गुरुवार, 11 सितंबर 2008

एकमुश्त मतदान की जरूरत

यदि दलीय नेता ही अवसर आने पर अपने दल के सभी सदस्यों की ओर से सदन में एकमुश्त मतदान कर दिया करें ं,तो ‘नोट के बदले वोट’ की नौबत शायद नहीं आएगी। यह बात अलग है कि दलीय नेता ही बिक जाएं।पर, ऐसी नौबत कम ही आती है।लोक सभा में गत 22 जुलाई को जो कुछ हुआ,उसे देखते हुए क्या इस सुझाव पर विचार करने का समय नहीं आ गया है ? पर, सदस्यों की ओर से संसदीय व विधायक दलों के नेताओं को ऐसा अधिकार दिया जाए, इसके लिए संबंधित नियम में परिवत्र्तन करना पड़ेगा। क्या लोकतंत्र मेंं पनपी एक शर्मनाक बुराई को रोकने के लिए नियमों में एक और परिवत्र्तन नहीं किया जाना चाहिए ? अधिक दिन नहीं हुए जब राज्य सभा चुनावों में अपने दलीय नेता या उनके प्रतिनिधि को मत पत्र दिखाकर वोट देने की बाध्यता कायम की गई।यानी सदस्यों को उनके मनोनुकूल मतदान करने का उनका अधिकार छीन लिया गया। उससे पहले बड़े पैमाने पर ऐसी शिकायत आ रही थी कि अनेक विधायक पैसे लेकर राज्य सभा के उम्मीदवारों को वोट दे रहे हैं। कल्पना कीजिए कि पहले से संसदीय दल के नेताओं को ही विश्वास प्रस्ताव पर अपने पूरे दल की ओर से एकमुश्त वोट देने का अधिकार होता तो कम से कम संगठित व बड़े दलों से तो कोई दल -बदल या पक्ष परिवत्र्तन नहीं होता।हां,निर्दलीय सदस्यों के बारे में भी अलग से विचार किया जा सकता है। निर्दलीय सदस्य जब चुन कर जाते हैं,उसी समय उनसे यह लिखवा कर स्पीकर रख लें कि वे पूरे पांच साल वे किस पक्ष में रहेंगे ? उन्हें पहले ही यह लिख कर दे देना चाहिए कि वे सत्ता दल के साथ रहेंगे या विपक्ष के साथ ? या फिर वे कभी भी किसी पक्ष की ओर से मतदान ही नहीं करेंगे।जब वे यह लिख कर दे देंगे तो उनके द्वारा किसी भी हालत में पक्ष बदलने की स्थिति में स्पीकर उनकी सदस्यता तत्काल समाप्त घोषित कर देंगे। ऐसा ही नियम बनाया जा सकता है। दलीय व निर्दलीय जन प्रतिनिधियों के लिए ऐसे नियम बन जाएं तो बिकने के लिए कोई जन प्रतिनिधि घोड़ामंडी में उपलब्ध ही नहीं रहेगा।यदि उपलब्ध ही नहीं रहेगा तो खरीदने वाले कैसे व कहां से खरीदेंगे ? यदि नहीं खरीद पाएंगे तेा लोकतंत्र शर्मसार होने से बच जाएगा।यानी भविष्य में कभी किसी मंत्रिमंडल के बारे में यह नहीं कहा जा सकेगा कि फलां मंत्रिमंडल तो खरीदे हुए सांसदों के ही बल पर वर्षो तक चला। इससे लोकतंत्र बदनाम होने से बचेगा और जनतंत्र मंंें आम जनता की आस्था समाप्त नहीं होगी।आस्था बनी रहेगी तो माओवादी जैसी जो शक्तियां इन दिनों मौजूदा लोकतंत्र को समाप्त करने की कोशिश में लगी हुई हैं,उन्हें जनता से अधिक ताकत नहीं मिलेगी। एक बार 1993 में सरकार बचाने के लिए कुछ सांसद बिके थे। इस बार भी सांसदों को खरीद कर ही मन मोहन सरकार बचाई गई, इस आरोप की जांच संसदीय समिति कर रही है।जांच का नतीजा जो भी आए , पर पूरे देश ने यह दृश्य कई बार अपने टी.वी.स्क्रीन पर देखा कि किस तरह सांसदों की घोड़ामंडी सजी।इस घृणित प्रकरण की चर्चा अभी चलती ही रहेगी।ऐसी शर्मनाक चर्चाओं पर विराम लगाने के उपाय किए जाने में यदि इस देश के प्रमुख दल रूचि रखते होंगे तो जरूर उपर दिए गए सुझाव या फिर इससे भी किसी बेहतर सुझाव पर अमल करेंगे।पर क्या इस देश के पक्ष विपक्ष की राजनीति के दिग्गज नेता लोग सचमुच चाहते हैं कि नोट के बदले वोट जैसे प्रकरणों से भारत का लोकतंत्र दुनिया भर में बदनाम होने से बचे ? या फिर इस घृणित व्यापार की सहूलियत उपलब्ध रहने पर उसका समय आने पर सभी दल सिर्फ लाभ ही उठाना चाहते हैं ? अभी लाभ यू.पीए. ने उठाया,कल होकर एन.डी.ए. उठाएगा। यह बात इसलिए कही जा रही है कि झामुमो रिश्वत कांड मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने 1998 में ही यह कहा था कि यदि कोई सांसद घूस लेकर सदन में वोट देता है तो उसे सजा देने का अधिकार संसद को ही है,कोर्ट को नहीं।पर इस फैसले के दस साल बीत जाने के बावजूद ऐसे घूसखोर सांसदों को सजा देने के लिए संविधान के संबंधित अनुच्छेद में संशोधन करने का कोई उपाय न तो एन.डी.ए.ने किया और न ही यू.पी.ए. ने जबकि दोनों इस बीच लंबे समय तक बारी-बारी से सत्ता में रहे।
साभार राष्ट्रीय सहारा (१४/०८/२००८)

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