रविवार, 7 सितंबर 2008

‘मैला आंचल’ की गरीबी के कारण बाढ़ की मार और भी दुःखदायी

मीडिया और मोबाइल ने भी बचाई कई जानें



फणीश्वर नाथ रेणु के ‘मैला आंचल’ में आजादी के इकसठ साल बाद भी जारी भीषण गरीबी से प्रलयंकारी बाढ़ की मार और भी दुःखदायी बन गई है। रेणु ने इसी कोशी अंचल की अमर कथा लिखी है। बाढ़ग्रस्त इलाके में पक्के मकान कम, झोपड़ियां ही अधिक हैं। जिनके पक्के मकान, दो मंजिला हैं, उन्हें तो इस बार थोड़ी राहत मिल रही है। पर, झोपड़ियों में बसी अधिकतर आबादी को भीषण बाढ़ की तेज धार संभलने का कम ही मौका दे रही है। 


बता दें कि बाढ़ का पानी नए- नए क्षेत्रों में फैलता जा रहा है और जल स्तर भी बढ़ रहा है। बाढ़पीड़ितों में अधिकतर गरीब लोगों का तो सब कुछ लुटता जा रहा है। यहां तक कि उनकी आर्थिक रीढ़ उनके मवेशी भी उनके लिए बोझ बन गए, जिनसे इस विपदा में उनका प्यार का नाता टूट गया। किसी तरह वे जान बचाकर पानी से निकल रहे हैं या फिर बचाव दस्ते के इंतजार में पल -पल जीवन और मौत के बीच झूल रहे हैं। अनेक जवान व अधेड़ लोग शरीर से लाचार अपने बुजुर्गों को पानी के बीच घरों में फंसा छोड़ खुद पानी में चल कर सुरक्षित स्थानों में पहुंचने की कोशिश करते देखे जा रहे हैं। ऐसे प्रलय में कोई सरकारी व गैर सरकारी मदद नाकाफी ही साबित होने वाली है। 


कल्पना कीजिए कि उस इलाके में आजादी के बाद आम संपन्नता आई होती और उन लोगों के अधिकतर मकान पक्का होते और कुछ मकान दोमंजिला हो चुके होते, फिर तो कुछ समय के लिए बाढ़ की पीड़ा झेल लेने में उन्हें काफी सुविधा होती। असमान आर्थिक विकास के दृश्य बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में भी देखे जा सकते हंै। कई दो मंजिला वाले अब भी मकान के ऊपरी हिस्से में मौजूद हैं। पता नहीं, वे भी कब तक वहां रह पाएंगे। यह बात जरूर है कि उनकी हालत कुछ बेहतर है। पर झोपड़ियों में बसे लाखों गरीबों के लिए तो इस बाढ़़ के कारण दुख का पहाड़ ही टूट पड़ा है। 


अभी तो यह आकलन होना बाकी है कि कितने लोग बाढ़ की धार में बह चुके हैं और कितने लोग अपने परिजन से बिछुड़ चुके हंै। बाढ ग्रस्त ़क्षेत्र से निकल जाने के बाद लाखों गरीबों के आर्थिक पुनर्वास की भीषण समस्या केंद्र व राज्य सरकार के सामने मुंह बाए खड़ी मिलेगी। इस त्रासदी की तुलना कुछ लोग हिंदुस्तान- पाकिस्तान के बंटवारे से उत्पन्न विस्थापितों की समस्या से भी कर रहे हैं। ऐसी समस्या के जानकार लोग यह भी बता रहे हैं कि वह इलाका अब आर्थिक रूप से तीस साल पीछे चला गया है। पर इस भारी विपत्ति में जहां-तहां मोबाइल फोन ने राम वाण का काम किया है।


 संचार क्रांति का इतना लाभ शायद ही इससे पहले कभी एक जगह देखा गया हो। साथ ही इलेक्ट्राॅनिक मीडिया सराहनीय काम कर रहा है। चैनल के एंकर बाढ़ग्रस्त इलाके में फंसे पीड़ितों से मोबाइल फोन से आ रहे उनके त्राहिमाम संदेश प्रसारित करके उन आवाजों को राहत और बचाव कार्यों में लगे प्रशासन के छोटे -बड़े अधिकारियों तक निरंतर पहुंचा रहे हैं। कुछ अधिकारीगण भी इलेक्ट्राॅनिक चैनल द्वारा दी जारी सूचनाओं को विनम्रतापूर्वक नोट कर आवश्यक कार्रवाई के लिए फील्ड में सक्रिय अफसरों को निदेशित कर रहे हैं। कुछ निर्देष कारगर हो रहे हैं और कुछ निर्देषों के पालन की सरजमीन पर स्थिति ही नहीं बची है। बचाव कार्य में लगे लोग भी अनेक मामलों में लाचार हैं। 


बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में जिनके मोबाइल की बैट्री डिस्चार्ज हो चुकी हैं, उनकी हालत जरूर दयनीय हो गई हैं, पर इससे पहले अनेक बाढ़पीड़ित लोग अपने दूर बसे रिश्तेदारों को अपनी पीड़ा बता चुके हैं । वे सगे -संबंधी अब इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के जरिए प्रशासन को यह सूचना दे रहे हैं कि उनके सगे किस जिले के किस प्रखंड के किस गांव में बाढ़ के पानी से घिरे हुए हैं। बिहार के अखबार ने भी बाढ़ राहत हेल्पलाइन की व्यवस्था की है। ऐसा नहीं है कि बाढ़ग्रस्त इलाकों के बहुत सारे लोगों के पास मोबाइल फोन उपलब्ध ही हैं, फिर भी दस साल पहले से इस मामले में स्थिति अब काफी बदली हुई है और बिहार के सुदूर गांवों में मामूली आर्थिक हैसियत वालों के पास भी मोबाइल फोन उपलब्ध हैं। जिन परिवारों के मजदूर बिहार के बाहर जाकर कहीं कुछ भी कमा रहे हैं, तो उन में कई लोगों ने गांव में रह रहे अपने परिजन के लिए एक सस्ते मोबाइल का प्रबंध कर रखा है। वे उनसे संपर्क में रहते हैं। 


याद रहे कि ऐसी भीषण बाढ़ में लैंड लाइन फोन अक्सर अनुपयोगी हो जाते हैं। बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में फंसे असहाय लोगों की प्राण रक्षा के लिए नावें सबसे जरूरी साधन हैं, पर इस मामले में बिहार सरकार की कमजोरी एक बार फिर खुल कर सामने आ गई है। सालाना बाढ़ वाले इस प्रदेश में पहले भी इस मामले में प्रशासन का निकम्मापन सामने आता रहा है। जब भी बाढ़ आती है और मल्लाहों से भाड़े पर नावों की मांग प्रशासन करता है, तो मल्लाह कहते हैं कि पिछले साल का भाड़ा तो सरकार ने दिया ही नहीं है। 


भाड़ा मिलने में देरी इसलिए होती है, क्योंकि मल्लाह संबंधित अफसर व कर्मचारी को भाड़े के पैसे में एक बड़ा हिस्सा रिश्वत के रूप में दे देने में आनाकानी करता है, पर इस बार अचानक अधिक नावों की जरूरत पड़ रही है, इसलिए प्रशासन ने आनन-फानन में बड़ी संख्या में नई नावों के निर्माण के आदेश भी लकड़ी के सामान बनानेवालों को दिए हैं।


 एक नाव बनाने में सामान्यतः आठ दिन लगते हेैं, जब 18 से बीस मजदूर निरंतर काम करें। नावें बन तो रही हैं, पर समय रहते कितनी बन पाएंगीं और बाढ़ग्रस्त इलाके में फंसे लोगों के वे कब काम आएंगी, यह एक बड़ा सवाल है। इसे ही कहते हैं कि आग लगने पर कुआं खोदा जाए। 


हालांकि कुछ पहले से जिले में उपलब्ध और सेना की अनेक नावें बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में काम कर रही हैं, पर वे फिर भी समस्या के अनुपात में अत्यंत नाकाफी हैं। कुछ इलेक्ट्राॅनिक मीडिया चैनलों ने बिहार के बाढ़पीड़ितों के लिए राहत राशि व सामग्री मुहैया कराने के लिए अपील करनी शुरू कर दी हैं। अब देश के प्रिंट मीडिया से भी यहां के लोग उम्मीद कर रहे हैं कि वे भी अपने पाठकों से ऐसी ही अपील करें। इस देश का प्रिंट मीडिया इस तरह की विपदा की घड़ी में इस मामले में आगे रहा है। यानी बाढ़ रिलीफ फंड में सहयोग देने की अपील करता रहा है।



साभार जनसत्ता (30/08/2008)

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