शुक्रवार, 21 जनवरी 2022

 कानोंकान

सुरेंद्र किशोर

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दो बार से अधिक दल-बदल या पक्ष-परिवर्तन पर लगे कानूनी रोक 

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  किसी जन प्रतिनिधि को उसके पूरे जीवन काल  में दो बार से अधिक दल बदलने की छूट न मिले।

ऐसी कानूनी व्यवस्था होनी चाहिए।

साथ ही, पक्ष बदल कर समय- समय पर नए -नए 

गठबंधन बनाने पर भी रोक लगे।

हां,यदि नए दल का निर्माण हो तो बात और है।

यह प्रावधान हो सकता है कि जैसे ही संसद या विधान सभा का उम्मीदवार तीसरी बार किसी तीसरे दल की ओर से नामांकन पत्र दाखिल करे, कम्प्यूटर उस व्यक्ति का नामांकन पत्र तुरंत नामंजूर कर दे।

   इसके लिए दल बदल विरोधी कानून में संशोधन कर दिया जाना चाहिए।

निजी स्वार्थ के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजाक बना देेने वालों का इलाज जरूरी हो गया है।

  लोकतंत्र की प्रतिष्ठा बचा लेने के लिए ऐसा ‘‘कानूनी वैक्सिन’’ जरूरी है।

बार- बार दल- बदल और पक्ष- परिवर्तन के कारण राजनीति व प्रशासन में गिरावट आती है।

विकास रुकता है क्योंकि लूट बढ़ती है।

  दल बदल विरोधी कानून में पहले भी परिवर्तन हुए हैं।

पर वे कारगर साबित नहीं हो पा रहे हैं।

अभी तो कानून डाल-डाल तो दलबदलू पात-पात की स्थिति है।

अब नए व ठोस उपाय करने होंगे।  

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दल बदल के पीछे जनहित नहीं

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अत्यंत थोड़े से अपवादों को छोड़कर दल -बदल और पक्ष -परिवर्तन के पीछे आम तौर नंगा स्वार्थ होता है।

जातीय स्वार्थ, पारिवारिक स्वार्थ और सार्वजनिक धन की लूटपाट का स्वार्थ।

ऐसे स्वार्थ देश के लोकतंत्र को कलंकित कर रहे हंै।

 कई मामलों में यह देखा गया है कि  यदि एक खास गठबंधन में रहने पर मलाईदार विभाग नहीं मिलता तो ,जन प्रतिनिधि राजनीतिक दलों का नया गठबंधन बना लेते हंै।

या गठबंधन के भीतर रह कर ही नेतृत्व का भयादोहन करते रहते हंै।

एक दल का मुख्य मंत्री किसी जन प्रतिनिधि को मंत्री नहीं बनाता तो वह दूसरे दल में चला जाता है।

अब तो नेता इस स्वार्थ में भी दल बदल रहे हैं कि कौन दल उनके परिवार के कितने अधिक सदस्यों को चुनावी टिकट देता है।

क्या यह सब चलने दिया जाना चाहिए ?

यदि चलता रहता है कि हमारी अगली पीढ़ियां हमारे बारे में कैसी राय बनाएंगी ?

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बिहार में विशेष निगरानी 

इकाई की सराहनीय पहल 

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विशेष निगरानी इकाई को चाहिए कि वह अंचल कार्यालयों और पुलिस थानों पर अधिक ध्यान दे।

याद रहे कि एसवीयू ने अब रिश्वतखोरी के खिलाफ भी कार्रवाई शुरू कर दी।

रिश्वतखोरी के खिलाफ विशेष निगरानी इकाई की यह पहल सराहनीय है।पहले एसयूवी भ्रष्टाचार के मामलों के उद्भेदन तक सीमित थी।

  उसकी नई पहल अंचल कार्यालयों के काम काज में फर्क ला सकती है।

दरअसल पटना में बैठी कोई सरकार भले अच्छा काम करे किंतु अधिकतर जनता का तो अंचल कार्यालयों व पुलिस थानों से ही पाला पड़ता हैै।

अंचल कार्यालय और थाने भीषण घूसखोरी के कारण अच्छी -अच्छी सरकारों की छवि जनता में खराब कर देते हैं।

पहले के दशकों में स्थानीय विधायक अंचल -थानों की घूसखारी के खिलाफ आवाज भी उठाते रहते थे।

अब तो अधिकतर विधायक अज्ञात कारणों से चुप ही रहते हैं।

वे अज्ञात कारण क्या हैं ?

शीर्ष नेतृत्व को उसका पता लगाना चाहिए।

  इस स्थिति में एसयूवी की जिम्मेदारी बढ़ जाती है।

उसके पास यदि मानव संसाधन की कमी हो तो राज्य सरकार उसे बढ़ाए।

  उसे घूसखोरीे के खिलाफ कार्रवाई पूरी तैयारी के साथ ही शुरू करनी चाहिए।क्योंकि उच्चस्तरीय संरक्षण पाए घूसखोर अफसर व कर्मचारी दस्ते पर जगह -जगह हमला भी करवा सकते हैं।

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  भूली-बिसरी याद

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बिहार और उत्तर प्रदेश दो ऐसे राज्य हैं जहां अपने अच्छे दिनों में भी कांग्रेस आंतरिक गुटबंदी से बुरी तरह पीड़ित रही।

चुनाव के समय उम्मीदवारों के नाम तय करने में हाईकमान के सामने भी दिक्कतें आती रहती थीं।

सन 1957 में कांग्रेस विधायक दल के नेता पद के चुनाव के बाद मतपत्रों के बक्से पटना से दिल्ली भेजे गए थे।

पटना में उसकी गिनती में धांधली की आशंका थी।

याद रहे कि तब डा.श्रीकृष्ण सिह का मुकाबला डा.अनुग्रह नारायण सिंह से था।

अंततः डा.श्रीकृष्ण सिंह विजयी हुए।

सन 1967 के आम चुनाव में उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी उम्मीदवारों के नामों की घोषणा एक साथ नहीं हो सकी थी।

तब आज जैसे अनेक चरणों में चुनाव नहीं होते थे।

  तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के हस्तक्षेप के बावजूद उत्तर प्रदेश में लोक सभा की कुल 85 सीटों में से पहली किस्त में 77 सीटों के उम्मीदवारों के नामों की ही घोषणा हो सकी थी।

यही हाल विधान सभा के उम्मीदवारों के साथ भी हुआ था।

तब उत्तर प्रदेश कांग्रेस के एक गुट के नेता चंद्रभानु गुप्त थे तो दूसरे गुट के नेता कमलापति त्रिपाठी थे।

  यू.पी.की राजनीति की गुटबंदी कम करने के लिए वहां की तत्कालीन मुख्य मंत्री सुचेता कृपलानी को केंद्र की राजनीति में ले जाया गया था।

 सन 1967 के आम चुनाव के बाद यू.पी.में कांग्रेस की सरकार बन गई थी।

पर कांग्रेस की गुटबंदी के ही कारण एक ही महीने के भीतर गुप्त सरकार गिर गई।

कांग्रेस से निकल कर चरण सिंह ने प्रतिपक्ष की मदद से अपनी सरकार बना ली।  

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और अंत में

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आम आदमी पार्टी ने भगवंत मान को पंजाब में मुख्य मंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया है।

यदि वह मुख्य मंत्री बन गए तो वे संभवतः देश के पहले ऐसे मुख्य मंत्री होंगे जो सफल हास्य कलाकार रहे हैं।उससे शायद इस शुष्क व तनावपूर्ण राजनीति में कुछ

हंसी-खुशी आएगी !!

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कानोंकान

प्रभात खबर

पटना 21 जनवरी 22


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