गुरुवार, 27 जनवरी 2022

     शादी के लिए अखबारों मंे विज्ञापन 

     देने में कोई हर्ज नहीं

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     सुरेंद्र किशोर

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साठ-सत्तर के दशकों में मैं देखता था कि आसपास के गांवों के कुछ लोग भी यह जानकारी रखते थे कि किस गांव में किसका लड़का शादी के योग्य हो गया है।

   उसके अनुसार वे आने वाले ‘अगुआ’ यानी लड़की वालों  को गाइड कर देते थे।

  तब गांवों में सामाजिक बंधन आज की अपेक्षा अधिक मजबूत था।

  समय के साथ अनेक लोग शहरोन्मुख होते चले गए।

 पहले पढ़ने के लिए गए।

  बाद में नौकरी के लिए गए और उनमेें से अधिकतर वहीं बस गए।

 शहरों में तो सामाजिक बंधन वैसा है नहीं।

   कई मामलों में बगल वाला आदमी बगल वाले को नहीं जानता ।

या कम जानता है।

घुलने -मिलने का समय बहुत ही कम लोगों के पास है।

पैसे कमाने की ‘रैट रेस’़ में शामिल जो हैं।

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इस ‘बंधनहीन समाज’ से कई समस्याएं पैदा हो रही हैं।

‘अगुआ’ को ‘गाइड’ करने या योग्य वर बताने के लिए शहरों में अत्यंत कम ही लोगों के पास समय है।

  नतीजतन योग्य वर के यहां भी योग्य अगुआ नहीं पहंुच पा रहे हैं।

पहुंच रहे हैं तो कम संख्या में।

चयन के विकल्प कम होते जा हंै।

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इसकी कमी अखबारों के वैवाहिक विज्ञापन काॅलम पूरा करते हैं।

  कई लोग उस काॅलम की सेवा लेते हैं।

 पर, अब भी बहुत सारे अभिभावकगण इसे अपनी तौहीन मानते हैं।

अरे भई अभिभावको ।

शादी योग्य अपनी संतान के लिए देश-प्रदेश के बड़े -बड़े अखबारों में विज्ञापन दीजिए।

अपनी झूठी शान के चक्कर में अपनी संतान के साथ अन्याय मत कीजिए।

   पोस्ट बाॅक्स के जरिए सूचनाएं मंगवाइए।

कोई आपका नाम जानेगा भी नहीं।

  पर, आपको दर्जनों विकल्प मिल जाएंगे।

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मैंने जैसे ही सन 1963 मैट्रिक पास किया,जवार के लोग मेरे यहां अगुआ भेजने लगे।

मैंने दस साल अपनी शादी रोकी।

इस बीच निराश लौटने वाले कई जावारी लोग बाबू जी से नाराज हो गए।

खैर, बाद के दशकों में गांवों में भी पहले जैसी स्थिति नहीं रही।

  पर नगरों-महानगरों की स्थिति तो इस मामले में और भी खराब है।

किंतु कोई हर्ज नहीं।

अखबार तो हंै ही।

वे ‘‘संदेशवाहक’’ का काम सफलतापूर्वक कर रहे हैं। 

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सुरेंद्र किशोर

27 जनवरी 22


  


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