बुधवार, 18 दिसंबर 2024

 चरैवति-चरैवति

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हमारे ग्रंथ कहते हंै--

चरैवति,चरैवति यानी चलते रहो,चलते रहो ।

फल की आशा छोड़ कर कर्म में लगे रहो।

मैं गत 52 साल से पत्रकारिता की मुख्य धारा में 

तैर ही तो रहा हूं !

ऐसे में ‘‘फल’’ तो बिना बुलाए घर पहुंचता रहता है।

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सुरेंद्र किशोर

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 ठीक 52 साल पहले पटना के दैनिक ‘प्रदीप’ में संपादकीय पेज पर मेरा लेख सुरेंद्र अकेला के नाम से छपा था।

गत 2 नवंबर, 2024 को दैनिक जागरण के संपादकीय पेज पर 

मेरा लेख छपा।

यानी, गत 52 साल से मैं लगातार विभिन्न प्रकाशनों के लिए लिख रहा हूं।

वैसे तो सन 1967 से ही मीरगंज से प्रकाशित सारण संदेश (साप्ताहिक)के लिए रपट और लेख लिखता था।सारण संदेश बिकता भी था।

आज के बड़े पत्रकार देवंेद्र मिश्र भी शुरुआती दौर में सारण संदेश में ही काम कर रहे थे। 

दिनमान सहित देश के अन्य प्रकाशनों में मेरे पत्र और टिप्पणियां, लेख आदि शुरुआती दौर से ही छपते रहे।

सन 1969 में साप्ताहिक लोकमुख (पटना)में मैं उप संपादक रहा।

सन 1973-74 में ‘जनता’ साप्ताहिक, पटना में सहायक संपादक था।

पर 1972 में प्रदीप में बिना पैरवी के लेख छपना मेरे लिए बड़ी उपलब्धि थी।

  लगभग इतने ही लंबे समय से पटना के दो बड़े पत्रकार लगातार लेखन का काम कर रहे हैं।वे हैं--लव कुमार मिश्र और बी.के. मिश्र।अन्य कोई हों तो बताइएगा।

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कहते हैं कि ‘‘स्लो एंड स्टेडी वीन्स द रेस।’’

यानी, कछुआ जीतता है,खरहा हारता है।

ठीक ही कहा गया है--एक साधे, सब सधे, सब साधे, सब जाये।

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यानी, लेफ्ट या राइट देखे बिना एकाग्र निष्ठा से इस क्षेत्र में सीधी राह चलने का लाभ मुझे मिला है।

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अपना नाम प्रिंट में देखने की 

ललक ने पत्रकार बनाया

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मेरे पिता शिव नन्दन सिंह लघुत्तम जमीन्दार थे।

मालगुजारी की रसीद बही पर उनका नाम छपा होता था।

बचपन से ही वह देख-देख कर मुझे भी लगता था कि मेरा भी नाम प्रिंट में होना चाहिए।कैसे होगा ?

एक उपाय सूझा।

दैनिक व साप्ताहिक अखबारों में संपादक के नाम मैं पत्र लिखने लगा।

छपने भी लगा।

हौसला बढ़ा।

फिर राजनीतिक टिप्पणियां लिखने लगा। सन 1967 से 1976 तक राजनीतिक कार्यकर्ता था ही।

इसलिए सक्रिय राजनीति की भीतरी बातों की जानकारी मुझे अन्य पत्रकारों से अधिक थी।

इस तरह यहां तक पहुंच गया।

प्रदीप में जब मेरा लेख छपा था,उस समय मैं बिहार विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता कर्पूरी ठाकुर का निजी सचिव था।

मैं कोई सरकारी कर्मचारी नहीं था।

बल्कि राजनीतिक कार्यकर्ता के तौर पर उनके साथ था।

समाजवादियों की फूट पर ही मेरा वह लेख था।उसमें मैंने कर्पूरी ठाकुर के साथ कोई पक्षपात नहीं किया था।

छपने पर कर्पूरी जी ने खुद तो मुझसे कुछ नहीं कहा ,पर उनके अत्यंत करीबी व पूर्व विधायक प्रणव चटर्जी ने जरूर मुझसे कहा--

‘‘प्रायवेट सेके्रट्री को लेख नहीं लिखना चाहिए।’’

दरअसल मैं कर्पूरी जी के बुलावे पर उनका पी.एस.बना था,पर मैं सिर्फ उनके प्रति नहीं बल्कि समाजवादी आंदोलन के प्रति लाॅयल था।

वैसे मैं जितने बड़े-बड़े नेताओं के करीबी संपर्क में आया,उनमें से कुल मिलाकर कर्पूरी जी को सर्वाधिक महान पाया।

खैर, बात कुछ भटक गयी।

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18 दिसंबर 24



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