शनिवार, 29 जनवरी 2022

 कानोंकान

सुरेंद्र किशोर

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गवर्नरों को यूनिवर्सिटीज के चांसलर बनाने की परंपरा पर पुनर्विचार जरूरी

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राज्यों के विश्व विद्यालयों का चांसलर कभी बहुत सोच-समझ कर संबंधित राज्यों के राज्यपालों को बनाया गया।

विश्व विद्यालय शिक्षा की स्वायतत्ता व गुणवत्ता बनाए रखने के लिए ऐसा किया गया था।

कुछ दशकों तक तो सब कुछ ठीक ठाक चला।किंतु समय के साथ कई कारणों से स्थिति बिगड़ने लगी।

अब तो स्थिति बहुत खराब होती जा रही है।

केरल और पश्चिम बंगाल में स्थिति तो बहुत खराब हो चुकी है।

केरल के राज्यपाल ने वहां के मुख्य मंत्री से गत माह कहा कि काननू बदल कर आप खुद विश्व विद्यालयों के चांसलर भी बन जाइए।

  दूसरी ओर पश्चिम बंगाल से इससे भी खराब खबर आई है।

वहां के शिक्षा मंत्री ने हाल में कहा कि राज्य सरकार इस प्रस्ताव पर विचार कर रही है कि कानून बदल कर मुख्य मंत्री को ही विश्व विद्यालयों का चांसलर भी बना दिया जाए।

  बिहार की ताजा खबर भी कोई खुश करने वाली नहीं है।

  पटना राज भवन ने मुख्य सचिव को लिखा है कि चांसलर की अनुमति के बिना विश्व विद्यालय में विशेष निगरानी इकाई को सक्रिय क्यों किया गया ?

विशेष निगरानी इकाई भ्रष्टाचार निरोधक दस्ता है।

 कुछ अन्य राज्यों से भी यदाकदा ऐसी चिंताजनक खबरें आती 

रहती हैं।

इसके क्या कारण हैं ?

एक कारण तो यह है कि राज्य और केंद्र में अलग अलग दलों की सरकारें हैं।ऐसे में खूब ‘राजनीति’ होती है।

कुछ अन्य कारण भी हैं।

इसकी निष्पक्ष ढंग से जांच करा कर उसके निराकरण के उपाय किए जाने चाहिए।

  अन्यथा विश्वविद्यालयों के शैक्षणिक माहौल पर प्रतिकूल असर पड़ता रहेगा। 

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अखिल भारतीय पर्यावरण सेवा 

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सुप्रीम कोर्ट ने एक साल पहले कहा था कि साफ पर्यावरण और शुद्ध जल लोगों के मौलिक अधिकार हैं।

अदालत ने नदियों के प्रदूषण और उससे लोगों पर पड़ने वाले वाले दुष्प्रभावों पर चिंता जताई थी।

एक साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस महीने पर्यावरण को लेकर एक बड़ी पहल की है।

 न्यायमूर्ति एस.के. कौल और एम एम सुदें्रश के पीठ ने केंद्र सरकार से पूछा है कि क्या सरकार ‘‘अखिल भारतीय पर्यावरण प्रबंधन सेवा’’ गठित करने पर विचार करेगी ?

याद रहे टी आर एस सुब्रह्मण्यन समिति ने इस संबंध में केंद्र सरकार को अपनी सिफारिश दे दी है।

उसी के आधार पर पेश जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने गत उपर्युक्त सवाल किया।यदि पर्यावरण सेवा गठित हुई तो वह आई.ए.एस.और आई.पी.एस. की तरह ही होगी।

  इससे पहले नब्बे के दशक में सुप्रीम कोर्ट ने सरकारों को यह निदेश दिया था कि वह प्राथमिक से लेकर विश्व विद्यालय स्तर तक पर्यावरण विज्ञान को पृथक व अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाने का प्रबंध करें।

यानी,बिगड़ते पर्यावरण संतुलन की समस्या को लेकर सुप्रीम कोर्ट हमेशा ही गंभीर रहा है।

  यदि अदालत की पहल से आॅल इंडिया पर्यावरण प्रबंधन सेवा का गठन हो जाए तो इस समस्या से पीड़ित जनता को राहत देने में सरकारों को भी सुविधा होगी। 

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बुद्धदेव बाबू लकीर के फकीर नहीं  

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भले पूर्व मुख्य मंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने पद्म पुरस्कार स्वीकार नहीं किया,किंतु भाजपा सरकार ने उन्हें इस सम्मान के लिए अकारण नहीं चुना था।

दरअसल मुख्य मंत्री के रूप में कई बार बुद्धदेव भट्टाचार्य साम्यवादी लीक से हटकर काम कर रहे थे।

  सार्वजनिक क्षेत्र के जिस ग्रेट ईस्टर्न होटल (कोलकाता)को

उनसे पहले के मुख्य मंत्री ज्योति बसु चाहते हुए भी नहीं बेच सके थे,उसे भट्टचार्य साहब के शासनकाल में बेच दिया गया।

वह होटल भारी घाटे में चल रहा था।

इसके बावजूद सी.पी.एम.का मजदूर संगठन ‘सीटू’ उसे बेचने का विरोध कर रहा था।

  भले बाद में भट्टाचार्य ने अपने बयान का खंडन कर दिया,पर एक बार बंगलादेशी घुसपैठियों को लेकर उनकी जुबान से सच्चाई निकल गई थी ।

उनका बयान आया कि घुसपैठियों के कारण प्रदेश के सात जिलों में सामान्य प्रशासन के लिए काम करना कठिन हो गया है।बाद में पार्टी के दबाव में आकर उन्होंने अपने उस बयान का खंडन कर दिया था।

 पर,उस बयान पर अनेक मुस्लिम संगठन सी.पी.एम. से नाराज हो गए थे।

 ममता बनर्जी न उस नाराजगी का भरपूर राजनीतिक व चुनावी लाभ उठा लिया।  

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  और अंत में 

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इस देश के हजारों एन जी ओ विदेशों से पैसे लेकर भारत में अपनी गतिविधियां चलाते रहे हैं।

इन में से कुछ संस्थाएं जनहित में अच्छा काम करती हैं।

किंतु अधिकतर गैर सरकारी संगठन .जिस उद्देश्य के लिए पैसे लाते हैं,उससे अलग कुछ दूसरे काम करते हैं।उनमें से कुछ काम तो देश विरोधी भी होते हैं।

   इधर भारत सरकार ने यह कोशिश की कि एन जी ओ यानी गैर सरकारी संगठन इस देश के कानून के तहत ही काम करें।जिस उद्देश्य से पैसे कहीं से वे लाते हैं,उसी काम में खर्च हों।

साथ ही, जो विदेशी संगठन आपको पैसे देते हैं,वे यह लिखकर दे दें कि वे आपको किस काम के लिए आर्थिक मदद कर रहे हैं।

  केंद्र सरकार की इन शत्र्तों को मानने से अधिकतर एन जी ओ ने इनकार कर दिया।

  क्या एन.जी.ओ. का यह रुख-रवैया सही है ?

कानून लागू करने की सरकार की कोशिश को विफल करने के लिए कुछ एन.जी.ओ.सुप्रीम कोर्ट गए थे।

पर अदालत ने उन्हें कोई राहत नहीं दी।रुख-रवैया सही होता तो अदालत से उन्हें झटका नहीं लगता।

जो एन जी ओ ठीक काम कर रहे हैं,उनकी सरकार से कोई शिकायत नहीं है।

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प्रभात खबर

पटना

28 जनवरी 22


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