनीति में इन दिनों परिवारवाद की बुराई इतनी व्यापक और गंभीर होती जा रही है कि इसके खिलाफ भारी विद्रोह एक न एक दिन होना ही होना है। यदि आज नीतीश कुमार अपने कदम पीछे कर लेंगे तो कोई अन्य सुधारक इसका श्रेय ले लेगा। आज नहीं तो कल यह होने ही वाला है। इसलिए सवाल यह बनता जा रहा है कि एक नेता के बेटा, बेटी या पत्नी को टिकट मिलेगा तो कोई दूसरा नेता इससे वंचित क्यों होना चाहेगा ? इस तरह इस बुराई की श्रृखंला पूरी राजनीति को निगल लेगी।

जिस तरह करोड़पतियों व अरबपतियों का इस देश की संसद पर कब्जा होता जा रहा है। अभी इस साल 543 में से 360 करोड़पति लोक सभा सदस्य चुने गये। इस गरीब देश में यह भी एक खतरनाक बुराई है जिससे किसी व्यक्ति या संगठन को एक दिन लड़ना ही है। क्यांेकि जिस देश में 84 करोड़ लोगों की रोज की औसत आय मात्र बीस रुपये है उस देश की संसद पर सिर्फ करोड़पतियों का ही कब्जा कैसे होने दिया सकता है ? यदि होगा तो उस सरकार के मंत्री कैबिनेट की बैठक में इस बात को लेकर झगड़ा करते रहेंगे कि उन्हें ऐसे होटल में रहने दिया जाए जिस के एक कमरे का एक रात का किराया एक लाख रुपये ही क्यों न हो।

यह बहुत अच्छी बात है कि ताजा उप चुनाव में झटके खाने के बावजूद शरद यादव व नीतीश कुमार ने कह दिया है कि वे परिवारवाद का विरोध जारी रखेंगे। जाहिर है कि शरद-नीतीश के इस ऐतिहासिक कदम से डा। राम मनोहर लोहिया की आत्मा को शांति मिल रही होगी। शायद यह कदम आगे कभी इस देश के लिए निदेशक भी साबित हो !

कारण और भी हो सकते हैं, पर विधान सभा उप चुनावों में राजग की हार का एक दूसरा तात्कालिक कारण यह समझ में आता है कि राज्य सरकार के राजस्व व भूमि सुधार विभाग के सूत्रों के हवाले से अखबारों में इस जुलाई में ही यह खबर छप गई थी कि राज्य सरकार बटाईदारी कानून में सुधार सहित भूमि सुधार आयोग की कुछ सिफारिशों को जल्दी ही लागू करेगी। इस खबर के मीडिया में आते ही राज्य भर में छोटे -बड़े किसानों में खलबली मच गई। उन किसानों में से अनेक लोग राजग के ठोस मतदाता रहे हैं। आशंकित बटाईदारी कानून से नाराज होने वालों में हर जाति के किसान हैं जिनके पास बंटाई पर देने के लिए जमीन है। राज्य सरकार को अपनी ‘गलती’ का एहसास हुआ। इसके बाद राज्य सरकार ने 5 अगस्त 2009 को यह घोषणा कर दी कि अभी पुराने ही सीलिंग व बटाईदारी कानून लागू रहेंगे। उनमें कोई बदलाव नहीं होगा। राज्य सरकार ने यह भी कहा कि बंदोपाध्याय आयोग की रपट समग्रता में नहीं है। इसलिए उसे लागू नहीं किया जाएगा। पर राज्य सरकार की इस सफाई पर अनेक किसानों ने भरोसा नहीं किया।

जहां उप चुनाव हुए,उनमें एक चुनाव क्षेत्र फुलवारी शरीफ के एक सवर्ण बहुल गांव के एक किसान ने मतदान के दिन ही यानी 15 सितंबर, 2009 को ही इन पंक्तियों के लेखक को बताया कि रामाश्रय प्रसाद सिंह (बिहार सरकार के मंत्री) की इज्जत रखने के लिए कुछ मतदाताओं ने जरूर जदयू को वोट दे दिया अन्यथा हमारा पूरा गांव बटाईदारी कानून लागू होने की आशंका से पीड़ित होकर राजग से नाराज हो गया है। इस गांव के अधिकतर वोट इस बार कांग्रेसी उमीदवार को पड़े। ऐसी ही खबर सारण जिले के एक राजपूत बहुल गांव से भी मिली थी जिस गांव के किसान बटाईदारी कानून नहीं चाहते। हालांकि यह आशंका सिर्फ इन दो गांवों व जातियों मंे ही नहीं है।

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने हाल में एक अन्य संदर्भ में कहा था कि मैं कई तरह की बीमारियों का इलाज करने के लिए मुख्यमंत्री बना हूं। वैसे भी उन्होंने अब तक अनेक ऐसे सराहनीय व ऐतिहासिक काम किए हैं जिनकी तारीफ उनके कुछ राजनीतिक प्रतिद्धंद्धी दलों ने भी समय -समय पर की। उनके कई कामों को अन्य राज्यों ने बाद में अपने यहां भी किया। पर हाल के उनके कुछ कदमों के नतीजों से ऐसा लगा कि सारी बुराइयों से एक साथ नहीं लड़ा जा सकता। बिहार में तो बिलकुल ही नहीं जहां के प्रशासन व राजनीति को हाल के कुछ दशकों में नेताओं ने बिगाड़ कर रख दिया। क्योंकि कई बुराइयों की काई तो इतनी गहरी बैठ चुकी है कि उन्हें छुड़ाना यहां एक बड़ा दुरूह काम है। बटाईदारी की समस्या भी ऐसी एक समस्या है जिसे हाथ लगा कर लालू प्रसाद जैसे महाबली भी पीछे हट गये थे। सन् 1992 में कुछ वामपंथी दलों व बुद्धिजीवियों ने तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद को सलाह दी कि वे भूमि सुधार लागू कर दें। लालू प्रसाद ने फरवरी, 1992 में यह घोषणा कर दी कि उनकी सरकार भूहदबंदी की सीमा घटाएगी और बटाईदारी कानून में संशोधन करके बटाईदारों को उनका वाजिब हक दिलाएगी। इसके लिए कानून में संशोधन का प्रारूप तैयार करने के लिए अफसरों की टीम को यह काम सौंप दिया गया है। लालू प्रसाद ने सार्वजनिक रूप से यह भी कह दिया था कि मेरी सरकार यह भी चाहती है कि कोई एक व्यक्ति नौकरी, व्यापार व खेती तीनों पर एक साथ काबिज नहीं हो। उसके पास इनमें से एक ही रोजगार रहे।

पर इस घोषणा का सबसे कड़ा विरोध तत्कालीन निर्दल विधायक राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव ने किया। बाद में चर्चित पप्पू यादव सांसद भी बने थे। तब उन्होंने जेल से जारी बयान में कहा कि राज्य सरकार छोटे किसानों की जमीन बटाईदारों व खेतिहर मजदूरों में बांटना चाहती है। मैं तो कहूंगा कि पहले अट्टालिकाओं में रहने वाले उद्योगपतियों की संपत्ति बंटे। पप्पू यादव की आवाज एक खास दबंग पिछड़ी जाति यानी यादव की आवाज मानी गई जो जाति लालू प्रसाद का मजबूत वोट बैंक माना जाती है।

बाद में इस तरह राज्य में व्याप्त लालू के अनेक वोटरों में भारी असंतोष को देखते हुए लालू प्रसाद ने अपनी घोषणा वापस ले ली। जब उनकी समर्थक पार्टी सी।पी.आई.ने इस बारे में उनसे पूछा तो लालू प्रसाद ने कहा कि हम बंटाईदारी कानून लागू करके बर्रे के छत्ते में हाथ नहीं डालना चाहते हैं।

वैसे भी लालू प्रसाद-राबड़ी देवी के 15 साल के कार्यकाल में भूमि संबंधों में सरकारी प्रयासों से कोई खास बदलाव नहीं आया। अब जब नीतीश सरकार ने इस पर कुछ कहा तो कई राजग समर्थकों को लालू प्रसाद ही बेहतर लगने लग रहे हैं।

दरअसल व्यावहारिक राजनीति करने वाले कुछ लोग कह रहे हैं कि बंटाईदारी जैसे विवादास्पद मामलों में हाथ डालने के बदले नीतीश सरकार को चाहिए कि वे गांवों के विकास की गति को और तेज करें। बिजली, पानी और सड़क की बेहतर व्यवस्था की अपनी कोशिश को और तेज करें। कृषि आधारित उद्योग गांवों में लगें। जब कुछ अन्य विकसित राज्यों की तरह छोटे -बड़े किसानों की माली हालत इस राज्य में भी सुधरेगी तो वे बटाईदारों की स्थिति सुधारने में सरकार का सहयोग करेंगे। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि होम करते हाथ जलाने से बेहतर है कि होम की ज्वाला को अधिक तेज नहंीं होने दिया जाए। पुराने माॅडल की जर्जर एम्बसेडर कार की गति को अचानक अधिक बढ़ा देने के अपने खतरे हैं। हालांकि नीतीश कुमार कह रहे हैं कि बंटाईदारी कानून तो बिहार में पहले से ही है। इसमें संशोधन करने का अभी हमने कोई फैसला ही नहीं किया है।दरअसल पूरे मामले में गलतफहमी फैल गई।कौआ कान ले गया, यह चर्चा इस बात को देखे बिना हो गई कि कान अपनी जगह पर है भी या नहीं।

( 20 सितंबर, 2009)

बटाईदारी विवाद व उप चुनाव

अपनी जमीन बटाई पर देकर खेती कराने वालों की ताजा नाराजगी के समक्ष लगता है कि नीतीश सरकार सहम सी गई है।इस नाराजगी ने तो हाल के बिहार विधान सभा उप चुनावों में राजग को बड़ा झटका दे दिया है। आगे के लिए भी खतरा मौजूद है। जानकार सूत्र बताते हैं कि किसानों की इस नाराजगी को जल्द से जल्द दूर करने के उपाय भी बिहार सरकार द्वारा खोजे जा हैं। पर इस सिलसिले में इस बात का भी ध्यान रखा जा रहा है कि एक नाराजगी को दूर करने के क्रम में दूसरी नाराजगी न पैदा हो जाए। यानी बटाईदार उधर नाराज न हो जाएं। उनकी खेती भी चलती रहे और कुल मिलाकर राज्य का कृषि उत्पादन भी बढ़े।

ऐसा कोई रास्ता नीतीश कुमार जैसे कल्पनाशील नेता के लिए खोज लेना कोई कठिन काम भी नहीं है। जल्दी ही इस संबंध में कोई ठोस सरकारी फैसला सामने आ सकता है।


जमीन वाले नाराज क्यों ?
कई जमीन वाले आखिर राजग सरकार से नाराज क्यों हुए? नाराजगी का मुख्य कारण जमीन से बेदखली का खतरा रहा। यह खतरा गत जुलाई में प्रकाशित एक अपुष्ट खबर के कारण पैदा हुआ था। खबर यह थी कि बिहार सरकार बटाईदारी कानून में इस तरह संशोधन करने जा रही है जिससे जमीन वालों का उनकी उस जमीन पर हक ही नहीं रहेगा जो जमीन वे बटाईदार को जोतने के लिए देंगे। कई लोगों के मन में इस बात का खतरा अब भी है। पर धीरे -धीरे वह कम होता जा रहा है। इस आशंका को पूरी तरह निर्मूल करने के लिए बिहार की राजग सरकार अत्यंत सक्रिय हो गई है।

हालांकि बिहार सरकार ने गत अगस्त में ही यह कह दिया था कि वह बटाईदारी कानून में ऐसा कोई संशोघन नहीं करने जा रही है जिससे जमीन वाले अपनी जमीन को लेकर कोई असुरक्षा महसूस करें।पर जमीन वाले अभी पूरी तरह निश्चिंत नहीं हो पाए हैं। इस नाराजगी को बातों व बयानों के बदले अब किसी ठोस प्रशासनिक कदम से ही दूर करना होगा। जानकार लोग बताते हैं कि नीतीश कुमार इसी ठोस कदम की ओर आगे बढ़ रहे हैं।


बटाईदारी का 12 साला बंधन
यह बात कम ही लोग जानते हैं कि मौजूदा बटाईदारी कानून में भी एक बारह साला प्रावधान है। वह प्रावधान भी जमीन वालों के लिए सुखद नहीं है। प्रावधान यह है कि यदि किसी बटाईदार के पास किसी जमीन वाले का कोई भूखंड लगातार बारह साल तब बटाई में रह जाए तो उस जमीन पर उस बटाईदार का कानूनी हक हो जाता है।

पता चला है कि नीतीश सरकार इस बारह साला प्रावधान को समाप्त करने की जरूरत पर गंभीरता से विचार कर रही है। इस प्रावधान की समाप्ति से जमीन वालों में निश्चिंतता का भाव पैदा होगा। उन्हें यह लगेगा कि उनकी जमीन कहीं नहीं जाएगी। बटाई पर देने के बावजूद उस जमीन के मालिक वही रहेंगे जो पहले से मालिक हैं। फिर जमीन मालिक किसी बटाईदार को एक साल या तीन साल के आपसी निजी समझौते के आधार पर जमीन बटाई पर दे सकते हैं। इस समझौते के आधार पर राज्य सरकार उस बटाईदार को सरकारी मदद देगी ताकि वह बेहतर ढंग से खेती करके उपज को और भी बढ़ा सके। उपज बढ़ेगी तभी उस जमीन वालों को मिलने वाला लाभ भी बढ़ेगा।यह द्विपक्षीय समझौता किसी तरह के कानूनी दावे का आधार नहीं बनेगा। समझौते की अवधि पूरी होते ही जमीन वाले अगली बार किसी अन्य बटाईदार को जोतने के लिए अपनी जमीन दे सकते हैं।

ये कुछ उपाय डैमेज कंट्रोल उपाय माने जा रहे हैं जिन पर राज्य सरकार सोच विचार कर रही है। अंततः क्या उभर कर सामने आता है, यह आने वाला समय बताएगा। पर ध्यान इसी बात का रखा जा रहा है जमीन वाले और बटाईदार में से किसी के हक को क्षति नहीं पहंचे और साथ ही राज्य का कृषि उत्पादन भी बढ़े। जमीन बटाईदारों को जोतने के लिए देने वालों में अब सिर्फ बड़े किसान ही नहीं हैं।एक दो एकड़ जमीन वालों को भी बटाई पर अपनी जमीन दे देनी पड़ रही है। यानी बटाई पर जमीन देने और लेने वालों दोनों की संख्या काफी है।


लालू प्रसाद का कदम सराहनीय
गत उप चुनाव में सफलता पाने के बाद लालू प्रसाद ने एक अच्छी बात कही है। उन्होंने जनता से अपील की है कि वह राजद शासन काल के दौरान उनके कार्यकर्ताओं की गलतियों को माफ कर दे। उन्होंने कार्यकर्ताओं को अपनी जुबान पर लगाम लगाने की भी नसीहत दी।

लालू प्रसाद के कद का कोई बड़ा नेता अपने दल की गलती को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करे और उसके लिए जनता से माफी मांगे, यह लोकतंत्र के लिए अच्छी बात है। कम ही नेता इस तरह अपनी गलती मानते हैं। इससे पहले कई बार चुनाव हारने के बाद भले लालू जी ने अपनी, सरकार व अपने कार्यकर्ताओं की गलती का बयान किया था, पर इस बार उन्होंने जीतने के बाद गलती मानी है। यह और भी अच्छी बात है।

पर इससे पहले तो लालू जी कई बार अपनी बात पर कायम नहीं रह सके थे। इसका कारण जो भी रहा हो। संभव है कि उसके लिए वे खुद जिम्मेदार नहीं हों।देखना है कि वे इस बार अपने कार्यकर्ताओं को संयमित करने की अपनी बात पर कायम रह पाते हैं या नहीं। कायम रहेंगे तो उनकी ही राजनीतिक सेहत के लिए अच्छा होगा।

सन् 1990 में मंडल आंदोलन की लहर पर सवार होकर लालू प्रसाद राजनीति के महाबली बने थे। वे जिन करोड़ों लोगों के मसीहा बने थे, वे गरीब व पीड़ित लोग ही थे। वे गरीब लोग अपनी उदंडता के लिए नहीं जाने जाते रहे हैं बल्कि वे पुराने सामंतों की उदंडता के शिकार के रूप में जाने जाते थे। पर लालू प्रसाद सत्ता के शिखर पर चढ़े तो उनके इर्दगिर्द पार्टी नेता व कार्यकर्ता के नाम पर अनेक ऐसे अराजक तत्व एकत्र हो गये जो उदंडता के लिए जाने जाते रहे। नया सामंतवाद पैदा हुआ जिसका नुकसान अंततः लालू जी को ही हुआ। इससे उस कमजोर वर्ग को भी नुकसान हुआ जिनको मंडल आरक्षण से कुछ फायदा हुआ था। उन्हें लालू जी ने सीना तान कर चलना सिखाया भी था।
लोकतंत्र में तो एक दल सत्ता में आता है तो दूसरा दल सत्ता की प्रतीक्षा करता है। इससे किसी नेता या दल को कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए। समाज को फर्क तब पड़ता है जब कोई नेता राजनीतिक संस्कृति बनाता है या उसे बिगाड़ देता है।

यह अच्छी बात है कि लालू जी की अंतरात्मा ने अपने कार्यकर्ताओं को शालीन रहने की नसीहत दी है। हालांकि यह काम बड़ा कठिन है,पर लालू जी को इसकी कोशिश तो करनी ही चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि हनुमान जी को खुद के शाकाहार होने के बारे में सपने में दिए गए अपने वचन से जिस तरह लालू जी बाद में पलट गए,उसी तरह इस मामले में भी वे पलट जाएं। लालू प्रसाद अपने काय्रकर्ताओं को काबू में रखेंगे तो उससे उनके राजनीतिक विरोधी भी उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा।जो कोई नेता एक कठिन काम करता है तो लोगबाग उसकी वाहवाही करते ही हैं।


और अंत में
अब सवाल हवाई जहाज के ‘पशु क्लास’ और ‘मनुष्य क्लास’ का ही नहीं है। इस गरीब देश के तो कई अमीर नेता अब सेवा विमान से चलना ही अपनी तौहीन मानने लगे हैं। कई बार वे विशेष विमान से वैसी जगह भी जाते हैं जहां के लिए सेवा विमान की अनेक उड़ानें रोज ही उपलब्ध हैं।

(प्रभात खबर से साभार: 21 सितंबर, 2009)

शनिवार, 22 अगस्त 2009

बंटवारे के लिए मौलाना आजाद की नजर में नेहरू जिम्मेदार

मिस्टर जिन्ना सन् 1946 के आरंभ में अखंड भारत के लिए तैयार हो गये थे, पर उसी साल के मध्य में जवाहर लाल नेहरू ने एक ऐसा बयान दे दिया कि जिन्ना ने डायरेक्ट एक्शन का नारा देकर पाकिस्तान बनवा लिया। यह बात आजाद भारत के पहले शिक्षा मंत्री अबुल कलाम आजाद ने लिखी है। अपनी आत्मकथा ‘आजादी की कहानी’ में आजाद ने लिखा कि ब्रिटिश सरकार के कैबिनेट मिशन, कांग्रेस महासमिति और मुस्लिम लीग परिषद के बीच इस बात पर आपसी सहमति बन चुकी थी कि अखंड आजाद भारत की केंद्रीय सरकार के अधीन तीन विषय होंगे-रक्षा, विदेश और संचार। राज्यों को तीन श्रेणियों में बांट दिया जाएगा। उन्हें स्वायतता रहेगी। ‘बी’ श्रेणी के राज्यों में पंजाब, सिंध, उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत व ब्रिटिश बलोचिस्तान शामिल किए जाएंगे। ‘सी’ श्रेणी के राज्यों में बंगाल और असम शामिल थे। बाकी राज्य ‘ए’ श्रेणी में रखे गये थे। कैबिनेट मिशन का ख्याल था कि इस भावी व्यवस्था से मुसलमान अल्पसंख्यक वर्ग को पूरी तरह से इतमिनान हो जाएगा।

याद रहे कि आजादी के लिए हिंदुस्तान के प्रतिनिधियों से विचार-विमर्श की खातिर ब्रिटिश सरकार ने कैबिनेट मिशन भारत भेजा था। मौलाना आजाद ने लिखा कि ‘मिशन ने मेरी यह बात भी मान ली थी कि अधिकतर विषय प्रांतीय धरातल पर संभाले जाएंगे। इसलिए बहुमत वाले राज्यों में मुसलमानों को प्रायः पूरी स्वायत्तता प्राप्त होगी। बी और सी श्रेणियों के राज्यों में मुसलमानों का बहुमत था। इस तरह वे अपनी सारी औचित्यपूर्ण आशाओं को सफल बना सकते थे।’

‘शुरू- शुरू में मि. जिन्ना ने इस योजना का घोर विरोध किया। मुस्लिम लीग स्वतंत्र देश की अपनी मांग को लेकर इतना आगे बढ़ चुकी थी कि उसके लिए कदम वापस लौटाना मुश्किल था। पर कैबिनेट मिशन ने बहुत ही साफ -साफ और असंदिग्ध शब्दों में कह दिया कि वह देश के बंटवारे का सुझाव कभी नहीं दे सकता। मिशन के सदस्य लाॅर्ड पेथिक लारेंस और सर स्टैफर्ड क्रिप्स ने बार- बार कहा कि हमारी समझ में नहीं आता कि मुस्लिम लीग जिस पाकिस्तान सरीखे राज्य की कल्पना कर रही है, वह कैसे जियेगा, कैसे बढ़ेगा और कैसे स्थायी होगा? उनका ख्याल था कि मैंने जो सूत्र दिया है, वही समस्या का हल है। मंत्रिमंडलीय मिशन का ख्याल था कि इसमें कोई हर्ज नहीं है ।’

मौलाना आजाद ने लिखा कि ‘मुस्लिम लीग परिषद की तीन दिन तक बैठक हुई। तब कहीं जाकर वह किसी फैसले पर पहुंच सकी। आखिरी दिन जिन्ना को यह तसलीम करना पड़ा कि मिशन की योजना में जो हल प्रस्तुत किया गया है, अल्पसंख्यकों की समस्या का उससे अधिक न्यायपूर्ण हल और कोई नहीं हो सकता। और उन्हें इससे अच्छी शर्तें मिल ही नहीं सकतीं। उन्होंने परिषद को बताया कि मंत्रिमंडल मिशन ने जो योजना प्रस्तुत की है, उससे और कुछ भी ज्यादा मैं नहीं कर सकता। इसलिए उन्होंने मुस्लिम लीग को योजना मान लेने की सलाह दी और लीग परिषद ने सर्वसम्मति से उसके पक्ष में वोट दिया।’

इस संबंध में कांग्रेस के फैसले के बारे में मौलाना आजाद ने लिखा कि ‘कांग्रेस कार्य समिति में जो विचार विमर्श हुआ, उसमें मैंने कहा कि कैबिनेट मिशन की योजना मूलतः वही है जो कांग्रेस पहले स्वीकार कर चुकी है। ऐसी हालत में योजना में जो प्रमुख राजनीतिक हल प्रस्तुत किया गया था, उसे मान लेने में कार्यसमिति को कोई मुश्किल नहीं हुई। 26 जून, 1946 के अपने प्रस्ताव में कांग्रेस कार्य समिति ने भविष्य के संबंध में कैबिनेट मिशन की योजना स्वीकार कर ली-यद्यपि उसने अंतरिम सरकार का सुझाव मानने में अपनी असमर्थता प्रकट की। कैबिनेट मिशन योजना का कांग्रेस व मुस्लिम लीग दोनों के द्वारा स्वीकार कर लिया जाना हिंदुस्तान के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास की एक गौरवमय घटना थी। यह भी लगा मानो हम आखिरकार सांप्रदायिक कठिनाइयों को भी पीछे छोड़ आए हैं। मि. जिन्ना बहुत खुश न थे, लेकिन और कोई रास्ता न था, इसलिए योजना मानने के लिए उन्होंने खुद को तैयार कर लिया था।’

पर इस पूरी योजना को पलीता लगाने वाली घटना की चर्चा करते हुए मौलाना अबुल कलाम आजाद ने लिखा कि ‘तभी एक ऐसी दुःखद घटना घटी जिसने इतिहास का क्रम ही बदल दिया। दस जुलाई को कांग्रेस अध्यक्ष जवाहर लाल नेहरू ने बम्बई में एक संवाददाता सम्मेलन बुलाया। वहां उन्होंने एक बयान दिया जिस पर शायद सामान्य परिस्थितियों में कोई ध्यान भी न देता। पर उस बयान ने शंका और घृणा के तत्कालीन वातावरण में बड़े ही दुर्भाग्यपूर्ण परिणामों के एक क्रम को जन्म दिया।’

‘कुछ पत्र प्रतिनिधियों ने उनसे सवाल किया, ‘क्या कांग्रेस कार्य समिति के प्रस्ताव पास कर देने का मतलब यह है कि कांग्रेस ने योजना को पूर्ण रूप से स्वीकार कर लिया है जिसमें अंतरिम सरकार के गठन का सवाल भी निहित है ?’

जवाब में जवाहर लाल ने कहा कि कांग्रेस करारों की बेड़ियों से बिलकुल मुक्त रह कर और जब जैसी स्थिति पैदा होगी, उसका मुकाबला करने के लिए स्वतंत्र रहते हुए, संविधान सभा में जाएगी।’ पत्र प्रतिनिधियों ने फिर पूछा कि क्या इसका मतलब यह है कि कैबिनेट मिशन योजना में संशोधन किए जा सकते हैं?

जवाहर लाल बड़ा जोर देकर जवाब दिया कि कांग्रेस ने सिर्फ संविधान सभा में भाग लेना स्वीकार किया है और वह मिशन योजना में जैसा उचित समझे, वैसा संशोधन-परिवर्तन करने के लिए अपने आपको स्वतंत्र समझती है।मौलाना आजाद ने लिखा कि ‘मैं यह कह दूं कि जवाहर लाल का बयान गलत था।

यह कहना सही न था कि कांग्रेस योजना में जो चाहे संशोधन करने के लिए स्वतंत्र है। असल में यह तो हम मान चुके थे कि केंद्रीय सरकार संघीय होगी ।’ (आजादी की कहानी:मौलाना अबुल कलाम आजाद की आत्म कथा-पृष्ठ-173)

आजाद के शब्दों में ‘जवाहर लाल नेहरू के इस बयान से मि. जिन्ना भौंचक रह गये। उन्होंने तुरंत एक बयान जारी किया कि कांग्रेस अध्यक्ष के इस वक्तव्य से सारी स्थिति पर फिर से विचार करना जरूरी हो गया है। जिन्ना ने लियाकत अली खान से लीग परिषद की बैठक बुलाने के लिए कहा और अपने बयान में कहा कि मुस्लिम लीग परिषद ने दिल्ली में कैबिनेट मिशन की योजना इसलिए स्वीकार कर ली थी कि यह आश्वासन दिया गया था कि कांग्रेस ने भी उसे स्वीकार कर लिया है और यह योजना हिंदुस्तान के भावी संविधान का आधार होगी। अब चूंकि कांग्रेस अध्यक्ष ने यह एलान किया है कि कांग्रेस संविधान सभा में अपने बहुमत से योजना को बदल सकती है, इसलिए इसका मतलब यह हुआ कि अल्पसंख्यक वर्ग बहुसंख्यक की दया पर जियेगा।

उसके बाद मुस्लिम लीग की बैठक 27 जुलाई को बम्बई में हुई। अपने उद्घाटन भाषण में मिस्टर जिन्ना ने फिर से पाकिस्तान की मांग की और कहा कि मुस्लिम लीग के सामने यही एक रास्ता रह गया है। तीन दिनों की बहस के बाद लीग परिषद ने मिशन योजना को अस्वीकार करते हुए एक प्रस्ताव पास कर दिया। उसने पाकिस्तान की मांग पूरी कराने के लिए ‘सीधी कार्रवाई’ करने का भी फैसला किया।’

(प्रभात खबर, 20 अगस्त 2009 से साभार)

बुधवार, 19 अगस्त 2009

‘आजादी लाओ’ से ‘आजादी बचाओ’ तक का सफर

स्वतंत्रता सेनानियों ने दशकों पहले अपना ‘आज’ न्योछावर करके हमारे ‘कल’ के लिए आजादी की बेजोड़ जंग छेड़ी थी। तभीे हम 62 साल पहले आजाद हुए। पर, इतने साल में हमारे सत्ताधारी व प्रतिपक्षी नेताओं ने इस देश के साथ क्या-क्या किया? कैसा सलूक किया? देश के लिए कितना और अपने निजी लाभ के लिए कितना कुछ किया? आजादी के बाद सत्ता में आए अधिकतर नेताओं ने मिलजुल कर या फिर बारी -बारी से, परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से, जाने या अनजाने तौर पर देश मंे आज एक अजीब दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ला दी। इस स्थिति में आज इस देश में ‘आजादी बचाओ’ आंदोलन’ शुरू करने की सख्त जरूरत आ पड़ी है। यानी, हमने 62 साल में ‘आजादी लाओ’ से ‘आजादी बचाओ’ तक का ही सफर तय किया है।

ऐसा नहीं है कि इस देश को एक बार फिर ‘सोने की चिड़िया’ बना देने की देशवासियों में क्षमता नहीं है। शत्र्त है कि हमारे नेताओं में ईमानदारी होनी चाहिए। सन 1700 में विश्व जी.डी.पी. में भारत का हिस्सा 24 दशमलव 40 प्रतिशत था। पर ताजा उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार यह घटकर अब मात्र पांच प्रतिशत रह गया है। हां, इसी देश के हर क्षेत्र के चुने हुए प्रभावशाली लोगों की निजी संपत्ति आजादी के बाद बेशुमार बढ़ रही है। करोड़पतियों की संख्या इस देश में अब एक लाख तक पहुंच चुकी है। अरबपतियों की संख्या एक सौ पहुंच रही है। हालांकि यह सरकारी आंकड़ा ही है। काले धन वाले करोड़पतियों की संख्या तो और भी अधिक है। दूसरी ओर, योजना आयोग के अर्थशास्त्री अर्जुन सेनगुप्त के अनुसार इस देश में करीब 84 करोड़ लोगों की रोजाना औसत आय बीस रुपये मात्र है।

जिस देश में इतनी अधिक आर्थिक व सामाजिक विषमता है, भीषण गरीबी और भुखमरी है, वहां की आजादी को कितने दिनों तक बचाए रखा जा सकेगा? यह सवाल अब पूछा जाने लगा है। इस विषमता के लिए कोई और नहीं, बल्कि हमारे वे शासक ही जिम्मेदार रहे हैं, जिनके हाथों में आजादी के बाद से देश व प्रदेशों की सत्ता रही है। सभी दल परोक्ष व प्रत्यक्ष रूप से सत्ता में रहे हंै। किसी के दामन साफ नहीं हैं। इस देश की मूल समस्या यह नहीं है कि इस देश में समस्या है। गंभीर समस्या यह है कि उसे दूर करने की कहीं से कोई ईमानदार कोशिश नजर नहीं आ रही है। यदि कहीं कोई कोशिश है भी तो वह अपवादस्वरूप ही है और ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। यह अधिक चिंताजनक बात है।

संविधान के भाग चार में राज्य के लिए कुछ निदेशक तत्वों का समावेश किया गया है। उसके अनुच्छेद -38(2) में कहा गया है कि ‘राज्य विष्टितया आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यक्तियों बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा।’

क्या इस देश के शासन ने गत 62 साल में ऐसा कोई प्रयास किया? बल्कि इससे उलट किया। नतीजतन विभिन्न जनसमूहों व क्षेत्रों के बीच असंतोष बढ़ता जा रहा है। लगता है कि हमारे शासकों में से अधिकतर लोगों की नजर में पैसे ही सब कुछ है। राजनीति पर आज पैसा जितना हावी है,उतना पहले कभी नहीं था। यह कोई संयोग नहीं है कि गत लोकसभा चुनाव के बाद करोड़पति सांसदों की संख्या बढ़ कर दुगुनी हो गई। मौजूदा लोकसभा में 300 करोड़पति हैं। कांग्रेस के 66 प्रतिशत और भाजपा के 50 प्रतिशत सांसद करोड़पति हैं। ये सांसद समाज के अंतिम आदमी के बारे में कितना सोचेंगे?

लोकतंत्र पर हावी होते धनतंत्र वाले इस देश में एक दिन में ऐसी स्थिति नहीं बनी। आजादी के तत्काल बाद से ही इसके लक्षण दिखाई पड़ने शुरू हो चुके थे। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू सेे एक बार जब यह कहा गया था कि आपके मंत्रिमंडल व प्रशासन में भ्रष्टाचार घर करने लगा है,इसलिए कोई एजेंसी बनाइए जो उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार पर नजर रखे। नेहरू जी के निजी सचिव के अनुसार पंडितजी ने इस पर कह दिया कि ऐसा संभव नहीं है, क्योंकि इससे मंत्रियों में डिमोरलाइजेशन आएगा।

अब भला भ्रष्टाचार की गति को बढ़ने से कौन रोक सकता था? वह बढ़ता गया। खुद पंडित जी के मन में सार्वजनिक धन के प्रति कोई निजी लोभ नहीं रहा, पर अपनी बिटिया को देर-सवेर अपना उत्तराधिकारी बनाने का रास्ता वे साफ कर गये। इंदिरा गांधी 41 साल की उम्र में कांग्रेस कार्यसमिति की सदस्या और 42 साल की उम्र में कांग्रेस अध्यक्षा बना दी गईं। यह नेहरू की सहमति से हुआ। व्यक्तिगत ईमानदारी के मामले में इंदिरा गांधी नेहरू जी की तरह कतई नहीं थीं, इसलिए उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद सरकार में भ्रष्टाचार ने संस्थागत स्वरूप ग्रहण कर लिया। जब उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे, तो इंदिरा गांधी ने कहा भी था कि भ्रष्टाचार तो वल्र्ड फेनोमेना है। यह सिर्फ भारत में ही थोड़े ही है।’

प्रधानमंत्री की यह राय जब सार्वजनिक हो गई तब भ्रष्टों पर भला रोक कौन लगाता ? नतीजतन राजीव गांधी का शासनकाल आते -आते सरकारी भ्रष्टाचार की स्थिति ऐसी हो गई कि सौ में से मात्र 15 पैसे ही सरजमीन तक पहुंच पाते थे। ऐसी स्थिति एक दिन में नहीं आई कि विकास व कल्याण के मद के एक रुपये में से 85 पैसे बिचैलिए खा जाएं और वे किसी तरह की सजा से बच भी जाएं। ऐसा उच्चस्तरीय संरक्षण से ही संभव हो सकता था। यही बात भी थी। आज अनेक निष्पक्ष लोग यह मानने लगे हैं कि इस देश की सबसे बड़ी समस्या सरकारी भष्टाचार ही है। यह भी कहा जा रहा है कि यदि इंदिरा गांधी के बदले कोई अन्य ऐसा नेता सन् 1966 में प्रधान मंत्री बना होता जो भ्रष्टाचार के प्रति कठोर होता, तो इस देश की ऐसी दुर्दशा नहीं होती। चीन हमलोगों के दो साल बाद आजाद हुआ था। पर वहां भ्रष्टाचार के खिलाफ फांसी का प्रावधान किया गया। तभी वह देश बन सका।

पर उसके उलट हमारे देश में जिस व्यक्ति पर भ्रष्टाचार का जितना अधिक गम्भीर आरोप लगता है, उसके अपने क्षेत्र में उतनी ही अधिक तरक्की करने का चांस होता है। बासठ साल की आजादी में राजनीति को चार भागों में बांटा जा सकता है। पहले राजनीति सेवा थी। बाद में यह नौकरी हुई जब सांसद पेंशन की व्यवस्था की गई। उसके बाद यह व्यापार बनी और अब इसे उद्योग का दर्जा मिल गया। कुछ नेताओं की कुल निजी संपत्ति का विवरण देख कर यह स्पष्ट है।

यह अकारण नहीं है कि कई हस्तियों, समितियों और आयोगों की सिफारिशों व सलाहों के बावजूद सांसद क्षेत्र विकास निधि को समाप्त नहीं किया जा रहा है, जबकि राजनीति को दूषित करने में किसी एक तत्व का यदि आज सबसे बड़ा हाथ है, तो वह सांसद-विधायक फंड ही है। लोकतंत्र का आज यही स्वरूप है। विदेशी बैंकों में जमा भारतीयों के काले धन के विवरण देने के लिए जर्मनी व लाइखटेंस्टाइन देशों की एकाधिक एजेंसी तैयार हंै। पर भारत सरकार ही सूचना लेने को तैयार नहीं है। इतना ही नहीं, भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के एक वरीय अफसर ने हाल में जर्मनी स्थित भारतीय राजदूत को एक सनसनीखेज पत्र लिखा। पत्र में यह लिखा गया कि वे भारतीय खातेदारों के नाम रिलीज करने के लिए जर्मन सरकार पर दबाव नहीं डालें। याद रहे कि एक लिस्ट जर्मन सरकार ने लाइखटेंस्टाइन के एल.जी.टी. बैंक के एक विद्रोही कर्मचारी से प्राप्त कर ली, जिसमें भारतीयों के वहां जमा काले धन का पूरा विवरण है। ऐसा अपने ही देश में संभव है कि सरकार इस देश को लूटने वाले काला धन वालों की खुलेआम मदद करे। एक अनुमान के अनुसार भारत के तीन प्रतिशत अमीरों ने 30 से 40 बिलियन डाॅलर विदेशों में नाजायज तरीके से जमा कर रखे हैं।

62 साल की आजादी की एक उपलब्धि यह भी है कि आयकर के अनेक मामलों को जानबूझ कर उलझा दिया जाता है, ताकि टैक्स चोरों को राहत मिल सके। गत 4 अगस्त, 2009 को राज्यसभा में यह बताया गया कि आयकर के एक लाख 41 हजार करोड़ रुपये के मामले कानूनी विवादों में उलझे हुए हैं। एक अनुमान के अनुसार इस देश के अमीर लोग हर साल नौ लाख करोड़ रुपये की टैक्स चोरी करते हैं। साथ ही बैंकों के खरबों रुपये व्यापारियों ने दबा रखे हंै और भारत सरकार या रिजर्व बैंक उनके नाम तक सार्वजनिक करने को तैयार नहीं है। इस तरह के अनेक उदाहरण हैं, जिसमें सरकार ही लूट की मददगार है। शुकसागर में ठीक ही लिखा गया है कि भारत में एक दिन ऐसा भी आएगा, जब राजा ही अपनी प्रजा को लूटेगा।

यह तो राजनीतिक कार्यपालिका, प्रशासनिक कार्यपालिका और व्यापार जगत की हालत है। न्यायपालिका के लोग भी अपनी निजी संपत्ति का विवरण सार्वजनिक करने को तैयार नहीं हो रहे हैं। इस पर न्यायपालिका में ही मतभेद है। इससे दुःखी होकर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जे.एस. वर्मा ने सार्वजनिक रूप से मौजूदा चीफ जस्टिस से यह कहा है कि वे मेरी संपत्ति का विवरण वेबसाइट पर सार्वजनिक कर दें। श्री वर्मा ने कहा है कि मैंने पद संभालने के साथ ही मार्च, 1997 में अपनी संपत्ति का विवरण सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल को सौंप दिया था। पूर्व चीफ जस्टिस यह चाहते हैं कि जजों, उनके परिजनों की संपत्ति का विवरण सार्वजनिक करना न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिए ठीक रहेगा। अब देखना है कि कितने जज श्री वर्मा की सलाह मानते हैं।

पर ऐसी घटनाओं से लगता है कि पूरे कुएं में भांग पड़ी हुई है और इस देश के लिए ये अच्छे लक्षण नहीं हैं।

काश, आजादी के वीर बांकुरे सत्ता में आने के तत्काल बाद इस मामले में कड़ाई दिखाते तो हालात इतने नहीं बिगड़ते। आज तो हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि देश के 186 जिलों में नक्सली हावी हो चुके हैं और उनसे निपटने के लिए सेना की मदद ली जा रही है। विशेषज्ञों का कहना है कि नक्सली समस्या सामाजिक-आर्थिक समस्या है। यदि इस देश की सरकार में भीषण भ्रष्टाचार नहीं होता, तो सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को हल करने में सुविधा होती।

दूसरी समस्या आतंकवाद और विदेशी घुसपैठियों की है। आतंकवाद से निर्णायक ढंग से लड़ने में वोट बैंक की राजनीति बाधक है। साथ ही हमलावर आतंकवादियों पर प्रति-हमला करने में हमारी शिथिलता और भ्रष्टाचार बाधक है। चूंकि आम तौर पर दोषियों को सजा नहीं मिलती, इसलिए एक ही तरह की गलती बार -बार इस देश में होती है।

मुम्बई के ताज होटल पर जब आतंकी हमला हुआ तो एन.एस.जी. कमांडो को दिल्ली से मुम्बई भेजने में साढ़े आठ घंटे लग गये। इससे पहले जब कंधार विमान अपहरण हुआ, तो अपहृत विमान को अमृतसर में इसलिए नहीं रोका जा सका, क्योंकि समय पर उच्चत्तम स्तर पर कार्रवाई करने का कोई फैसला ही नहीं हो सका। क्योंकि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी एक विमान में थे और उसमें सेटेलाइट फोन नहीं था। वही कोई फैसला करते।

इतना ही नहीं सैन्य व पुलिस बल को उपलब्ध कराने के लिए जो बुलेट प्रूफ जैकेट दिए जाते हैं, वे बुलेट को रोक ही नहीं पाते। क्योंकि उसकी खरीद में भ्रष्टाचार होता है और कमीशन के चक्कर में घटिया बुलेट प्रूफ आते हैं। शर्मनाक बात यह है कि देश की रक्षा के मामले में भी हो रहे शिथिलता,राजनीति और भ्रष्टाचार के आरोपितों पर आम तौर पर कोई कार्रवाई नहीं होती। बासठ साल में यहां तक पहुंच चुके हैं हम। फिर कैसे बचेगी हमारी आजादी? यह आजादी बड़ी कीमत देकर हासिल की गई हे। इसे हम सिर्फ पंद्रह अगस्त और 26 जनवरी को याद करके अपने कत्र्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं। पर हमें इस बात की पड़ताल करनी होगी कि जिस देश के 99 प्रतिशत नेता बेईमान हैं और अनेक प्रभावशाली लोग इस देश को लूट कर विदेशों में पैसे जमा कर रहे हैं, उनके हाथों में आजादी कितनी सुरक्षित है?

(दैनिक जागरण के पटना संस्करण से साभार-15 अगस्त, 2009)

गुरुवार, 6 अगस्त 2009

जस की तस धर दीनी चदरिया

‘जस की तस धर दीनी चदरिया।’डी.एन.गौतम जब आज रिटायर हो रहे हैं तो कबीर की उपर्युक्त उक्ति सहसा याद आ रही है।काश इस लोकतंत्र में अफसर के बदले नेता के लिए इस उक्ति का ं अक्सर इस्तेमाल करने का मुझे अवसर मिलता !ऐसा होता तो मुझे और भी अच्छा लगता।

बिहार के एक प्रमुख नेता ने गौतम के लिए इससे भी बेहतर बात कभी कही थी।वह बात कर्पूरी ठाकुर ही कह सकते थे।उन्होंने बिहार विधान सभा में कहा था कि के.बी.सक्सेना और डी.एन.गौतम जैसे अफसर गरीबों के लिए भगवान की तरह हैं।कर्पूरी ठाकुर के बारे में भी यह कहा जा सकता है कि उन्होंने ‘तस की तस धर दीनी चदरिया।पर जस की तस चदरिया को धर देने के लिए जो जतन करना पड़ता है,वह जतन करते हुए मैंने कर्पूरी ठाकुर को करीब से देखा था।गौतम साहब से मेरा कोई खास हेल -मेल नहीं रहा। वे कोई प्रचार प्रिय हैं भी नहीं।पर, उनके बहादुरी भरे कामों पर मैंने उनके सेवा के प्रारंभिक काल से ही गौर किया है।पूत के पांव पालने में ही प्रकट हो गये थे।यदि कोई सरकार सड़क के किनारे- किनारे मजबूत नालियां भी बनवाना शुरू कर दे तो समझिए कि उसका मूल उददेश्य सिर्फ लूटपाट नहीं है।उसी तरह जिस अफसर की भ्रष्ट नेता और माफिया तत्व आलोचना करने लगंे तो समझिए कि वह अपना काम कर रहा है और उसे अपने वेतन मात्र पर ही संतोष है।

ईमानदार तो और कई लोग भी हैं जिन्हें मैं जानता हूं और कई ऐसे लोग भी होंगे जिन्हें मैं नहीं जानता।पर उनमें से अधिकतर निष्क्रिय ईमानदार ही हैं।सक्रिय ईमानदारी से ही जनता को लाभ मिलता है।निष्क्रिय ईमानदारी से खुद को संतोष मिलता है।डी.एन.गौतम की खूबी रही कि वे सक्रिय ईमानदार रहे।

इसीलिए वे अक्सर निहितस्वार्थियों के निशाने पर रहे।पर बिहार की जनता में वे किसी अच्छे नेता की तरह ही लोकप्रिय रहे।उत्तर प्रदेश के हमीर पुर जिले के मूल निवासी गौतम जी 1974 बैच के आई.पी.एस. हैं।उन्होंने एम.एससी.और पीएच.डी. भी किया है। पता नहीं कि वे रिटायर होने के बाद कहां बसेंगे ! यदि वे बिहार में रहते तो कई लोगों को प्रेरित करते रहते।सारण,मुंगेर और रोहतास जिले के एस.पी.के रूप में उन्होंने जिस तरह की कत्र्तव्यनिष्ठता दिखाई ,उससे इस राज्य के निहितस्वार्थी सत्ताधारियों को यह लग गया कि ऐसे अफसर को कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देनी खतरे से खाली नहीं हैं।इसीलिए जब नीतीश कुमार ने उन्हें गत साल पुलिस प्रधान बनाया तो अनेक लोगों ने मुख्य मंत्री की हिम्मत की दाद दी।ऐसा अफसर जो गलत काम कर ही नहीं सकता,उसे पुलिस प्रमुख बना कर बेहतर छवि वाले नीतीश कुमार ने अपनी छवि और भी निखारी।गौतम जी ऐसे अफसर हैं जो यदि किसी खास पद पर जाकर बहुत कुछ करामात नहीं भी कर सकें तो एक बात तो तय है कि जिस उंची कुर्सी पर वे बैठे,उसे घूस कमाने का जरिया तो नहीं बनने दे सकते।इसका भी असर नीचे तक कुछ न कुछ होता है।

पुलिस प्रमुख के रूप में देवकी नंदन गौतम का कुल मिलाकर कैसा अनुभव रहा,यह तो कभी बाद में वे बता सकते हैंे,पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि उनके खिलाफ उनकी सेवा अवधि के अंत -अंत तक ऐसा कोई अशोभनीय विवाद नहीं हुआ जिससे उनकी छवि को धक्का लगा हो।वह भी ऐसे समय में जब मनोनीत डी.जी.पी.आनंद शंकर को यह कहना पड़ रहा है कि पुलिसकर्मी वेतन पर ही संतुष्ट रहना सीखें।खुशी की बात है कि आनंद शंकर जी ने बीमारी न सिर्फ पकड़ी है,बल्कि उसका सार्वजनिक रूप से एजहार भी कर दिया है।पर, यह बीमारी उपर भी तो है।एक परिचित थानेदार ने कुछ साल पहले मुझे बताया था कि उसने अपने अब तक के सेवाकाल में दस एस.पी.के मातहत काम किया।पर एक डा.परेश सक्सेना को छोड़कर अन्य सभी नौ एस.पी.ने मुझे तभी थाना प्रभारी बनाया जब उन्हें रिश्वत दी गई।जिस राज्य में भ्रष्टाचार का यह हाल है,वहां डी.एन.गौतम को अपनी चदरिया जस की तस धर देने के लिए कितनी जतन करनी पड़ी होगी,इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है।

बिहार का सौभाग्य होगा यदि गौतम की तरह काम करने की कोशिश करने वाले दस -बीस आई.पी.एस.अफसर यहां मिलें।अपराध और भ्रष्टाचार से निर्णायक लड़ाई का इस राज्य में यह संक्रमण काल भी है।अगले कुछ समय में पता चल जाएगा कि किसकी जीत हुई।अभी भ्रष्ट तत्व तो नहीं,पर अपराधी जरूर दबाव में हैं।डी.एन.गौतम वैसे अफसरों के लिए प्रेरणा पुरूष साबित होंगे जो अफसर अपराधी और भ्रष्ट तत्वों के खिलाफ मजबूती से उठ खड़े होंगे।इससे उनका इस लोक के साथ साथ वह लोक भी संवर जाएगा।गौतम ने जो पूंजी कमाई है,उसे भला कौन लूट सकता है ? घूसखोरी से बनी पूंजी को तो एक न एक दिन चोर-डकैत, ,विजिलंेस या फिर नालायक संतान द्वारा लूट लिए जाने से कम ही लोग बचा पाते हैं।यदि बचा भी पाए तो वे अपनी अगली कई पीढ़ियों को अपराध बोध की पूंजी जरूर दे जाते हैं।

हां,ईमानदारी से अपने काम करने के सिलसिले में तरह -तरह के कष्ट और तनाव जरूर होते हैं,पर उसके लिए गीता जैसी ‘ तनाव व दर्दनाशक दवा हमारे पूर्वजों ने हमें दे ही रखी है।इसी क्रम में गौतम साहब की सेवा अवधि से जुड़े कुछ संस्मरण यहां पेश हैं।सारण जिले से जब डी.एन.गौतम का समय से पहले तबादला कर दिया गया तो वे छपरा से पटना सड़क मार्ग से आ रहे थे।किसी ने तब मुझे बताया था कि जिसे भी पता चला कि गौतम साहब इस मार्ग से लौट रहे हैं तो वह सड़क के किनारे उन्हें देखने के लिए खडा हो गया।प्रत्यक्षदर्शी ने ,जो गौतम जी का स्वजातीय भी नहीं था,़बताया कि कई लोग उसी तरह रो रहे थे जिस राम के वनवास के समय अयोध्यावासी के रोने की चर्चा रामायण में है।इस घटना ने यह बात भी बताई कि बिहार में बड़े अपराधियों और उनके संरक्षक नेताओं से लड़कर उन्हें कमजारे कर देने की कितनी अधिक जरूरत जनता महसूस करती है।ऐसे ही तत्वों से तो लड़ते हुए गौतम साहब समयपूर्व तबादला ही झेलते रहे।

रोहतास और मुंगेर में भी यही हुआ।मुंगेर में 16 मई 1985 को डी.एन .गौतम ने एस.पी.का पदभार ग्रहण किया ।पर जब उन्होंने भ्रष्ट व अपराधी तत्वों के खिलाफ सख्त कार्रवाई शुरू की तो 9 जुलाई 1986 को उन्हें मुंगेर से हटा दिया गया।

दिलचस्प कहानी हजारीबाग पुलिस प्रशिक्षण कालेज में प्राचार्य के रूप में डी.एन.गौतम की तैनाती के बाद सामने आई।सन् 1994 की बात है।पटना में पहले से ही इस बात की चर्चा थी कि दारोगा की बहाली में इस बार घोर अनियमितता बरती जा रही है। आखिरकार नवनियुकत 1640 दारोगाओं ंको प्रशिक्षण के लिए हजारीबाग भेज दिया गया। इनमें से करीब चार सौ दरोगाओं को प्रशिक्षण कालेज में भर्ती करने से ही गौतम साहब ने साफ इनकार कर दिया। यह अभूतपूर्व स्थिति थी।क्योंकि गौतम के अनुसार वे दारोगा बनने लायक थे ही नहीं ।कुछ की तो निर्धारित मापदंड के अनुसार शरीर की उंचाई तक नहीं थी। इधर उन दारोगाओं को प्रशिक्षण दिलाना कई प्रभावशाली लोगों के लिए जरूरी था।इसीलिए आनन फानन में डी.एन.गौतम को प्राचार्य पद से हटाकर पटना पुलिस मुख्यालय में तैनात कर दिया गया।जो हो,इसी तरह राम राम कहते -कहते गौतम जी सेवा करते रहे।अब उनका ध्यान गीता और विवेकानंद की ओर अधिक जाए तो वह स्वाभाविक ही है।यह देश और प्रदेश ऐसे ‘मानव संसाधन’ की घोर कमी के कारण ही तो दुर्दशा को प्राप्त हो रहा है !

उनकी कत्र्तव्यनिष्ठता के लिए बिहार की ईमानदार जनता की ओर गौतम साहब को हार्दिक धन्यवाद।

प्रभात खबर / 31 जुलाई 2009 /से साभार

काठ की हांडी फिर चढ़ा रहे हैं लालू

कभी के राजनीतिक महाबली लालू प्रसाद को इस बार लोक सभा की पिछली बंेच पर जगह दी गई है। बिहार की राजनीति में तो वे पहले ही पिछली कतार में पहुंच चुके हैं।क्या वे फिर कभी पहले की तरह राजनीति की अगली कतार में पहुंच पायेंगे ?

खुद लालू प्रसाद ने पिछले महीने ही कहा कि ‘राजनीतिक तौर पर मेरे सफाये की भविष्यवाणी गलत ही साबित होगी। मेरा दल छोड़ कर जिसको जिस दल में जाना है,जाए।मैं जीरो से शुरू करूंगा। पार्टी को काॅडर आधारित बनाउंगा। 18 से तीस साल तक उम्र के युवकों को पार्टी में शामिल करूंगा। उनका टास्क फोर्स बनाउंगा और तीस प्रतिशत युवकों को चुनाव में टिकट दूंगा और फिर सत्ता में वापस आउंगा।’

सच यही है कि लालू प्रसाद की एक समय में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक व ऐतिहासिक भूमिका थी,जिसको उन्होंने पूरा भी किया। पर अब उनकी भूमिका और राजनीतिक उपयोगिता भी लगभग समाप्त हो चुकी है।दरअसल जिस शैली की राजनीति के लालू प्रसाद अभ्यस्त रहे हैं,वह शैली उसी तरह पुरानी पड़ चुकी है जिस तरह एलसीडी टी.वी .के इस दौर में पुराने रेडियो व ट्रांजिस्टर घर के अंधेरे कोने में रख दिए जाते हंै।सन् 1990 में मंडल आरक्षण आंदोलन के ऐतिहासिक मोड़ पर मुख्य मंत्री के रूप में लालू प्रसाद ने आरक्षण समर्थकों के कठिन आंदोलन का बहादुरी से नेतृत्व दिया था।उसी के कारण वे पिछड़ा आबादी बहुल प्रदेश बिहार की राजनीति के महाबली भी बने थे।तब आरक्षण विरोधी सवर्णों ने बिहार में आरक्षण के खिलाफ तीखा आंदोलन चला रखा था।मुख्य मंत्री पद पर रहते हुए लालू प्रसाद ने सड़कों पर उतर कर आरक्षण विरोधियों को उससे भी अधिक तीखे स्वर में न सिर्फ जवाब दिया बल्कि कुछ स्थानों में तो खड़े होकर आरक्षण विरोधियों को अपने समक्ष पुलिस से बुरी तरह पिटवाया।इससे आम पिछड़ों को लगा कि पिछड़ों के हक में खड़ा होने वाला इतना मजबूत नेता पहली बार सामने आया है।

पर इस आंदोलन के कारण मिली अपार राजनीतिक ताकत का लालू प्रसाद ने लगातार दुरूपयोग ही किया।नतीजतन उन्हें कई बार जेल तक जाना पड़ा और अब भी वे भ्रष्टाचार से संबंधित अनेक मुकदमों के अभियुक्त हैं।लालू प्रसाद अपने त्याग, तपस्या और सकारात्मक राजनीतिक कर्माे के कारण तो मुख्य मंत्री बने भी नहीं थे।उन्हें तो देवी लाल -शरद यादव की जोड़ी ने प्रत्यक्ष रूप से और चंद्र शेखर ने परोक्ष रूप से मदद कर बिहार का मुख्य मंत्री बनवाया था। आरक्षण विरोधी आतुर सवर्णों ने तीखा आंदोलन करके लालू प्रसाद को पिछड़ों का मसीहा बन जाने का अनजाने में मौका दे दिया।बाद में चारा घोटाले का अभियुक्त बनने के बाद और जनता दल में विभाजन के पश्चात कांग्रेसियों ने लालू प्रसाद की गद्दी बचाई और वे लगातार वर्षों तक बचाते रहे। उस बीच राज्य में विकास थम गया,अपराधियों का बोलबाला बढ़ गया।सिर्फ बात बना कर काम चलाया जाने लगा।लालू प्रसाद की मदद में कम्युनिस्ट भी आगे रहे।यदि कम्युनिस्टों और कांग्रेसियों ने यह शत्र्त रखी होती कि आप की गद्दी हम तभी बचाएंगे जब आप अपनी राजनीतिक और प्रशासनिक शैली बदलेंगे तो लालू प्रसाद और बिहार का भला होता।

बिहार जैसे अर्ध सामंती समाज में लालू प्रसाद ने पिछड़ों को सीना तान कर चलना जरूर सिखाया,पर उनके खाली पेट में अन्न के दो दाने डालने का प्रबंध नहीं किया जिससे पिछड़े एक -एक करके लालू प्रसाद से उदासीन होते चले गये।सन् 2000 के बाद तो लालू प्रसाद के वोट हर अगले चुनाव में घटते गये।गत लोक सभा चुनाव में तो उनके दल को सिर्फ 19 प्रतिशत मत मिले। क्योंकि इस बीच आम लोगों ने साम्प्रदायिकता के खतरे की अपेक्षा भीषण सरकारी भ्रष्टाचार, अविकास और राजनीति के अपराधीकरण के खतरे को अधिक गंभीर माना।अब देर से सही, पर समय बीतने के साथ कांग्रेस सहित अनेक सहयोगी दल व नेता गण लालू प्रसाद का साथ बारी- बारी से छोड़ते चले जा रहे हैं तो लालू प्रसाद अकेला पड़ रहे हैं।इस बदले माहौल में यदि कांग्रेस ने राम विलास पासवान को मिला लेने में सफलता पा ली तो बिहार मंे ंइस बात के लिए प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाएगी कि किसी अगले चुनाव मंे ंकांग्रेस और राजद में से कौन सा दल एक दूसरे से आगे रहेगा।अभी राजद बिहार का मुख्य प्रतिपक्षी दल है।हालांकि गत लोक सभा चुनाव में वह विधान सभा की कुल 243 सीटों में ंसे सिर्फ 33 सीटों पर ही बढ़त बनाने में सफल हो पाया।उसकी ताकत भविष्य में और भी घटने की उम्मीद है क्योंकि उसके विधायक, पूर्व विधायक और गैर विधायक नेता राजद छोड़ते जा रहे हैं।

दरअसल लालू प्रसाद की मूल समस्या उनकी शैली है।उनकी राजनीतिक शैली के कुछ नमूने यहां पेश हैं।वे जब बिहार में सत्ता में थे तो राजनीति के अपराधीकरण पर वे कहा करते थे कि ‘जनता ने जिसको वोट दिया,वह कहां का अपराधी ?’ जब उनसे कहा गया कि सी.बी.आई.ने चारा घोटाले में आप पर केस किया है ,क्या आप मोरल ग्राउंड पर इस्तीफा देंगे ?उनका जवाब होता था,‘ फुटबाॅल ग्राउंड तो होता है, यह मोरल ग्राउंड क्या होता है ? अरे यार, राजनीति प्रमुख होती है।नैतिकता क्या चीज है ?’जब कोई पिछड़े बिहार का विकास करने के लिए कहता था तो वे कहते थे कि ‘विकास से वोट नहीं मिलता।सामाजिक समीकरण से वोट मिलता है।’उनकी यह शैली आज भी नहंीं बदली।यदि शैली बदलने की उनकी इच्छा होती तो वे सबसे पहले राबड़ी देवी को विधान सभा में प्रतिपक्ष की नेता पद से हटवा कर उनकी जगह किसी काबिल व दबंग नेता को बैठाते।

इसके विपरीत अपराध,भ्रष्टाचार और विकास के बारे में नीतीश कुमार की शैली लालू प्रसाद से बिलकुल उलट है। इस शैली को जनता ेने पसंद किया है क्योंकि आम लोगों ने यह समझा है कि भले नीतीश कुमार को कई मामलों में सफलता अब भी नहीं मिल रही है,पर उनकी मंशा सही है।इसीलिए पिछले आम चुनाव में राजग को बिहार में 40 में से 32 सीटें मिली हैं।

सन् 2005 में सत्ता में आने के बाद नीतीश कुमार की सरकार ने पिछड़े समुदाय के आर्थिक व राजनीतिक हित के लिए कम ही समय में लालू प्रसाद की अपेक्षा अधिक काम किया है।साथ ही समावेशी विकास योजनाओं का लाभ सवर्ण सहित पूरे समाज को समरूप ढंग से थोड़ा- बहुत मिल रहा है।यही है नीतीश की वैकल्पिक शैली जिसका मुकाबला लालू तो दूर कांग्रेस तक को करने में दिक्कत आ रही है।इसके मुकाबले लालू प्रसाद का रास्ता तो और भी कठिन है।

/दैनिक हिंदुस्तान 28 जुलाई 2009 से साभार/

मंगलवार, 9 जून 2009

Melting iceberg of vote banks politics in Bihar

Not only the ice on the north pole of the earth, the iceberg of vote bank politics in Bihar is also melting slowly .It is due to the new type of social engineering of the engineer turned politician chief minister Nitish kumar.It is being done through the administrative and political measures.Due to new, silent and significant political developments, old benificiaries of caste-based vote banks politics are badly perturbed these days. Thus Nitish kumar is trying to change the age old agenda of Bihar politics from caste based to development based.

Whenever next lok sabha election takes place, in Bihar new voting pattern might be witnessed.In politically vibrant state like Bihar,this new political phenomenon is seems to be of far reaching consequences.Nitish kumar became the chief minister of the state in November,2005.Since then three lok sabha bye elections took place in the state.According to keen political observers ,all the three bye elections were won by the ruling N.D.A.candidates due to this new social engineering apart from several developmental schems.

Before discussing the measures taken by the new chief minister of this economically backward and to some extent unfortunate state,one should like to know the prevalent caste based vote bank politics.Obviously it was started by Congress party who has created Woman, Brahmin, muslim and schedule castes vote bank for her. It was created by the then prime minister Indira Gandhi after great division of the congress in 1969 . Bihar was also in the grip of this caste based politics for long years.But when Laloo prasad emerged as mandal messiah in ninetees,he created his own backward-dalit-muslim vote bank. He ruled the state like despot for full fifteen years with the help of this vote bank. Later part of his rule,he was limited to muslim-yadav vote bank only. Meantime Ram vilas paswan has created a solid niche in Paswan vote bank for himself.

When Nitish kumar parted company with Laloo Prasad in 1994, he was the leader of kurmi-koiri vote bank.

Vote bank politics has done immense damage to Bihar making it more backward.Supremos of vote bank politics thought their vote bank fiefdoms would not desert them even if they become oblivious to the problems of the backward and unfortunate state like Bihar.For many years, Bihar politics was guided by the slogans based on castes,religion and other sentiments.Cash and criminals also played their roles .Developments were neglected like anything.In every district,some sort of political mafias were allowed to be emerged and rule.Law and order was the worst casualty. Major parts of the govermental funds for developments and welfare were looted with impunity.Intoxicated with the power of vote bank politics,power –that- be was became ultra insensitive to even the basic problems of even their own people ie vote bank.

Realising the menace of vote bank politics, Nitish kumar started demolishing this from the first year of his office.His efforts are still on.For panchayats and local bodies elections, Nitish government has reserved fifty percent elective seats for women. Nitish kumar managed to reserve 20 percent seats for extremely backward castes in panchayats and local bodies.With this particular decision chief minister s own caste kurmi was deprived of many seats in panchayats and local bodies.Before this decision in favour of extremely backward castes, major panchayats seats were won by intermediary backward castes like yadav and kurmi.

Another major move in this regard was the reservation of 50 percent seats for women candidates in primary school teachers recruitments.Nearly two lakh teachers were already recruited during nitish tenure. Process for recruitments of another one lakh teachers is on.Thus by giving jobs to one and half lakh women in schools Nitish kumar badly damaged the old pattern of vote bank politics.Apart from these things Nitish government has taken some others women-centric measures dividing vertically the traditional vote banks.Guided by late socialist thinker and leader Dr.Ram manohar lohia ,Nitish kumar regarded women from every castes backwards and oppressed.Though Nitish kumar s party does not want to extend this Lohia s thinking for reservation for this section in parliament and state legislatures.This is really curious part of nitish kumar s politics.

Anyway, this thing apart Nitish kumar provoked Ram vilas paswan and Laloo Prasad for criticizing him for so called attempt to divide minority and dalits. Nitish government has created Maha dalit commission for recommending welfare measures for extremely backward among dalits.The commission has come to the coclusion that only a few castes among Dalits are being benifitted after independence.Nitish government has earmarked separate funds for the welfare of extremely dalits castes.Central minister and another strong leader of Bihar Mr Ram vilas paswan has openly charged Nitish kumar for dividing dalits and thus trying to weakenin them .
Same way, Laloo prasad and his party Rashtriya janta dal has been accusing nitish kumar continuously for dividing backwards and muslims.They also charged that Nitish was playing in the hands of feudal elements by dividing the forces of social justice and communal harmony.But supporters of new measures are not convinced saying that people at large are happy with the new measures of the state government.They argue that without thinking about any vote bank thing,Nitish government taking the measures which are necessary for the weaker sections of different caste and community groups..

But apart from the overt statement,hidden agenda of demolishing vote bank politics is doing miracle. Apart from winning all lok sabha and assembly bye election seats in last two and half years,the latest survey by a newspaper suggests that 73 percent people of Bihar think that this nitish government is more efficient than the previous one.

When two members from backward muslim ie. Pansmanda ie. backward muslim community Ali anwar and Dr.Ezaj Ali were sent to Rajya sabha one by one from Bihar by nitish kumar s party j.d.u, it was clear indication that muslim vote banks are being divided on the pattern of Hindus. Simultaneously nitish government has got the Bhagal pur riots closed cases reopened and court covicted even those accused who were got scot- free during previous regime.This made minority in Bihar soft to new regime if not supportive as BJ.P.is major partner in Nitish govt.

This new type of social engineering coupled with continuing widespread developmental programmes of this government has given the different look to the monotonous politics of this unfortunate state which was solely based on cash,caste and criminals.Now people have already started taking their political decision on the basis of the performance of the government. Veteran criminals even with political patronage are being convicted one by one these days. It is believed that the next lok sabha election results from Bihar might re inforce this people s decision in a big way.It is not for nothing that Nitish is repeatedly saying that if our state government would not be able to turnaround Bihar,I would not go to the people for vote in next Bihar assembly election due in 2010.
(unpublished) 12 july 2008.

रविवार, 7 जून 2009

लालू-पासवान के बिना कांग्रेस का पुनर्जीवन मुश्किल

कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी ने कहा है कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश और बिहार पर विशेष ध्यान देगी। इससे बिहार के कांग्रेसी उत्साहित हैं। आनेवाले दिनों में शायद राहुल गांधी बिहार में सक्रिय भी हों। पर यहां कांग्रेस के विकास की गुंजाइश काफी सीमित है। यहां तो कांग्रेस के अधिकांश वोट बैंक पर एन.डी.ए. का पहले ही कब्जा हो चुका है। जब लालू-राबड़ी शासन के खिलाफ आवाज उठा कर कांग्रेस को अपना वोट बैंक बढ़ाने का अवसर था, तो तब तो वह लालू प्रसाद से गलबहियां कर रही थी। अब यदि कांग्रेस को अपनी ताकत बिहार में भी बढ़ानी है, तो उसे लालू-पासवान के वोट बैंक की आधारशिला पर ही फिलहाल खड़ा होना पड़ेगा। वैसे भी कांग्रेस इस्तेमाल करो और फेंको नीति में विश्वास करती रही है।

कांग्रेस को इस लोकसभा चुनाव में बिहार में मात्र दस प्रतिशत मत मिले, जबकि उत्तर प्रदेश में इस बार इस दल को 18 प्रतिशत वोट मिले। पर बिहार में काग्रेस को मिले ये मत भी खांटी व स्थायी कांग्रेसी मत नहीं माने जा सकते। इन मतों में से कुछ मत ‘प्रवासी उम्मीदवारों’ के कारण मिले। कुछ मत दो विजयी कांग्रेसी उम्मीदवारों के अपने निजी प्रभाववाले मतों के कारण थे। कुछ ऐसे भी मत कांग्रेस को बिहार में मिले जो मत उसे बिहार विधानसभा चुनाव में नहीं मिलेंगे। क्योंकि वे मतदाता ऐसे हैं, जो एक तरफ तो लालू -राबड़ी को बिहार में सत्ता में आने से रोकना चाहते हंै, तो दूसरी ओर केंद्र में राहुल गांधी को मजबूत बनाने चाहते हंै। याद रहे कि इस लोस चुनाव में बिहार में कांग्रेस को ब्राह्मणों के सिर्फ 18 प्रतिशत मत मिले। जबकि राजग को बिहार में इस जाति के 69 प्रतिशत मत मिले। दूसरी ओर उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों के 32 प्रतिशत वोट इस बार मिले हैं।

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को 21 सीटें भी मिलीं, जबकि बिहार में सिर्फ दो। वे दो सीटें भी कांग्रेस को अपने जनाधार के कारण नहीं, बल्कि उन उम्मीदवारों के व्यक्तिगत असर के कारण मिलीं। बिहार में कांग्रेस सिर्फ दो सीटों पर दूसरे स्थान पर रही। 30 सीटों पर, तो उसके उम्मीदवारों की जमानतें तक जब्त हो गईं। सासाराम से विजयी मीरा कुमार को सन् 2004 के लोकसभा चुनाव में करीब 4 लाख मत मिले थे। इस बार मात्र 1.92 हजार। इस बार भाजपा उम्मीदवार मुनीलाल से मीरा कुमार के मतों का अंतर 43 हजार रहा, जबकि सन् 2004 में यह अंतर 2 लाख .58 हजार का था। तब राजद का कांग्रेस से चुनावी तालमेल था। यानी, लालू प्रसाद के मत इस बार अलग हो जाने के बावजूद मीरा कुमार अपने निजी प्रभाववाले मतों के बल पर जीत गईं। याद रहे कि उनके पिता जगजीवन राम यहीं से सांसद हुआ करते थे। उनका असर अब भी बाकी है।

उधर किशनगंज में कांगेेस की जीत पूरी तरह उम्मीदवार असरारूल हक की जीत है। इस बार कांग्रेस के उम्मीदवार असरारूल हक को किशनगंज में 2 लाख 39 हजार वोट मिले। पर जब वे सन् 1998 में वहां से समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार थे, तो भी उन्हें 2 लाख 30 हजार मत मिले थे। एन.सी.पी. उम्मीदवार के रूप में सन् 1999 में असरारूल हक को एक लाख 97 हजार मत मिले थे। याद रहे कि सपा और एन.सी.पी. का किशनगंज में अपना कोई खास जनाधार नहीं हैं।

यानी कुल मिलाकर कांग्रेस में बिहार में अपने बल बूते पुनर्जीवित हो जाने की कोई ताकत दिखाई नहीं पड़ती। उत्तर प्रदेश में मुलायम सरकार के नेतृत्ववाली यादव-ठाकुर अतिवादिता के कारण मायावती ने दलित-ब्राह्मण समीकरण बनाया। उसी कारण वह सन् 2007 के विधानसभा चुनाव में विजयी रहीं। उत्तर प्रदेश में मायावती के कुशासन के कारण उपजे असंतोष के कारण कांग्रेस को लोस चुनाव में इस बार बढ़त मिली। पर बिहार में नीतीश सरकार के खिलाफ अभी कोई जन असंतोष नजर नहीं आ रहा है, बल्कि सुशासन, बेहतर कानून-व्यवस्था व विकास के कारण नीतीश सरकार के प्रति जनता में आकर्षण बढ़ता ही जा रहा है। हां, शिक्षकों की बहाली में गड़बड़ी, जगह- जगह शराब की सरकारी दुकानों और सरकारी दफ्तरों में बढ़ रही घूसखोरी के खिलाफ बिहार में जनांदोलन किया जा सकता है। पर कोई भी करगर जनांदोलन लालू-पासावन की मदद के बिना कांग्रेस नहीं चला सकती। अब भी लड़ाकू राजनीतिक जमात लालू के पास ही है, जिसका लाभ कांग्रेस उठा कर नीतीश सरकार को परेशानी में डाल सकती है। इसके साथ राजग के विरोध में खुद को एक शालीन व अनुशासित विकल्प के रूप में पेश कर सकती है। याद रहे कि राजनीति से अपराधियों के धीरे-धीरे सफाये के बाद अब कांग्रेस की तरह अपेक्षाकृत शालीन राजनीति को बिहार की जनता देर-सवेर पसंद करेगी। लालू की राजनीति शालीन नहीं रही है। खुद को सुधारने की उनमें क्षमता काफी कम है।

किसी बड़े जन असंतोष की अनुपस्थिति मेें किसी जातीय समूह को नीतीश से खींच कर अपनी राजनीतिक ताकत बढ़ा ले, यह कांग्रेस के लिए फिलहाल संभव नहीं दिख रहा है।

वैसे भी अपनी भारी हार के बाद लालू प्रसाद कुम्भला गए हैं। हर छोटी-बड़ी हार के बाद वे थोड़ा ठंडे पड़ ही जाते हैं। मंत्रिमंडल में शामिल नहीं करके कांग्रेस ने लालू को उनकी औकात बता दी है। तब से वे और भी विनम्र व दबे-दबे नजर आ रहे हैं। ऐसे भी चारा घोटाले से संबंधित जारी मुकदमों के कारण लालू प्रसाद फिलहाल कांग्रेस से झगड़ा नहीं कर सकते। हां, राजनीतिक प्रेक्षक बताते हैं कि मुकदमों से निपट लेने के बाद उन्हें भाजपा से भी मिल कर राजनीति कर लेने में कोई परहेज नहीं होगा, यदि कांग्रेस के छुटभैया नेतागण लालू प्रसाद का मजाक उड़ाना जारी रखेंगे।

लालू प्रसाद को नजदीक से और अधिक दिनों से जाननेवाले लोग जानते हैं कि लालू प्रसाद को अपनी राजनीतिक सुविधा के लिए लचीलापन अपनाने में कभी कोई झिझक नहीं हुई। भागलपुर का दंगा सन् 1989 में हुआ था। उस साल के लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद लोकसभा के लिए चुन लिये गये थे। तब भाजपा और कम्युनिस्टों के समर्थन से केंद्र में वी.पी. सिंह की सरकार चल रही थी। बिहार में भी विधानसभा का चुनाव होने को था और लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे। उन्हें लगा कि बिहार में भी भाजपा की मदद लेनी पड़ेगी।

इस पृष्ठभूमि में लालू प्रसाद ने लोकसभा में तब अपने भाषण में कहा था कि भागलपुर दंगे में भाजपा या आर.एस.एस. का कोई हाथ नहीं है। उनके इस भाषण के टैक्स्ट को बाद में बिहार विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता यशवंत सिन्हा ने सदन में सुनाया था। याद रहे कि यशवंत सिन्हा तब इस बात पर नाराज थे कि दंगा जांच रपट में यह आरोप लगाया गया कि भागलपुर दंगे के लिए एल.के. आडवाणी जिम्मेदार थे। लालू शासनकाल में जब भागलपुर दंगे की जांच रपट प्रकाशित हुई, तब तक लालू प्रसाद को अपनी सरकार चलाने के लिए भाजपा की मदद की जरूरत नहीं रह गई थी। इन दिनों पटना के राजनीतिक हलकों में यह अफवाह भी गर्म है कि यदि लालू प्रसाद को कांग्रेस ने अधिक परेशान किया, तो वे कोई चैंकानेवाला राजनीतिक कदम भी उठा सकते हैं। इसलिए कांग्रेस को लालू प्रसाद की इस टिप्पणी से संतुष्ट हो जाना चाहिए था कि ‘कांग्रेस से चुनावी तालमेल नहीं करना हमारी भूल थी।’

राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार कांग्रेस ने लालू प्रसाद का गर्म दिमाग ठंडा करने के लिए और उन्हें सबक सिखाने के लिए यह अच्छा किया कि उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया। पर यदि कांग्रेस लालू के साथ मिल कर नीतीश सरकार के खिलाफ बिहार में अभियान नहीं चलाएगी, तो कांग्रेस को बाद में लालू प्रसाद की तर्ज पर ही यह अफसोस जाहिर करना पड़ेगा कि लालू प्रसाद को दुत्कार कर हमने भूल की।

साभार जनसत्ता (2 जून, 2009)

मंगलवार, 19 मई 2009

बिहार में एक भिन्न व नई राजनीतिक संस्कृति की जीत

बिहार में लोकसभा का चुनाव दो दलों या दो नेताओं के बीच का चुनाव नहीं, बल्कि दो परस्परविरोधी राजनीतिक संस्कृतियों के बीच का चुनाव था। बिहार के मतदाताओं ने नीतीश कुमार की राजनीतिक संस्कृति पर मुहर लगायी है और लालू-रामविलास की पुरानी संस्कृति को बुरी तरह नकार दिया है।

इस चुनाव नतीजे का यह साफ संदेश है कि यदि लालू प्रसाद -रामविलास पासवान ने अपनी ‘राजनीतिक संस्कृति’ को जल्द-से-जल्द नहीं बदला, तो वे यहां की राजनीति में अप्रासंगिक हो जायेंगे। क्योंकि देर करने पर तो नीतीश कुमार उन लोगों से और भी आगे निकल चुके होंगे।

मात्र 40 महीनों में कोई नेता एक जर्जर प्रदेश की पूरी राजनीतिक संस्कृति ही बदल दे, इस बात की कल्पना करना कठिन है। पर, यह कठिन काम नीतीश कुमार ने एक कठिन और विपरीत परिस्थिति में भी कर दिया। लालू प्रसाद और रामविलास पासवान को इस बात का बड़ा गुमान था कि यदि वे मिलकर चुनाव लड़ेंगे, तो बिहार में राजग हवा हो जाएगा, पर उन्हें इस बात का अनुमान ही नहीं रहा कि अपने छोटे से कार्यकाल में नीतीश कुमार ने राजनीति का एजेंडा ही पूरी रह बदल दिया है। अब पुराने फाॅर्मूले से नीतीश कुमार को पराजित नहीं किया जा सकता।

नीतीश कुमार ने आखिर कौन सा जादू कर दिया, जो राजग को इतनी अधिक सीटें मिल गईं ? नीतीश सरकार ने पहले जातीय वोट बैंक के शिलाखंड को तोड़ा। इसी जातीय वोट बैंक के बल पर लालू प्रसाद और रामविलास पासवान निश्चिंत रहा करते थे। कोई खुद को बिहार का पर्यायवाची बता रहा था, तो कोई सत्ता की चाभी लेकर घूम रहा था।पर जातीय वोट बैंक की अपनी एक सीमा है। इसे नीतीश कुमार ने पहचाना।आजादी के बाद कांग्रेस ने भी वर्षों तक समाज के सभी हिस्सों के वोट लिये, पर सत्ता का लाभ कुछ खास सवर्ण जातियों को ही पहुंचाया। नतीजतन मंडल आरक्षण आया। उसने लालू प्रसाद को बिहार में महाबली बना दिया। लालू प्रसाद ने सभी पिछड़ी जातियों के वोट लिये, पर लाभ दिये सिर्फ कुछ खास लोगों को ही। दूसरी ओर, नीतीश कुमार ने समावेशी सामाजिक न्याय की अपनी नीति के तहत अति पिछड़ों के लिए पंचायतों और नगर निगमों में बीस प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था करायी। इस पर लालू प्रसाद ने कहा कि नीतीश पिछड़ों को बांट रहे हैं। इसी तरह का आरोप सवर्णों ने सन् 1990 में वी.पी. सिंह-लालू प्रसाद-रामविलास पासवान पर लगाया था, जो मंडल आरक्षण के झंडावरदार थे। सवर्णों ने आरोप लगाया था कि मंडलवादी लोग समाज को बांट रहे हैं।

नीतीश सरकार ने जब महादलित आयोग बनाया और पसमांदा मुसलमानों के हित में कुछ कदम उठाये, तो दलितों व मुसलमानों के वोट बैंक के मैनेजर बिफर उठे। यानी इतिहास ने खुद को दोहराया।

दरअसल जातीय वोट बैंक के मैनेजर बने नेतागण यह समझ बैठते हैं कि आम गरीब लोगों के आम कल्याण के लिए कुछ भी नहीं करेंगे, तो भी वे चुनाव नहीं हारेंगे। कभी कांग्रेस ने भी महिला, ब्राह्मण, मुसलमान और दलित वोट बैंक बनाकर वर्षों तक देश पर राज किया, पर अटल बिहारी वाजपेयी के कारण ब्राह्मण वोट जब कांग्रेस से खिसका, तो केंद्र से कांग्रेस की सता चली गयी। अब जब अटल बिहारी वाजपेयी नहीं हैं, तो एक बार फिर कांग्रेस को इस चुनाव में देश में बढ़त मिल गयी है, पर यह ‘समावेशी विकास’ का फल नहीं है। इसलिए कांग्रेस की यह उपलब्धि शायद स्थायी साबित नहीं होगी।

इसके विपरीत बिहार में नीतीश कुमार की सरकार की उपलब्धि अधिक टिकाउ लगती है। यहां बिहार में न सिर्फ जातीय वोट बैंकों के अभिशाप की समाप्ति की दिशा में ठोस कदम डठाया गया है, बल्कि त्वरित अदालतों के जरिए राजनीति व समाज के दूसरे क्षेत्रों के अपराधीकरण पर भी अंकुश लगाने की कोशिश की गई है। इतना ही नहीं नीतीश शासन में विकास को राजनीति का केंद्र बिंदु बनाया गया है। पुराने जातीय वोट बैंक को तोड़ कर नया वोट बैंक बनाने का आरोप नीतीश कुमार पर जरूर लग रहा है। पर, इस समावेशी कदम को अधिकतर जनता ने पसंद किया है। क्योंकि दलित, मुस्लिम और पिछड़ों में जो अंतिम कतार में खड़े हैं, उनके लिए नीतीश सरकार ने काम किया है। महात्मा गांधी ने भी तो समाज के सबसे कमजोर कमजोर व्यक्ति की चिंता की थी।

बिहार के आम मतदाता नीतीश सरकार के जिस काम से सबसे अधिक खुश नजर आते हैं, वह काम कानून -व्यवस्था की स्थिति में सुधार का काम है। सन् 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव के समय पुलिस मुख्यालय के हवाले से यह खबर आई थी कि तब राज्य में 40 हजार फरार वारंटी थे। यानी इतने आरोपितों के खिलाफ राज्य की विभिन्न अदालतों ने गिरफ्तारी के वारंट जारी कर रखे थे, पर उनकी गिरफ्तारी नहीं हो रही थी। गिरफ्तारी क्यों नहीं हो रही थी, यह सब जानते हैं।

पर नीतीश कुमार के बिहार में सत्ता संभालने के बाद त्वरित अदालतों ने काम शुरू किया। तीन साल में छोटे- बड़े 32 हजार आरोपितों को अदालतों ने सजाएं सुना दीं। नतीजतन राज्य में शांति का माहौल बन गया। इस लोकसभा चुनाव में कोई बाहुबली एक भी हत्या करने की हिम्मत नहीं जुटा सका, तो यह अकारण नहीं है। यही नई राजनीतिक संस्कृति है, जिसे जनता ने पसंद किया और राजग को भारी संख्या में जिताया। इस चुनाव नतीजे ने यह भी बताया कि बाहुबलियों और उनके रिश्तेदारों के लिए उनके पास अब वोट नहीं हैं। यदि कानून व्यवस्था कायम हो जाती है, तो बाहुबलियों की किसी को जरूरत ही कहां है ? बिहार में एक जाति के बाहुबली के मुकाबले के लिए दूसरी जाति के बाहुबली पैदा होते रहे थे। सत्ता और प्रतिपक्ष में बैठे कई नेतागण उन्हें संरक्षण देकर लोकसभा व विधानसभा में पहुंचाते थे। अब वह संस्कृति समाप्त हो रही है। अभी पूरी तरह तो समाप्त नहीं हुई है, पर जितनी भी समाप्त हुई है, उसका श्रेय नीतीश कुमार को जाता है। यदि लालू प्रसाद और रामविलास पासवान जैसे नेता भी इसी नई संस्कृति को आगे बढ़ाने के लिए भविष्य में काम करेंगे, तो वे बिहार की राजनीति में फिर से प्रासंगिक हो सकते हैं। यदि देर करेंगे, तो तब तक तो नीतीश कुमार अपने कामों के जरिए इन नेताओं को काफी पीछे छोड़ देंगे।

जातीय वोट बैंक -विनाश और कानून व्यवस्था की वापसी के साथ- साथ नीतीश सरकार ने विपरीत परिस्थितियों में भी विकास के जितने ठोस काम गत 40 महीनों में किये हैं, उत्तर प्रदेश जैसे अराजक राज्य के लिए भी अनुकरणीय हैं। यदि नीतीश कुमार के नेतृत्ववाले गठबंधन बिहार राजग के अधिकतर नेता व कार्यकर्ता ईमानदार व जनसेवी होते तथा सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार व काहिली की मात्रा कम होती, तो राज्य के विकास की गति और तेज होती। एक जर्जर एंबेसेडर गाड़ी को अस्सी क्या साठ किलोमीटर प्रति घंटा की दर से भी नहीं चलाया जा सकता है। यहां की राजनीतिक और प्रशासनिक कार्यपालिका की हालत जर्जर एम्बेसेडर कार की ही है। साथ ही अफसरों, कर्मियों तथा अन्य आधारभूत संरचना की भी भारी कमी है।

जो हो, राज्य सरकार की तमाम कमियों को मतदाताओं ने नजरअंदाज किया है, क्योंकि उसे लग गया है कि नीतीश कुमार की मंशा ठीक है, तो देर-सवेर वे उन कर्मियों को ठीक कर ही लेंगे।

नीतीश सरकार के सत्ता में आने के बाद बिहार के विकास बजट में अचानक भारी वृद्धि और आंतरिक कर संग्रह में महत्वपूर्ण इजाफे ने भी लोगों में राज्य सरकार के प्रति विश्वास बढ़ा दिया। सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि राज्यहित में काम कर रहे मुख्यमंत्री से भाजपा ने ईष्र्या नहीं की, उनका सहयोग किया जिसका नतीजा सामने है। भाजपा और व्यवसायी समुदाय से आने के बावजूद वित्त मंत्री सुशील कुमार मोदी ने वाणिज्य कर की वसूली की मात्रा तीन साल में दुगुनी करवा दी।

जिस राज्य में कुछ ही साल पहले तक साल में दो-तीन हजार करोड़ रुपये भी विकास पर खर्च नहीं हो पा रहे थे, वहां दस-बारह हजार करोड़ हर साल खर्च होने लगे हैं। राज्य के कोन-कोने में किसी-न-किसी तरह के सरकारी विकास कार्य नजर आने लगे हैं। सवाल विकास के विस्तार से अधिक राज्य सरकार की मंशा का है, जिसके प्रति आम लोगों को भारी विश्वास है। यही नई कार्य संस्कृति और राजनीतिक संस्कृति है, जिसे अब लालू -रामविलास पासवान को भी विकसित करना पड़ेगा। यदि नहीं करेगे, तो वे समय के साथ और भी अकेला पड़ जायंेगे।

पर इस चुनाव में भारी सफलता के बाद नीतीश कुमार को सरकारी दफ्तरों में व्याप्त भारी भ्रष्टाचार के खिलाफ बेरहम अभियान चलाना पड़ेगा। अन्यथा विकास का लाभ आम लोगों को नहीं मिलेगा। राजनीति में बचे -खुचे अपराधियों को निकाल बाहर करना पड़ेगा। ऐसी सफलता के बाद बड़े -बड़े नेताओं के मन डोलने लगते हैं। उनमें एकाधिकारवादी प्रवृत्ति पैदा होने लगती है। किसी नेता के मन में ऐसी प्रवृत्ति पैदा कराने में कुछ करीबी लोग महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नीतीश कुमार के स्वभाव को देखते हुए तो लगता है कि वे ऐसी प्रवृति खुद में पनपने नहीं देंगे। पर पता नहीं कल क्या होगा ? एक बात तय है कि नीतीश कुमार से इस राज्य की जनता को भारी उम्मीदें हैं। उम्मीद है कि वे एक ऐसे विनम्र, किंतु दृढ़ नेता के रूप में इतिहास में याद किया जाना पसंद करेंगे, जिसने एक बिगड़ी शासन व्यवस्था को थोड़े ही समय में पटरी पर ला दिया। गत 40 महीने के उनके शासन काल से यह साफ है कि ऐसा वे कर सकते हैं। उनका यह फैसला सही है कि वे राजग में ही रहेंगे और साथ ही यह बात भी है कि बिहार में राजग की घटक भाजपा जैसी शांत सहयोगी शायद ही कहीं किसी और को मिले !

प्रभात खबर से साभार (17 मई, 2009)

रविवार, 17 मई 2009

एक विदेशी बैंक में भारत के खरबों डूबने की कहानी

यह कथा बिहार के दरभंगा की है। यह नीदरलैंड के एक बैंक में 77 अरब रुपए डूबने की कहानी है। यह धन दरभंगा के मोहम्मद मोहसिन का था। यह कहानी सन् 1984 में दरभंगा के ही एक शिक्षक वैद्यनाथ मिश्र ने इन पंक्तियों के लेखक को सुनाई थी। वे उस धन को निकालने की कोशिश करते-करते दिवंगत हो गए। अब उनके करीबी रिश्तेदार इस कोशिश में लगे हैं। पर, सफलता हाथ नहीं लग रही है।

इनके दावे में कितना दम है? ऐसे माहौल में एक बार फिर इस पुरानी कहानी पर एक नजर डालना मौजंू होगा, जब स्विस बैंकों मेें जमा भारतीयों के काला धन को लेकर इस देश में चर्चा गर्म है।

मोहसिन ने मरने से पहले वैद्यनाथ मिश्र को दान पत्र के जरिए इस विदेशी बैंक में जमा धन का उत्तराधिकारी बना दिया था। मोहसिन, मिश्र परिवार के कर्जदार थे। मोहसिन हैदराबाद निजाम के यहां जौहरी का काम करते थे। कहते हैं कि वहां से उन्होंने किसी-न-किसी तरीके से काफी हीरे -जवाहरात लाए थे। मोहसिन ने उस हीरे-जवाहरात को नीदरलैंड ट्रेडिंग एजेंसी की कलकत्ता शाखा में जमा कर दी थी। बाद में ट्रेडिंग सोसायटी एक बैंक में परिवर्तित हो गई, जिसका नाम पड़ा एल्जीमीन बैंक नीदरलैंड एन.वी।

उस हीरे -जवाहरात की कीमत आंक कर ट्रेडिंग सोसायटी ने मोहसिन को 21 अगस्त, 1923 को 21 करोड़ मार्क की रसीद दे दी थी। वह रसीद अब भी मिश्र परिवार के पास है, पर जब वैद्यनाथ मिश्र ने इस धन को विदेश से वापस लाने के लिए उस बैंक से पत्र व्यवहार शुरू किया, तो एल्जीमीन बैंक ने कभी तो लिखा कि वह लौटाने को तैयार है, तो कभी कहा कि उस रिश मार्क का अब न तो कोई विनिमय मूल्य है और न ही कोई कीमत। मोहसिन से मिश्र को इस जमा धन का उत्तराधिकार कैसे मिला? यह भी कथा के भीतर की एक कथा है।

दरअसल बड़ी संपत्ति के मालिक मोहसिन शाह खर्च निकले। अपनी जमा पूंजी खत्म हो गई, तो इस कारण वे मिश्र परिवार के कर्जदार हो गए थे। उन्होंने इसी कारण इस बैंक जमा खाते का मिश्र परिवार को लिखित तौर पर उत्तराधिकारी बना दिया। उसके बाद वैद्यनाथ मिश्र ने इस संबंध में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी और बाद के अन्य सत्ताधिकारी नेताओं से बारी- बारी से गुहार लगाई। वे पैसे की वापसी की कोशिश में देश भर में चक्कर काटते रहे। इस संबंध में उचित कार्रवाई का लोगों से आग्रह करते रहे। पर सफलता नहीं मिली।

27 जुलाई, 1989 को सी.पीआई. के चतुरानन मिश्र ने यह मामला राज्य सभा में उठाया। केंद्र सरकार ने सीधा हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया।पर चतुरानन मिश्र ने 18 जुलाई 1990 को संसद में धरना देने की धमकी दी, तो भारत सरकार ने जांच करके बताया कि यह मामला सिर्फ 70.80 गिल्डर का है। इतने छोटे मामले में भारत सरकार हस्तक्षेप नहीं करेगी। सन् 15 अगस्त, 1990 को भी हुकुम देव नारायण यादव के नेतृत्व में 14 सांसदों ने इस संबंध में तत्कालीन प्रधान मंत्री वी.पी. सिंह को पत्र लिखा और धन की वापसी के लिए हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया।

इस बीच वैद्यनाथ मिश्र का परिवार विभिन्न अदालतों में भी मामला दायर करता रहा, पर अब तक कोई नतीजा नहीं निकला। वैद्यनाथ मिश्र के बाद डाॅ. मुनींद्र भट्ट इस मामले का पीछा करते रहे। ं

दिल्ली हाई कोर्ट के वकील आर.के. जैन ने 1999 में मुख्य सतर्कता आयुक्त को लिखा कि वह इस बात की जांच कराएं कि इस धन के विदेश से वापस लाने में भारतीय सरकारी बैंकों ने किस तरह की लापरवाही बरती है।

इस संबंध में दरभंगा के वैद्यनाथ मिश्र के साथ इन पंक्तियों के लेखक की सन् 1984 में हुई लंबी बातचीत का विवरण यहां पेश है।

प्रश्न-आपके दावे में कोई दम भी है या फिर आप सिर्फ हवा मंे हाथ-पैर मार रहे हैं ? क्योंकि जितनी बड़ी रकम आप बता रहे हैं, वह तो अविश्वसनीय लगती है?

जवाब-मैं हवा में नहीं हूं। मेरी प्रत्येक बात ठोस सबूतों के आधार पर है। यदि एल्जीमीन बैंक समझता है कि मेरे दावे में दम नहीं है, तो वह मूल मुद्दे को अदालत के सामने क्यों नहीं आने दे रहा है ? यदि दम नहीं होगा, तो अदालत मेरे दावे को खारिज कर देगी। पर बैंक तकनीकी आधार पर प्रारंभिक दौर में ही इस मामले को खत्म करा देने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगा रहा है।

प्रश्न-यह तकनीकी आधार क्या है ?

उत्तर-यही कि मैंने कोर्ट फीस जमा नहीं की है और दावे के मामले में तमादी हो चुकी है।

प्रश्न-जब आपके दावे में इतना दम है, तो फिर कोर्ट फीस की रकम जमा कर देने के लिए कोई फिनांसर मिल जाना चाहिए था?

उत्तर-इस मुकदमे के बारे में अभी लोगों को मालूम ही नहीं है। क्योंकि अखबारों ने भी अब तक इस ओर ध्यान नहीं दिया। अन्यथा कोई फिनांसर मिल जाता। वैसे तो इस केस को खुद भारत सरकार को लड़ना चाहिए था। क्योंकि प्राप्त होनेवाली रकम में से कानूनन 80 प्रतिशत तो भारत सरकार को ही मिलनी है। यह तो भारत की आर्थिक आजादी के लिए लड़ाई है, जो मैं अकेले लड़ रहा हूं।

प्रश्न-अब जरा मूल मुद्दे पर आइए। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मोहम्मद मोहसीन ने एल्जीमीन बैंक में वही जर्मन रीश मार्क जमा किया हो, जो उन दिनों हजारों में देने पर एक कप चाय मिलती थी ?

उत्तर-असंभव ! बिलकुल असंभव ! ! मरते समय मोहसिन ने मुझे बताया था कि उसने हीरे- जवाहरात ही जमा किए थे और मरते समय सामान्यतः कोई झूठ नहीं बोलता। साथ ही आपको तो मालूम ही होगा कि जर्मनी एक देश है और नीदरलैंड दूसरा देश। नीदरलंैड पर कुछ वर्षों को छोड़कर कभी किसी देश का अधिकार नहीं रहा। पड़ोस का देश होने के कारण नीदरलैंड के भारत स्थित बैंक को यह मालूम था कि जर्मन रीश मार्क को उसी देश के लोग लेने से इनकार कर रहे थे। यहां तक कि जर्मन सरकार ने रीश मार्क अस्वीकार करने के जुर्म में अपने कुछ नागरिकों को फांसी भी दे दी थी। रीश मार्क उन दिनों जर्मनी के निजी छापाखानों में भी छपने लगे थे। जर्मन सरकार भी जो नोट छाप रही थी, उस पर भी सरकार की ओर से ऐसा कोई प्रामिस नहीं होता था जैसा कि भारतीय नोट पर रिजर्व बैंक के गवर्नर की तरफ से लिखा रहता था कि ‘मैं धारक को ......रुपए अदा करने का वचन देता हूं।’ऐसी स्थिति में ऐसा हो ही नहीं सकता कि जो रीश मार्क जर्मनी में ही अस्वीकृत हो रहा हो, उसे साढ़े 4 प्रतिशत ऊंचे सूद पर कोई दूसरा देश लेता। फिर बात यह भी है कि जो मोहसिन कभी विदेश नहीं गया, वह इतना अधिक जर्मन रीश मार्क लाता कहां से? सबसे बड़ी बात यह है कि एल्जीमीन बैंक के पास यदि मोहसिन का दिया हुआ जर्मन रीश मार्क है, तो उसने 1968 में लिखित वायदा करने के बावजूद उस जमाकर्ता को लौटाया क्यों नहीं ?दरअसल बात यह है कि जौहरी मोहसिन ने हीरे-जवाहरात जमा किए थे, जिसकी कीमत मार्क में लगा कर बैंक ने रसीद दे दी थी। इतिहास बताता है कि उन दिनों मार्क नीदरलैंड में मनी आॅफ एकाउंट था।

प्रश्न - क्या आपने नीदरलैंड का आर्थिक इतिहास भी पढ़ा है ?

उत्तर-इस मामले को लेकर मैंेने इस देश के लगभग सभी पुस्तकालयों को छान मारा है। विदेशों से भी कुछ सहित्य मंगाया है । मैंने यहां तक कि जर्मन रीश मार्क का एक नोट भी जर्मनी से मंगाया है, जो उन दिनों प्रचलित था। (मिश्र ने वह नोट भी इस संवाददाता को दिखाया।)

प्रश्न-क्या यह जर्मन नोट वही नोट है, जिसे मोहसिन द्वारा जमा करने की बात एल्जीमीन बैंक कर रहा है ?

उत्तर - इसमें भी घपला है। मोहसिन ने 21 अगस्त, 1923 को जमा किया। जर्मन रीश मार्क सितंबर, 1923 में पहली बार छपा। पर उसी पर यह भी लिखा हुआ है कि यह दो वर्षों के बाद प्रचलन में आएगा, तो फिर ऐसे रीश मार्क को एल्जीमीन बैंक कैसे स्वीकार कर सकता था, जो अभी प्रचलन में नहीं था और छपा भी नहीं था ?

प्रश्न-ःक्या मार्क सिर्फ जर्मनी में ही चलता है ?

उत्तर-नहीं मार्क भिन्न-भिन्न रूपों में फ्रांस, आस्ट्रिया, फिनलैड और बावेरिया आदि देशों में प्रचलित रहा है। किस देश में मार्क का क्या रूप था, इस पर मैंने बहुत साहित्य पढ़ा है। मैं एक बार फिर कह दूं कि नीदरलैंड में मार्क मनी आॅफ एकाउंट ही था। जैसे आज भी कुछ देशों के लिए पाउंड और डाॅलर मनी आॅफ एकाउंट है, हालांकि यह वहां की करेंसी नहीं है।

प्रश्न-इस बात के आपके पास और क्या प्रमाण हैं कि मोहसिन ने नोट नहीं, बल्कि हीरे-जवाहरात ही जमा किए थे ?

उत्तर-एल्जीमीन बैंक इतना अधिक सूद (साढ़े चार प्रतिशत प्रति वर्ष) किसी कीमती सामग्री पर ही दे सकता है। मोहसिन जौहरी थे और और बाद में ‘नवाब’ हो गए थे।इसलिए उनके पास इतने हीरे-जवाहरात होना नामुमकिन नहीं था।

प्रश्न-मोहसिन ने आपको अधिकार कैसे दे दिया, जबकि उसकी बेटी का बेटा मंजुरूल हसन मौजूद है और काफी गरीबी में है?

उत्तर-मोहसिन मेरे परिवार का कर्जदार था। इसलिए उसने मरने से एक वर्ष पूर्व मेरे नाम बजाप्ता दान पत्र लिखा। फिर भी मुझे इस संपत्ति का कोई लोभ नहीं है। मैं तो इसलिए यह लड़ाई लड़ रहा हूं, ताकि यूरोप से अपने गरीब भारत को इसका वाजिब पैसा मिल जाए और यह देश के विकास के काम में खर्च हो।

प्रश्न- इस लड़ाई में आपको क्या- क्या कठिनाइयां आईं ?

उत्तर-शारीरिक और आर्थिक परेशानी के साथ- साथ मुझे जान से मारने की भी कोशिश की गई। जब मैं रिजर्व बैंक के गवर्नर से मिलने बंबई गया था, तो मेरी हत्या का प्रयास हुआ। एल्जीमीन बैंक की शाखा कलकत्ता के अलावा बंबई और मद्रास में भी है। नीदरलैंड के दिल्ली स्थित दूतावास में वार्ता के दौरान वहां का एक अधिकारी मुझ पर गोली चलाने पर अमादा हो गया था। किसी तरह जान बची। इसलिए मैं अपने शहर में भी सावधान रहता हूं। कागजात बैंक लाॅकर में रखता हूं।

प्रश्न-इस संबंध में रिजर्व बैंक और स्टेट बैंक की कैसी भूमिका रही ?

उत्तर-इन बैंकों की भूमिका पर आश्चर्य होता है। लगता है कि इनके अधिकारियों में देशप्रेम है ही नहीं। जब भी मैंने उन्हें लिखा, इन बैंकों ने बंधा -बंधाया जवाब दे दिया कि एल्जीमीन बैंक के जरिए पत्र व्यवहार कीजिए। अब भला आप ही बताइए कि जिस एल्जीमीन बैंक के विरुद्ध मैं शिकायत कर रहा हूं, उसी बैंक के जरिए इस पर कोई लाभप्रद पत्र व्यवहार कैसे हो सकता है ?

प्रश्न-मोहसिन के उस हीरे-जवाहरात की वास्तविक कीमत कितनी है ?

उत्तर-मैंने कलकत्ता के चार्टर्ड एकाउंटेंड आर.एस.पी. गुप्त एंड कंपनी से 19 जून, 1980 को इसकी गणना कराई थी। इक्कीस करोड़ मार्क की भारतीय रुपए मंे कीमत बीस अरब 49 करोड़ 60 लाख रुपए होती है। उस तारीख तक सूद की रकम 52 अरब 41 करोड़ 24 लाख 13 हजार 315 रुपए थी। अब यह राशि बढ़कर 77 अरब रुपए हो गई है। इधर मैंेने मार्क पर कुछ और साहित्य पढ़ा है। यूरोप में खास कर नीदरलैंड में एक मार्क की कीमत आठ औंस चांदी से लेकर 8 औंस सोना तक बताई गई है। सोना की बात छोड़ भी दी जाए, तो चांदी के आधार पर ही 21 करोड़ मार्क की कीमत आंकी जाए, तो वह 2 खरब 19 अरब रुपए तक पहुंच जाती है।मैं तो देश के धनवानों से अपील करता हूं कि वे इस देश को समृद्ध बनाने के लिए इसमें थोड़ा धन लगाएं।

वैद्यनाथ मिश्र से इन पंक्तियों के लेखक की बातचीत के 25 साल बीत चुके है। यदि उस धन की कीमत का आकलन आज की तारीख में किया जाए, तो उसके भारी आकार की सहज ही कल्पना की जा सकती है। मिश्र को अफसोस रहा कि इस मामले को उसकी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंचाया जा सका।

साभार पब्लिक एजेंडा