रविवार, 29 दिसंबर 2024

  अद्भुत इन्सान थे किशोर कुणाल 

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कहते हैं कि ईश्वर जिसे पसंद करता है,उसे

समय से पहले ही पास बुला लेता है ! 

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सुरेंद्र किशोर

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किशोर कुणाल के असमय-आकस्मिक निधन से हतप्रभ और मर्माहत हूं।

लगता है कि ईश्वर जिस पर खुश होता है,उसे जल्द ही अपने पास बुला लेता है।

शानदार पुलिस सेवा और सामान्य जन की अद्भुत सेवा के क्षेत्रों में उनका योगदान सदा याद किया जाएगा।

‘‘दमन तक्षकों का’’ नाम से उनकी करीब  500 पृष्ठों की जीवनी नयी पीढ़ी को प्रेरित करती रहेगी।

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पत्रकार के रूप में सन 1983 में कुणाल साहब के संपर्क में आने का मुझे अवसर मिला था।

  तब मैंने और मेरे पत्रकार मित्र परशुराम शर्मा ने बाॅबी हत्या कांड की खबर दी थी।तब मैं दैनिक आज और परशुराम जी दैनिक प्रदीप में काम करते थे।

वह एक ऐसा सनसनीखेज कांड था,जिसकी रिपोर्टिंग करके हमने भारी खतरा मोल लिया था।पर,कुणाल साहब ने उस केस को आगे बढ़ाकर हमें किसी खतरे से मुक्त कर दिया था।

यदि उस समय पटना के वरीय एस.पी.के पद पर किशोर कुणाल नहीं होते तो राजनीतिक रूप से वह अत्यंत संवेदनशील कांड दबा दिया जाता और गलत खबर देने का आरोप हम पर लगाया जा सकता था।

 उस हत्याकांड को लेकर श्वेतनिशा त्रिवेदी उर्फ बाॅबी की उप माता राजेश्वरी सरोज दास तक भयवश पुलिस से शिकायत करने को तैयार नहीं थीं।

क्योंकि उस कांड में प्रत्य़क्ष-परोक्ष रूप से बड़ी-बड़ी हस्तियों के नाम आ रहे थे।

ऐसे मामले में कोई प्राथमिकी न हो,पुलिस को कोई सूचना न हो फिर भी खबर छाप देना बड़ा जोखिम भरा काम था।

फिर भी हम दो संवाददाताओं ने तय किया कि यह खतरा उठाया जाये।

 मई, 1983 में आज और प्रदीप में एक साथ वह सनसनीखेज खबर छपी।मेरी खबर के साथ ‘‘आज’’ का शीर्षक था-‘‘बाॅबी की मौत से पटना में सनसनी।’’

चूंकि आज का प्रसार अपेक्षाकृत अधिक था,इसलिए इस स्टा्ररी ब्रेक को लेकर मेरा नाम अधिक हुआ।हालांकि हम दोनों पत्रकारों का समान योगदान था।इस कांड के फाॅलो -अप रिपोर्टिंग में परशुराम जी और आज के अवधेश ओझा ने शानदार काम किये थे।

 हत्या की खबर छपते ही दोनों अखबारों की खबरों को आधार

बना कर पटना पुलिस ने सचिवालय थाने मंे अप्राकृतिक मौत का केस दर्ज किया और जांच शुरू कर दी।

  ईसाई कब्रगाह से बाॅबी की लाश निकाली गई।पोस्टमार्टम कराया गया।वेसरा में जहर पाया गया।

दो चश्मदीदों का बयान मजिस्ट्रेट के समक्ष कराया गया।जांच जब निर्णायक दौर में पहुंचने लगी तो इस केस को सी.बी.आई.के हवाले कर दिया गया।क्योंकि बड़ी हस्तियां फंस रही थीं।

उच्चत्तम स्तर से हुए हस्तक्षेप के कारण सी.बी.आई.ने मामला रफादफा कर दिया।पर,लोगबाग तो बात समझ ही गये।उस बीच भारी दबाव की परवाह किये बिना कुणाल ने अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी ड्यूटी निभाई।संयोगवश उन्हीं दिनों एक अन्य कत्र्तव्यनिष्ठ अफसर आर.के.सिंह पटना के डी.एम.थे जो बाद में केंद्रीय मंत्री बने।

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   जन सेवा किशोर कुणाल के स्वभाव में थी

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मंदिर,अस्पताल तथा अन्य सेवा प्रकल्पों के जरिए कुणाल साहब व्यापक जनहित के जो काम करते रहे,वह सब तो लोगों की जुबां पर रहा है। 

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एक अन्य तरह की सेवा की चर्चा करूंगा जो मेरी पत्नी रीता सिंह ने मुझे सन 2022 में बताई थी।

29 नवंबर, 2022 के तत्संबंधी अपने 

 एक पोस्ट को यहां रि -पोस्ट कर रहा हूं--

‘‘मैंने आज पत्नी से कहा कि 

कुणाल साहब के पुत्र की शादी के बाद का स्वागत-समारोह उसी वेटनरी काॅलेज के मैदान में होने जा रहा है,जहां कभी तुम्हारा स्कूल हुआ करता था।मेरी पत्नी शिक्षिका रही है।

पत्नी ने देर किए बिना कह दिया,

‘‘आपको वहां जरूर जाना चाहिए।’’

मैंने कहा कि तुम जानती हो कि मैं अभी अस्वस्थ हूं ।

 कहीं जा नहीं जा रहा हूं।फिर भी तुमने यह कैसे कह दिया !

उसने कहा--अरे हां !!

उसका कारण उसने बताया।

नब्बे के दशक की बात है।

मेरी पत्नी हमारे एक रिश्तेदार मुखिया जी की पत्नी के साथ  बाबा धाम,देवघर गई थी।

लौटती में पटना रेलवे जंक्शन पर रात साढ़े नौ बज गए थे।

 तब हमलोग मजिस्ट्रेट काॅलोनी में रहते थे।

उन दिनों पटना में रात-बिरात चलने से लोग बचते थे।

 इसी सोच-विचार में मेरी पत्नी महावीर मंदिर (कुणाल साहब मंदिर के संचालक भी थे।)की सीढ़ी पर बैठी हुई थी।

क्या किया जाए ?

स्टेशन के प्लेटफार्म पर रुक जाया जाए,या 

आॅटो पकड़ा चला जाए ?

इसी बीच कुणाल साहब वहां पहुंच गए।

उन्होंने दो महिलाओं को ‘‘अकेला’’ देखकर पूछा कि ‘‘आपलोग कहां से आई हैं और कहां जाना है ?’’

मेरी पत्नी ने कहा कि ‘‘हमलोग बाबा धाम से आ रहे हैं।

मजिस्ट्रेट काॅलोनी जाना है।’’

उसके बाद उसी सीढ़ी पर कुणाल साहब भी बगल में बैठ गए।

कुणाल साहब ने अपनी दोनांे तलहथियां सामने फैलाते हुए कहा कि ‘‘प्रसाद दे दीजिए।’’

उन्हें प्रसाद दिया गया।

उसके बाद उन्होंने आॅटो रिक्शा वाले को पास बुलाया।

कहा कि ‘‘तुम अपना लाइसेंस मुझे दे दो।’’

उसने दे दिया।

कुणाल साहब ने कहा कि इन लोगों को मजिस्ट्रेट काॅलोनी पहुंचा कर यहां आ जाओ और अपना लाइसेंस मुझसे ले लेना।

आॅटो वाला जब पत्नी को लेकर गतव्य स्थान की ओर चला तो पूछा कि कुणाल साहब आपके कौन हैं ?

मेरी पत्नी ने कहा कि वे मेरे भाई हैं।

लगे हाथ यह भी बता दूं कि कुणाल साहब मुझे सन 1983 से ही जानते थे।

बाॅबी कांड को लेकर वे आम लोगों में भी लोकप्रिय हो चुके थे।

पर, जब महावीर मंदिर की सीढ़ी पर मेरी पत्नी से मुलाकात हुई तो मेरी पत्नी ने उन्हें मेरा नाम बता कर अपना कोई परिचय नहीं दिया था।

कुणाल साहब ने भी महिलाओं से कोई परिचय नहीं पूछा।

बस वे यही समझ रहे थे कि रात में महिलाओं को रास्ते में कोई परेशानी न हो जाए,इसलिए ड्राइवर का लाइसेंस ले लेना जरूरी था।

याद रहे कि तब वहां कोई पे्रस संवाददाता भी मौजूद नहीं था जिसे वे अपना सेवा भाव का सबूत दे रहे थे।ऐसे थे किशोर कुणाल !

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29 दिसंबर 24


 


 

 


शुक्रवार, 27 दिसंबर 2024

    विशेषाधिकार न मिलने की छटपटाहट

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   सुरेंद्र किशोर

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नेहरू-गांधी परिवार की समस्या यह है कि 

वह अपने को अदालतों और कानून से 

ऊपर मानता है

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लाख कोशिशों के बावजूद गांधी परिवार अपनी कानूनी परेशानियों से बाहर निकल नहीं पा रहा है।

सन, 2014 के बाद से ही उसके लिए यह स्थिति पैदा हुई है।

उसे अदालतों से छुटकारा नहीं मिल पा रहा है।

आजादी के तत्काल बाद से ही नेहरू-गांधी परिवार कानून से ऊपर माना जाता रहा।

तरह -तरह की कानूनी परेशानियों से भी यह परिवार साफ बच निकलता रहा, पर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने इस स्थिति को बदल कर रख दिया है।

इसी कारण गांधी परिवार नेशनल हेराल्ड मामले की गिरफ्त में है।

नतीजतन गांधी परिवार में अजीब तरह की बेचैनी है।

उसका असर राहुल गांधी की देह-भाषा पर है और उनकी  जुबान पर भी।

राहुल गांधी और उनके लोग कभी चुनाव आयोग तो कभी अदालत के खिलाफ बोलते हैं और कभी संसद के पीठासीन पदाधिकारियों को अपमानित करते हैं।

इससे उन्हें कोई राजनीतिक या चुनावी लाभ नहीं मिल रहा है,लेकिन वे समझने को तैयार नहीं।

राहुल गांधी यह समझते हैं कि मोदी तथा संवैधानिक संस्थाओं पर भी तरह -तरह के झूठे आरोप लगाकर उन्हें भी अपने स्तर पर नीचे खींच लाएंगे।

ताकि आम लोग मोदी को उनसे बेहतर न माने।

पर ऐसा तब होगा जब प्रधान मंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार का कोई प्रमाण हाथ लगे।

राहुल गांधी को हवा में तीर चलाने से अब तक तो कोई लाभ नहीं मिला।

उल्टे विपक्षी गठबंधन के अधिकतर दलों ने उन्हें एक विफल नेता मानकर उनसे किनारा करना शुरू कर दिया है।

नेहरू गांधी परिवार में 2014 तक यह धारणा बनी हुई थी कि यह परिवार किसी भी कानून से ऊपर है।भारत उसकी मिल्कियत है।उसे ही इस देश पर शासन करने का नैसर्गिक अधिकार है।

मोदी के सत्तासीन हो जाने के बाद परिवार का यह विशेषाधिकार समाप्त हो गया है।नेहरू -गांधी परिवार कानून के समक्ष समानता के सिद्धांत वाली व्यावहारिक स्थिति 

को स्वीकार करने को तैयार नहीं हो पा रहा है।

सोनिया-राहुल की छटपटाहट का सबसे बड़ा कारण यही है।

इससे पहले इस परिवार को इतनी छूट रही कि एक गैर कांग्रेसी प्रधान मंत्री कहा करते थे कि ‘‘प्रथम परिवार को छूना तक नहीं है।’’

ऐसे अघोषित विशेषाधिकार प्राप्त परिवार के सामने जब कानूनी गिरफ्त से बचने का कोई तरीका नजर न आए तो उसकी मनोदशा कैसी होगी,इसकी कल्पना कर लीजिए।

 इस तनाव और छटपटाहट के कारण ही राहुल गांधी लोक सभा में प्रतिपक्ष के नेता की भूमिका भी गरिमापूर्ण ढंग से निभाने में विफल हैं।

यदि प्रतिपक्ष का नेता विवेकपूर्ण ढंग से ठोस तथ्यों पर आधारित अपनी बातें रखे तो जनता के बीच उसकी लोकप्रियता बढ़े,छवि बेहतर हो ,पर राहुल गांधी ने अपनी असंगत बोली तथा असामान्य देह भाषा के जरिए सदन की गरिमा गिराने की जितनी कोशिश की ,वह अभूतपूर्व है।

 अपने परिवार के इतिहास के गर्व में पल रहे राहुल गांधी ने पूर्वजों के इतिहास के किस्से सुन रखे होंगे।

संभवतः अपने प्रति उसी तरह के व्यवहार की उम्मीद वह मौजूदा सरकार से भी कर रहे होंगे।अब यह संभव नहीं।

  गांधी परिवार पर पहला कानूनी संकट नेहरू के प्रधान मंत्री बनने के बाद ही आया था।

1949 में लंदन में भारतीय उच्चायुक्त वी के कृष्ण मेनन पर जीप घोटाले का गंभीर आरोप लगा।

कांग्रेसी नेता अनंत शयनम अयंगार की जांच कमेटी ने उन्हें सरसरी तौर पर दोषी माना और विस्तृत न्यायिक जांच की सिफारिश की।

न्यायिक जांच के परिणामस्वरूप सरकार के खिलाफ कुछ असुविधाजनक जानकारियां सामने आने का खतरा दिखा।

इसलिए तत्कालीन गृह मंत्री ने 30 सितंबर 1955 को लोक सभा में यह घोषणा कर दी कि जीप घोटाले के इस मामले को बंद कर दिया गया है।

  1975 में जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के लोक सभा चुनाव को रद कर दिया था तो यह आरोप साबित हो गया था कि चुनाव में उन्होंने सरकारी साधनों का दुरुपयोग किया है।

कोई अन्य उपाय न देखते हुए इंदिरा ने 1975 में इमर्जेंसी लगा दी और चुनाव कानून बदल दिया।

इस तरह उनकी सदस्यता और गद्दी दोनों बच गई।

एक अन्य तरह के जीप घोटाले के सिलसिले में तीन अक्तूबर, 1977 को सी.बी.आई.ने इंदिरा गांधी को गिरफ्तार कर अगले दिन दिल्ली के मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी के समक्ष पेश किया।मजिस्ट्रेट ने सुबूत मांगा तो सी.बी.आई.के वकील ने कहा कि जांच हो रही है।

मजिस्ट्रेट ने श्रीमती गांधी को रिहा करने का आदेश दे दिया।

 1979 में जनता पार्टी में आंतरिक कलह के कारण मोरारजी देसाई सरकार गिर गई।

  कांग्रेस ने बाहर से समर्थन देकर चैधरी चरण सिंह को प्रधान मंत्री बनाया।

 इंदिरा गांधी ने चैधरी चरण सिंह को संदेश भेजा कि आप संजय गांधी के खिलाफ जारी मुकदमे को वापस ले लें।

 चैधरी चरण सिंह ने इनकार किया तो उनकी सरकार गिरा दी गई।

 सन 1980 में चुनाव हुए तो इंदिरा गांधी सत्ता में लौटीं।फिर कौन मुकदमा और कैसी जांच ?

सब कुछ समाप्त हो गया।

जब 1990 में कांग्रेस के बाहरी समर्थन से चंद्र शेखर प्रधान मंत्री बने तो राजीव गांधी ने उन्हें संदेश भेजा कि बोफोर्स केस वापस कर लीजिए।

  ऐसा करने से मना करते हुए चंद्र शेखर ने इस्तीफा दे दिया।बीते दिनों यह खबर आई कि बोफोर्स मामले की सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हो सकती है।

ज्ञात हो कि सन 2004 में बोफोर्स मामले में राजीव गंाधी और संबंधित दलाल को दिल्ली हाईकोर्ट से राहत मिल गई थी।

हाईकोर्ट के इस निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करने के लिए सी.बी.आई.को अनुमति नहीं दी गई थी,जबकि एजेंसी के लाॅ अफसर ने अपील के लिए इसे एक मजबूत मामला बताया था।नेहरू-गांधी परिवार की समस्या यह है कि 

सरकार और संवैधानिक संस्थानों पर ओछे आरोपों और टिप्पणियों के बावजूद प्रधान मंत्री मोदी इस परिवार को कानून से ऊपर नहीं मान रहे हैं।

इसी कारण यह परिवार उन पर अनावश्यक रूप से हमलावर रहता है।

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(पुनश्चः

इस लेख में उन मामलों का जिक्र स्थानाभाव के कारण नहीं किया जा सका गांधी परिवार के जो मामले विदेश में थे।

उन मामलों में भी यहां की कांग्रेसी और गैर कांग्रेसी केंद्र सरकारों ने बारी बारी से नाजायज तरीकों से इस परिवार को मदद देकर इन्हें राहत पहुंचाई थी।)

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27 दिसंबर, 2024 के दैनिक जागरण तथा दैनिक नईदुनिया में एक साथ प्रकाशित)






 


  




 मनमोहन सिंह को श्रद्धांजलि

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सरदार जी सांसद फंड के 

प्रावधान के सख्त खिलाफ थे

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सुरेंद्र किशोर

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प्रधान मंत्री पी.वी.नरसिंह राव ने सन 1993 में सांसद क्षेत्र विकास फंड तब शुरू किया था जब उनके वित्त मंत्री मनमोहन सिंह लंबी विदेश यात्रा पर थे।

क्योंकि सरदार जी इस फंड की शुरूआत के ही सख्त खिलाफ थे।

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इस फंड से होने वाली बुराइयों से संभवतः सरदार जी पूर्णतः अवगत थे।उनकी आशंका सच साबित हो रही है।

मेरा भी मानना है कि सांसद-विधायक फंड, देश के राजनीतिक-प्रशासनिक भ्रष्टाचार के लिए ‘‘रावणी अमृत कुंड’’ साबित हो रहा है।

  अत्यंत थोड़े से ही सांसद-विधायक-संबंधित अफसर इस फंड से कमीशन नहीं लेते।

वित्त मंत्री मनमोहन सिंह इस पैसे से चुनाव कोष बनाने के पक्ष में थे ताकि उम्मीदवारों को पैसे दिए जा सकंे।

  यह और बात है कि जब प्रधान मंत्री बने तो खुद सरदार जी ने दबाव में आकर सन 2011 में फंड की राशि दो करोड़ रुपए सालाना से बढ़ा कर पांच करोड़ रुपए कर दी।

उससे पहले प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी फंड के खिलाफ थे।पर उन्होंने भी दबाव में आकर 2003 में एक करोड़ रुपए से बढ़ा कर 2 करोड़ कर दिए।

 जब -जब बढ़ा,तब -तब केंद्र में मिली जुली सरकारें थीं।

सांसद फंड शुरू करने से ठीक पहले प्रधान मंत्री राव पर शेयर दलाल हर्षद मेहता से एक करोड़ रुपए का ‘‘चंदा’’ लेने का आरोप लगा था।

उन दिनों सरकारी कामों में आम तौर पर 20 प्रतिशत कमीशन का अघोषित प्रावधान था।

पांच साल में कुल मिला कर एक करोड़ हो जाता था।पर कहा जाता है कि अब बढ़कर 40 प्रतिशत कमीशन हो चुका है।

सी.ए.जी.भी सांसद फंड से हो रहे निर्माण-विकास कार्यों  का अब आम तौर पर आॅडिट नहीं करता।

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  यहां मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सारे सांसद या विधायक कमीशन लेते ही हंै।कुछ नहीं भी लेते।

    मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद             अनेक सांसद यह चाहते थे कि सांसद फंड की राशि को  सालाना पांच करोड़ से बढ़ाकर 50 करोड़ रुपए कर दिया जाए।

 कांग्रेस सांसद और लोक लेखा समिति के अध्यक्ष के.वी.थाॅमस ने कहा था कि इस सिलसिले में विभिन्न दलों के सांसद गण जल्द ही प्रधान मंत्री से मिलेंगे।

 थाॅमस के अनुसार 50 करोड़ कर देने से सांसद आदर्श ग्राम योजना को 

कार्यान्वित करने में सुविधा होगी।अभी इस काम में   दिक्कतंें आ रही हैं।

  प्रधान मंत्री मोदी के सामने  किसी सांसद के दबाव में आने की मजबूरी नहीं रही है।इसलिए थाॅमस की मांग नहीं मानी गयी।पर,मोदी चाहते हुए भी इस फंड को समाप्त नहीं कर पा रहे हैं।इसलिए इस फंड की ताकत को समझिए।

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    अब इस फंड की कुछ खास बुराइयों की ओर एक नजर डालें अत्यंत संक्षेप में।

इस फंड के एवज में घूस लेते हुए  एक राज्य सभा के सदस्य कैमरे पर पकड़े गए थे।उनकी सदस्यता चली गई।

 विकास निधि में कमीशनखोरी को लेकर बिहार में एक विधायक के खिलाफ 

सितंबर, 2014 में कोर्ट में आरोप पत्र दाखिल किया गया। सन 2001 में सी.ए.जी.ने अपनी जांच में इस फंड की गड़बड़ी को पकड़ा था।

2003 के दिसंबर में पटना हाईकोर्ट ने कहा था कि विधायक -सांसद फंड के काम का ठेका अनेक मामलों में सांसद-विधायक के रिश्तेदार,पोलिंग एजेंट,चुनाव एजेंट को दिया जाता है।इसलिए गुणवत्ता नहीं रहती। 

(अब तो फंड के ठेकेदार ही अनेक मामलों में राजनीतिक कार्यकर्ता की भूमिका भी निभा रहे हैं।क्योंकि अनेक सांसद-विधायक खांटी राजीतिक कार्यकर्ताओं को आगे नहीं बढ़ने देते। उन्हें तो अपने परिजन को ही अपनी जगह चुनावी टिकट दिलवानी है।) 

  कई साल पहले वीरप्पा मोइली के नेतृत्व वाले प्रशासनिक सुधार आयोग ने सांसद फंड को बंद कर देने की सिफारिश की थी।

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कुछ अनजान लोग कहते हैं कि मैं यानी इस पोस्ट का लेखक इस फंड के खिलाफ क्यों हूं जबकि इसमें बहुत अधिक राशि का प्रावधान नहीं ।

दूसरी ओर, सैकड़ों -हजारों करोड़ रुपए की अन्यत्र बर्बादी-लूट हो रही है।

उनसे मैं कहना चाहता हूं कि बोफोर्स सौदे में दलाली की राशि सिर्फ 41 करोड़ रुपए थी।फिर भी उसी के कारण 1989 में प्रधान मंत्री राजीव गांधी की पार्टी चुनाव हार गयी थी।

क्योंकि पाया गया था कि शीर्ष सत्ताधारी लोग बोफोर्स दलाल क्वात्रोचि का बचाव कर रहे थे।

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27 दिसंबर 24


मंगलवार, 24 दिसंबर 2024

 डा. अम्बेडकर पर कटु बातें लिखने वाले

अपने मित्र अरुण शौरी को मोदी ने मंत्री 

नहीं बनाया 

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सुरेंद्र किशोर

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अरुण शौरी ने डा.अम्बेडकर के ‘‘खिलाफ’’ एक किताब लिखी है  जिसका नाम है--‘‘वाॅरशिपिंग फाल्स गाॅड।’’

यानी,‘‘पूजा झूठे देवताओं की’’।

इंडियन एक्सपे्रस के संपादक व केंद्र में कैबिनेट मंत्री रहे शौरी ने इस तरह की दो अन्य किताबें भी लिखीं हैं जिनके नाम हैं--

1.-‘‘भारत में ईसाई धर्म-प्रचार तंत्र -निरंतरताएं ,परिवर्तन ,दुविधाएं।’’

2-‘‘फतवे,उलेमा और उनकी दुनिया’’

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  क्या नरेंद्र मोदी ने इन्हीं किताबों के कारण अरुण शौरी जैसी ईमानदार,प्रतिभाशाली और राष्ट्रभक्त हस्ती को अपने मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया ?जबकि दोनों के बीच पुरानी मित्रता रही थी।

इस संबंध में मुझे कोई पक्की जानकारी तो नहीं।मेरा सिर्फ अनुमान ही है।

गुजरात दंगे को लेकर नरेंद्र मोदी की देश-विदेश में जो नाहक बदनामी की और कराई गई थी,उस स्थिति से संभवतः मोदी उबरना चाहते थे।

वे यह नहीं चाहते थे कि शौरी को मंत्री बनाकर उन किताबों की चर्चा के जरिए खुद उन पर राजनीतिक हमला करने का कोई मौका दिया जाये।

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शौरी और मोदी के बीच पहले से ही बहुत अच्छा संबंध रहा था।(अब नहीं है।)

कुछ बातों को छोड़ दीजिए तो अच्छी मंशा वाला कोई भी प्रधान मंत्री, शौरी जैसी प्रतिभा को अपने पास रखना चाहेगा।

पर,नरेंद्र मोदी संभवतः नहीं चाहते थे कि अम्बेडकर आदि को लेकर कटु (भले वे बातें सत्य हों)बातें लिखने वालों को अपनी सत्ता का करीबी बनाया जाये।(यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि शौरी ने अपनी किताब में गलत बातें लिखी हंै।वह बहुत रिसर्च के बाद ही लिखने वाले लेखक रहे हैं।पर,किताब लिखना और मिली जुली संस्कृति वाले देश की सरकार चलाना,लोगों का विश्वास प्राप्त करना दो अलग -अलग बातें हैं।

अल्पसंख्यक और दलितों व उनके नेताओं की मोदी के बारे में जो भी राय हो,पर खुद प्रधान मंत्री मोदी सबको साथ लेकर चलने की लगातार कोशिश कर रहे हैं।

हां,वे किसी भी देशभक्त की तरह किसी भी कीमत पर यह होने देना नहीं चाहते हैं कि कोई खास समुदाय हथियारों के बल पर और आबादी बढ़ाकर देश पर कब्जा कर ले।

वैसे जेहादी लोग इसी लिए मोदी से कुछ अधिक ही खफा हैं।अन्यथा 1989 के भागलपुर दंगे की  वे अधिक चर्चा करते न कि 2002 के गुजरात दंगे की।

भागलपुर दंगे में एक हजार से अधिक मुस्लिम मारे गये थे,पर गुजरात में तो सिर्फ 750 मुस्लिमों की ही जानें गई थीं।

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24 दिसंबर 24

 


सोमवार, 23 दिसंबर 2024

 


चैधरी चरण सिंह के जन्म दिन पर

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(23 दिसंबर 1902--29 मई 1987)

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सुरेंद्र किशोर

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संजय गांधी पर से केस उठा लेने से 

इनकार कर देने के कारण ही इंदिरा 

गांधी ने प्रधान मंत्री चरण सिंह की सरकार गिरा दी थी।

ऐसे दूसरे नेता चंद्र शेखर थे जिन्होंने बोफोर्स मुकदमा

वापस लेने से इनकार कर दिया तो उनकी प्रधान मंत्री की कुर्सी चली गई थी।

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आरक्षण का आधार जाति बनाने के बदले चरण सिंह चाहते थे कि किसानों की संतान के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण हो।

चैधरी साहब पूंजीपतियों से पैसे नहीं लेते थे।

धनी किसान उन्हेें मदद करते थे।

प्रधान मंत्री चरण सिंह के राज नारायण जी यानी ‘नेता जी’  करीबी थे।

 एक बड़े पूंजीपति ‘‘नेता जी’’ के यहां गए थे।

उनसे कहा कि हमारे हिन्दी अखबार के लिए कोई संपादक आपके ध्यान में हो तो बताइए।

राजनारायण जी उद्देश्य समझ गए।

उन्होंने कहा कि मेरे पास कोई नाम नहीं हैं

ऐसा इसलिए कह दिया क्योंकि वे जानते थे कि प्रधान मंत्री  चैधरी साहब तो सेठ जी की कोई पैरवी सुुनेंगे नहीं।

  उन दिनों दिनमान और धर्मयुग आदि के कारण समाजवादी विचारधारा के अनेक पत्रकार मुख्य धारा की पत्रकारिता में शीर्ष पर थे।

  कुछ समाजवादी पत्रकार उस बड़े पद के आकांक्षी भी थे।

वे मन ही मन नेता जी से नाराज भी हो गए।

चरण सिंह कहते थे कि यदि उद्योग को बढ़ावा देना हो तो पहले कृषि को बढ़ावा दो।

क्योंकि देश की  अधिकतर आबादी यानी कृषक की आय जब तक नहीं बढ़ेगी, तब तक करखनिया माल खरीदेगा कौन ?

नहीं खरीदेगा तो कारखाने चलेंगे कैसे ?

चरण सिंह ने राजनीति को रुपया कमाने का जरिया नहीं बनाया।

कुछ कमियां चैधरी साहब में भी थीं।

पर थोड़ी -बहुत कमी तो हर मनुष्य में होती है।

उनकी कमियों पर उनके गुण हावी थे।

 फिर भी मेरा मानना है कि उन्हें देखने का अनेक बुद्धिजीवियों का नजरिया पूर्वाग्रहग्रस्त ही रहा ।

मैं बारी -बारी से दो बार पटना में चैधरी साहब से मिला था।एक बार कर्पूरी ठाकुर के साथ और दूसरी बार जनसत्ता के लिए उनसे बातचीत करने के लिए।

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पटना के स्टेट गेस्ट हाउस में चरण सिंह से मेरी बातचीत हो रही थी।

उनकी बातों से मुझे लगा कि इस देश की मूल आर्थिक समस्याओं और उनके समाधान को लेकर अन्य अनेक नेताओं की अपेक्षा चैधरी साहब का आकलन बेहतर,जमीन से जुड़ा हुआ व सटीक था।

 मुझे सुनने में अच्छा लग रहा था।वे भी बातचीत से ऊब नहीं रहे थे जबकि समय अधिक होता जा रहा था।

 इस बीच उनका बाॅडी गार्ड या निजी सचिव मुझे वहां से भगाने की कोशिश करने लगा।

पहले धीरे से।

बाद में कड़े स्वर में, कहने लगा,उठो जाओ।

भागो यहां से।

मैं भला क्या करता ! 

चैधरी साहब उसे रोक भी नहीं रहे थे।

  संभवतः वह बेचारा कर्मचारी अपनी ड्यूटी बजा रहा था।

 कोई और जरूरी काम रहा होगा।

या फिर उन्हें अधिक बोलने की मनाही होगी।

यह सब तो चरण सिंह का कोई करीबी ही बता सकता है।

 फिर भी मैं दुःखी नहीं हुआ।

 क्योंकि मुझे लगा कि एक ऐसे नेता से बातें र्हुइं जो देश की असली समस्या को समझता है।उसका निदान भी उसके पास था।

चरण सिंह को अक्सर लोग ‘‘जाट नेता’’ कहते या लिखते रहे।उन्हें बहुत बुरा लगता था।

मुझे भी यह अन्यायपूर्ण लगा।

केंद्र के उनके मंत्रिमंडल में सिर्फ एक ही जाट मंत्री अजय सिंह थे।

वह भी राज्य मंत्री।बुद्धिजीवी थे।संभवतः विदेश में पढ़े थे।

चैधरी साहब कहते थे कि राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में एक ही जाति के 15 कैबिनेट मंत्री हैं ,पर उन्हें मीडिया ब्राह्मण नेता नहीं लिखता।पर एक जाट मंत्री पर मुझे जाट नेता लिखता है।

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जातिवाद के आरोप पर चरण सिंह कहा कहते थे कि इस देश में एक कानून बने।

गजटेड नौकरियां सिर्फ उन्हें ही मिलें जिन्होंने अंतरजातीय शादी की हो।

इस पर सब चुप हो जाते थे।

  देश की सुरक्षा और एकता को लेकर चरण सिंह के विचार बड़े पक्के थे।

उन्होंने ब्रिटिश इतिहासकार सर जे.आर.सिली की चर्चित पुस्तक का हिन्दी में अनुवाद करवा कर छपवाया और वितरित करवाया।

 सिली ने लिखा था कि ब्रिटिशर्स ने भारत को कैसे जीता।

उस इतिहासकार की स्थापना थी कि हम ब्रिटिशर्स ने नहीं जीता,बल्कि खुद भारतीयों ने ही भारत को जीत कर हमारे प्लेट पर रख दिया।

  चरण सिंह ने एक तरह से चेताया था कि यदि इस देश में 

गद्दार मजबूत होंगे तो देश नहीं बचेगा।

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आज भी यह देश ऐसे गद्दार नेताओं और बुद्धिजीवियों को झेल रहा है जो ऐसे -ऐसे बयान देते रहते हैं,लेख लिखते रहते हैं और काम करते हैं जिनसे उन लोगों को मदद मिले जो इस देश को तोड़ने और हथियारों के बल पर राज सत्ता पर कब्जा करके एक खास धर्म का शासन स्थापित करने के लिए रात दिन प्रयत्नशील हैं।हथियार जुटा रहे हैं।कातिलों के दस्ते तैयार कर रहे हैं। फिर भी वे खुद को सेक्युलर कहते हैं।जो उन जेहादियों और उनके समर्थक दलों का विरोध करते हं,उन्हें ही वे साम्प्रदायिक कहते हैं।यानी, उल्टा चोर,कोतवाल को डांटे !!

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23 दिसंबर 24


शुक्रवार, 20 दिसंबर 2024

  

संकेत समझिए और सावधान हो जाइए !

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वोट के लिए देश को बेचनेवालों का बहिष्कार करें

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अन्यथा,फिर पछताने से कुछ नहीं होगा,

जब चिड़िया खेत चुग जाएगी !

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सुरेंद्र किशोर

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     सन 1998 में एल.के.आडवाणी को मारने के लिए तमिलनाडु के कोयम्बतूर में जेहादियों ने भारी सिरियल विस्फोट किये थे।

आडवाणी तो बच गये ,पर 58 मर गये । 231 घायल हुए।

उस जघन्य कांड के सजायाफ्ता मास्टर माइंड सैयद बाशा का इसी सोमवार को निधन हुआ।

मंगलवार को उसका जनाना निकला।उसमें हजारों मुसलमानांे

ने हिस्सा लिया।उन लोगों ने उसे हीरो की तरह विदाई दी।खास नारे भी लगे।राज्य सरकार के अनुकूल होने का उन्हें लाभ मिला।

समझ लीजिए कि अधिकतर मुसलमान (सबको दोषी नहीं बता रहा हूं।)क्या चाहते हैं !

वही चााहते हैं जो बाशा चाहता था।

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सन 1993 के बंबई सिरियल बम विस्फोटांे के अपराधी याकूब मेमन की सन 2015 में मृत्यु हुई।मुम्बई में निकली उसकी शव यात्रा में 15 हजार मुसलमान शामिल हुए थे।

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  कश्मीर में तो यह दृश्य अक्सर देखा जाता रहा है।अब थोड़ा सा फर्क वहां जरूर आया है।

कश्मीर में जहां पहले आतंकी

शरण लेते थे,उन घरों में से अनेक घरों के लोग अब उनके खिलाफ पुलिस को सूचना दे रहे हैं।

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26 नवंबर 2008 को बंबई के ताज होटल तथा अन्य स्थानों पर  बड़ा आतंकी हमला हुआ था।बीस सुरक्षाकर्मियों सहित 174 लोग मरे।

उनमें 26 विदेशी थे।

उसके एक अपराधी तहव्वुर राणा को अमेरिका से भारत लाने की भारत सरकार लगातार कोशिश कर रही है। 

उसके प्रत्यर्पण के संबंध में वहां की अदालत मंे मामला चल रहा है।

अमेरिकी सरकार ने उस अदालत से कल कह दिया कि वह राणा को भारत भेजने के पक्ष में है।

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दरअसल अमेरिकी सरकार भारत में सक्रिय जेहादियों को सजा दिलाने के पक्ष में है।पर खुद भारत के कुछ वोट लोलुप नेताओं व बुद्धिजीवियों आदि ने बंबई में हुए नर संहार पर क्या रुख अपनाया ?

सहारा प्रकाशन समूह के उर्दू अखबार के संपादक बर्नी ने एक तब किताब लिखी थी जिसका नाम है--‘‘26-11 आर.एस.एस.साजिश’’।

उस किताब का लोकार्पण मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री दिग्विजय सिंह ने किया।

आर.एस.एस.ने बर्नी पर मानहानि का मुकदमा किया। बर्नी को अपनी गलती के लिए माफी मांगनी पड़ी।

पर लोकार्पण समारोह में शामिल सिंह व अन्य को कोई सजा नहीं मिली।जबकि उन लोगों ने उस घटना में संघ को फंसाने व पाकिस्तान को दोषमुक्त करने की लगातार कोशिश की थी।

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1978 में जिस तरह संभल (यू.पी.)के जेहादियों ने वहां के हिन्दुओं को मार कर भगाया,मंदिर ध्वस्त किये,उस केस में अब तक किसी को कोई सजा नहीं हुई।याद कर लीजिए 1978 के बाद यू.पी.में कि किन-किन दलों की सरकारें थीं।

1978 में संभल में दो दर्जन हिन्दुओं को जिन्दा जलाया गया था।कुल मृतकों की संख्या तब वहां 184 रही।सारे के सारे मृतक हिन्दू ही थे।एक तरफा नर संहार था।

अब योगी सरकार उन मुकदमों को फिर से खोलवाने की कोशिश कर रही है।

  कहा जाता है कि कश्मीर से नब्बे के दशक में लाखों हिन्दुओं को जेहादियों ने जो भगाया,वह आइडिया उन लोगों ने संभल से ही लिया था।

देश के अन्य कई हिस्सों में ऐसे छोटे बड़े कांड हो रहे हैं या नहीं,इसकी पड़ताल न तो मीडिया कर रहा है न ही कोई सरकार ही।आई.बी.को इस दिशा में सघन काम करना  चाहिए।संदेश खाली (पश्चिम बंगाल)का मामला ताजा है।

वैसे छिटपुट खबरें आती हरती हैं।

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अभी बांग्ला देश में जिस तरह हिन्दुओं का संहार हो रहा  है,वह देखकर किसी को यहां आने वाले खतरे के बारे में कोई गलतफहमी नहीं रहनी चाहिए। 

भारत के जिन इलाकों में मुसलमानों की आबादी बढ़ती जा रही है ,वहां भी देर-सबेर वही सब होने वाला है।किसे मालूम कि वहां अभी नहीं हो रहा है !

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जेहादियों का लक्ष्य विश्व व्यापी है।

इजरायल बनाम मुस्लिम देश युद्ध में तीसरी बार भी इजरायल जीतता नजर आ रहा है।फिर भी जेहादी वहां रह -रह कर तब तक युद्ध शुरू करते रहेंगे जब तक इजरायल को इस्लामिक देश न बना दें।पर इजरायल भारत की तरह नरम देश नहीं है।वहां भारत जितने जयचंद भी नहीं है।सिर्फ एक करोड़ की आबादी वाले देश से हमें सीखना चाहिए।

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कहानी का मोरल

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भारत के जेहादियों को वोट के लिए जिन गैर मुस्लिम तत्वों-नेताओं -दलों-बुद्धिजीवियों से मदद मिल रही है,उन तत्वों का सामाजिक व राजनीतिक बहिष्कार जब तक नहीं होगा ,जेहादी लोग संभल की तरह ही जहां मौका मिलेगा,गैर मुस्लिमों को उजाड़ते-मारते रहेंगे।

संभल तो आज सबको दिख रहा है ।पर भारत के वे गांव और मुहल्ले नहीं दिख रहे हैं जहां बहुमत बनाकर जेहादी तत्वों ने ,गैर मुस्लिमों का जीना हराम कर रखा है।वैसी जगहें बंगाल और केरल में अधिक हंै।

कोलकाता के मेयर फरहाद हकीम ने एक बार विदेशी पत्रकार को बताया था कि चलिए आपको यहां पश्चिम बंगाल का एक पाकिस्तान दिखाता हूं।उनका इशारा मुस्लिम बहुल मुहल्ले से था।

सलमान खुर्शीद और मणि शंकर अय्र सार्वजनिक रूप से यह कह चुके हैं कि जो कुछ बांग्ला देश में हो रहा है,वही सब एक दिन भारत में भी होगा।

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(इस पोस्ट के साथ में, गाजा पट्टी की दुर्दशा का एक चित्र है।दुर्दशा के बावजूद इजरायल से जेहादी युद्धरत हैं।जेहाद के चक्कर में पाक में आटे तक की किल्लत है,फिर भी पाक के जेहादी सरकार गैर मुस्लिमों को बर्बाद करने का सपना देखती रहती है।लगता है कि जेहादी तत्व बांग्ला देश को भी बर्बाद करके ही रहेंगे।)

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20 दिसंबर 24 


  

 

 


बुधवार, 18 दिसंबर 2024

 चरैवति-चरैवति

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हमारे ग्रंथ कहते हंै--

चरैवति,चरैवति यानी चलते रहो,चलते रहो ।

फल की आशा छोड़ कर कर्म में लगे रहो।

मैं गत 52 साल से पत्रकारिता की मुख्य धारा में 

तैर ही तो रहा हूं !

ऐसे में ‘‘फल’’ तो बिना बुलाए घर पहुंचता रहता है।

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सुरेंद्र किशोर

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 ठीक 52 साल पहले पटना के दैनिक ‘प्रदीप’ में संपादकीय पेज पर मेरा लेख सुरेंद्र अकेला के नाम से छपा था।

गत 2 नवंबर, 2024 को दैनिक जागरण के संपादकीय पेज पर 

मेरा लेख छपा।

यानी, गत 52 साल से मैं लगातार विभिन्न प्रकाशनों के लिए लिख रहा हूं।

वैसे तो सन 1967 से ही मीरगंज से प्रकाशित सारण संदेश (साप्ताहिक)के लिए रपट और लेख लिखता था।सारण संदेश बिकता भी था।

आज के बड़े पत्रकार देवंेद्र मिश्र भी शुरुआती दौर में सारण संदेश में ही काम कर रहे थे। 

दिनमान सहित देश के अन्य प्रकाशनों में मेरे पत्र और टिप्पणियां, लेख आदि शुरुआती दौर से ही छपते रहे।

सन 1969 में साप्ताहिक लोकमुख (पटना)में मैं उप संपादक रहा।

सन 1973-74 में ‘जनता’ साप्ताहिक, पटना में सहायक संपादक था।

पर 1972 में प्रदीप में बिना पैरवी के लेख छपना मेरे लिए बड़ी उपलब्धि थी।

  लगभग इतने ही लंबे समय से पटना के दो बड़े पत्रकार लगातार लेखन का काम कर रहे हैं।वे हैं--लव कुमार मिश्र और बी.के. मिश्र।अन्य कोई हों तो बताइएगा।

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कहते हैं कि ‘‘स्लो एंड स्टेडी वीन्स द रेस।’’

यानी, कछुआ जीतता है,खरहा हारता है।

ठीक ही कहा गया है--एक साधे, सब सधे, सब साधे, सब जाये।

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यानी, लेफ्ट या राइट देखे बिना एकाग्र निष्ठा से इस क्षेत्र में सीधी राह चलने का लाभ मुझे मिला है।

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अपना नाम प्रिंट में देखने की 

ललक ने पत्रकार बनाया

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मेरे पिता शिव नन्दन सिंह लघुत्तम जमीन्दार थे।

मालगुजारी की रसीद बही पर उनका नाम छपा होता था।

बचपन से ही वह देख-देख कर मुझे भी लगता था कि मेरा भी नाम प्रिंट में होना चाहिए।कैसे होगा ?

एक उपाय सूझा।

दैनिक व साप्ताहिक अखबारों में संपादक के नाम मैं पत्र लिखने लगा।

छपने भी लगा।

हौसला बढ़ा।

फिर राजनीतिक टिप्पणियां लिखने लगा। सन 1967 से 1976 तक राजनीतिक कार्यकर्ता था ही।

इसलिए सक्रिय राजनीति की भीतरी बातों की जानकारी मुझे अन्य पत्रकारों से अधिक थी।

इस तरह यहां तक पहुंच गया।

प्रदीप में जब मेरा लेख छपा था,उस समय मैं बिहार विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता कर्पूरी ठाकुर का निजी सचिव था।

मैं कोई सरकारी कर्मचारी नहीं था।

बल्कि राजनीतिक कार्यकर्ता के तौर पर उनके साथ था।

समाजवादियों की फूट पर ही मेरा वह लेख था।उसमें मैंने कर्पूरी ठाकुर के साथ कोई पक्षपात नहीं किया था।

छपने पर कर्पूरी जी ने खुद तो मुझसे कुछ नहीं कहा ,पर उनके अत्यंत करीबी व पूर्व विधायक प्रणव चटर्जी ने जरूर मुझसे कहा--

‘‘प्रायवेट सेके्रट्री को लेख नहीं लिखना चाहिए।’’

दरअसल मैं कर्पूरी जी के बुलावे पर उनका पी.एस.बना था,पर मैं सिर्फ उनके प्रति नहीं बल्कि समाजवादी आंदोलन के प्रति लाॅयल था।

वैसे मैं जितने बड़े-बड़े नेताओं के करीबी संपर्क में आया,उनमें से कुल मिलाकर कर्पूरी जी को सर्वाधिक महान पाया।

खैर, बात कुछ भटक गयी।

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18 दिसंबर 24



  ‘‘इंडिया न्यूज’’ पर सार्थक डिबेट

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सुरेंद्र किशोर

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आज सुबह मैं न्यूज चैनल ‘‘इंडिया न्यूज’’ पर टी.वी.डिबेट सुन रहा था।

ऐंकर थे--रोहित पुनेठा।

पुनेठा और अतिथियों के व्यवहार देख-सुनकर तबियत खुश हो गई।

डिबेट में सभी अतिथि विषय के जानकार थे।

 अपनी बारी से पहले कुत्ते की तरह एक-दूसरे पर कोई अतिथि चिल्ला नहीं रहा था।

लगता था कि वे संस्कारी परिवार के थे।

लगा कि जब वे 10-15 वर्ष के आयु वर्ग में थे तब उन्हें उनके अभिभावक ने अच्छे संस्कार दिये थे। 

पूरे डिबेट में ऐसी नौबत नहीं आई कि ऐंकर कह रहा हो कि अब आप खत्म कीजिए और गेस्ट बदतमीज और संस्कारहीन  की तरह बोले जा रहा हो।

ऐसा कभी नहीं हुआ कि ऐंकर आम पर सवाल पूछ रहा था और गेस्ट इमली पर जवाब दे रहा हो।

यह ऐसा कार्यक्रम था जिसमें श्रोताओं और दर्शकों ने  अतिथियों की बातें सुनी और समझी।

क्योंकि कोई शोरगुल नहीं था।

ऐंकर भी अपना लंबा भाषण झाड़ कर या बार-बार टोका टोकी करके लोगों को बोर नहीं कर रहा था।

यह भी नहीं हो रहा था कि जो गेस्ट, ऐंकर की विचारधारा या लाॅयल्टी के खिलाफ में बोल रहा हो तो उसे बात-बात पर  ऐंकर टोके और जो ऐंकर की विचार धारा व चैनल की लाइन के पक्ष में हो,उसे कभी न टोके।उसे लंबा बोलने दे।

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डिबेट के नाम पर ‘‘कुत्ता भुकाओ कार्यक्रम’’ चलाने वाले कई टी.वी.चैनलों को (सब नहीं)इंडिया न्यूज से यह बात सीखनी चाहिए कि सार्थक डिबेट कैसे कराई जाती है।

कम से कम टी.वी.चैनलों पर तो ऐसी बहस मत करवाओ जो हंगामा,  बदतमीजी,अज्ञानता और गुंडई के मामले में जन प्रतिनिधि सभाओं से प्रतियोगिता न करे।

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18 दिसंबर 24

 

 


शुक्रवार, 13 दिसंबर 2024

 मेरे लहजे में जी हुजूर न था।

इससे ज्यादा मेरा कसूर न था। 

--13 दिसंबर 24


 एक साथ चुनाव का विरोध करके आज के

 कांग्रेसी राजनीतिक स्वार्थवश दरअसल 

जवाहरलाल नेहरू की बुद्धि,विवेक और 

दूरदर्शिता का अपमान कर रहे हैं

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सुरेंद्र किशोर

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लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक फिर एक साथ कराने की पहल का जो दल और नेतागण विरोध

कर रहे हैं, वे डा.अम्बेडकर और नेहरू-पटेल सहित सारे संविधान नेताओं की दूरदर्शिता पर प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं।

आज के ये नेता गण अपने राजनीतिक तथा अन्य तरह के स्वार्थों के सामने अपने राजनीतिक पूर्वजों को उल्लू साबित करने की भी अनजाने में विफल कोशिश कर रहे हैं।

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पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि ‘‘एक साथ चुनाव कराने का केंद्र सरकार का निर्णय तानाशाही पूर्ण है।

यह न सिर्फ असंवैधानिक है,बल्कि संघीय ढांचे के भी खिलाफ है।’’

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जवाहरलाल नेहरू जबतक प्रधान मंत्री रहे ,उन्होंने लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक ही साथ कराए।

क्या वे तानाशाह थे ?

क्या संविधान विरोधी थे ?

या, संघीय ढांचे के सिद्धांत की रक्षा करने में विफल रहे ?

इन सवालों का जवाब ममता बनर्जी को देना चाहिए।

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हां,इंदिरा गांधी ने अपने शासन काल में अपने राजनीतिक और निजी स्वार्थ में आकर दोनों चुनावों को अलग -अलग कर दिया।

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इंदिरा गांधी ने अपने 16 साल के शासन काल में गैर कांग्रेसी सरकारों वाले राज्यों में 50 बार राष्ट्रपति शासन लागू किया।

एन.टी.रामाराव की सरकार को तो इंदिरा गांधी ने बहुमत रहते हुए भी बर्खास्त कर दिया था जिसे फिर से सत्तारूढ़ करना पड़ा।

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इमर्जेंसी में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने निजी स्वार्थ में न सिर्फ देश पर तानाशाही थोपी बल्कि संविधान को भी तहस नहस कर दिया।

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यानी अलग -अलग चुनाव की जन्मदाता तानाशाह भी थीं और संघीय ढांचे के खिलाफ भी।संविधान -कानून के लिए उनके दिल में कोई आदर नहीं था।

दूसरी ओर, पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन लागू करने की निहायत जरूरत होने के बावजूद मोदी सरकार ने ऐसा अब तक नहीं किया।

नतीजतन ममता दीदी के कारण बंगाल धीरे- धीरे एक नया कश्मीर बनता जा रहा है।

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एक साथ चुनाव कराने की पहल करके इंदिरा गांधी की गलती को नरेंद्र मोदी 

सुधारने की कोशिश कर रहे हैं।

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किंतु निहितस्वार्थी या अनजान लोग इस जरूरत के खिलाफ गलत ही तर्क गढ़ रहे हैं।वह कुतर्क से अधिक कुछ भी नहीं।

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विरोध का सबसे बड़ा तर्क--

‘‘मतदाता लोग स्थानीय मुद्दों 

की बजाय राष्ट्रीय मुद्दों पर वोट देंगे।

इससे एक दल को लाभ होगा।’’

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अरे अनजान लोगो !

1967 तक लोक सभा के साथ ही विधान सभाओं के भी चुनाव हुए थे।

1967 के मतदाताओं ने केंद्र में तो कांग्रेस को सत्तासीन किया किंतु सात राज्यों में गैरकांग्रेसी दलों को सत्ता में बैठाया।

जबकि, चुनाव एक ही साथ हुए थे।

बिहार में तो जनता ने 1967 में लोक सभा के लिए कांग्रेस को गैर कांग्रेसियों की अपेक्षा अधिक सीटें दी,पर विधान सभा में गैर कांग्रेसियों को चुनकर सत्ता में बैठाया था।

उससे पहले केरल की जनता ने 1957 में सी.पी.आई.की सरकार बनवाई थी जबकि केंद्र में कांग्रेस सरकार बनी थी।

तब एक ही साथ चुनाव हुए थे।सन 1967 की अपेक्षा आज के मतदाता अधिक जगरूक हैं।

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दरअसल अलग-अलग चुनावों के हिमायती लोगों का चिंतन  देशहित में नहीं है।

उनके निहितस्वार्थ हंै।

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एक साथ चुनाव कराने के लिए तैयार मोदी सरकार के प्रस्ताव का विरोध करने वाले राजनीतिक दलों को पहचान लीजिए।

वे हैं--

1.-कांग्रेस

2.-आप

3.-डी.एम.के

4.-सी.पी.आई.

5.-सी.पी.एम.

6.-बी.एस.पी.

7.-टी.एम.सी.

8-राजद

और 9.-समाजवादी पार्टी।

1967 के चुनाव में एक साथ चुनाव होने के बावजूद डी.एम.के.,सपा और राजद (के पूर्ववर्ती दल),सी.पी.आई.,सी.पी.एम.राज्यों में सत्ता में आ गये थे।

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13 दिसंबर 24

 

 


रविवार, 8 दिसंबर 2024

 बिहार पुलिस का शेर चला गया !

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‘‘लफंगे नेताओं के हाथ में सत्ता’’

--बिहार पुलिस के महा निदेशक

डीपी.ओझा, 28 नवंबर, 2003

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सुरेंद्र किशोर

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पद पर रहते हुए ऐसी बातें कहने वाले डी.पी.ओझा का आज पटना में निधन हो गया।

वे 1967 बैच के आई.पी.एस. अफसर थे।

अपने कार्यकाल में ओझा ने बड़े- बड़े कानून तोड़कों और कई क्षेत्रों के माफियाओं के खिलाफ ऐसे -ऐसे कठिन अभियान चलाये कि सत्ताधारी पार्टी के शीर्ष नेता लालू प्रसाद ने एक बार कहा कि ‘‘डी.जी.पी.अपनी सीमा लांघ रहे हैं।’’

जब ऐसी टिप्पणी आ गयी तो रिटायर होने के बाद उनके सहकर्मियों ने ओझा जी को औपचारिक विदाई भी नहीं दी।

ऐसे थे ओझा जी !

कम कहना अधिक समझना।

काश ! हमारे पुलिस बल में ऐसे -ऐसे अफसर अधिक संख्या में आज होते !

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मैं ओझा जी के कामों पर तब से ही गौर कर रहा था जब वे समस्तीपुर जिले में एस.पी. थे।

उन्हीं दिनों केंद्रीय रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र की अत्यंत उच्चस्तरीय शक्तियों ने समस्तीपुर में हत्या करवा दी।

डी.पी.ओझा ने दो असली हत्यारों को तत्काल गिरफ्तार कर लिया।उनके कबूलनामे भी मजिस्ट्रेट के समक्ष दर्ज करवा लिये।

पर उससे देश की बड़ी शक्तियां नाराज हो गयीं।

सी.बी.आई.के निदेशक को तुरंत समस्तीपुर भेज कर उस केस को बिहार पुलिस से छीन लिया गया।दोनों गिरफ्तार हत्यारों को सी.बी.आई. ने रिहा करवा दिया।सी.बी.आई.ने आनंदमार्गियों को नाहक फंसा दिया गया।

ललित बाबू के पुत्र ने मुझसे एक बार कहा था कि जिन्हें फंसाया गया है,उनसे ललित बाबू की कोई दुश्मनी नहीं थी।ललित बाबू के भाई डा.जगन्नाथ मिश्र ने कोर्ट में गवाही दी कि ललित बाबू की आनंदमार्गियों से कोई दुश्मनी नहीं थी।

ओझा जी जानते थे कि वे क्या कर रहे हैं,फिर भी उन्होंने ललित बाबू के केस में डर कर अपने कर्तव्य से मुंह नहीं मोड़ा।

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ऐसे अनेक अवसर उनके जीवन में आये थे।

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6 दिसंबर 24



 


 (वोट के) बताशे के लिए (इस भारतीय 

लोकतंात्रिक) मंदिर को मत तोड़ो

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धर्म निरपेक्षता की अनोखी परिभाषा पेश है

नेहरूवादी मणि शंकर अय्यर के शब्दों में 

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सुरेंद्र किशोर

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‘‘......कुमारी उमा भारती ने हमें बताया कि जब वह वाराणसी गईं और एक मस्जिद और एक मंदिर को इकट्ठा देखा तो उनके मन में जज्बात उभरे कि मंदिर को उजारा गया है।हिन्दू धर्म का अपमान हुआ है।

और एक मुसलमान राजा ने वहां एक मस्जिद बना दी।

उन (उमा भारती) में और मुझमें एक अंतर है।

वह जिस चीज को गुलामी का चिन्ह समझती हैं,मैं उसी चीज को धर्म निरपेक्षा का प्रतीक समता हूं।

 जब एक मंदिर और एक मस्जिद को साथ-साथ देखता हूं तब मेरे मन में एक ही भावना आती है कि यह धर्म निरपेक्ष देश है।’’

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9 सितंबर 1991 को लोक सभा में दिए गए कांग्रेस सांसद  मणि शंकर अय्यर के भाषण का अंश।)

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(मत भूलिए।आज पूरी कांग्रेस इसी अनोखी धर्म निरपेक्षता की लाइन पर है।)

  माक्र्सवादी इतिहासकार इरफान हबीब यू ट्यूब पर यह कहते हुए सुने जा सकते हैं---

‘‘औरंगजेब ने काशी और मथुरा के मंदिर को तोड़ा था।वह गलत हुआ था।

फारसी इतिहास तथा कई अन्य किताबों में यह बात दर्ज है।

मस्जिद बनानी थी तो कहीं भी बना देते।

मंदिर तोड़कर बनाने की जरूरत क्या थी ?’’

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(याद रहे कि काशी की ज्ञापनव्यापी मस्जिद की एक दीवार पूर्व में अवस्थित मंदिर की है।)

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अब आप नेहरूवादी मणिशंकर अय्यर के उपर्युक्त भाषण को एक बार फिर पढ़िए।(7 दिसंबर, 2024 के दैनिक हिन्दुस्तान में पूरा भाषण छपा है।)

अय्यर की धर्म निरपेक्षता कुछ इस तरह है--मंदिर तोड़ो और उसकी एक दीवार को मिलाकर मस्जिद बना लो ,उसे खांटी धर्म निरपेक्षता का मधुर संगीत माना जाएगा।

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मुहम्मद गजनवी को सोमनाथ मंदिर के पुजारी कह रहे थे कि आप इस मंदिर के सारे धन ले लो,पर मूत्र्ति को मत तोड़ो।

पर गजनवी का जवाब था-यदि मैं वैसा करूंगा तो मरने के बाद खुदा को क्या मुंह दिखाऊंगा ?

मैं बुत परस्त नहीं बल्कि बुत शिकन के रूप में मरना चाहता हूूं।

(याद रहे अय्यर जैसे वामपंथी,नेहरूवादी और कम्युनिस्ट इतिहासकार व विचारक कहते और लिखते रहे हैं कि मुस्लिम आक्रंात भारत को लूटने आये थे न कि धर्म प्रचार करने।

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पुनश्चः

 भारत जिस दिन हिन्दू बहुल से मुस्लिम बहुल बन जाएगा,उस दिन इस देश में लोकतंत्र भी नहीं रहेगा।याद रहे कि किसी मुस्लिम बहुल देश में लोकतंत्र नहीं है।

इसलिए वोट का मोह छोड़कर वे लोग चेत जाएं जो वोट के बताशे के लिए भारत को जान-अनजाने जेहादियों के हाथों सौंपने के सारे उपाय कर रहे हैं।

जेहादी लोग घुसपैठ करा कर भारत में आबादी का अनुपात बदल रहे हंै,पर कोई तथाकथित सेक्युलर दल घुसपैठ के खिलाफ नहीं बोलता।बल्कि उल्टें उन्हें बसाने में वे दल व उनकी सरकारें मदद कर रहे हैं। 

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7 दिसंबर 24


µ  


     आने वाले खतरे को पहचानिए

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  जिस बांग्ला देश को सन 1971 में पाकिस्तान से मुक्त कराने के लिए 17 हजार सैनिकों ने अपनी जान गंवा दी,जिस भारत ने तब एक करोड़ बांग्ला देशी शरणार्थियों को आश्रय,भोजन और कपड़े दिए ,उस भारत को बांग्ला देश अब दुश्मन मान रहा है।

  दूसरी ओर ,जिस पाकिस्तान ने तब 30 लाख बांग्ला देशी लोगों को मार डाला और दो लाख महिलाओं के साथ दुष्कर्म किया,उसे दोस्त मानने लगा है।

     ----तस्लीमा नसरीन

         दैनिक जागरण

          8 दिसंबर 24

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भारत और यूरोप सहित दुनिया के अनेक देशों में इन दिनों जेहाद की लहर चल रही है।

ऐसे में जेहादी तत्व इस बात का ध्यान नहीं रखते कि पहले किसने हमारा साथ दिया था या तटस्थ रह गया था।

याद रहे कि जयचंद सिर्फ तटस्थ रह गया था,फिर भी गोरी के सैनिकों ने उसे भी मार डाला था।

 अरब-इजरायल युद्ध इस बात का सबूत है कि जेहादी लोग किसी अन्य धर्म के लोगों के साथ सह अस्तित्व में रहना स्वीकार नहीं करते।

  तभी तक भाई चारा रहता है जब तक जेहादी अल्पमत में रहते हैं।

 असम में 1950 में 12 प्रतिशत मुसलमान थे।

अब उनकी संख्या 40 प्रतिशत है।बढ़ती ही जा रही है।

खतरे का पूर्व अनुमान लगा लीजिए।

इस देश के अनेक इलाकों का भी यही हाल होता जा रहा है। 

 भारत मंे प्रतिबंधित फिर भी सक्रिय जेहादी संगठन पी.एफ.आई. जेहाद के लिए कातिलों का दस्ता तैयार कर रहा है।

उसका लक्ष्य है कि भारत को सन 2047 तक हथियारों के बल पर इस्लामिक देश बना देना है।वे तो ईमानदारी से अपना काम कर रहे हैं।पर इस देश को वैसे तत्वों से बचाने का काम क्या लोकतांत्रिक मिजाज वाले लोग कर रहे हैं ?संविधान की रक्षा का नारा देने वालों की इस पर क्या राय है ?

नहीं।साफ है कि उनके लिए वोट बैंक सर्वोपरि है।

लगता है कि मध्य युग लौट रहा है।

पाॅपुलर फ्रंट आॅफ इंडिया के राजनीतिक संगठन एस.डी.पी.आई.से कई राजनीतिक दलों का गहरा संबंध रहा है।

खबर है कि इस देश में इन दिनों अधिकतर मुस्लिम वोट पी.एफ.आई.ही कंट्रोल कर रहा है।डा.जाकिर नाइक को यह कहते आप यूट्यूब पर सुन सकते हैं--‘‘अब भारत में सिर्फ 60 प्रतिशत ही हिन्दू रह गये हैं।

भारत की ऐसी ही (आपस में कटी-बंटी )‘‘स्थिति’’ से उत्साहित होकर बांग्ला देश के जेहादी तत्व अब सार्वजनिक रूप से यह भी घोषणा करने की हिम्मत कर रहे हैं कि हम बंगाल-बिहार-ओड़िशा पर कब्जा कर लेंगे।

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चीन सरकार ने अपने श्ंिागजियांग प्रदेश के उइगर मुसलमानों का , जो जहादी हैं, अभूतपूर्व दमन करके उन्हें काबू में रखा है।

चीन सरकार कहती है कि ऐसे तत्वों का ‘‘इलाज’’लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था वाले देश में संभव नहीं है।

हमारे यहां यानी चीन  में जैसी एकाधिकारवादी राजनीतिक व्यवस्था हैं,उसी व्यवस्था में जेहादियों का सफाया संभव है।

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एक आंशका

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पी.एफ.आई.अभी तो घातक हथियार जुटा रहा है।

जिस दिन वह भारत में गृह युद्ध शुरू करेगा,उस दिन क्या यहां मार्शल लाॅ लागू करने की भारत सरकार के सामने मजबूरी नहीं हो जाएगी ?

वोट के लिए जो लोग आज पी.एफ.आई.के

प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थक बने हुए हैं,वे उस दिन की पूर्व कल्पना कर लें।

यदि वोट के लोभ में वैसे नेता खुद अंधा बने हुए हैं तो उनके परिवारजन को चाहिए कि वे उन पर दबाव डाल कर उनकी राष्ट्रद्रोही और आत्म घाती राह को बदलने के लिए उन्हें मजबूर कर दें।वैसे मैं खुद ईश्वर से प्रार्थना करूंगा कि वह दिन भारत में कभी न आये।

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8 दिसंबर 24