शनिवार, 1 जनवरी 2022

 


जुगनू शारदेय की याद

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 एक बड़े प्रकाशन समूह के हिन्दी प्रकाशन के अंशकालीन  

संवाददाता की आर्थिक दुर्दशा व व्यथा-कथा

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यह अकारण नहीं था कि देश के मशहूर व प्रतिभाशाली हिन्दी पत्रकार जुगनू शारदेय को अपने जीवन के आखिरी दिन अनाथालय में गुजारना पड़ा।

हाल ही में उनका निधन हुआ।

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सत्तर के दशक में जुगनू ने अंशकालीन संवाददाता के रूप में शुरूआत ‘दिनमान’ से की थी।

उससे ठीक पहले फणीश्वरनाथ रेणु बिहार से दिनमान के संवाददाता थे।

यानी, जुगनू पत्रकारिता में रेणु के अघोषित उत्तराधिकारी माने गए थे। 

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काश ! साप्ताहिक ‘दिनमान’ के प्रबंधन यानी टाइम्स आॅफ इंडिया प्रकाशन ने तब जुगनू के लिए सम्मानजनक पारिश्रमिक व यात्रा खर्च आदि का प्रबंध किया होता।

यदि ऐसा हुआ होता तो जुगनू शारदेय के निजी जीवन में शायद स्थिरता व थोड़ी संपन्नता भी आ सकती थी।

संभवतः उस स्थिति में उनकी बोलचाल में भी शालीनता आती।

पर, हुआ इसके ठीक विपरीत।

यानी, प्रथम ग्रासे मक्षिका पातः 

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एक संवाददाता की व्यथा-कथा उसी के शब्दों में पढ़िए- 

--‘‘क्या मैं सचमुच रिपोर्टर हूं या फटीचर हूं।

मेरी समझ से ‘दिनमान’ का रिपोर्टर तो वही हो सकता है 

जो काव्यमय शैली में संवेदनशील मानवीय संदर्भों से जुड़ा समाजवादी लेखन लिख सकता हो जिससे सबका उदय अर्थात सर्वोदय हो।

दिन भर लू में भूखे पेट घूमने के बाद मैं ऐसा नहीं लिख सकता।’’

---- जुगनू शारदेय, 16 अप्रैल 1973 

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मशहूर साप्ताहिक  

पत्रिका ‘दिनमान’ के 

संपादक के नाम सन 1973 में लिखा 

जुगनू शारदेय 

का निजी पत्र यहां प्रस्तुत है।

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इस पत्र को जुगनू की इजाजत के बिना भी प्रकाशित करवाना एक पत्रकार के रूप में तब मैंने जरूरी समझा था।

क्योंकि मैं जुगनू के बहाने हिन्दी पत्रकारों की व्यथा-कथा लोगों तक पहुंचाना चाहता था।

पता नहीं, मैंने गलत किया या सही !!

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वह पत्र तब की साप्ताहिक पत्रिका ‘प्रतिपक्ष’ (नई दिल्ली) में छपा था।

  मैं उन दिनों उस पत्रिका का बिहार संवाददाता था।

मैंने ही वह पत्र छपने के लिए भेजा था।

छपने के बाद जुगनू ने मुझसे बहुत झगड़ा किया।

स्वाभाविक ही था।

खैर, इस मामले में उनकी कोई गलती नहीं थी।

वैसे मेरी भी कोई गलत मंशा नहीं थी।

सार्वजनिक हित के तहत मैंने यह काम किया था।

क्योंकि मैं तो व्यक्तिगत अपमान सह कर भी एक हिन्दी पत्रकार के शोषण की कथा हिन्दी भारत को पढ़वाना चाहता था।

इस उम्मीद में कि अन्य अंशकालीन संवाददाताओं को उससे शायद कुछ लाभ मिल सके।

काश !

उसके बाद भी इस देश के अंशकालीन हिन्दी संवाददाताओं की सेवा शत्तों में थोड़ा सुधार हुआ हो पाता !

हुआ या नहीं,मुझे जानकारी नहीं है।  

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आश्चर्य हुआ था कि ‘दिनमान’ के अमीर प्रकाशन समूह ने अपनी अमीरी के बावजूद अपने अंशकालीन संवाददाताओं की सेवा शत्र्तों को बेहतर नहीं किया था।

साठ के दशक में तब की एक खबर के अनुसार टाइम्स आॅफ इंडिया की मूल कंपनी बैनेट एंड कोलमैन का वार्षिक मुनाफा करीब छह करोड़ रुपए था।

  फिर भी उस समूह के एक संवाददाता को अपने संपादक के नाम ऐसी चिट्ठी लिखनी पड़ी।

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दरअसल इस देश में जिस प्रकाशन से मुख्यतः अंग्रेजी अखबार निकलते हैं, उस प्रकाशन के भाषाई प्रकाशनों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता है।

अपवादस्वरूप प्रभाष जोशी के महान व्यक्तित्व के कारण एक्सप्रेस ग्रूप के ‘जनसत्ता’ के साथ ऐसा दोयम दर्जे का व्यवहार नहीं हुआ। 

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  मेरी धारणा रही है कि हिन्दी में ‘दिनमान’ से बेहतर कोई पत्रिका आज तक नहीं निकली।

तब दिनमान पढ़ने से पिछले सप्ताह भारत सहित दुनिया में क्या -क्या प्रमुख घटित हुए,वह सब पाठकों को पता चल जाता था।

 मेरे निजी संदर्भालय में कुछ अपवादों को छोड़कर 1965 से सारे अंक उपलब्ध हैं। 

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यह बात सही है कि घाटा उठाकर भी उसके प्रकाशक दिनमान निकालते थे।

प्रथम संपादक सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ थे।वे सन 1965 से 1969 तक रहे।

उनके बाद में संपादक बने रघुवीर सहाय।

दिनमान ने एक पूरी पीढ़ी को राजनीतिक रूप से 

जागरूक बनाया।

दिनमान पढ़कर ही मैं पत्रकार बना।

  अफसोस हुआ कि दिनमान पर अन्य मद में खर्च करने के लिए तो प्रबंधन के पास पर्याप्त पैसे थे,पर जुगनू जैसे खबरों की समझ रखने वाले संवादाताओं के लिए नहीं।

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अनेक लोगों के साथ-साथ  दिनमान को पठनीय बनाने में जुगनू जैसे संवाददाताओं का भी थोड़ा योगदान रहा था।

क्या यह हिन्दी प्रकाशनों की दरिद्रता है या फिर संवाददाताओं की निरंतर उपेक्षा की एक और कहानी ?

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जुगनू का वह ऐतिहासिक पत्र

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माननीय,

   थोड़ी देर पहले फोन पर बातचीत करते हुए शायद आपको मेरे सुवचनों से दुख पहुंचा है।

  मेरे लिए यह अत्यंत हर्ष की बात है क्योंकि सन 1973 मेरा ‘दुख पहुंचाओ वर्ष’ है।

   थोड़ा दुख आपको और दे दूं।

   कुछ लोग ,जिनमें आप भी हैं, चाहते हैं कि मैं हनुमानी करतब दिखाऊं।

 जैसे कि थोड़ी देर पहले आपने फोन पर मुझसे कह दिया कि 

मधु लिमये का चित्र जीत की घोषणा के तुरंत बाद का चाहिए,हजारीबाग दंगा की रपट चाहिए और मैं रिपोर्टर हूं इसलिए खुद भी समझूं कि चुनाव के बाद क्या लिखना है।’ 

 क्या मैं सचमुच रिपोर्टर हूं या फचीचर हूं।

मेरी समझ से दिनमान का रिपोर्टर तो वही हो सकता है 

जो काव्यमय शैली में संवेदनशील मानवीय संदर्भों से जुड़ा समाजवादी लेखन लिख सकता हो जिससे सबका उदय अर्थात सर्वोदय हो।

दिन भर लू में भूखे पट घूमने के बाद मैं ऐसा नहीं लिख सकता।

  मेरी यह व्यक्तिगत धारणा है कि तीन वर्षों के सम्पर्क के बावजूद भी दिनमान क्या है--यह नहीं समझ पाया हूं।

शायद आपको स्मरण हो कि तीन अप्रैल के पूर्व मैंने आपको बांका के बारे में बताया था कि तो आपने कहा था कि ‘‘छोड़िए।’’

फिर अचानक 13 अप्रैल को तार मिला कि ‘‘सचित्र वृतांत सोमवार तक प्राप्त।’’

   जाहिर है कि आपने मुझे हनुुमान जी समझा होगा जो उड़कर बांका जाएगा या फिर जुगनू जी के पास एक बोतल वाला जिन होगा जो उनके एक इशारे पर तस्वीरें आदि लेता हुआ सोमवार को हाजिर कर देता।

   मैं मामूली बंदर बगीचा का निवासी ठहरा।

आपको 24 अप्रैल को याद भी याद भी दिलाया कि अब जाना बेकार है।

मगर हुक्म हुआ ‘चले जाइए।’

 चला गया।

लौट के आया तो हुक्म हुआ कि सभी उम्मीदवारों के फोटो लाइए।

  सहाय शाब, ये बिहार है अर्थात बेवकूफों का राज्य।

फोटो(उम्मीदवारांे के )न उनके दफ्तर में होते हैं और न ही उनकी जेब में।

  अब शाब मैं किदर से लाऊं ?

आपके पास तो बंद बोतल का भूत जुगनू जी महाराज हैं मेरे पास तो कोई जुगनू जी नहीं हैं।

  वैसे कोशिश करूंगा मगर तश्वीरें शाब मिलनी मुश्किल हैं।

मैं समझता हूं कि एक श्रेष्ठ संवाददाता होने के कारण आप मानते होंगे कि एक संवाददाता को जितनी सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिए ,उसका एक प्रतिशत भी मुझको उपलब्ध नहीं है।

अपने बाहुबल से कब तक मैं चला सकता हूं।

 (और क्यों चलाऊं ?)

फोन,गाड़ी आदि की मुफ्त सुविधा की कीमत मुझको खुद को बेच कर चुकानी पड़ती है।

मेरे सूत्रों का तो नाम भी आपके अखबार में नहीं छपता।

 संसार तो स्वार्थी है।

आपके अखबार की कृपा से मेरे निस्वार्थी सूत्र भी कम से कम आपके अखबार के लिए मेरी सहायता करने को तैयार नहीं हैं।

  क्योंकि आप यह मानेंगे कि पत्रकारिता में विश्वास बड़ी चीज है  और दिनमान की कृपा से लोग मुझे फ्राॅड भी समझने लगे हैं।

 उदाहरण बताए देता हूं।

विद्याकर कवि से एक भेंटवार्ता 1971 में मैंने लिया था और 1973 में श्री त्रिलोक दीप ने लिया था।

(दोनों आपसे पूछकर)मगर कवि से भेंट वार्ता दिनमान में नहीं छपा।

अगर छपा होता तो मैं उनको सीधा रास्ता हजारीबाग जाने का समझाता और उनकी गाड़ी या विमान में चिपक जाता।

अब कौन सा मुंह लेकर मैं उनके पास गाड़ी भी मांगने जाऊं।

अगर आप हजारीबाग जाने के लिए मुझे कहें भी तो मैं पैसे कहां से लाऊं ?

आपकी कृपा से कोई पांच सौ रुपए का कर्ज तो मेरे ऊपर है ही।

  अब तो वह दिन भी आने वाला है जब होटलवाला खाना,सिगरेट वाला सिगरेट और मित्रगण पैसे उधार देना बंद कर देंगे।

  मुझमें इतना नैतिक साहस नहीं है कि मैं औरंगाबाद जाकर मां से पैसे मांगू।

  अपनी परेशानी दिनमान के जरिए दूर कर सकता हूं मगर वह तो आप करेंगे नहीं।

  आपका कार्यालय तो मेहनत का भी पैसा समय पर आजकल नहीं देता है।

  जनवरी का चेक आज तक नहीं मिला है।

मार्च का वही हाल है।

और अग्रिम देना तो आपकी कंपनी के नियमों के ही विरुद्ध है।

  सो विनम्र निवेदन है आप सामग्री एकदम कड़ाई से भरपूर कांट छांट कर छापिए,जिस सामग्री के लिए किसी महान लेखक को डेढ़ दो सौ देते हो उसके लिए 15 रुपए काॅलम ही दीजिए,पर हनुमानी करतब दिखलाने के लिए मत कहिए। क्योंकि बहुत सारे व्यक्तिगत कारणों से एकदम निराश,थका और कमजोर हो चुका हूं।प्रणाम 

   आपका --जुगनू  

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  1-1-2022


      

 



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