पचास के दशक की बात है। एक बार अनुग्रह बाबू के एक खास करीबी नेता एक खास उद्देश्य से लाल बहादुर शास्त्री से मिले।उन्होंने शास्त्री जी से कहा कि आप जेपी से कहें कि वे सार्वजनिक रूप से जवाहर लाल नेहरू की आलोचना नहीं करें।इससे होता यह है कि कांग्रेस के अंदर डा.अनुग्रह नारायण सिंह की स्थिति उलझनपूर्ण हो जाती है। याद रहे कि जेपी, अनुग्रह बाबू के काफी करीबी माने जाते थे। शास्त्री जी ने जवाब दिया कि ‘ऐसा मैं जेपी को नहीं कह सकता।दरअसल जेपी ही ऐसे एक व्यक्ति हैं जो किसी राग-द्वेष या लाभ-लोभ के बिना नेहरू जी की जनहित में सार्वजनिक रूप से आलोचना कर सकते हैं।ऐसी आलोचनाएं सत्ताधारी नेता को एकाधिकारवादी व निरंकुश होने से रोकती हैं। नेहरू की अपार लोकप्रियता के कारण उनमें एकाधिकार की प्रवृति पनपने का खतरा मौजूद है। तुलना तो थोड़ी बेमेल हो रही है,पर नीतीश कुमार के खिलाफ भाजपा नेता हरेंद्र प्रताप की हाल की सार्वजनिक आलोचना से वह प्रकरण याद आता है।नीतीश कुमार के जिस तरह जन समर्थन बढ़ने की खबर दी जा रही है, ऐसे में उनमें एकाधिकारवादी प्रवृति के पनपने के खतरे से इनकार नहीं किया जा सकता।डी.एन.गौतम को डी.जी.पी.बनाने के पीछे भी संभवतः मुख्य मंत्री की यही आत्म विश्वासपूर्ण मानसिकता काम कर रही है कि अगले किसी चुनाव में उन्हें मतदाताओं को मतदान केंद्रों पर जाने से रोकने की जरूरत नहीं है बल्कि पुलिस की मदद से स्वच्छ मतदान कराने की जरूरत है। लोकतंत्र में राग-द्वेष व लोभ-लाभ से मुक्त होकर जन हित में सत्ता की जरूरत पड़ने पर कभी स्वस्थ आलोचना या फिर कभी तारीफ जरूरी भी है।एन.डी.ए.के भीतर से हरेंद्र प्रताप की ओर से संभवतः अब तक की सबसे कड़ी आलोचना सामने आई है। हरेंद्र प्रताप की ताजा आलोचना कैसी है ?इस पर मिली जुली प्रतिक्रियाएं हैं।इसके तरह-तरह के मतलब भी लगाए जा सकते हैं।ऐसे समय में जब कि इस देश के पक्ष- विपक्ष के नेताओं द्वारा आए दिन हो रही राजनीतिक बयानबाजियों से तथ्यपरकता व जन कल्याण की भावना लुप्त होती जा रही है,वहां हरेंद्र प्रताप के बयान में भी ऐसा कुछ तलाश करना अस्वाभाविक नहीं है।पर, हरेंद्र प्रताप की कुछ बातें तो गौर करने लायक हैं। बिहार के विश्व विद्यालय कर्मियों की हड़ताल से उपजी समस्या के प्रति हरेंद्र जी की चिंता सराहनीय है। इस सरकार के पीछे सरकारी विफलता भी है।पोटा के खिलाफ मुख्य मंत्री नीतीश कुमार के बयान पर हरेंद्र प्रताप की आलोचना में भी दम लगता है।क्योंकि आतंकवाद की समस्या को गैर राजनीतिक व पेशेवर ढंग से देखने वाले तमाम विशेषज्ञ कड़े कानून की जरूरत महसूस करते रहे हैं।दुनिया के अन्य अनेक देशों ने इस संदर्भ में हाल के वर्षों में अपने कानून कड़े कर दिए हैं। पर भागल पुर दंंगे के मुकदमों की फिर से सुनवाई के नीतीश सरकार के फैसले पर उंगुली नहीं उठाई जानी चाहिए।हरेंद्र प्रताप ने उंगुली उठाई है।यदि दंगाइयों को सजा नहीं मिलेगी तो भविष्य में दंगा करने वालों के हाथ रुकंेगे कैसे ? दंगा- फसाद नहीं रुकेगा तो दरिद्र बिहार का विकास कैसे होगा ? वैसे भी सांप्रदायिक मसलों पर भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व का रूख समय के साथ बदल रहा है। पर, हरेंद्रजी, इस बीच बंगलादेशी घुसपैठियों की समस्या को आप कैसे भूल गए ? आप तो इस समस्या के विशेषज्ञ जानकार रहे हैं।यह समस्या बिहार सहित देश भर में अब भी बरकरार है।बल्कि बढ़ रही है।लोक सभा के पूर्व स्पीकार पी.ए.संगमा ने हाल ही मेंे कहा है कि ‘बंगला देश से और डेढ़ करोड़ शरणार्थियों @कुछ लोग उन्हें घुसपैठी कहते हैं।@के जल्दी ही भारत में प्रवेश करने की आशंका है।’एक अनुमान के अनुसार दो करोड़ बंगला देशी घुसपैठी पहले से ही भारत में अवैध ढंग से रह रहे हैं।इस देश में इन दिनों जारी आतंकवादी वारदातों में बंगला देश में सक्रिय जेहादियों का ही अधिक नाम लिया जा रहा है।इस देश में जहां तहां बसे बंगला देशियों की गैर कानूनी बस्तियों में उन जेहादियों के शरण मिलने की आशंका रहती है। जहां तक छोटे पार्टनर को भी प्रधान मंत्री और मुख्य मंत्री पद देने का सवाल है तो इस देश में ऐसे अनेक उदाहरण है। केंद्र में मोरारजी देसाई और राज्यों में चरण सिंह,महामाया प्रसाद सिंहा,अजय मुखर्जी,गोविंद नारायण सिंह तथा इस तरह कई नेताओं ने जब सरकार बनाई थी तो वे गठबंधन में शामिल दलों में सबसे बड़े घटक के नेता नहीं थे।यदि केंद्र में भाजपा को प्रधान मंत्री पद चाहिए तो राज्यों में उसे अपने सहयोगी दलों को तरजीह देनी ही पड़ेगी।
साभार राष्ट्रीय सहारा (07@08@2008)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें