सोमवार, 29 सितंबर 2008

यहां,वहां का फर्क
हाल में बिहार का एक व्यक्ति पटना-पूणे एक्सप्रेस से पूणे गया था।उसने लौटकर बताया कि ट्रेन तो एक ही है।वह पटना से खुलती है और पूणे तक जाती है।पर, उस टेन के डिब्बों और उसके यात्रियों के साथ रेल व पुलिसकर्मियों का विभिन्न प्रदेशों में व्यवहार बिलकुल अलग तरह का होता है। बिहार और उत्तर प्रदेश से जब तक वह ट्रेन गुजरती है तो अवैध यात्रियों को रिजर्व डिब्बे में प्रवेश करने से पुलिस व रेलकर्मी नहीं रोकते। यहां तक कि अवैध तरीके से गुटका तथा अन्य सामान बेचने वालों को भी ट्रेन में पूरी छूट रहती है।पर जैसे ही ट्रेन मध्य प्रदेश की सीमा में पहुंचती है, व्यवस्था बेहतर हो जाती है।मध्य प्रदेश व महाराष्ट्र के रेलवे जंक्शनों पर डिब्बों व बाथ रूमों की सफाई होने लगती है। अधिकृत यात्रियों के अलावा कोई अनधिकृत यात्री या हाॅकर डिब्बे में प्रवेश नहीं कर पाता।याद रहे कि जब तक वही गाड़ी बिहार-उत्तर प्रदेश में रहती है,बाथ रूमों से भारी दुर्गंध आती रहती है और उसकी सफाई पर कोई ध्यान नहीं देता।रेल महकमा तो एक ही है, पर ऐसा फर्क क्यों है ?
डी.एन।ए.-नार्को का उपयोग
टी।वी. कलाकार सीमा कपूर ने सलाह दी है कि राजनीति में प्रवेश से पहले राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं का नार्को टेस्ट कराया जाना चाहिए ताकि यह पता चल सके कि उनका राजनीति में आने का वास्तविक उद्देश्य क्या है।वह कहती हैं कि ‘मुझे स्वार्थ और भ्रष्टाचार में लिप्त राजनीति का वर्तमान चेहरा देख कर घृणा भी होती है और डर भी लगता है।’ पर, सवाल है कि नार्को टेस्ट कराने की सीमा कपूर की सलाह इस देश का कौन नेता व दल मानने को आज तैयार होगा ? जन सेवा,लोकहित और राष्ट्रहित की भावना से ओतप्रोत व्यक्ति की उन्हें आज जरूरत ही कहां है ! पर, इस तरह की मांग, इस देश की राजनीति में बढ़ रही जानलेवा गंदगी के प्रति गैर राजनीतिक लोगों की बढ़ती पीड़ा को जरूर दर्शाती है। उधर असम की सरकार ने भारत सरकार को इसी तरह की सलाह बंगला देशी घुसपैठियों के बारे में दी है।करीब एक करोड़ बंगलादेशी घुसपैठियों की समस्या से जूझ रही असम सरकार ने केंद्र को सलाह दी है कि जो व्यक्ति नेशनल रजिस्टर आफ सिटिजन्स, 1951 में अपना नाम दर्ज कराना चाहते हैं, उनका डी.एन.ए.टेस्ट होना चाहिए ताकि यह पता चल सके कि उनके पूर्वज यहीं के हैं।यानी, इस देश में गरीब विरोधी व देश विरोधी तत्वों को सामान्य प्रशासनिक मशीनरी द्वारा रोकना असंभव हो चला है।इसीलिए तो भ्रष्ट नेताओं व राष्ट्रविरोधी तत्वों के लिए नार्को व डी.एन.ए. जांच की सलाह दी जा रही है ! पर, जब करोड़ों बंगलादेशी घुसपैठियों के भविष्य के बारे में केंद्रीय कैबिनेट के सदस्यों के बीच ही आम राय नहीं है तो केंद्र सरकार, असम सरकार की बात कैसे मानेगी ?
बेलगाम बुद्धिजीवी की ताजा उड़ान
‘बेलगाम बुद्धिजीवी’ अरूंधति राय की राय है कि ‘कश्मीर को भारत से और भारत को कश्मीर से आजादी की जरूरत है।’ समय -समय पर ऐसी ही सलाह देने वाली इस ‘विश्व नागरिक’ की ताजा सलाह को भी एक ‘मुक्त चिंतक’ संपादक ने अपनी पत्रिका में प्रकाशित किया है। थोड़ी देर के लिए यह कल्पना कीजिए कि इस सलाह को लागू कर दिया जाए । तो फिर क्या होगा ? क्या उसके बाद का कुपरिणाम सिर्फ भारत तक सीमित ही रहेगा ? वैसे भारत में भी उन इलाकों को भी भारत से अलग करके न सिर्फ अलग मुस्लिम देश बनाने की मांग तेज होगी, बल्कि ऐसी मांग दुनिया के अन्य कई देशामें में भी होने लगेगीं ंक्योंकि कश्मीर के अलग हो जाने से सबसे बड़ा मनोबल ओसामा बिन लादेन का ही तो बढ़ेगा।उनके लड़ाके दुनिया के कई अन्य देशों के साथ साथ कश्मीर में भी सक्रिय हैं।ओसामा ने घोषणा कर रखी है कि अमेरिका के बाद भारत ही उसके निशाने पर है।बहाना अभी कश्मीर का है। और अंत मेंनेपाल के कुशहा में कोसी तटबंध क्या टूटा,बिहार की राजनीति में झूठ और सच के बीच की पहले से ही पतली होती लकीर भी मिट गई।
साभार प्रभात ख़बर

गांधी के प्रति जेल में पटेल का मातृवत् स्नेह

सुरेंद्र किशोर महात्मा गांधी तथा सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे शीर्ष नेता भी अपने राजनीतिक सह कर्मियों के स्वास्थ्य व अन्य निजी समस्याओं का भी कितना ध्यान रखते थे,इसका पता उनके आपस के पत्र- व्यवहार व लेखों से चलता है। महात्मा गांधी की जेल में सरदार वल्लभ भाई पटेल ने जो सेवा की, उससे अभिभूत होकर गांधी जी ने उसे मातृवत् स्नेह करार दिया।इस संबंध में ़महात्मा गांधी ने 8 मई 1933 को लिखा कि ‘मेरे जीवन के महानतम सुखों में से एक था कि मुझे सरदार के साथ जेल में रहने का अवसर प्राप्त हुआ। मैं उनके अजेय साहस तथा देश के लिए अद्वितीय प्रेम के बारे में तो जानता था,लेकिन उनके साथ 16 महीने का लंबा समय बिताने का सौभाग्य पहले मुझे प्राप्त नहीं हुआ था।उनके अनुराग और प्रेम से मैं इतना अभिभूत हो गया कि मुझे अपनी प्रिय मां का स्मरण हो आया। मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि उनमें मातृवत् स्नेह जैसे गुण मौजूद हैं।यदि मैं थोड़ा सा भी अस्वस्थ होता तो वे हाजिर हो जाते और मेरी छोटी से छोटी आवश्यकता पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान देते।उन्होंने और उनके सहयोगियों ने अपने बीच निश्चय किया कि वे मुझे कुछ भी कार्य नहीं करने देंगे।मैं आशा करता हूं कि सरकार मेरा विश्वास करेगी कि जब भी हमने राजनीतिक चर्चा की ,वह ऐसे व्यक्ति थे जो सरकार की मुश्किलों को महसूस करते थे।बारदोली और कैरा के किसानों की चिंता और कष्टों के प्रति वह कितना चिंतित रहते थे,यह मैं कभी नहीं भूलूंगा।’ सरदार वल्लभ भाई पटेल, जो आजादी के बाद देश के उप प्रधान मंत्री और गृह मंत्री बने थे,यह भी चाहते थे कि महात्मा गांधी यदि पूर्ण स्वस्थ नहीं हैं तो उन्हें अधिक श्रम नहीं करना चाहिए।यहां तक कि अपने हाथ से पत्र भी नहीं लिखना चाहिए।सरदार पटेल ने 5 जून 1933 को महात्मा गांधी को लिखा, ‘आदरणीय बापू, लगभग एक मास बाद मुझे आपका हस्तलेख देखने का सौभाग्य मिला।हम बहुत प्रसन्न हुए।हम दोनों ठीक हैं। चिंता करने का क्या फायदा, मेरी चिंता का कोई प्रभाव नहीं हो सकता।आपकी फिक्र करने को ईश्वर है।’ सरदार पटेल ने लिखा, ‘अपने हाथ से पत्र लिखने में जल्दीबाजी न करें। शरीर में ताकत आने दें। तब तक आप महादेव को लिखने का आदेश दें और आप केवल पत्रों पर हस्ताक्षर करें, इतना ही काफी है। वल्लभ भाई की शुभकामनाएं और प्रणाम।’ देखिए, सरदार पटेल की रोगग्रस्त नाक की समस्या पर महात्मा गांधी ने जेल से कैसा पत्र लिखा। मेजर भंडारी को 20 मार्च 1933 को गांधी जी ने लिखा,‘ प्रिय मेजर भंडारी, मैंने अनेक बार सरदार वल्लभ भाई पटेल की नाक की समस्या के बारे में आपको बताया।आप जानते हैं कि इस पर बात करने की उनकी अनिच्छा ही रहती है।लेकिन हमलोग जो इसके बारे में जानते हैं,आशंकित हैं।जब तक इसका दौरा समाप्त नहीं होता,वह तड़पते रहते हैं।आपने और मेजर मेहता ने जो इलाज सुझाए,सब नाकाम रहे।दौरे जल्दी -जल्दी पड़ रहे हैं और अधिक कष्टप्रद होते जा रहे हैं।गत शनिवार को सबसे भयंकर दौरा पड़ा। 30 घंटे से अधिक नाक बहती रही। आंखें खून जैसी लाल हो गई थीं।पूरे दिन उन्होंने कुछ नहीं खाया। सुबह केवल चाय पी और शाम को दूध,फल और उबली हुई सब्जियां खाई।वह अपना सामान्य भोजन नहीं ले पा रहे हैं।मैं महसूस करता हूं कि विशेषज्ञों द्वारा इनकी जांच कराने का समय आ गया है। भवदीय,एम।के.गांधी।’ गांधी जी उम्र जैसे -जैसे बढ़ रही थी,सरदार पटेल चाहने लगे थे कि उन्हें अनावश्यक तनाव व कार्याधिक्य से मुक्त ही रखा जाए।एक अक्तूबर 1935 को सरदार पटेल ने एक बैठक को संबोधित करते हुए कहा कि ‘लोग मुझसे पूछते हैं कि गांधी जी कांग्रेस में कब वापस आएंगे,तो मैं उत्तर देता हूं कि महात्मा गांधी 67 वर्ष के हैं।हम उनसे कितनी अपेक्षाएं और रख सकते हैं ? अब हमें उनके अधूरे कार्य को पूरा करना चाहिए।’ निजी दुखों को भुला कर भी सरदार पटेल आजादी के लिए जेल यातना सह रहे थे। अक्तूबर , 1933 में सरदार पटेल के अपने भाई का निधन हो गया।तब सरदार नासिक सेंट्रल जेल में थे।बंबई के बहुत से लोगों की इच्छा थी कि दाह संस्कार में शामिल होने के लिए सरदार पेरोल पर जेल से बाहर आएं। पर, उन लोगों को जवाब देते हुए सरदार ने जेल से लिखा,‘जेल से बाहर आने की मांग करना न तो मुझे शोभा देता है और न ही राष्ट्र को।सत्याग्रही के लिए यह उचित नहीं है कि वह सरकार पर अनुचित दबाव डाले जिसमें ऐसी स्थिति से फायदा उठाया जाए।’
साभार प्रभात ख़बर १२ सितम्बर २००८

Melting iceberg of vote banks politics in Bihar

Surendra kishore
Not only the ice on the north pole of the earth, the iceberg of vote bank politics in Bihar is also melting slowly .It is due to the new type of social engineering of the engineer turned politician chief minister Nitish kumar.It is being done through the administrative and political measures.Due to new, silent and significant political developments, old benificiaries of caste-based vote banks politics are badly perturbed these days. Thus Nitish kumar is trying to change the age old agenda of Bihar politics from caste based to development based.
Whenever next lok sabha election takes place, in Bihar new voting pattern might be witnessed.In politically vibrant state like Bihar,this new political phenomenon is seems to be of far reaching consequences.Nitish kumar became the chief minister of the state in November,2005.Since then three lok sabha bye elections took place in the state.According to keen political observers ,all the three bye elections were won by the ruling N.D.A.candidates due to this new social engineering apart from several developmental schems.
Before discussing the measures taken by the new chief minister of this economically backward and to some extent unfortunate state,one should like to know the prevalent caste based vote bank politics.Obviously it was started by Congress party who has created Woman,Brahmin,muslim and schedule castes vote bank for her.It was created by the then prime minister Indira Gandhi after great division of the congress in 1969 .Bihar was also in the grip of this caste based politics for long years.But when Laloo prasad emerged as mandal messiah in ninetees,he created his own backward-dalit-muslim vote bank.He ruled the state like despot for full fifteen years with the help of this vote bank.Later part of his rule,he was limited to muslim-yadav vote bank only.Meantime Ram vilas paswan has created a solid niche in Paswan vote bank for himself.When Nitish kumar parted company with Laloo Prasad in 1994,he was the leader of kurmi-koiri vote bank.
Vote bank politics has done immense damage to Bihar making it more backward.Supremos of vote bank politics thought their vote bank fiefdoms would not desert them even if they become oblivious to the problems of the backward and unfortunate state like Bihar.For many years, Bihar politics was guided by the slogans based on castes,religion and other sentiments.Cash and criminals also played their roles .Developments were neglected like anything.In every district,some sort of political mafias were allowed to be emerged and rule.Law and order was the worst casualty. Major parts of the govermental funds for developments and welfare were looted with impunity.Intoxicated with the power of vote bank politics,power –that- be was became ultra insensitive to even the basic problems of even their own people ie vote bank.
Realising the menace of vote bank politics, Nitish kumar started demolishing this from the first year of his office.His efforts are still on.For panchayats and local bodies elections, Nitish government has reserved fifty percent elective seats for women. Nitish kumar managed to reserve 20 percent seats for extremely backward castes in panchayats and local bodies.With this particular decision chief minister s own caste kurmi was deprived of many seats in panchayats and local bodies.Before this decision in favour of extremely backward castes, major panchayats seats were won by intermediary backward castes like yadav and kurmi.
Another major move in this regard was the reservation of 50 percent seats for women candidates in primary school teachers recruitments.Nearly two lakh teachers were already recruited during nitish tenure. Process for recruitments of another one lakh teachers is on.Thus by giving jobs to one and half lakh women in schools Nitish kumar badly damaged the old pattern of vote bank politics.Apart from these things Nitish government has taken some others women-centric measures dividing vertically the traditional vote banks.Guided by late socialist thinker and leader Dr.Ram manohar lohia ,Nitish kumar regarded women from every castes backwards and oppressed.Though Nitish kumar s party does not want to extend this Lohia s thinking for reservation for this section in parliament and state legislatures.This is really curious part of nitish kumar s politics.
Anyway, this thing apart Nitish kumar provoked Ram vilas paswan and Laloo Prasad for criticizing him for so called attempt to divide minority and dalits. Nitish government has created Maha dalit commission for recommending welfare measures for extremely backward among dalits.The commission has come to the coclusion that only a few castes among Dalits are being benifitted after independence.Nitish government has earmarked separate funds for the welfare of extremely dalits castes.Central minister and another strong leader of Bihar Mr Ram vilas paswan has openly charged Nitish kumar for dividing dalits and thus trying to weakenin them .
Same way, Laloo prasad and his party Rashtriya janta dal has been accusing nitish kumar continuously for dividing backwards and muslims.They also charged that Nitish was playing in the hands of feudal elements by dividing the forces of social justice and communal harmony.But supporters of new measures are not convinced saying that people at large are happy with the new measures of the state government.They argue that without thinking about any vote bank thing,Nitish government taking the measures which are necessary for the weaker sections of different caste and community groups..
But apart from the overt statement,hidden agenda of demolishing vote bank politics is doing miracle. Apart from winning all lok sabha and assembly bye election seats in last two and half years,the latest survey by a newspaper suggests that 73 percent people of Bihar think that this nitish government is more efficient than the previous one.
When two members from backward muslim ie. Pansmanda ie. backward muslim community Ali anwar and Dr.Ezaj Ali were sent to Rajya sabha one by one from Bihar by nitish kumar s party j.d.u, it was clear indication that muslim vote banks are being divided on the pattern of Hindus. Simultaneously nitish government has got the Bhagal pur riots closed cases reopened and court covicted even those accused who were got scot- free during previous regime.This made minority in Bihar soft to new regime if not supportive as BJ.P.is major partner in Nitish govt. This new type of social engineering coupled with continuing widespread developmental programmes of this government has given the different look to the monotonous politics of this unfortunate state which was solely based on cash,caste and criminals.Now people have already started taking their political decision on the basis of the performance of the government. Veteran criminals even with political patronage are being convicted one by one these days. It is believed that the next lok sabha election results from Bihar might re inforce this people s decision in a big way.It is not for nothing that Nitish is repeatedly saying that if our state government would not be able to turnaround Bihar,I would not go to the people for vote in next Bihar assembly election due in 2010.

रविवार, 28 सितंबर 2008

गांधी के प्रति जेल में पटेल का मातृवत् स्नेह

surendra किशोर

महात्मा गांधी तथा सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे शीर्ष नेता भी अपने राजनीतिक सह कर्मियों के स्वास्थ्य व अन्य निजी समस्याओं का भी कितना ध्यान रखते थे,इसका पता उनके आपस के पत्र- व्यवहार व लेखों से चलता है। महात्मा गांधी की जेल में सरदार वल्लभ भाई पटेल ने जो सेवा की, उससे अभिभूत होकर गांधी जी ने उसे मातृवत् स्नेह करार दिया।इस संबंध में ़महात्मा गांधी ने 8 मई 1933 को लिखा कि ‘मेरे जीवन के महानतम सुखों में से एक था कि मुझे सरदार के साथ जेल में रहने का अवसर प्राप्त हुआ। मैं उनके अजेय साहस तथा देश के लिए अद्वितीय प्रेम के बारे में तो जानता था,लेकिन उनके साथ 16 महीने का लंबा समय बिताने का सौभाग्य पहले मुझे प्राप्त नहीं हुआ था।उनके अनुराग और प्रेम से मैं इतना अभिभूत हो गया कि मुझे अपनी प्रिय मां का स्मरण हो आया। मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि उनमें मातृवत् स्नेह जैसे गुण मौजूद हैं।यदि मैं थोड़ा सा भी अस्वस्थ होता तो वे हाजिर हो जाते और मेरी छोटी से छोटी आवश्यकता पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान देते।उन्होंने और उनके सहयोगियों ने अपने बीच निश्चय किया कि वे मुझे कुछ भी कार्य नहीं करने देंगे।मैं आशा करता हूं कि सरकार मेरा विश्वास करेगी कि जब भी हमने राजनीतिक चर्चा की ,वह ऐसे व्यक्ति थे जो सरकार की मुश्किलों को महसूस करते थे।बारदोली और कैरा के किसानों की चिंता और कष्टों के प्रति वह कितना चिंतित रहते थे,यह मैं कभी नहीं भूलूंगा।’ सरदार वल्लभ भाई पटेल, जो आजादी के बाद देश के उप प्रधान मंत्री और गृह मंत्री बने थे,यह भी चाहते थे कि महात्मा गांधी यदि पूर्ण स्वस्थ नहीं हैं तो उन्हें अधिक श्रम नहीं करना चाहिए।यहां तक कि अपने हाथ से पत्र भी नहीं लिखना चाहिए।सरदार पटेल ने 5 जून 1933 को महात्मा गांधी को लिखा, ‘आदरणीय बापू, लगभग एक मास बाद मुझे आपका हस्तलेख देखने का सौभाग्य मिला।हम बहुत प्रसन्न हुए।हम दोनों ठीक हैं। चिंता करने का क्या फायदा, मेरी चिंता का कोई प्रभाव नहीं हो सकता।आपकी फिक्र करने को ईश्वर है।’ सरदार पटेल ने लिखा, ‘अपने हाथ से पत्र लिखने में जल्दीबाजी न करें। शरीर में ताकत आने दें। तब तक आप महादेव को लिखने का आदेश दें और आप केवल पत्रों पर हस्ताक्षर करें, इतना ही काफी है। वल्लभ भाई की शुभकामनाएं और प्रणाम।’ देखिए, सरदार पटेल की रोगग्रस्त नाक की समस्या पर महात्मा गांधी ने जेल से कैसा पत्र लिखा। मेजर भंडारी को 20 मार्च 1933 को गांधी जी ने लिखा,‘ प्रिय मेजर भंडारी, मैंने अनेक बार सरदार वल्लभ भाई पटेल की नाक की समस्या के बारे में आपको बताया।आप जानते हैं कि इस पर बात करने की उनकी अनिच्छा ही रहती है।लेकिन हमलोग जो इसके बारे में जानते हैं,आशंकित हैं।जब तक इसका दौरा समाप्त नहीं होता,वह तड़पते रहते हैं।आपने और मेजर मेहता ने जो इलाज सुझाए,सब नाकाम रहे।दौरे जल्दी -जल्दी पड़ रहे हैं और अधिक कष्टप्रद होते जा रहे हैं।गत शनिवार को सबसे भयंकर दौरा पड़ा। 30 घंटे से अधिक नाक बहती रही। आंखें खून जैसी लाल हो गई थीं।पूरे दिन उन्होंने कुछ नहीं खाया। सुबह केवल चाय पी और शाम को दूध,फल और उबली हुई सब्जियां खाई।वह अपना सामान्य भोजन नहीं ले पा रहे हैं।मैं महसूस करता हूं कि विशेषज्ञों द्वारा इनकी जांच कराने का समय आ गया है। भवदीय,एम.के.गांधी।’ गांधी जी उम्र जैसे -जैसे बढ़ रही थी,सरदार पटेल चाहने लगे थे कि उन्हें अनावश्यक तनाव व कार्याधिक्य से मुक्त ही रखा जाए।एक अक्तूबर 1935 को सरदार पटेल ने एक बैठक को संबोधित करते हुए कहा कि ‘लोग मुझसे पूछते हैं कि गांधी जी कांग्रेस में कब वापस आएंगे,तो मैं उत्तर देता हूं कि महात्मा गांधी 67 वर्ष के हैं।हम उनसे कितनी अपेक्षाएं और रख सकते हैं ? अब हमें उनके अधूरे कार्य को पूरा करना चाहिए।’ निजी दुखों को भुला कर भी सरदार पटेल आजादी के लिए जेल यातना सह रहे थे। अक्तूबर , 1933 में सरदार पटेल के अपने भाई का निधन हो गया।तब सरदार नासिक सेंट्रल जेल में थे।बंबई के बहुत से लोगों की इच्छा थी कि दाह संस्कार में शामिल होने के लिए सरदार पेरोल पर जेल से बाहर आएं। पर, उन लोगों को जवाब देते हुए सरदार ने जेल से लिखा,‘जेल से बाहर आने की मांग करना न तो मुझे शोभा देता है और न ही राष्ट्र को।सत्याग्रही के लिए यह उचित नहीं है कि वह सरकार पर अनुचित दबाव डाले जिसमें ऐसी स्थिति से फायदा उठाया जाए।’

साभार प्रभात ख़बर १२ सेप्टेम्बर 2008

शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

डाॅट काम यानी वाइफ राबड़ी मुझे डांटिए कम

सुरेंद्र किशोर
पटना,11 जून। राबड़ी देवी@लालू यादव से@ः ‘ एजी, ई इंटरनेट आ डाट काम का होखेला ?’@यह इंटरनेट और डाॅटकाम क्या होता है ?@ लालू यादव @मजाक की मुद्रा में@ः ‘डब्लूडब्लूडब्लू राबड़ी डाॅट काम, यानी वाइफ राबड़ी मुझे डांटिए कम।’ देसज लालू परिवार नई तकनीकी का इसी खास अंदाज में स्वागत कर रहा है।लालू यादव जुलाई से इंटरनेट पर आने वाले हैं।कम्प्यूटर-इंटरनेट रखने वाले दुनिया भर के लोग अब लालू यादव को देख सकेंगे।उन्हें रोचक व्यक्तित्व वाले लालू यादव कई रूपों में घर बैठे दिखेंगे।उन देशों में लाालू यादव के बारे में अधिक उत्सुकता रहती है जहां भारतीय मूल के लोग अधिक हैं। लालू यादव के बाद राबड़ी देवी को भी इंटरनेट पर लाने की कोशिश जारी है। ऐसा दुनिया में शायद ही कहीं है कि एक अनपढ़ व्यक्ति दस करोड़ लोगों की तकदीर का फैसला कर रहा है। राबड़ी देवी इस मामले में अनोखा शासक हैं। लालू यादव की पत्नी होने के कारण वे मुख्य मंत्री हैं। यहां इस बात की चर्चा है कि अब लालू दंपत्ति इंटरनेट पर होंगे। इससे बिहार या देश की छवि बनेगी या बिगड़ेगी, इसको लेकर भी चर्चाएं हैं। जितने मुंह,उतनी बातें। लालू यादव एक साथ नायक भी हैं और खलनायक भी। कुछ लोगों के लिए नायक और कुछ दूसरे लोगों के लिए खलनायक। प्रचार प्रिय लालू यादव भी खुश है कि उन्हें इंटरनेट पर दिखाया जाएगा।अपने बैठकखाने में हाल में राजद अध्यक्ष ने खुद ही इसकी चर्चा की, ‘अब इंटरनेटवा पर भी हमको देखाएगा।’ इसी के बाद मुख्य मंत्री राबड़ी देवी ने उत्सुकतावश सवाल किया था कि डाट काम का माने का होखेला ?@डाॅटकाम का अर्थ क्या होता है ?@ राबड़ी देवी करीब तीन साल से मुख्य मंत्री हैं।कम्प्यूटर,इंटरनेट व सूचना क्रांति के दूसरे लाभों से बिहार को लाभान्वित करने की न तो लालू दंपति को समझ है और न ही मानसिकता। मध्य युग की मानसिकता से यहां सरकार व बिहार चल रहे हैं। यहां कछ हलकों मंे चंद्र बाबू नायडु और एस.एम.कृष्णा की चर्चाएं जरूर होती हैं।पर सरकारी काम काज पर उनका असर नहीं के बराबर है।इंटरनेट पर बिहार व लालू राबड़ी की जो तस्वीरें उभरेंगीं,उनकी कल्पना कठिन नहीं है।लालू यादव जिन विचित्रता,खूबी और खासियत के लिए जाने जाते हैं,वे सारे ‘मसाले’ इंटरनेट पर होंगे।वे भेंटकत्र्ता को बताएंगे कि बचपन में वे किस तरह भैंस चराते थे और उनकी मां घूम घूम कर दही बेचती थीं।वे चपरासी के भाई हैं।लालू यादव गाय या भैंस दूहते हुए दिखाए जाएंगे।वे मुलाकातियों को अपने सरकारी आवास का खटाल दिखाएंगे।वे अपनी पत्नी के सरकारी आवास में स्थित तालाब में मछली पकड़ते और हिजड़ा नाच देखते नजर आएंगे।साथ ही वे गरीबों के बीच कंबल बांटेंगे।वे दलितों के लिए निर्मित आवासों का उद्घाटन करते नजर आएंगे।उनके नौ बच्चे उनके साथ होंगे।यह भी दिखेगा कि वे गरीबों और पिछड़ों के बीच कितने लोकप्रिय हैं। पर, इंटरनेट पर यह दृश्य भी नजर आएगा कि वे भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जा रहे हैं।उनकी पत्नी राबड़ी देवी हाल में राघो पुर से भारी मतों से विधान सभा का उप चुनाव जीत कर आई हैं।बिहार में गरीबों की संख्या बढ़ी है।अनपढ़ों का अनुपात घट नहीं रहा है।फोन,कम्प्यूटर और इंटरनेट के मामले में भी बिहार अन्य राज्यों से पीछे है। लालू यादव ने अपनी बेटी डा.मीसा भारती की शादी एक कम्प्यूटर इंजीनियर से की है।शायद दामाद शैलेश का ही असर हो।हाल मंे एक मुलाकाती से जब लालू ने अपने बेटे को मिलवाया तो उस स्कूली छात्र से पूछा गया कि ‘बड़ा होकर क्या बनना चाहते हो ?’ लालू पुत्र ने कहा कि ‘कम्प्यूटर इंजीनियर।’ पर, लालू यादव ने मुलाकाती से कहा कि ‘नहीं,यह तो मुख्य मंत्री पद की लाइन में है।’ यानी,कम्प्यूटर से बड़ी यहां राजनीति है।अपनी अजीबोगरीब राजनीति के कारण ही तो लालू यादव दुनिया भर के कम्प्यूटरों पर नजर आएंगे।@साभार ः जनसत्ता ः12 जून 2000 @

गुरुवार, 11 सितंबर 2008

विपदा में ‘ अवसर ’

किसी विपदा को भी अवसर के रूप में बदला ही जा सकता है। पर, यह इस बात पर निर्भर करता है कि किस विपदा का इस्तेमाल कौन व्यक्ति या नेता किस तरह के ‘अवसर’ हासिल करने के लिए करता है। कोशी-बाढ-विपदा को लेकर ताजा राजनीतिक अवसरवादिता का खेल इस देश व प्रदेश में कोई नया नहीं है।इस देश में यह सर्वव्यापी राजनीतिक व्यायाम है।वैसे भी कोशी बांध के टूटने के पीछे की मूल जिम्मेदारी से बिहार सरकार बच नहीं सकती।हालांकि इस विपदा के लिए कोई व्यक्ति केंद्र सरकार, नेपाल सरकार और बिहार की पिछली सरकारों को भी थोड़ा-बहुत जिम्मेदार ठहराता है तो उसके भी अपने-अपने तर्क हैं। एक -एक करके बातें टुकड़ों में सामने आती जा रही हैं।कई जिम्मेदार लोग भी अपने पिछले बयानों को समय- समय पर सुधार-बिगाड़ रहे हैं।पूरे मामले की यदि निष्पक्ष और निर्भीक जांच हो तो दूध-का-दूध और पानी-का-पानी सामने आ जाएगा।क्या इस भीषण दुर्घटना की कभी निष्पक्ष जांच हो पाएगी ? पर, इस बीच मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने जरूर कहा है कि ‘ बाढ़ एक भयानक त्रासदी है जिसमें सब कुछ नष्ट हो गया है।संकट की इस घड़ी को हम ‘अवसर’ में बदलेंगे,जहां तक मकान ध्वस्त होने की बात है तो सभी लोगों को पहले से बेहतर मकान बना कर देंगे।’ नीतीश कुमार जिस तरह के धुनी व्यक्ति हैं, वे यह काम अगले कुछ महीनों में कर-करा भी सकते हैं। वैसे भी देश भर से बाढ़पीडि़तों के लिए तरह तरह की सरकारी-गैर सरकारी मदद की पेशकश हो रही है।कल्पना कीजिए कि पूर्वोत्तर बिहार के करीब आधा दर्जन पिछड़े जिलों में साल-दो-साल के अंदर कोई सरकार लोगों के बेहतर मकान बनवा कर दे दे तो इसे ‘विपदा में अवसर’ ही तो माना जाएगा। किसी आम व्यक्ति के जीवन का एक बहुत बड़ा लक्ष्य यह होता है कि किसी तरह वह अपने जीवन काल में अपने लिए एक पक्का मकान बना ले। फणीश्वर नाथ रेणु के इस ‘ मैला आंचल ’ में आजादी के इकसठ साल के बाद भी बहुत कुछ नहीं बदला है। पूर्वोंत्तर बिहार के इस बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में अधिकतर लोग फूस की झोपडियों में ही रहते रहे हैं। अब तो वे उजड़ गए।वे झोपडि़यां भी इस भीषण आपदा में उनका साथ छोड़ गईं।लाखों नए आवास की जरूरत पड़ेगी जब वहां से पानी हटेगा।यह उम्मीद की जा रही है कि दो तीन महीने बाद कुसहा में क्षतिग्रस्त एफलक्स बांध की मरम्मत का काम हो जाएगा आरा कोशी की धार फिर अपनी पुरानी राह पकड़ लेगी।फिर तो बाढ ़से विस्थापित लोग अपने ‘घरों’ यानी पुराने स्थानों पर जा पाएंगे जहां घर की जरूरत की भीषण समस्या मुंह बाए खड़ी होंगी। जरूरत कई अन्य चीजों की भी होगी,पर अभी बात मकानों की ही की जाए। कपना कीजिए कि मधे पुरा, अररिया, सुपौल, सहरसा और पूर्णिया जिलों के ग्रामीण इलाकों के मकान पहले से ही पक्के होते, फिर तो बाढ़ की मार का दर्द निवासियों को काफी कम सताता। ध्यान रहे कि इसी देश के खुशहाल प्रदेशों के संपन्न गांवों के मकान भी पक्के हैं और उनमें से अनेक दोमंजिला भी हैं।यदि सरकारी भ्रष्टाचार पर रोक लगाकर बिहार के गांवों को भी आजादी के बाद संपन्न बनाया गया होता तो वहां भी एक मंजिला-दोमंजिला पक्के मकान मौजूद होते और किसी बाढ़ की विपदा में भी लोगों के कष्ट कम होते। यदि बाढ़ का पानी हटने के बाद मुख्य मंत्री को सचमुच अपने वायदा को निभाने का अवसर मिला और वहां के पीडि़तों को सरकार बेहतर मकान मुहैया कराने में सफल रही तो वह एक बड़ी लकीर खींचने का ही काम होगा। पर, तब तक तो मुख्य मंत्री और उनकी सरकार को आलोचना का वार तो सहना पड़ेगा। क्योंकि राजनीति में तो कभी फूल मिलेंगे तो कभी पत्थरों के लिए भी तैयार रहना पड़ता है। आज जब मीडिया को भी पक्ष-विपक्ष की आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है तो फिर इस देश की राजनीति तो इसी तरह के व्यायाम के लिए जानी जाती है। हालांकि बाढ़ की रिपोर्टिंग में मीडिया के सामने कोई निजी एजेंडा नजर नहीं आता। उधर राजनीति तो राजनीति ही है, उसमें तो सामान्यतया निजी एजेंडा ही प्रमुख है, बाकी चीजें बाद में आती हैं।
साभार राष्ट्रीय सहारा (04/09/2008)

आलोचना हो,पर कैसी ?

पचास के दशक की बात है। एक बार अनुग्रह बाबू के एक खास करीबी नेता एक खास उद्देश्य से लाल बहादुर शास्त्री से मिले।उन्होंने शास्त्री जी से कहा कि आप जेपी से कहें कि वे सार्वजनिक रूप से जवाहर लाल नेहरू की आलोचना नहीं करें।इससे होता यह है कि कांग्रेस के अंदर डा.अनुग्रह नारायण सिंह की स्थिति उलझनपूर्ण हो जाती है। याद रहे कि जेपी, अनुग्रह बाबू के काफी करीबी माने जाते थे। शास्त्री जी ने जवाब दिया कि ‘ऐसा मैं जेपी को नहीं कह सकता।दरअसल जेपी ही ऐसे एक व्यक्ति हैं जो किसी राग-द्वेष या लाभ-लोभ के बिना नेहरू जी की जनहित में सार्वजनिक रूप से आलोचना कर सकते हैं।ऐसी आलोचनाएं सत्ताधारी नेता को एकाधिकारवादी व निरंकुश होने से रोकती हैं। नेहरू की अपार लोकप्रियता के कारण उनमें एकाधिकार की प्रवृति पनपने का खतरा मौजूद है। तुलना तो थोड़ी बेमेल हो रही है,पर नीतीश कुमार के खिलाफ भाजपा नेता हरेंद्र प्रताप की हाल की सार्वजनिक आलोचना से वह प्रकरण याद आता है।नीतीश कुमार के जिस तरह जन समर्थन बढ़ने की खबर दी जा रही है, ऐसे में उनमें एकाधिकारवादी प्रवृति के पनपने के खतरे से इनकार नहीं किया जा सकता।डी.एन.गौतम को डी.जी.पी.बनाने के पीछे भी संभवतः मुख्य मंत्री की यही आत्म विश्वासपूर्ण मानसिकता काम कर रही है कि अगले किसी चुनाव में उन्हें मतदाताओं को मतदान केंद्रों पर जाने से रोकने की जरूरत नहीं है बल्कि पुलिस की मदद से स्वच्छ मतदान कराने की जरूरत है। लोकतंत्र में राग-द्वेष व लोभ-लाभ से मुक्त होकर जन हित में सत्ता की जरूरत पड़ने पर कभी स्वस्थ आलोचना या फिर कभी तारीफ जरूरी भी है।एन.डी.ए.के भीतर से हरेंद्र प्रताप की ओर से संभवतः अब तक की सबसे कड़ी आलोचना सामने आई है। हरेंद्र प्रताप की ताजा आलोचना कैसी है ?इस पर मिली जुली प्रतिक्रियाएं हैं।इसके तरह-तरह के मतलब भी लगाए जा सकते हैं।ऐसे समय में जब कि इस देश के पक्ष- विपक्ष के नेताओं द्वारा आए दिन हो रही राजनीतिक बयानबाजियों से तथ्यपरकता व जन कल्याण की भावना लुप्त होती जा रही है,वहां हरेंद्र प्रताप के बयान में भी ऐसा कुछ तलाश करना अस्वाभाविक नहीं है।पर, हरेंद्र प्रताप की कुछ बातें तो गौर करने लायक हैं। बिहार के विश्व विद्यालय कर्मियों की हड़ताल से उपजी समस्या के प्रति हरेंद्र जी की चिंता सराहनीय है। इस सरकार के पीछे सरकारी विफलता भी है।पोटा के खिलाफ मुख्य मंत्री नीतीश कुमार के बयान पर हरेंद्र प्रताप की आलोचना में भी दम लगता है।क्योंकि आतंकवाद की समस्या को गैर राजनीतिक व पेशेवर ढंग से देखने वाले तमाम विशेषज्ञ कड़े कानून की जरूरत महसूस करते रहे हैं।दुनिया के अन्य अनेक देशों ने इस संदर्भ में हाल के वर्षों में अपने कानून कड़े कर दिए हैं। पर भागल पुर दंंगे के मुकदमों की फिर से सुनवाई के नीतीश सरकार के फैसले पर उंगुली नहीं उठाई जानी चाहिए।हरेंद्र प्रताप ने उंगुली उठाई है।यदि दंगाइयों को सजा नहीं मिलेगी तो भविष्य में दंगा करने वालों के हाथ रुकंेगे कैसे ? दंगा- फसाद नहीं रुकेगा तो दरिद्र बिहार का विकास कैसे होगा ? वैसे भी सांप्रदायिक मसलों पर भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व का रूख समय के साथ बदल रहा है। पर, हरेंद्रजी, इस बीच बंगलादेशी घुसपैठियों की समस्या को आप कैसे भूल गए ? आप तो इस समस्या के विशेषज्ञ जानकार रहे हैं।यह समस्या बिहार सहित देश भर में अब भी बरकरार है।बल्कि बढ़ रही है।लोक सभा के पूर्व स्पीकार पी.ए.संगमा ने हाल ही मेंे कहा है कि ‘बंगला देश से और डेढ़ करोड़ शरणार्थियों @कुछ लोग उन्हें घुसपैठी कहते हैं।@के जल्दी ही भारत में प्रवेश करने की आशंका है।’एक अनुमान के अनुसार दो करोड़ बंगला देशी घुसपैठी पहले से ही भारत में अवैध ढंग से रह रहे हैं।इस देश में इन दिनों जारी आतंकवादी वारदातों में बंगला देश में सक्रिय जेहादियों का ही अधिक नाम लिया जा रहा है।इस देश में जहां तहां बसे बंगला देशियों की गैर कानूनी बस्तियों में उन जेहादियों के शरण मिलने की आशंका रहती है। जहां तक छोटे पार्टनर को भी प्रधान मंत्री और मुख्य मंत्री पद देने का सवाल है तो इस देश में ऐसे अनेक उदाहरण है। केंद्र में मोरारजी देसाई और राज्यों में चरण सिंह,महामाया प्रसाद सिंहा,अजय मुखर्जी,गोविंद नारायण सिंह तथा इस तरह कई नेताओं ने जब सरकार बनाई थी तो वे गठबंधन में शामिल दलों में सबसे बड़े घटक के नेता नहीं थे।यदि केंद्र में भाजपा को प्रधान मंत्री पद चाहिए तो राज्यों में उसे अपने सहयोगी दलों को तरजीह देनी ही पड़ेगी।
साभार राष्ट्रीय सहारा (07@08@2008)

एकमुश्त मतदान की जरूरत

यदि दलीय नेता ही अवसर आने पर अपने दल के सभी सदस्यों की ओर से सदन में एकमुश्त मतदान कर दिया करें ं,तो ‘नोट के बदले वोट’ की नौबत शायद नहीं आएगी। यह बात अलग है कि दलीय नेता ही बिक जाएं।पर, ऐसी नौबत कम ही आती है।लोक सभा में गत 22 जुलाई को जो कुछ हुआ,उसे देखते हुए क्या इस सुझाव पर विचार करने का समय नहीं आ गया है ? पर, सदस्यों की ओर से संसदीय व विधायक दलों के नेताओं को ऐसा अधिकार दिया जाए, इसके लिए संबंधित नियम में परिवत्र्तन करना पड़ेगा। क्या लोकतंत्र मेंं पनपी एक शर्मनाक बुराई को रोकने के लिए नियमों में एक और परिवत्र्तन नहीं किया जाना चाहिए ? अधिक दिन नहीं हुए जब राज्य सभा चुनावों में अपने दलीय नेता या उनके प्रतिनिधि को मत पत्र दिखाकर वोट देने की बाध्यता कायम की गई।यानी सदस्यों को उनके मनोनुकूल मतदान करने का उनका अधिकार छीन लिया गया। उससे पहले बड़े पैमाने पर ऐसी शिकायत आ रही थी कि अनेक विधायक पैसे लेकर राज्य सभा के उम्मीदवारों को वोट दे रहे हैं। कल्पना कीजिए कि पहले से संसदीय दल के नेताओं को ही विश्वास प्रस्ताव पर अपने पूरे दल की ओर से एकमुश्त वोट देने का अधिकार होता तो कम से कम संगठित व बड़े दलों से तो कोई दल -बदल या पक्ष परिवत्र्तन नहीं होता।हां,निर्दलीय सदस्यों के बारे में भी अलग से विचार किया जा सकता है। निर्दलीय सदस्य जब चुन कर जाते हैं,उसी समय उनसे यह लिखवा कर स्पीकर रख लें कि वे पूरे पांच साल वे किस पक्ष में रहेंगे ? उन्हें पहले ही यह लिख कर दे देना चाहिए कि वे सत्ता दल के साथ रहेंगे या विपक्ष के साथ ? या फिर वे कभी भी किसी पक्ष की ओर से मतदान ही नहीं करेंगे।जब वे यह लिख कर दे देंगे तो उनके द्वारा किसी भी हालत में पक्ष बदलने की स्थिति में स्पीकर उनकी सदस्यता तत्काल समाप्त घोषित कर देंगे। ऐसा ही नियम बनाया जा सकता है। दलीय व निर्दलीय जन प्रतिनिधियों के लिए ऐसे नियम बन जाएं तो बिकने के लिए कोई जन प्रतिनिधि घोड़ामंडी में उपलब्ध ही नहीं रहेगा।यदि उपलब्ध ही नहीं रहेगा तो खरीदने वाले कैसे व कहां से खरीदेंगे ? यदि नहीं खरीद पाएंगे तेा लोकतंत्र शर्मसार होने से बच जाएगा।यानी भविष्य में कभी किसी मंत्रिमंडल के बारे में यह नहीं कहा जा सकेगा कि फलां मंत्रिमंडल तो खरीदे हुए सांसदों के ही बल पर वर्षो तक चला। इससे लोकतंत्र बदनाम होने से बचेगा और जनतंत्र मंंें आम जनता की आस्था समाप्त नहीं होगी।आस्था बनी रहेगी तो माओवादी जैसी जो शक्तियां इन दिनों मौजूदा लोकतंत्र को समाप्त करने की कोशिश में लगी हुई हैं,उन्हें जनता से अधिक ताकत नहीं मिलेगी। एक बार 1993 में सरकार बचाने के लिए कुछ सांसद बिके थे। इस बार भी सांसदों को खरीद कर ही मन मोहन सरकार बचाई गई, इस आरोप की जांच संसदीय समिति कर रही है।जांच का नतीजा जो भी आए , पर पूरे देश ने यह दृश्य कई बार अपने टी.वी.स्क्रीन पर देखा कि किस तरह सांसदों की घोड़ामंडी सजी।इस घृणित प्रकरण की चर्चा अभी चलती ही रहेगी।ऐसी शर्मनाक चर्चाओं पर विराम लगाने के उपाय किए जाने में यदि इस देश के प्रमुख दल रूचि रखते होंगे तो जरूर उपर दिए गए सुझाव या फिर इससे भी किसी बेहतर सुझाव पर अमल करेंगे।पर क्या इस देश के पक्ष विपक्ष की राजनीति के दिग्गज नेता लोग सचमुच चाहते हैं कि नोट के बदले वोट जैसे प्रकरणों से भारत का लोकतंत्र दुनिया भर में बदनाम होने से बचे ? या फिर इस घृणित व्यापार की सहूलियत उपलब्ध रहने पर उसका समय आने पर सभी दल सिर्फ लाभ ही उठाना चाहते हैं ? अभी लाभ यू.पीए. ने उठाया,कल होकर एन.डी.ए. उठाएगा। यह बात इसलिए कही जा रही है कि झामुमो रिश्वत कांड मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने 1998 में ही यह कहा था कि यदि कोई सांसद घूस लेकर सदन में वोट देता है तो उसे सजा देने का अधिकार संसद को ही है,कोर्ट को नहीं।पर इस फैसले के दस साल बीत जाने के बावजूद ऐसे घूसखोर सांसदों को सजा देने के लिए संविधान के संबंधित अनुच्छेद में संशोधन करने का कोई उपाय न तो एन.डी.ए.ने किया और न ही यू.पी.ए. ने जबकि दोनों इस बीच लंबे समय तक बारी-बारी से सत्ता में रहे।
साभार राष्ट्रीय सहारा (१४/०८/२००८)

‘स्टिंग’ से भयभीत क्यों बासा ?

दिल्ली में भ्रष्ट अफसरों के खिलाफ स्टिंग चल रहा है। बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 2008 में ही लोगों से कहा था कि स्टिंग कर अफसरों के कारनामों का भंडाफोड़ करें। 

(28 अगस्त 2008 को प्रकाशित लेख)



‘बासा’ ने स्टिंग आपरेशन के लिए मुख्य मंत्री के सुझाव का सार्वजनिक रूप से विरोध कर दिया है।मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने सोमवार को प्रखंड प्रमुखों को यह सुझाव दिया था कि वे भ्रष्ट अफसरों के कारनामों का भंडाफोड़ करने के लिए आधुनिक तकनीकी का इस्तेमाल करें। जो जन प्रतिनिधि बी।डी।ओ.पर दबाव डाल कर सिर्फ लेन -देन का रिश्ता नहीं बनाना चाहते होंगे, वे स्टिंग आपरेशन चला या चलवा सकते हैं। 

मुख्य मंत्री के सुझाव के बाद अब यह काम कुछ दूसरे लोग भी कर सकते हैं। इस ‘आपरेशन’ के शिकार कभी कुछ प्रखंड प्रमुख भी हो सकते हैं। 

बिहार प्रशासनिक सेवा संघ यानी बासा के अध्यक्ष अरूण चंद्र मिश्र ने कहा है कि मुख्य मंत्री के इस सुझाव से अफसरगण मानसिक रूप से परेशान हो जाएंगे। उनकी यह राय है कि भ्रष्ट अफसरों के खिलाफ पहले से निर्धारित प्रक्रियाओं के तहत ही कार्रवाई होनी चाहिए। 

सवाल है कि कोई ईमानदार अफसर किसी स्टिंग आपरेशन की आशंका मात्र से ही मानसिक रूप से क्यों परेशान हो जाएगा ? जो अफसर ईमानदारी पूर्वक अपनी ड्यूटी निभाता है और बिना रिश्वत लिए सरकारी काम करता रहता है,उसे किसी भी संभावित स्टिंग आपरेशन से क्यों परेशान हो जाना चाहिए ? 

पुराने तरीके से बिहार में सरकारी भ्रष्टाचार पर काबू पाने में मदद नहीं मिल रही है। याद रहे कि सरकारी भ्रष्टाचार ही इस देश की भीषण गरीबी व अन्य अधिकतर समस्याओं का जनक है।चीन में भ्रष्ट लोगों के लिए फांसी की सजा की व्यवस्था है,इसीलिए वह देश आज अमेरिका से भी अधिक स्वर्ण पदक ओलम्पिक में जीत जा रहा है। पर, हम अपनी अधिकतर जनता को भूखे पेट सोने को मजबूर कर देते हैं।

हालांकि इस देश की संसद व विधान सभाएं इतना अधिक पैसे का बजट हर साल जरूर पास कर देती हैं जिससे कोई भूखा पेट नहीं सोए।पर बिचैलिए लूट लेते हैं। 

हालांकि नीतीश कुमार ने भी इस बारे में जरूर अधूरी बात कही है।उन्हें साथ- साथ यह भी कहना चाहिए था कि राज्य के राजनीतिक कार्यकत्र्ता,जन प्रतिनिधि व जनता को चाहिए कि वे मंत्रियों तथा दूसरे अफसरों तथा अन्य क्षेत्रों के भ्रष्ट लोगों के खिलाफ भी स्टिंग आपरेशन चलाएं।

हां,यदि स्टिंग आपरेशन के जरिए कोई बड़े घोटाले का भंडाफोड़ होता है तो आपरेशन में लगे लोगों को राज्य सरकार भरपूर इनाम दे।साथ ही,ऐसे राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं को चुनावी टिकट में तरजीह मिले। स्टिंग आपरेशन कितना जरूरी है,यह बात बासा के अध्यक्ष के बयान के बाद और भी साफ हो गया है। क्योंकि स्टिंग आपरेशन की आशंका से ही मानसिक रूप से परेशान होने वाले अफसर मौजूद हैं। क्या स्टिंग आपरेशन के बिना दिल्ली के आर.के.आनंद जैसे बड़े वकील को बेनकाब करना संभव था ? 

संसद में सवाल पूछने के लिए जिन दर्जन भर सांसदों ने रिश्वत ली थी,उन्हें स्टिंग आपरेशन के बिना बेनकाब करके संसद से बाहर करवाना संभव था ? एक केंद्रीय मंत्री दिलीप सिंह जू देव के खिलाफ का एक सफल स्टिंग आपरेशन कौन भूल सकता है ?

 इस देश में गलत उद्देश्य से चलाए गए कुछ स्टिंग आपरेशनों की कोर्ट ने निंदा की है तो कुछ आपरेशनों की अदालत ने जरूरी भी बताया है। बिहार में ही हाल के वर्षों में बड़ी संख्या में परंपरागत तरीके से भ्रष्ट अफसरों के खिलाफ कार्रवाई हुई है। 

क्या बासा अध्यक्ष दावा कर सकते हैं कि इससे राज्य के सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार कम हुआ है ?शायद स्टिंग के भय से भ्रष्टाचार कम हो ! क्या बासा अध्यक्ष यह बता सकते हैं कि बिहार के किस प्रखंड कार्यालय में रिश्वत के बिना जनता का कोई जायज काम भी होता है ? क्या उनके सदस्य ने बासा या राज्य सरकार को कभी यह लिख कर दिया है कि उनकी इच्छा के बिना भी उनके मातहत क्लर्क या अफसर जनता से रिश्वत ले रहे है ? 

जाहिर है कि सभी प्रखंड प्रमुख शुद्ध मन से ही भ्रष्ट बी.डी.ओ.या सी.ओ. के खिलाफ कार्रवाई की मांग नहीं करते। कई के अपने निजी एजेंडे होते हैं।

शिक्षा नियुक्ति घोटालों ने बिहार के अनेक जन प्रतिनिधियों को भी बेनकाब कर दिया है।पर यदि बासा सभी तरह के भ्रष्टों के खिलाफ नई -नई तकनीकी के जरिए कार्रवाई नहीं करने देगा तो न तो उनके सदस्य खुद आने वाले दिनों में सुरक्षित रहेंगे और न ही अन्य लोगों के साथ साथ उनकी भी आने वाली पीढि़यां महफूज रहेंगीं।क्योंकि सरकारी भ्रष्टाचार के कारण विकास नहीं हो रहा है और विकास नहीं होने का सर्वाधिक लाभ बिहार में माओवादियों को मिल रहा है जो अपनी ताकत बढ़ाते जा रहे हैं।

साभार राष्ट्रीय सहारा (28/08/2008)

सोमवार, 8 सितंबर 2008

राजनीति में परिवारवाद से आजाद भारत को भारी नुकसान

परिवारवाद की नींव 1959 में ही पड़ गई थी


परिवारवाद की बुराइयों से आज इस देष की राजनीति बुरी तरह कराह रही है। पिछले साठ साल में जिन कुछ प्रमुख बुराइयों ने इस देश की राजनीति और सत्तानीति को बुरी तरह क्षति पहुंचाई हैं,उनमें परिवारवाद का काफी ‘योगदान’ है। पर इसके ठोस कदम 1959 में ही पहली बार पड़ चुके थे जब इंदिरा गांधी को जवाहर लाल नेहरू की सहमति से कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया गया था। 


विडंबना यह है कि आजादी की लड़ाई के जो हीरो थे और जो जन-जन के नेता थे,वही जवाहर लाल नेहरू परिवारवाद का लोभ संवरण नहीं कर सके। जबकि उसी समय देश के कुछ अन्य नेताओं ने परिवारवाद का लोभ संवरण कर लिया। 


उदाहरण और भी हैं, पर फिलहाल बिहार से ही दो उदाहरण प्रस्तुत हंै। तब बिहार के मुख्यमंत्री डा.श्रीकृष्ण सिंह थे। 1957 के आम चुनाव के समय की बात है। चंपारण जिले के कुछ कांग्रेसी नेताओं ने विधानसभा के टिकट के लिए डा. श्रीकृष्ण सिंह के पुत्र षिशव शंकर सिंह का नाम पेश कर दिया। श्रीकृष्ण सिंह ने एक क्षण देर किए बिना कह दिया कि तब मैं खुद चुनाव नहीं लड़ंूगा। इस पर वे कांग्रेसी नेता ठंडे पड़ गए। 


याद रहे कि मुख्यमंत्री के पुत्र के लिए तब विधानसभा की सिर्फ एक सीट का सवाल था न कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद पर उनको बिठाया जा रहा था।


यही काम कर्पूरी ठाकुर ने 1980 में किया था जब एक बड़े राष्ट्रीय समाजवादी नेता चाहते थे कि कर्पूरी जी के पुत्र विधानसभा का चुनाव लड़ें। इन दोनों नेताओं के पुत्र उनके निधन के बाद ही विधायक और मंत्री बन सके।


इंदिरा गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाए जाने के संबंध में स्तंत्रता सेनानी महावीर त्यागी और जवाहर लाल नेहरू के बीच तीखा पत्र-व्यवहार आंखें खोलने वाला है। इन पत्रों से साफ है कि खुद पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी को राजनीति में आगे बढ़ाना चाहते थे।बल्कि यह भी कि वह देर सवेर उनकी उत्तराधिकारी बन जाएं। वे बनीं भी। जो व्यक्ति 1959 में सत्ताधारी दल कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्षा बना दी गईं, उन्हें तार्किक परिणति के तौर पर अगली महत्वपूर्ण सीट पर जाना ही था। 


दरअसल कांग्रेस अध्यक्ष पद पर इसलिए बिठाया गया ताकि आगे प्रधान मंत्री बनाने की पृष्ठभूमि तैयार हो जाए। त्यागी के पत्र से यह साफ था कि जवाहर लाल नेहरू ने अपनी साख का इस्तेमाल करके ही अपनी बिटिया को आगे बढ़ाया। पार्टी की ओर से इंदिरा गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के लिए कोई स्वतःस्फूर्त आग्रह नहीं था। देश के एक महान स्वतंत्रता सेनानी के बारे में आजादी के साठवें साल में ऐसी निर्मम बातों की चर्चा करना वैसे तो ठीक नहीं लग रहा है। किंतु जब आज पूरे देश व राजनीति को परिवार वाद भारी नुकसान पहुंचा रहा है और यह सब इस नाम पर किया जा रहा है कि यह काम तो नेहरू ने शुरू किया था तो नेहरू के काम की एक बार फिर समीक्षा जरूरी है। वह भी आजादी के साठवें साल में तो और भी जरूरी है।क्योंकि कोई माने या न माने,देश एक बार फिर चैराहे पर खड़ा है।


 इस अवसर पर यह विचारणीय है कि नेहरू की एक छोटी सी गलती का जब यह देश इतना बड़ा खामियाजा भुगत रहा है तो आज के करीब करीब सभी प्रमुख दलों के नेतागण अपने निजी स्वार्थवश बेशर्मी के बड़ी बड़ी गलतियां कर रहे हैं, तो उनका कितना बड़ा खामियाजा अगली पीढ़ी को भुगतना पड़ेगा। यह घ्यान देने की बात है कि नेहरू डा.श्रीकृष्ण सिंह की तरह यह क्यों नहीं नहीं कह सके कि यदि उनकी संतान को आगे बढ़ाया जाएगा तो ‘मैं राजनीति से अलग हो जाउंगा?’ 


इससे यह पता चलता है कि उनकी पार्टी के लोग इंदिरा गांधी को दिल से अध्यक्ष नहीं बना रहे थे बल्कि वे खुद परोक्ष रुप से बनवा रहे थे। चापलूसों को तो बस इशारा मिलना चाहिए।हां, तब और आज में यह फर्क जरूर आया है कि न तो अब महावीर त्यागी की तरह कोई नेता परिवारवाद के खिलाफ बेबाकी से आवाज उठा रहा है और न ही कोई नेता नेहरू जैसा उसे लोकतांत्रिक भावना से लेकर उसका जवाब दे रहा है।


जरा सोचिए कि बाल ठाकरे,लालू प्रसाद,मुलायम सिंह यादव और एम.करूणानिधि आदि के परिवारवाद के खिलाफ आवाज उठाकर कोई उनके दल में रह पाएगा ? पर स्व.त्यागी न सिर्फ पार्टी में रहे बल्कि बाद के वर्षों में जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री के मंत्रिमंडलों में भी बारी बारी से सदस्य रहे। 


अब जरा कुछ बातें महावीर त्यागी जी के बारे में। उनका जन्म 31 दिसंबर,1899 को उत्तर प्रदेश के एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वे स्वतंत्रता सेनानी थे और बाद में संविधान सभा के सदस्य भी बने।वे न सिर्फ प्रोविजनल पार्लियामेंट के सदस्य थे बल्कि उन्होंने 1952,1957 और 1962 में देहरादून क्षेत्र से लोक सभा के लिए चुनाव भी जीता था। 


 आज के सत्तालोलुप नेताओं से अलग थे वे। उन्होंने 1966 में लाल बहादुर शास्त्री मंत्रिमंडल से सिर्फ इसलिए इस्तीफा दे दिया था क्योंकि वे ताशकंद समझौते के तहत जीते हुए इलाके हाजी पीर,कारगील और टिथवाल पाकिस्तान को लौटाने के खिलाफ थे। आज तो इस देश में ऐसे भी नेता हो गए हैं जो सत्ता के लिए देश के हित को जाने अनजाने भारी नुकसान पहुंचाने के लिए भी सदा तैयार रहते हैं।


 त्यागी किसी भी विषय पर अपनी बेबाक राय रखते थे। 1951-53 में जब त्यागीजी केंद्र में राजस्व व खर्च महकमे के मंत्री थे तो उन्होंने प्रधान मंत्री के खर्चे पर भी पूछताछ कर दी थी।ऐसे ही निष्पृह व्यक्ति नेहरू के परिवारवाद पर भी सवाल खड़ा कर सकते थे और उन्होंने किया भी।


 कल्पना कीजिए कि 1959 में कांग्रेस में न जाने कितने ऐसे नेता मौजूद थे जो त्याग, तपस्या और योग्यता में इंदिरा गांधी से काफी आगे थे और जिनको दरकिनार करके इंदिरा गांधी को अध्यक्ष बनाया गया।


इसीको कहते हैं परिवारवाद। 


 याद रहे कि उससे एक साल पहले यानी 1958 में ही इंदिरा गांधी को कांग्रेस कार्य समिति का सदस्य बना दिया गया था। पिछले दिनों जब प्रकाष सिंह बादल ने पंजाब में अपना मंत्रिमंडल बनाया तो उनके परिवार के चार सदस्य उसमें शमिल हो गए। 


यह भी खबर आई कि तमिलनाडु के मुख्य मंत्री एम.करूणानिधि ने अंतिम तौर पर अपने पुत्र स्टालिन को ही अपना उतराधिकारी बना दिया। कम्युनिस्ट दलों और भाजपा को छोड़कर इस देष के लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक दल परिवारवाद से ग्रस्त हैं।हालांकि भाजपा में भी राज्य स्तर पर इस बीमारी ने जड़ें जमानी शुरू कर दी हैं।राजस्थान इसका नमूना है।


परिवारवाद यह नहीं है कि किसी नेता का परिजन राजनीति में आए। परिवारवाद यह है कि किसी नेता का परिजन अपनी योग्यता और क्षमता के अनुपात से काफी अधिक उंचा पद प्राप्त कर ले।


 1997 में बिहार में राबड़ी देवी का मुख्य मंत्री बनना राजनीति में परिवारवाद का शर्मनाक नमूना था। पर इस देश की राजनीति वैसे भी इतनी बेर्म हो चुकी है कि उसे अब किसी बात पर शर्म नहीं आती। पर जिनसे शर्म की सबसे अधिक उम्मीद की जाती थी,उन्होंने क्या किया ,वह महावीर त्यागी को लिखे पत्र से साफ है। नेहरू ने लिखा कि ‘लेकिन मेरा यह भी ख्याल है कि बहुत तरह से उसका इस वक्त कांग्रेस अध्यक्ष बनना मुफीद भी हो सकता है।’ 


लालू प्रसाद यदि कहें कि यदि मैंने अपनी पत्नी को मुख्य मंत्री बनवाया तो नेहरू ने भी तो यही काम किया था तो लालू प्रसाद को कोई क्या जवाब देगा ? 


महावीर त्यागी कौन थे? आज की पीढ़ी ऐसे नेताओं के बारे में कम ही जानती है। क्योंकि अधिकतर मीडिया और नेताओं की प्राथमिकताएं भी अब बदल गई हैं।वे ऐसे लोगों के बारे में बताने के बदले कुछ दूसरे ही लोगों के बारे में दे को अधिक बता रहे हैं।


 जवाहर लाल नेहरू के नाम महावीर त्यागी का पत्र 16, क्विन विक्टोरिया रोड नई दिल्ली जनवरी 31 ,1959प्रिय जवाहर लाल जी, मैं जानता हूं कि इस चिट्ठी के बाद मेरा कांग्रेस में रहना कठिन हो जाएगा। पर अपने स्वभाव/स्पष्टवादिता/ को बेचकर कांग्रेस में रहा भी तो क्या? मेरी हैसियत उन जैसी हो जाएगी कि जो मैत्री का व्यवसाय करते हैं। गोस्वामी तुलसीदास आपके लिए एक दोहा कह गए हैं:-


सचिव, वैद्य, गुरु तीनि जो, प्रिय बोलहि मय आष, राज, तनु, धर्म तीनि का, होय वेग ही नाष। जब किसी के चारों ओर खुषामद ही खुषामद होने लगती है, तो उस बेचारे को अपनी सूझ-बूझ और बुद्धि पर अटूट अंधविष्वास हो जाता है, यही कारण है कि आजकल आपके भाषणों में अधिकाधिक तीखापन झलक रहा है। विरोधी गलत भी हों तो क्या? प्रजातंत्र में उनका भी एक स्थान है। क्योंकि विरोधी मत द्वारा हम अपने विचारों की उचित जांच और छानबीन कर सकते हैं।


 यदि बुरा न मानो तो मैं आज आपको यह तहरीर देना चाहता हूं कि आपके दरबारियों ने केवल अपने निजी स्वार्थवष आपके चारों ओर खुषामद के इतने घनघोर बादल घेर दिये हैं कि आपकी दृष्टि धुंधला गयी है। और अब समय आ गया है कि आप इन चरण-चुंबकों से सचेत हो जाओ, वर्ना आपकी मान-मर्यादा, सरकार और पार्टी सबका ह्रास होने जा रहा है। जैसे कि मुगलों के जमाने में मंत्रिगण नवाबों के बच्चों को खिलाया करते थे, आज इसी तरह आपकी आरती उतारी जा रही है और आपके इन भक्तों ने इसी प्रकार आपकी भोली-भाली इंदु का नाम कांग्रेस प्रधान पद के लिए पेष किया है और षायद आपने आंख मींचकर इसे स्वीकार भी कर लिया है।


 इंदु मेरी बेटी के समान है, उसका नाम बढ़े, मान बढ़े इसकी मुझे खुषी है। पर उसके कारण आप पर किसी प्रकार का हर्फ़ आवे सो मुझे स्वीकार नहीं है। मैं नागपुर, हैदराबाद, मद्रास, मैसूर और केरल का भ्रमण करके अभी लौटा हूं। वहां के कांग्रेस वाले क्या टिप्पणी करते हैं आपको उसकी इत्तला नहीं है। इस ख़याल में मत रहना कि इंदु के प्रस्तावकों और समर्थकों में जो होड़ हो रही है (कि उनका नाम भी छप जाए) यह केवल इंदु के व्यक्तित्व के असर से है। सौ फीसदी यह आपको खुश करने के लिए किया जा रहा है। इतनी छोटी-सी बात को यदि आप नहीं समझ सकते तो मैं कहूंगा कि आपकी आंखों पर परदे पड़ गए हैं, परदे। 


मैं यह पत्र इतना कटु इसीलिए लिख रहा हूं कि आंख के परदे केवल फिटकरी से कटते हैं। फिटकरी तो बेचारी घिसकर गल-घुल जाती है। यह समझ लो कि अब कांग्रेस में पदलोलुपता और व्यक्तिवाद का ऐसा वातावरण छा गया है कि मुझे कोई दो ऐसे व्यक्ति बता दें कि जो मित्र हों और आपस में दिल खोलकर बातें कर सकते हों। इस बात को मान लो कि अब वह पुराना मुष्तरका सपना कि जिसमें हर रंग भरने वाले को हम हृदय से लगाते थे, टूटकर छिन्न- भिन्न हो चुका है। 


अब हमारी व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं के सपने अलग-अलग हैं, और उन्हीं के पीछे हम दौड़ रहे हैं। इसी को व्यक्तिवाद कहते हैं। ऐसे वातावरण में भय, स्वार्थ और संदेह की मनोवृत्ति होना अनिवार्य है। आज जबकि षासन का ढांचा ढीला पड़ चुका है, रिष्वत और चोरबाजारी का बोलबाला है, साथियों में ‘वह काटा’, ‘वह मारा’ वाले पतंगबाजी के नारे लग रहे हैं, जबकि अधिकांष नेतागण मिनिस्ट्री और लोकसभा और विधान सभाओं की मेंबरी कर रहे हों, और केवल चार आने वाले साधारण सदस्य मंडलों में रह गए हों, ऐसे जर्जरित ढांचे को इंदु बेचारी कैसे संभाल सकेगी? अभी तक लोग आपको यह कहकर क्षमा कर देते थे कि बेचारा जवाहर लाल क्या करे, उसे सरकारी कामों से फुर्सत नहीं है। 


कांग्रेस ठीक करने की जिम्मेदारी ढेबर भाई की है। इंदु के चुने जाने से यह सुरक्षा-युक्ति भी हाथ से निकल जाएगी। लोग कांग्रेस संस्था को सरकार-पुत्री कहने लगेंगे। इसलिए मेरी राय है कि इंदु को कांग्रेस प्रधान चुने जाने से रोको। या फिर आप प्रधानमंत्री-पद से अलग होकर इंदु की मार्फत कांग्रेस का संगठन मजबूत कर लो। आपके बाहर आने से केंद्रीय सरकार वैसे तो कमजोर हो जाएगी, पर आपके द्वारा जनमत इतनी षक्ति प्राप्त कर लेगा कि प्रांतीय सरकारें भी आपके डर से ठीक-ठीक कार्य कर सकेंगी और कांग्रेस के साधारण कार्यकर्ताओं को आपसे बहुत बल मिलेगा।


 केंद्रीय षासन भी अधिक सचेत होगा। पार्लियामेंट्री कांगे्रस पार्टी भी, जो आज आपके बोझ से इतनी दब गयी है कि बावजूद कोषिषों के लोग स्वतंत्रतापूर्वक किसी भी विषय पर बहस करने को तैयार नहीं होते, आपके बाहर चले जाने से उसमें भी जान आ जाएगी। और षायद यही एक ढंग हो सके, जिससे बिना अधिक पैसा खर्च किए और बिना पूंजीपतियों से सहायता मांगे, कांग्रेस फिर से बहुमत से चुनी जाकर प्रांतीय और केंद्रीय षासन को संभाल ले।


नागपुर कांग्रेस ने जो समाजवाद की ओर कदम बढ़ाया है उससे कांग्रेस को बड़े-बड़े प्रभावषाली तबकों से मोर्चा लेना पड़ेगा। इसके लिए भी अभी से तैयारियां करनी चाहिए। मेरी आपसे अपील है कि आप कोई ढंग ऐसा निकालिए कि जिससे इस विलासिता और अकर्मन्यता के वातावरण से देष को निकालकर फिर से त्याग और जनसेवा की भावना जागृत कर सकें। 


गांधी जी के बनाए हुए उस पुराने वातावरण को बिगाड़ने की जिम्मेदारी भी हमारी ही है। इसलिए हमीं को उसे फिर से फैलाना होगा। यह काम कोरी दिल्ली की दलीलों से नहीं हो सकता। इसके लिए दिल की प्रेरणा चाहिए। माफ करना, मैंने अटरम-सटरम जो कलम से आया, लिख दिया है। पर बिना यह लिखे मुझे 15 दिन से नींद नहीं आ रही थी। अब इस पत्र को तकिए के नीचे रखकर दो-चार दिन सोऊंगा। ईष्वर आपको दीर्घायु दे। बंदा तो इस वातावरण में ज्यादा दिन टिक न सकेगा।

पं0 जवाहरलाल नेहरू आपकानई दिल्ली ह0 महावीर त्यागी

जवाहरलाल जी का उत्तरनिजीनं. 251 - पी एम एच -59 प्रधान मंत्री निवास,नई दिल्ली फरवरी 1, 1959

प्रिय महावीर, तुम्हारा 31 जनवरी का खत मुझे आज मिला। उसको मैंने गौर से पढ़ा। अपनी निसबत तो, जाहिर है, मेरे लिए मुषकिल है कोई माकूल राय रखना। कोई भी अपनी निसबत ठीक राय नहीं दे सकता। जाहिर है कि अगर मुझमें खूबियां हैं, तो कमजोरियां भी हैं, और षायद इस उमर में उनसे बरी न हो सकूं। हो सकता है कि मैं लोगों की बातों से धोके में पड़ जाता हंू और लोग खुली बात मुझसे नहीं करते। लेकिन शायद तुम्हारा यह कहना सही न हो कि मेरे पास दरबारी लोग आते हैं या रहते हैं।मेरे यहां कभी भी दरबार नहीं लगा,और न मैं इस ढंग को पसंद करता हंू।                     तुमने जो इंदिरा के बारे में लिखा है,उन पहलुओं पर मैंने काफी गौर किया है।मुझे तो ख्याल भी नहीं था कि उसका नाम कांग्रेस की अध्यक्षता के लिए पेष होगा।नाग पुर कांग्रेस के आखिरी दिन मैंने कुछ लोगों से सुना कि उसके नाम का चर्चा है,कुछ लोग दक्षिण के प्रदेषों से नाम पेष कर रहे हैं।उस रोज शाम को यह बात मेरे सामने पेष हुई।मुझसे अलग नहीं,बल्कि एक कमेटी में कही गई जिसमें हमारे कुछ नेता अलग अलग सूबों के मौजूद थे। मैं शुरू में खामोश रहा और सुनता रहा।फिर मैंने अपनी राय दी,जिसमें मैंने सब पहलुओं को सामने रखा और यह भी कहा कि यह न इंदु के लिए और मेरे लिए मुनासिब या इंसाफ की बात होगी कि उसका नाम पेष हो।इसके साथ मैंने यह भी कहा कि उसके चुने जाने से कुछ फायदे भी नजर आते हैं,खासकर नाग पुर कांग्रेस के फैसलों के बाद जबकि कुछ नई हवा की जरूरत है। मैंने मुनासिब न समझा कि मैं इस मामले में कुछ दखल दूं। 
     मैं जानता था कि इंदिरा इससे परेषान होगी। फिर कुछ लोग इंदिरा के पास गए। मैंने बाद में सुना कि उसने जोरों से इनकार कर दिया। बहस हुई,उस पर काफी दबाव डाला गया। तब उसने कहा कि अगर सब लोग इतना जोर डालते हैं मुझ पर ,तो मेरे लिए मुष्किल हो जाता है इनकार करना हालांकि यह मेरे लिए बड़ी मुसीबत होगी। लोग उठ आए। कोई आध घंटे के बाद फिर वह परेषान होकर उनके पास गई और कहा कि मेरी तबियत इसको कबूल नहीं करती।फिर मुखतलिफ तरफ से दबाव पड़े,और आखिर में वह राजी हो गई। मैंने मुनासिब न समझा दखल देना। जो बातें तुमने लिखी हैं, वह जाहिर हैं। लेकिन मेरा यह भी ख्याल है कि बहुत तरह से उसका इस वक्त कांग्रेस अध्यक्ष बनना मुफीद भी हो सकता है। खतरे भी जाहिर हैं। जहां तक मुमकिन है इस सवाल पर कोषिष की सोचने की अपने रिष्ते वगैरह को भूलकर । 
     तुमने लिखा है कि मेरी वजह से संसदीय पार्टी दबी रहती है और दिल खोलकर बोल नहीं सकती। इसकी निसबत मैं क्या करूं ? मैं चाहता हंू कि वह दिल खोलकर बोले और मैं भी दिल खोलकर बोलूं। हमारे सामने जो इस वक्त सवाल हैं ,उनपर सफाई से बातें होनी चाहिएं। और मैंने कोषिष की है कि हमारे साथी मेम्बरान राय दिया करें।तो क्या मुझे हक नहीं है कि मैं भी अपनी राय दूं उसी सफाई से ? हमारे सामने मुष्किल सवाल हैं।लेकिन मेरी राय में हिंदुस्तान का भविष्य अच्छा है।मैं उससे घबराता नहीं। 
 तुम्हारा श्री महावीर त्यागी16,क्वीन विक्टोरिया रोड, जवाहर लाल नेहरू नई दिल्ली

रविवार, 7 सितंबर 2008

नेपाल में कोसी पर हाई डैम ही बाढ़ की समस्या का स्थायी निदान

सुरेंद्र किशोर
क्या रेल मंत्री लालू प्रसाद को पंद्रह साल पहले का अपना ही एक बयान याद है ? मुख्य मंत्री के रूप में उन्होंने 27 जुलाई 1993 को बिहार विधान सभा में कहा था कि ‘उत्तर बिहार की बाढ़ की समस्या को स्थायी तौर पर तब तक हल नहीं किया जा सकता, जब तक कोसी नदी पर हाई डैम बनाने के लिए भारत सरकार, नेपाल सरकार से बातचीत नहीं करती।’ वे बाढ़ की समस्या पर हुई विशेष बहस का जवाब दे रहे थे। यदि लालू प्रसाद अब भी उतनी ही तीव्रता से हाई डैम की जरूरत महसूस करते हैं तो इसकी पहल वे कर सकते हैं। 

आज भारत सरकार में उनकी जितनी मजबूत स्थिति है, वैसे में उनके लिए यह आसान काम है कि वे इस मुद्दे पर किसी आगामी भारत-नेपाल वार्ता को केंंिद्रत करा दें।नेपाल के नए शासक प्रचंड ने कहा भी है कि उनकी पहली राजनीतिक यात्रा भारत से ही शुरू होगी। कोसी की बाढ़ से आए प्रलय के कारण पीड़ित लोगों की मदद के लिए लालू प्रसाद की ताजा पहल सराहनीय है। वे केंद्र से मदद दे और दिला रहे हैं।

हालांकि उन्होंने कोसी तटबंध में दरार के लिए बिहार सरकार को कसूरवार ठहराया है। एक हद तक उनका आरोप सही भी हो सकता है। हालांकि इसमें कुछ राजनीति का पुट भी है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा है कि विपदा की इस घड़ी में किसी को राजनीति नहीं करनी चाहिए। 

हालांकि लालू प्रसाद को बिहार सरकार की आलोचना करने का अधिकार है। ऐसी ही स्थिति जब नब्बे के दशक में आई थी तो लालू प्रसाद की सरकार ने उसका सफलतापूर्वक मुकाबला करके कोसी को अपनी धारा बदलने से तब रोक दिया था। पर इस बार धारा बदलने के कारण ही प्रलय आ गया। तब लालू प्रसाद मुख्य मंत्री,जगदानंद सिंचाई मंत्री और वी.एस.दुबे सिंचाई आयुक्त थे। तब पता चला था कि कोसी बराज के उपर यानी नेपाल में स्थित बांध में 32 किलोमीटर में कई स्थानों में कटाव की स्थिति पैदा हो गई है।तब खुद वी.एस.दुबे ने कई दिनों तक कटाव स्थल पर रात -दिन कैम्प करके कटाव पर काबू पा लिया था।

इस काम की नेपाल और भारत सरकार तथा मीडिया ने भी तारीफ की थी। पर केंद्र में पिछले चार से अधिक साल से लालू प्रसाद दबंग स्थिति में हैं। फिर भी क्या उन्होंने 1993 के विधान सभा में दिए गए अपने ही भाषण के संदर्भ में प्रधान मंत्री से कभी चर्चा की ? अभी तो करीब तीस लाख बाढपीड़ितों ़के रिलीफ व पुनर्वास की समस्या केंद्र व राज्य सरकार के सिर पर है।पर कोसी के कहर से निबटने के लिए जिस स्थायी समाधान की कल्पना लालू प्रसाद के जेहन में रही है,उसे कार्यरूप देने में देरी करने से बिहार का और भी नुकसान होने वाला है। 

नेपाल के जिस स्थल पर इस बार कोसी नदी ने बांध तोड़ कर अपनी धारा बदल ली है,उस स्थल पर बांध की मरम्मत के काम को वहां के माओवादी काफी पहले सेे नहीं होने दे रहे थे।पर बांध की मरम्मत नहीं होने से कैसा प्रलय आ सकता है,इसका पुर्वानुमान 1993 में सिंचाई मंत्री और ंिसंचाई आयुक्त को था।मौजूदा राज्य सरकार को क्यों नहीं था,यह देखकर अनेक लोग आश्चर्यचकित हैं। राज्य सरकार को चाहिए था कि वह प्रलय की आशंका से देश-दुनिया को अवगत कराती। 

बांध की मरम्मत के काम में माओवादियों के विरोध को ठंडा करने के लिए राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय दबाव डाला जा सकता था। हालांकि एक बात और ध्यान रखने की है,वह यह कि 1993 के बाद कोसी के तटबंध और भी कमजोर हुए हैं और नदी के पेट में गाद बढ़ी है जिससे नदी का पेट उठ गया है। नेपाल में कुशहा के पास कोसी तटबंध इसलिए भी टूटा क्योंकि नदी का पेट पानी को संभालने के लिए कम ही खाली बचा था।गाद की सफाई तो इधर हुई नहीं । 

वर्षों पहले जब सफाई की कोशिश हुई थी तो पता चला कि सफाई के लिए आवंटित पैसे में से अधिकांश भ्रष्ट इंजीनियरों,ठेकेदारों और नेताओं के पेट में चले गए।हालांकि बांध की मरम्मत के काम में भी लूट ही लूट है।यानी आज समस्या 1993 की अपेक्षा अधिक विकट है। अक्सर अपनी धारा बदलने की प्रवृति वाली कोसी नदी को स्थायी तौर पर नियंत्रित करने के लिए भारत सरकार,नेपाल सरकार और बिहार सरकार में जिस राजनीतिक इच्छा शक्ति की जरूरत है,वैसी कभी रही नहीं। याद रहे कि कोसी की बाढ़ से नेेपाल में भी जनधन की हानि होती है। 

बिहार के लगभग सभी प्रमुख दलों के अधिकतर नेताओं ने समय- समय पर यह जरूर कहा कि नेपाल में हाई डैम बनना ही चाहिए। यही समस्या का स्थायी निदान है।वे बांध विरोधियों के तर्क से कभी सहमत नहीं हुए।पर केंद्र में सत्ता में आने के बाद वही सारे नेता और दल यह बात भूलते ही चले गए। दसियों साल से यही हो रहा है।इस बीच कई बार कोसी की बाढ़ से लाखों जनता तबाह होती रही।हालांकि इस बार जैसी प्रलयंकारी बाढ़ आई है वैसी तो कहते हैं कि दो सौ साल पहले आई थी। पिछले 30 वर्षों से लगभग सभी प्रमुख दल बारी-बारी से कंेद्र व राज्य में सत्ता में रहे हैं।कोई दल जब बिहार में सत्ता में होता है तो इस काम के लिए केंद्र को जिम्मेदार बताता है और जब वही दल केंद्र में सत्ता में आता है तो अपनी ही बात भूल जाता है।

अब तो नेपाल में राजनीतिक स्थिति पूरी तरह बदल गई है। शायद इस काम के लिए भारत सरकार को कोई बड़ी कीमत नेपाल को देनी पड़ेगी।पर इस परियोजना के निर्माण के लिए कोई भी कीमत कम होगी क्योंकि लाखों लोगों के जीवन की अपेक्षा किसी कीमत का क्या मतलब है ? आज कोसी के बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में पीड़ितों की जो दर्दनाक स्थिति है,उसका विवरण देते हुए इलेक्ट्रानिक मीडिया के संवाददाता की आखें भी डबडबा जा रही हैं और आवाज भारी हो जा रही है।यह ऐसा प्रलय है जिसमें चाहते हुए भी सरकार विपरीत मौसम में लाखों पीड़ितों को एक साथ वांछित मदद नहीं पहुंचा पा रही है।ऐसा प्रलय भविष्य में भी नहीं आएगा,इसकी कोई गारंटी भी नहीं है। 

 साभार जनसत्ता (29/08/2008)

‘मैला आंचल’ की गरीबी के कारण बाढ़ की मार और भी दुःखदायी

मीडिया और मोबाइल ने भी बचाई कई जानें



फणीश्वर नाथ रेणु के ‘मैला आंचल’ में आजादी के इकसठ साल बाद भी जारी भीषण गरीबी से प्रलयंकारी बाढ़ की मार और भी दुःखदायी बन गई है। रेणु ने इसी कोशी अंचल की अमर कथा लिखी है। बाढ़ग्रस्त इलाके में पक्के मकान कम, झोपड़ियां ही अधिक हैं। जिनके पक्के मकान, दो मंजिला हैं, उन्हें तो इस बार थोड़ी राहत मिल रही है। पर, झोपड़ियों में बसी अधिकतर आबादी को भीषण बाढ़ की तेज धार संभलने का कम ही मौका दे रही है। 


बता दें कि बाढ़ का पानी नए- नए क्षेत्रों में फैलता जा रहा है और जल स्तर भी बढ़ रहा है। बाढ़पीड़ितों में अधिकतर गरीब लोगों का तो सब कुछ लुटता जा रहा है। यहां तक कि उनकी आर्थिक रीढ़ उनके मवेशी भी उनके लिए बोझ बन गए, जिनसे इस विपदा में उनका प्यार का नाता टूट गया। किसी तरह वे जान बचाकर पानी से निकल रहे हैं या फिर बचाव दस्ते के इंतजार में पल -पल जीवन और मौत के बीच झूल रहे हैं। अनेक जवान व अधेड़ लोग शरीर से लाचार अपने बुजुर्गों को पानी के बीच घरों में फंसा छोड़ खुद पानी में चल कर सुरक्षित स्थानों में पहुंचने की कोशिश करते देखे जा रहे हैं। ऐसे प्रलय में कोई सरकारी व गैर सरकारी मदद नाकाफी ही साबित होने वाली है। 


कल्पना कीजिए कि उस इलाके में आजादी के बाद आम संपन्नता आई होती और उन लोगों के अधिकतर मकान पक्का होते और कुछ मकान दोमंजिला हो चुके होते, फिर तो कुछ समय के लिए बाढ़ की पीड़ा झेल लेने में उन्हें काफी सुविधा होती। असमान आर्थिक विकास के दृश्य बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में भी देखे जा सकते हंै। कई दो मंजिला वाले अब भी मकान के ऊपरी हिस्से में मौजूद हैं। पता नहीं, वे भी कब तक वहां रह पाएंगे। यह बात जरूर है कि उनकी हालत कुछ बेहतर है। पर झोपड़ियों में बसे लाखों गरीबों के लिए तो इस बाढ़़ के कारण दुख का पहाड़ ही टूट पड़ा है। 


अभी तो यह आकलन होना बाकी है कि कितने लोग बाढ़ की धार में बह चुके हैं और कितने लोग अपने परिजन से बिछुड़ चुके हंै। बाढ ग्रस्त ़क्षेत्र से निकल जाने के बाद लाखों गरीबों के आर्थिक पुनर्वास की भीषण समस्या केंद्र व राज्य सरकार के सामने मुंह बाए खड़ी मिलेगी। इस त्रासदी की तुलना कुछ लोग हिंदुस्तान- पाकिस्तान के बंटवारे से उत्पन्न विस्थापितों की समस्या से भी कर रहे हैं। ऐसी समस्या के जानकार लोग यह भी बता रहे हैं कि वह इलाका अब आर्थिक रूप से तीस साल पीछे चला गया है। पर इस भारी विपत्ति में जहां-तहां मोबाइल फोन ने राम वाण का काम किया है।


 संचार क्रांति का इतना लाभ शायद ही इससे पहले कभी एक जगह देखा गया हो। साथ ही इलेक्ट्राॅनिक मीडिया सराहनीय काम कर रहा है। चैनल के एंकर बाढ़ग्रस्त इलाके में फंसे पीड़ितों से मोबाइल फोन से आ रहे उनके त्राहिमाम संदेश प्रसारित करके उन आवाजों को राहत और बचाव कार्यों में लगे प्रशासन के छोटे -बड़े अधिकारियों तक निरंतर पहुंचा रहे हैं। कुछ अधिकारीगण भी इलेक्ट्राॅनिक चैनल द्वारा दी जारी सूचनाओं को विनम्रतापूर्वक नोट कर आवश्यक कार्रवाई के लिए फील्ड में सक्रिय अफसरों को निदेशित कर रहे हैं। कुछ निर्देष कारगर हो रहे हैं और कुछ निर्देषों के पालन की सरजमीन पर स्थिति ही नहीं बची है। बचाव कार्य में लगे लोग भी अनेक मामलों में लाचार हैं। 


बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में जिनके मोबाइल की बैट्री डिस्चार्ज हो चुकी हैं, उनकी हालत जरूर दयनीय हो गई हैं, पर इससे पहले अनेक बाढ़पीड़ित लोग अपने दूर बसे रिश्तेदारों को अपनी पीड़ा बता चुके हैं । वे सगे -संबंधी अब इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के जरिए प्रशासन को यह सूचना दे रहे हैं कि उनके सगे किस जिले के किस प्रखंड के किस गांव में बाढ़ के पानी से घिरे हुए हैं। बिहार के अखबार ने भी बाढ़ राहत हेल्पलाइन की व्यवस्था की है। ऐसा नहीं है कि बाढ़ग्रस्त इलाकों के बहुत सारे लोगों के पास मोबाइल फोन उपलब्ध ही हैं, फिर भी दस साल पहले से इस मामले में स्थिति अब काफी बदली हुई है और बिहार के सुदूर गांवों में मामूली आर्थिक हैसियत वालों के पास भी मोबाइल फोन उपलब्ध हैं। जिन परिवारों के मजदूर बिहार के बाहर जाकर कहीं कुछ भी कमा रहे हैं, तो उन में कई लोगों ने गांव में रह रहे अपने परिजन के लिए एक सस्ते मोबाइल का प्रबंध कर रखा है। वे उनसे संपर्क में रहते हैं। 


याद रहे कि ऐसी भीषण बाढ़ में लैंड लाइन फोन अक्सर अनुपयोगी हो जाते हैं। बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में फंसे असहाय लोगों की प्राण रक्षा के लिए नावें सबसे जरूरी साधन हैं, पर इस मामले में बिहार सरकार की कमजोरी एक बार फिर खुल कर सामने आ गई है। सालाना बाढ़ वाले इस प्रदेश में पहले भी इस मामले में प्रशासन का निकम्मापन सामने आता रहा है। जब भी बाढ़ आती है और मल्लाहों से भाड़े पर नावों की मांग प्रशासन करता है, तो मल्लाह कहते हैं कि पिछले साल का भाड़ा तो सरकार ने दिया ही नहीं है। 


भाड़ा मिलने में देरी इसलिए होती है, क्योंकि मल्लाह संबंधित अफसर व कर्मचारी को भाड़े के पैसे में एक बड़ा हिस्सा रिश्वत के रूप में दे देने में आनाकानी करता है, पर इस बार अचानक अधिक नावों की जरूरत पड़ रही है, इसलिए प्रशासन ने आनन-फानन में बड़ी संख्या में नई नावों के निर्माण के आदेश भी लकड़ी के सामान बनानेवालों को दिए हैं।


 एक नाव बनाने में सामान्यतः आठ दिन लगते हेैं, जब 18 से बीस मजदूर निरंतर काम करें। नावें बन तो रही हैं, पर समय रहते कितनी बन पाएंगीं और बाढ़ग्रस्त इलाके में फंसे लोगों के वे कब काम आएंगी, यह एक बड़ा सवाल है। इसे ही कहते हैं कि आग लगने पर कुआं खोदा जाए। 


हालांकि कुछ पहले से जिले में उपलब्ध और सेना की अनेक नावें बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में काम कर रही हैं, पर वे फिर भी समस्या के अनुपात में अत्यंत नाकाफी हैं। कुछ इलेक्ट्राॅनिक मीडिया चैनलों ने बिहार के बाढ़पीड़ितों के लिए राहत राशि व सामग्री मुहैया कराने के लिए अपील करनी शुरू कर दी हैं। अब देश के प्रिंट मीडिया से भी यहां के लोग उम्मीद कर रहे हैं कि वे भी अपने पाठकों से ऐसी ही अपील करें। इस देश का प्रिंट मीडिया इस तरह की विपदा की घड़ी में इस मामले में आगे रहा है। यानी बाढ़ रिलीफ फंड में सहयोग देने की अपील करता रहा है।



साभार जनसत्ता (30/08/2008)