एक साथ चुनाव का विरोध करके आज के
कांग्रेसी राजनीतिक स्वार्थवश दरअसल
जवाहरलाल नेहरू की बुद्धि,विवेक और
दूरदर्शिता का अपमान कर रहे हैं
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सुरेंद्र किशोर
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लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक फिर एक साथ कराने की पहल का जो दल और नेतागण विरोध
कर रहे हैं, वे डा.अम्बेडकर और नेहरू-पटेल सहित सारे संविधान नेताओं की दूरदर्शिता पर प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं।
आज के ये नेता गण अपने राजनीतिक तथा अन्य तरह के स्वार्थों के सामने अपने राजनीतिक पूर्वजों को उल्लू साबित करने की भी अनजाने में विफल कोशिश कर रहे हैं।
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पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि ‘‘एक साथ चुनाव कराने का केंद्र सरकार का निर्णय तानाशाही पूर्ण है।
यह न सिर्फ असंवैधानिक है,बल्कि संघीय ढांचे के भी खिलाफ है।’’
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जवाहरलाल नेहरू जबतक प्रधान मंत्री रहे ,उन्होंने लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक ही साथ कराए।
क्या वे तानाशाह थे ?
क्या संविधान विरोधी थे ?
या, संघीय ढांचे के सिद्धांत की रक्षा करने में विफल रहे ?
इन सवालों का जवाब ममता बनर्जी को देना चाहिए।
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हां,इंदिरा गांधी ने अपने शासन काल में अपने राजनीतिक और निजी स्वार्थ में आकर दोनों चुनावों को अलग -अलग कर दिया।
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इंदिरा गांधी ने अपने 16 साल के शासन काल में गैर कांग्रेसी सरकारों वाले राज्यों में 50 बार राष्ट्रपति शासन लागू किया।
एन.टी.रामाराव की सरकार को तो इंदिरा गांधी ने बहुमत रहते हुए भी बर्खास्त कर दिया था जिसे फिर से सत्तारूढ़ करना पड़ा।
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इमर्जेंसी में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने निजी स्वार्थ में न सिर्फ देश पर तानाशाही थोपी बल्कि संविधान को भी तहस नहस कर दिया।
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यानी अलग -अलग चुनाव की जन्मदाता तानाशाह भी थीं और संघीय ढांचे के खिलाफ भी।संविधान -कानून के लिए उनके दिल में कोई आदर नहीं था।
दूसरी ओर, पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन लागू करने की निहायत जरूरत होने के बावजूद मोदी सरकार ने ऐसा अब तक नहीं किया।
नतीजतन ममता दीदी के कारण बंगाल धीरे- धीरे एक नया कश्मीर बनता जा रहा है।
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एक साथ चुनाव कराने की पहल करके इंदिरा गांधी की गलती को नरेंद्र मोदी
सुधारने की कोशिश कर रहे हैं।
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किंतु निहितस्वार्थी या अनजान लोग इस जरूरत के खिलाफ गलत ही तर्क गढ़ रहे हैं।वह कुतर्क से अधिक कुछ भी नहीं।
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विरोध का सबसे बड़ा तर्क--
‘‘मतदाता लोग स्थानीय मुद्दों
की बजाय राष्ट्रीय मुद्दों पर वोट देंगे।
इससे एक दल को लाभ होगा।’’
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अरे अनजान लोगो !
1967 तक लोक सभा के साथ ही विधान सभाओं के भी चुनाव हुए थे।
1967 के मतदाताओं ने केंद्र में तो कांग्रेस को सत्तासीन किया किंतु सात राज्यों में गैरकांग्रेसी दलों को सत्ता में बैठाया।
जबकि, चुनाव एक ही साथ हुए थे।
बिहार में तो जनता ने 1967 में लोक सभा के लिए कांग्रेस को गैर कांग्रेसियों की अपेक्षा अधिक सीटें दी,पर विधान सभा में गैर कांग्रेसियों को चुनकर सत्ता में बैठाया था।
उससे पहले केरल की जनता ने 1957 में सी.पी.आई.की सरकार बनवाई थी जबकि केंद्र में कांग्रेस सरकार बनी थी।
तब एक ही साथ चुनाव हुए थे।सन 1967 की अपेक्षा आज के मतदाता अधिक जगरूक हैं।
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दरअसल अलग-अलग चुनावों के हिमायती लोगों का चिंतन देशहित में नहीं है।
उनके निहितस्वार्थ हंै।
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एक साथ चुनाव कराने के लिए तैयार मोदी सरकार के प्रस्ताव का विरोध करने वाले राजनीतिक दलों को पहचान लीजिए।
वे हैं--
1.-कांग्रेस
2.-आप
3.-डी.एम.के
4.-सी.पी.आई.
5.-सी.पी.एम.
6.-बी.एस.पी.
7.-टी.एम.सी.
8-राजद
और 9.-समाजवादी पार्टी।
1967 के चुनाव में एक साथ चुनाव होने के बावजूद डी.एम.के.,सपा और राजद (के पूर्ववर्ती दल),सी.पी.आई.,सी.पी.एम.राज्यों में सत्ता में आ गये थे।
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13 दिसंबर 24
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