किसी विपदा को भी अवसर के रूप में बदला ही जा सकता है। पर, यह इस बात पर निर्भर करता है कि किस विपदा का इस्तेमाल कौन व्यक्ति या नेता किस तरह के ‘अवसर’ हासिल करने के लिए करता है। कोशी-बाढ-विपदा को लेकर ताजा राजनीतिक अवसरवादिता का खेल इस देश व प्रदेश में कोई नया नहीं है।इस देश में यह सर्वव्यापी राजनीतिक व्यायाम है।वैसे भी कोशी बांध के टूटने के पीछे की मूल जिम्मेदारी से बिहार सरकार बच नहीं सकती।हालांकि इस विपदा के लिए कोई व्यक्ति केंद्र सरकार, नेपाल सरकार और बिहार की पिछली सरकारों को भी थोड़ा-बहुत जिम्मेदार ठहराता है तो उसके भी अपने-अपने तर्क हैं। एक -एक करके बातें टुकड़ों में सामने आती जा रही हैं।कई जिम्मेदार लोग भी अपने पिछले बयानों को समय- समय पर सुधार-बिगाड़ रहे हैं।पूरे मामले की यदि निष्पक्ष और निर्भीक जांच हो तो दूध-का-दूध और पानी-का-पानी सामने आ जाएगा।क्या इस भीषण दुर्घटना की कभी निष्पक्ष जांच हो पाएगी ? पर, इस बीच मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने जरूर कहा है कि ‘ बाढ़ एक भयानक त्रासदी है जिसमें सब कुछ नष्ट हो गया है।संकट की इस घड़ी को हम ‘अवसर’ में बदलेंगे,जहां तक मकान ध्वस्त होने की बात है तो सभी लोगों को पहले से बेहतर मकान बना कर देंगे।’ नीतीश कुमार जिस तरह के धुनी व्यक्ति हैं, वे यह काम अगले कुछ महीनों में कर-करा भी सकते हैं। वैसे भी देश भर से बाढ़पीडि़तों के लिए तरह तरह की सरकारी-गैर सरकारी मदद की पेशकश हो रही है।कल्पना कीजिए कि पूर्वोत्तर बिहार के करीब आधा दर्जन पिछड़े जिलों में साल-दो-साल के अंदर कोई सरकार लोगों के बेहतर मकान बनवा कर दे दे तो इसे ‘विपदा में अवसर’ ही तो माना जाएगा। किसी आम व्यक्ति के जीवन का एक बहुत बड़ा लक्ष्य यह होता है कि किसी तरह वह अपने जीवन काल में अपने लिए एक पक्का मकान बना ले। फणीश्वर नाथ रेणु के इस ‘ मैला आंचल ’ में आजादी के इकसठ साल के बाद भी बहुत कुछ नहीं बदला है। पूर्वोंत्तर बिहार के इस बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में अधिकतर लोग फूस की झोपडियों में ही रहते रहे हैं। अब तो वे उजड़ गए।वे झोपडि़यां भी इस भीषण आपदा में उनका साथ छोड़ गईं।लाखों नए आवास की जरूरत पड़ेगी जब वहां से पानी हटेगा।यह उम्मीद की जा रही है कि दो तीन महीने बाद कुसहा में क्षतिग्रस्त एफलक्स बांध की मरम्मत का काम हो जाएगा आरा कोशी की धार फिर अपनी पुरानी राह पकड़ लेगी।फिर तो बाढ ़से विस्थापित लोग अपने ‘घरों’ यानी पुराने स्थानों पर जा पाएंगे जहां घर की जरूरत की भीषण समस्या मुंह बाए खड़ी होंगी। जरूरत कई अन्य चीजों की भी होगी,पर अभी बात मकानों की ही की जाए। कपना कीजिए कि मधे पुरा, अररिया, सुपौल, सहरसा और पूर्णिया जिलों के ग्रामीण इलाकों के मकान पहले से ही पक्के होते, फिर तो बाढ़ की मार का दर्द निवासियों को काफी कम सताता। ध्यान रहे कि इसी देश के खुशहाल प्रदेशों के संपन्न गांवों के मकान भी पक्के हैं और उनमें से अनेक दोमंजिला भी हैं।यदि सरकारी भ्रष्टाचार पर रोक लगाकर बिहार के गांवों को भी आजादी के बाद संपन्न बनाया गया होता तो वहां भी एक मंजिला-दोमंजिला पक्के मकान मौजूद होते और किसी बाढ़ की विपदा में भी लोगों के कष्ट कम होते। यदि बाढ़ का पानी हटने के बाद मुख्य मंत्री को सचमुच अपने वायदा को निभाने का अवसर मिला और वहां के पीडि़तों को सरकार बेहतर मकान मुहैया कराने में सफल रही तो वह एक बड़ी लकीर खींचने का ही काम होगा। पर, तब तक तो मुख्य मंत्री और उनकी सरकार को आलोचना का वार तो सहना पड़ेगा। क्योंकि राजनीति में तो कभी फूल मिलेंगे तो कभी पत्थरों के लिए भी तैयार रहना पड़ता है। आज जब मीडिया को भी पक्ष-विपक्ष की आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है तो फिर इस देश की राजनीति तो इसी तरह के व्यायाम के लिए जानी जाती है। हालांकि बाढ़ की रिपोर्टिंग में मीडिया के सामने कोई निजी एजेंडा नजर नहीं आता। उधर राजनीति तो राजनीति ही है, उसमें तो सामान्यतया निजी एजेंडा ही प्रमुख है, बाकी चीजें बाद में आती हैं।
साभार राष्ट्रीय सहारा (04/09/2008)
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