गुरुवार, 27 जून 2024

    इमर्जेंसी का कहर मुझ पर भी 

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सुरेंद्र किशोर

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इमर्जेंसी में सी.बी.आई.यह केस बनाना चाहती थी कि

सुरेंद्र किशोर जार्ज फर्नांडिस के ‘‘डायनामाइटी अभियान’’ के लिए नेपाल स्थित चीनी दूतावास से हर माह पैसे लाता था।

पर,मेरे फरार हो जाने के कारण जांच एजेंसी का वह मंसूबा पूरा न हो सका था।

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सन 1977 में आपातकाल की समाप्ति और मोरारजी देसाई सरकार बन जाने के बाद एक सी.बी.आई.अफसर ने मेरे एक मित्र से एक रहस्योद्घाटन किया।वह उस अफसर का पूर्व परिचित था।

बड़ौदा डायनामाइट मुकदमे की चर्चा करते हुए उस अफसर ने

उससे कहा कि ‘‘हमारी एजेंसी को इस बात का अफसोस रहा कि सुरेंद्र अकेला (अब सुरेंद्र किशोर)हमारी गिरफ्त में नहीं आ सका।

 आ जाता तो हमें पता चल जाता कि वह हर माह काठमाण्डो स्थित चीनी दूतावास से फर्नांडिस के लिए कितना पैसा लाता था।’’

  बाद में अचानक वह मित्र मुझे मिला तो उलाहना के स्वर में कहा कि ‘‘तुम तो बहुत खराब काम कर रहे थे इमर्जेंसी में !

डायनामाइट केस की जांच में लगा एक सी.बी.आई.अफसर ने मुझे बताया है कि तुम हर माह पैसे के लिए काठमाण्डो जाते थे।

मैंने उससे कहा कि मैं तो आज तक नेपाल नहीं गया।हां,मैं कानपुर से जरूर पैसे लाता था जिससे बिहार में भूमिगत आंदोलन का खर्च चलता था।

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इस संबंध में देश के मशहूर पत्रकार के. विक्रम राव ने लिखा है--

‘‘चीनी एजेंट के लांछन से ऐसे बचे फर्नांडिस और उनके 

साथी।

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के. विक्रम राव

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जार्ज फर्नांडिस सहित हम साथी आपातकाल के लड़ैया थे।


हम सब साथी, पत्रकार भाई सुरेंद्र किशोर के सदैव कृतज्ञ रहेंगे।क्योंकि उन्होंने हम लोकतंत्र -प्रहरियों को राष्ट्रद्रोह के लांछन से बचा लिया।

मेरे साथ बड़ौदा डायनामाइट केस में कैद हुए सभी साथी सुरेंद्र किशोर जी के ताउम्र एकहसानमंद रहेंगे।

तब मैं 1975-76 में बड़ौदा में टाइम्स आॅफ इंडिया का संवाददाता था।

साल भर बाद देश भर से हम और हमारे सहयोगी पकड़े गये। 

गिरफ्तार लोगों में प्रमुख रहे वीरेन जे.शाह और प्रभुदास पटवारी(दोनों बाद में राज्यपाल बने।) 

हमें आशंका थी कि पटना में सक्रिय सुरेंद्र किशोर पकड़े जा सकते हैं। 

खैर खुदा का,सुरेंद्र जी भूमिगत हो गये।

मेघालय जाकर अपने संबंधी के घर छिप गये।

इस बीच सी.बी.आई.ने सनसनीखेज षड्यंत्र

रचा था।

उसकी योजना थी कि पकड़े जाने पर सुरेंद्र किशोर को यातना देकर यह लिखवा लिया जाए कि वे डायनामाइट खरीदने तथा अन्य विप्लवी कामों के लिए काठमाण्डो स्थित चीनी दूतावास से धनराशि लाते थे।

मगर मंघालय में रहने के कारण अंत तक सुरेंद्र किशोर बचे रहे।

उन दिनों मेघालय में कांग्रेस की नहीं बल्कि आॅल पार्टी हिल्स लीडर्स कांफ्रंेस की सरकार थी।

वहां इमर्जेंसी का अत्याचार नहीं था।सन 1977 के चुनाव में इंदिरा सरकार का पतन हो गया।मोरारजी देसाई प्रधान मंत्री बने। 

डायनामाइट केस को जनता सरकार ने वापस ले लिया।इस तरह हम राजद्रोह और चीन की धनराशि से इंदिरा सरकार को उखाड़ फेंकने के झूठे अभियोग से बच गये।

शुक्र है सुरेंद्र भाई का।’’

 

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मैं खुद गिरफ्तारी से कैसे बचा ?

सी.बी.आई.को मुखबिर से यह पता चला था कि जुलाई, 1975 में जब जार्ज फर्नांडिस पटना आये थे तो सुरेंद्र किशोर उनके साथ था।

(याद रहे कि मैं उन दिनों दिल्ली से प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका ‘‘प्रतिपक्ष’’ का बिहार संवाददाता था।प्रतिपक्ष के प्रधान संपादक जार्ज फर्नांडिस थे।)

साथ ही,यह भी पता चला था कि डा.विनयन और शाहाबाद इलाके के विनयन के साथी ने बड़ौदा से जो डायनामाइट लाया था,उसे सुरेंद्र के आवास में ही रखा गया था।

  दिल्ली से आई सी.बी.आई.की टीम मुख्य मंत्री जगन्नाथ मिश्र के आॅफिस में पहुंची।वहां उसने संयोग से मेरे एक परिचित अफसर से ही मेरे बारे में पूछा।

अफसर ने कहा कि हम सुरेंद्र अकेला को नहीं जानते।

 पर,इस बीच वह अफसर ,जो कर्पूरी ठाकुर के करीबी थे,धीरे से मुख्य मंत्री सचिवालय से निकल गये और अपने मित्र लक्ष्मी साहु के घर पहुंच गये।

कर्पूरी जी के निजी सचिव रहे साहु से कहा कि आप खोजकर सुरेंद्र को जल्द से जल्द बता दीजिए कि वे कहीं छिप जायें।क्योंकि सी.बी.आई.की टीम उन्हें पटना में बेचैनी से खोज रही है।लक्ष्मी साहु ने जक्कनपुर स्थित मेरे आवास पर मुश्किल से जाकर कहा कि आप जिस स्थिति में हैं,तुरंत यहां निकल जाइए।

इस तरह मैं वहां से निकल गया।पटना में थोड़े समय तक  एक घनी आबादी वाले घर में छिपे रहने के बाद मेघालय चला गया जहां के फुलबाड़ी स्थित छोटे बाजार में (गारो हिल्स जिला)मेरे बहनोई कपड़े की दुकान चलाते थे।

  इस तरह मुख्य मंत्री सचिवालय के उस अफसर की मेहरबानी से मैं भी एक बहुत बड़े लांछन से बच गया।

इमर्जेंसी की, मुझसे संबंधित, लंबी रोमांचक कहानियों का यह एक बहुत ही छोटा हिस्सा है।

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27 जून 2024    




     

 


 इसलिए जरूरी है याद करना क्योंकि 

ब्रिटिश शासन से भी अधिक क्रूर

था इंदिरा गांधी का आपातकाल

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सुरेंद्र किशोर

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1.-जीने  तक का अधिकार नहीं

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 भारत के एटार्नी जनरल नीरेन डे ने 15 दिसंबर 1975 को सुप्रीम कोर्ट में पांच न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष कहा था कि  ‘‘यदि शासन आज किसी की जान भी ले ले, तो भी यह अदालत कुछ नहीं कर सकती।’’

  तब के डरे-सहमें  सर्वोच्च अदालत ने नीरेन डे के इस तर्क से सहमति जताते हुए बंदी प्रत्यक्षीकरण के उन मामलों को खारिज कर दिया जो हाईकोर्ट के बाद उसके पास विचारार्थ आए थे।

क्या अंग्रेजों ने अपने शासन काल में भारतीयों के जीने का अधिकार कभी छीना था ?

जवाब है --नहीं।

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2-जयप्रकाश नारायण आजादी की लड़ाई के दिनों लाहौर जेल में थे।

जेपी ने जेल में अपने साथ कैदी डा.लोहिया को रखने की अंग्रेज शासक से मांग की।अंग्रेजों ने उनकी बात मान ली।लोहिया उनके साथ रहे।

  दूसरी ओर, तब क्या हुआ जब आपातकाल में जेपी कैद में थे ?

जेपी ने अपने साथ एक राजनीतिक कैदी रखने की इंदिरा शासन से मांग की।पर,इस मामूली मांग को भी पूरा नहीं किया गया।याद रहे कि कैद के दौरान जेपी की किडनी खराब कर दी गयी या हो गयी ! कोई विश्वस्त साथी रहता तो वह इस बात का ध्यान रखता कि जेपी को खाने-पीने में तब क्या दिया जा रहा था।

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आज कांग्रेसी कह रहे हैं कि एक पुरानी घटना यानी आपात -काल को क्यों याद किया जा रहा है ?

सवाल है कि जब कांग्रेस वीर सावरकर के माफीनामे को आज भी समय समय पर याद कर सकती है तो भाजपा आपातकाल को क्यों नहीं ?

जो काल ब्रिटिश शासन से भी 

अधिक क्रूर था ?

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कांग्रेस अपनी सुविधा के अनुसार कुछ पुरानी घटनाओं को तो खूब याद करती है और कुछ अन्य को भुला देने के लिए कहती है।

कांग्रेस गुजरात दंगे को खूब याद करती है जिसमें 750 अल्पसंख्यक मारे गये थे।किंतु वह कांग्रेस शासन काल में हुए भीषण भागलपुर दंगे को याद नहीं करती जिसमें करीब एक हजार अल्पसंख्यकों की जानें गई थीं।

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गुजरात दंगे के पीछे का उकसावा भयंकर था।जबकि भागलपुर दंगे के पीछे का उकसावा मामूली।

गोधरा में जेहादी भीड़ ने ट्रेन के डिब्बे पर बाहर से पेट्रोल छिड़क कर आग लगा दी जिससे 59 कारसेवक जल मरे थे।

दूसरी ओर, सन 1989 में  भागलपुर के शिला पूजन जुलूस की सुरक्षा में चल रहे एस.पी.की जीप पर मुस्लिम गुंडों ने बम फेंक दिया,उसके कारण दंगा शुरू हो गया था।

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क्या कांग्रेस सन 1984 में दिल्ली में हुए एकतरफा सिख संहार को कभी याद करेगी जिसमें करीब तीन हजार सिख मारे गये थे ?

मरते सिखों को बचाने के लिए राष्ट्रपति जैल सिंह और पत्रकार खुशवंत सिंह प्रधान मंत्री राजीव गांधी को फोन करते रह गये,वे फोन पर नहीं आये थे।

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27 जून 24 




बुधवार, 26 जून 2024

 क्या हो रहा है इस देश में ?!!

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जो तटस्थ हैं,समय लिखेगा,उनका भी अपराध !

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सुरेंद्र किशोर

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14 जुलाई, 2004 को तब के गृह राज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने संसद को बताया था कि पश्चिम बंगाल में घुसपैठियों की संख्या 57 लाख है।

अब आज के बारे में एक अनुमान लगाइए।

पहले की वाम सरकार व बाद की ममता सरकार की मेहरबानियों से आज यह संख्या बढ़कर 

कितनी हो गई होगी !

खबर आती रहती है कि रोज ही बड़ी संख्या में घुसपैठिए घुस रहे हैं।

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भारत एक देश है या धर्मशाला ?

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याद रहे कि कोई मुस्लिम देश बांग्ला देशी व रोहिग्ंया घुसपैठियों में से किसी एक को भी अपने देश में नहीं बसाता।

आखिर क्यों ?

इसलिए कि मुस्लिम देश चाहते हैं कि जिन देशों में अभी इस्लामिक शासन कायम नहीं हो सका है,वहां घुसकर वे वह काम करें।

क्योंकि भारत का प्रशासन भ्रष्ट है तथा वहां के अनेक दलों के नेतागण वोट के लिए घुसपैठियों को भरपूर समर्थन देते हैं। 

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दूसरी ओर, ब्रिटेन में जिन मुस्लिम शरणार्थियों को वहां की सरकार ने कभी बसाया था,उन्हें अब निकाल बाहर किया जा रहा है।क्योंकि वे अब अपने असली धार्मिक स्वरूप में आ गये हैं और ब्रिटेन में इस्लामिक कानून के लिए लड़ रहे हैं।खूब हिंसा हो रही है।

याद रहे कि किसी गैर मुस्लिम देश में मुस्लिम कानून लागू नहीं है।सिर्फ भारत में लागू है।

उन जेहादियों के खिलाफ हाल में ब्रिटेन में मूल वासियों की एक बड़ी जन सभा हुई है जिसमें 7 लाख लोग शामिल हुये।

हाल में यूरोपीय संसद का चुनाव हुआ।

अति दक्षिणपंथी दल जीत गये।

अब यूरोप के मुस्लिम युवक चिंतित हो उठे हैं।क्योंकि उन्हें डर है कि अब यूरोप में ‘‘धर्म निरपेक्ष और खुला लोकतंत्र’’ नहीं मिलेगा।कहा जा रहा है कि जेहादियों की हाल की करतूतों का ही यह नतीजा है कि दक्षिणपंथी दलों को मदद मिल गयी।हालांकि दूसरी ओर भारत के चुनाव में मुस्लिम वोट के अभूतपूर्व एकत्रीकरण के कारण अकेले भाजपा को इस बार बहुमत नहीं मिला।

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   सुप्रीम कोर्ट के वकील अश्विनी उपाध्याय बताते हैं कि सन 2017 तक भारत में 5 करोड़ घुसपैठिए पहुंच चुके थे।

मुस्लिम धर्म प्रचारक डा.जाकिर नाइक को यूट्ब पर हाल में यह कहते मैंने सुना कि अब भारत में हिन्दुओं की आबादी घटकर मात्र 60 प्रतिशत रह गयी है।

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क्या आपने भारत के किसी तथाकथित सेक्युलर दल को घुसपैठियों की बढ़ती संख्या से पैदा हो रही भीषण समस्याओं और वहां से हिन्दुओं के पलायन पर चिंता प्रकट करते देखा-सुना है ?

दूसरी ओर, ममता बनर्जी धमकी देती हैं कि यदि घुसपैठियों को बाहर निकालने की केंद्र सरकार कोशिश करेगी तो खून की नदियां बह जाएंगी।याद रहे कि इन दिनों हिन्दुओं का सर्वाधिक पलायन पश्चिम बंगाल में हो रहा है।

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हालांकि इसी ममता बनर्जी ने 4 अगस्त, 2005 को लोक सभा में यह आरोप लगाया कि तब की वाम मोर्चा सरकार ने 40 लाख बांग्ला देशी मुस्लिम घुसपैठियों को अवैध ढंग से पश्चिम बंगाल में मतदाता बना दिया है।

  ममता ने सदन में इस पर चर्चा की मांग की।

जब उसकी इजाजत नहीं मिली तो ममता ने लोक सभा की सदस्यता से सदन में ही इस्तीफा दे देने की घोषणा कर दी।

उससे पहले इस समस्या पर ममता सदन में ही रो पड़ी थीं।

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पर, जब ममता बनर्जी मुख्य मंत्री बनीं और वही अवैध मुस्लिम मतदातागण ममता के दल को वोट देने लगे तो वह उनके पक्ष में चट्टान की तरह खड़ी हो गईं।

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उससे पहले ज्योति बसु की सरकार पर आरोप लगा था कि सन 1979 में उसने सुंदरवन में शरण लिए करीब 1700 बांग्ला देशी हिन्दू शरणार्थियों की सामूहिक हत्या करवा दी।

(द प्रिंट 11 मई, 2019)

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दूसरी ओर, बांग्ला देशी मुस्लिम घुसपैठियों के प्रति वाम मोर्चा सरकार का वैसा रवैया नहीं रहा।

बल्कि उसे वोट बैंक बनाया गया।

पर,जब मुख्य मंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने कहा कि घुसपैठियों के कारण 7 जिलों में सामान्य प्रशासन चलाना मुश्किल हो गया है तो मुसलमानों ने वाम मोर्चा को छोड़कर ममता का साथ देना शुरू कर दिया।हालांकि सी.पी.एम.के शीर्ष नेताओं ने भट्टाचार्य पर दबाव उाल कर उनका बयान बदलने को बाध्य कर दिया था।पर,वाम फिर भी मुसलमानों के लिए विश्वसनीय नहीं रह गया था।क्योंकि उन्हें तो टोटल समर्पण चाहिए जो उनको ममता सरकार से उपलब्ध है।   

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पी.एफ.आई.सन 2047 तक इस देश को इस्लामिक देश बना देने के लिए हथियारबंद कातिलों के दस्ते बना रहा है।

फुलवारीशरीफ पुलिस जांच में मिले दस्तावेज से यह मालूम हुआ है।पाॅपुलर फं्रट आॅफ इंडिया के राजनीतिक संगठन एस.डी.पी.आई.ने पूरे देश में गत चुनाव में मुख्यतः कांग्रेस को अधिकतर मुस्लिम वोट दिलवा दिया।

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एक समस्या यह भी

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कश्मीर में सन 1990 में जे.एल.एफ.नेता यासिन मलिक ने 5 एयर फोर्स अधिकारियों की सामूहिक हत्या कर दी थी।

 बाद में ‘इंडिया टूडे’ के संवाददाता के साथ बातचीत में मलिक ने स्वीकार किया था कि ‘‘मैंने ही एयरफोर्स अधिकारियों को मारा।क्योंकि वे निर्दोष नहीं थे।’’

   उस हत्याकांड के 34 साल बीत चुके।अब तक यासिन मलिक के खिलाफ केस की सुनवाई ही चल ही रही है।इस बीच तत्कालीन प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह से यासिन मलिक ने मुलाकात कर ली।

जब मनमोहन जी यासिन से मिल रहे थे तो उधर उस घटना में मृतक एयरफोर्स अफसर रवि खन्ना की विधवा का दिल बैठ रहा था।उसने कहा कि सरकार ने हमें धोखा दिया।

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यह रिश्ता क्या कहलाता था ?!

ऐसा रिश्ता देश को मध्य कालीन भारत की ओर तेजी से  ढकेल रहा है।क्या आनेवाली पीढ़ियां हमें माफ करेंगी ?

ऐसी ही घटनाओं को लेकर राष्ट्रकवि रामधारी दिनकर ने लिखा था,

‘‘ समर शेष है,नहीं पाप का भागी केवल व्याध,

जो तटस्थ हैं,समय लिखेगा,उनका भी अपराध।’’

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26 जून 24 



सोमवार, 24 जून 2024

 जिन दलों ने कभी सदन की कार्य संचालन नियमावली व प्रक्रिया तक का पालन नहीं किया,वे अब प्रोटेम स्पीकर की बहाली में भी संसदीय परंपरा का पालन चाहते हैं

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सुरेंद्र किशोर

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 लोक सभा में आसन की मामूली अवमानना करने के कारण सन 1966 में तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी को स्पीकर सरदार हुकुम सिंह के समक्ष खेद प्रकट करना पड़ा था।

  यह घटना 24 मार्च, 1966 की है।

यह खबर 25 मार्च 1966 के अखबारों में छपी थी।

  उस दिन जब स्पीकर खड़ा होकर बोल रहे थे,तभी प्रधान मंत्री श्रीमती गांधी अचानक सदन से बाहर निकल गईं।

याद रहे कि नियमतः जब स्पीकर बोल रहे हों तो कोई सदस्य या मंत्री सदन से बाहर नहीं जा सकता।

  इस नियम का पता इंदिरा गांधी को नहीं था।

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दरअसल ‘‘वंशानुगत अधिकारों’’ के तहत जब किसी को कोई पद मिल जाता है तो पद धारक सामान्यतः कुछ सीखने की जरूरत नहीं समझता।

  याद रहे कि दो साल तक केंद्रीय सूचना-प्रसारण मंत्री रह चुकने के बावजूद इंदिरा गांधी नहीं समझ पाई थीं सदन की कार्य संचालन नियमावली व प्रक्रिया या सदन की परंपरा।

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फिर भी कुल मिलाकर वे दिन कुछ और ही थे।

तब प्रधान मंत्री को भी नियमों के समक्ष झुकना पड़ता था।

तब संसदीय परंपराओं का भी आम तौर से पालन होता था।

पर,पिछले दस साल में इस देश के प्रतिपक्षी दलों ने संसद के संचालन के सिलसिले में संबंधित नियमों और परंपराओं का कितना पालन किया ?

आए दिन सदन की बैठक हंगामे और शोरगल से शुरू होती थी और अपवादस्वरूप कुछ अवसरों को छोड़कर अंत तक अराजकता ही बनी रहती थी।

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इस बार तो सदन में प्रतिपक्षी दलों की संख्या और भी बढ़ गयी है।मनोबल भी।

इसीलिए हंगामों के अलावा ‘‘कुछ अधिक’’ की ही उम्मीद करिए।

वैसे भी मूल बात यह है कि जब तक शीर्ष प्रतिपक्षी नेताओं के खिलाफ मुकदमे चलते रहेंगे,तब तक सदन में भी शांति की उम्मीद मत कीजिए।जांच एजेंसियों की ओर से मुकदमों में नरमी का कोई संकेत भी नहीं है।नरेंद्र मोदी की अपनी ही शैली है।वे अपनी शैली से समझौता करेंगे तो कल होकर वे ‘‘नरेंद्र मोदी’’ नहीं रहेंगे।वे खुद भी इस बात को जानते हैं।इसीलिए मुकदमों में नरमी का सवाल कहां उठता है ?

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वैसे मनमोहन सिंह के शासन काल में भी संदनों की कार्यवाही आदर्श नहीं रही।

क्योंकि लोक सभा में तब की भाजपा नेत्री सुषमा स्वराज और राज्य सभा में भाजपा नेता अरुण जेटली की राय हंगामे और अवरोध के पक्ष में ही थी।

याद रहे कि 30 जनवरी 2011 को अरुण जेटली ने रांची में कहा था कि ‘‘संसद की कार्यवाही में बाधा डालना लोकतंत्र के पक्ष में है।इसलिए संसदीय बाधा अलोकतांत्रिक नहीं है।’’

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जब इस देश की राजनीति के पक्ष- विपक्ष का यह हाल है तब तो आगे भी देश के शांतिप्रिय लोगों के लिए यह तय करना मुश्किल ही बना रहेगा कि पार्लियामेंट और विधान सभाओं की बैठकों के दौरान अधिक अराजकता व अशिष्टता होती है या निजी टी.वी.चैनलों के डिबेट्स में अधिक होती है ? 

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इस देश की राजनीति की दोहरे मापदंड का हाल यह है कि जो राजनीतिक दल जहां सत्ता में हैं,वे सदन में वहां शांति चाहते हैं।पर,वही दल जहां प्रतिपक्ष में हैं,वहां सदन की कार्यवाहियों को बेशर्मी से बाधित करते रहते हैं।

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24 जून 24 


गुरुवार, 20 जून 2024

 चलो गांव की ओर

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सुरेंद्र किशोर

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इस साल जितनी गर्मी है,अगले साल उससे कम होगी,इसकी कल्पना मत कीजिए।

बल्कि बढ़ ही सकती है।

क्योंकि सरकारें पर्यावरण संतुलित करने और मौसम की गर्मी उतारने के लिए जितना खर्च करती हैं,उसमें से अधिकांश भ्रष्ट लोग लूट लेते हैं।आने वाले दिनों में नहीं लूटेंगे,इसकी कोई गारंटंी नहीं।

इसलिए हम खुद ही कुछ उपाय करें,जितना कर सकते हैं।

वह उपाय नगरों में संभव नहीं।

एक उपाय है--चलो गांव की ओर।

मैने अपने गांव की ओर अपने कदम बढ़ा दिए है।

इसीलिए दूसरों से यह बात कहने का अधिकारी बन गया हूं।

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नगरों और महानगरों से थोड़ा दूर या पास के गावंों में कुछ जमीन खरीदिए।उसमें फलदार पेड़ लगाइए।

साथ में बरगद़,पीपल और नीम भी।

जमीन में बीचोंबीच छोटा सा अपना मकान हो।

अब भी जिनकी पुश्तैनी जमीन गांव में उपलब्ध है,उसे बेचने के बारे में मत सोचिए।

सेवानिवृत होने के बाद कंक्रीट के महा जंगल से निकल कर कुछ महीने वहां बिताइए।

नगर में ए.सी.बहुत काम नहीं आएगी।ए.सी. में जहां -तहां विस्फोट की भी खबरें आ रही हैं।

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हाल में मनीष सिंह परमार ने लिखा है

कि गत 68 साल में पीपल,बरगद और नीम के पेड़ों को

सरकारी स्तर पर लगाना बंद किया गया है।

,पीपल कार्बन डाइ आॅक्साइड का 100 प्रतिशत सोंख लेता

है।

बरगद 80 प्रतिशत और नीम 75 प्रतिशत।

यदि 500 मीटर की दूरी पर पीपल का पेड़ लगायें तो आने वाले कुछ साल बाद भारत प्रदूषणमुक्त होगा।

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बरगद एक लगाइये,पीपल रोपें पांच,

घर-घर नीम लगाइये,यही पुरातन सांच।

यही पुरातन सांच,आज सब मान रहे हैं,

भाग जाये प्रदूषण सभी अब जान रहे हैं।

विश्वताप मिट जाये,होय हर जन मन गदगद,

धरती पर त्रिदेव हैं,नीम पीपल और बरगद।

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मनीष जी ने जो नहीं लिखा है,वह मैं लिख रहा हूं

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आजादी के तत्काल बाद की हमारी सेक्युलर सरकार ने

संभवतः यह सोचा होगा कि हम सरकारी खरचे  

पर त्रिदेव की पूजा करने के लिए ऐसे पेड़ क्यों लगाये ?

इससे धर्मांधता बढ़ेगी।

क्या यह बात सच है ?

याद रहे कि पीपल की पूजा करती महिलाओं और जल चढ़ाते पुरुषों को आप आज भी देख सकते हैं।

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19 जून 24

ं 


सोमवार, 17 जून 2024

 ‘पितृ दिवस’ के अवसर पर 

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बिन मांगे मोती मिले,मांगे मिले ना भीख !

(संदर्भ पद्मश्री सम्मान)

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काम के प्रति यदि एकाग्र निष्ठा हो तो बड़ी सफलता

 के लिए भी कमजोर पृष्ठभूमि बाधक नहीं

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सुरेंद्र किशोर

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  महत्वपूर्ण बात यह नहीं है कि आपने कितनी बड़ी उपलब्धि हासिल की हैं,बल्कि मेरी समझ से यह अधिक 

महत्वपूर्ण है कि आप कहां से उठकर कहां तक पहुंचे हैं।

    पटना के जिलाधिकारी शीर्षत कपिल अशोक ने परसों राष्ट्रपति प्रदत्त पद्मश्री सम्मान मेरे आवास पर आकर मुझे सौंपा ।

 कुुछ ही घंटों बाद यानी आज ‘‘पितृ दिवस’’ आ गया। 

  ऐसे अवसर पर यह बताना जरूरी है कि मेरे किसान पिता ने परिवार की नई पीढ़ी को शिक्षा का महत्व ठीक ढंग से समझाया था।

उन्होंने हर तरह का सहयोग दिया।जबकि खुद सिर्फ साक्षर थे।कोई स्कूली शिक्षा नहीं हुई थीं।

पर, उन्होंने समाज में सम्मान पाने के लिए हमारी शिक्षा को जरूरी समझा।कहते थे कि तुम लोगों को कहीं झगड़ा-झंझट में नहीं फंसना है।

‘‘आन-बान शान’’ वाली सामाजिक पृष्ठभूमि हमें कई बार उस ओर खींचती है। उस पृष्ठभूमि को शिक्षा में बाधक नहीं बनने देना है।

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मुझसे पहले मेंरे परिवार में किसी ने मैट्रिक तक पास नहीं किया था।

घर में कोई अखबार तक नहीं आता था।हमारे घर में सिर्फ रामचरित मानस,शुकसागर और आल्हा -ऊदल किताबें थीं।कोर्स के अलावा,अन्य कोई पठन सामग्री नहीं थी।

खरीदने के लिए पैसे नहीं थे।

मैं किताबों के लिए तरस जाता था।

पिता ने परिवार में शिक्षा जो बीजारोपण किया,वह अब फल-फूल रहा है।

आज मेरे परिवार के एक से अधिक सदस्य अब अपने -अपने क्षेत्रों में प्रादेशिक -राष्ट्रीय स्तर पर जाने जाते हैं।

मेरे बचपन में हमारी खेती-बारी तो अच्छी थी,पर कोई ऊपरी आय नहीं थी।खेतिहरों की हालत आज भी लगभग वही है।

आजादी के बाद केंद्र सरकार ने यदि पब्लिक सेक्टर की अपेक्षा सिंचाई का प्रबंध करके खेती के विकास पर अधिक

ध्यान दिया होता तो रोजगार के भी अवसर बढ़ते।

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शहर में रखकर दो पुत्रों को काॅलेज में पढ़ानें के लिए जमीन बेचनी जरूरी थी।

उसमें बाबू जी ने कभी कोई हिचक नहीं दिखाई।

तब स्थानीय मुखिया ने जब एक बार बाबू जी कहा था कि ‘आप सोना जैसी जमीन बेचकर लड़कंों को पढ़ा रहे हैं,पर पढ़-लिखकर वे आपको पूछेंगे भी नहीं।शहर में जाकर बस जाएंगे।’’

बाबू जी ने जवाब दिया --‘‘तोरा ने इ बात बूझाई।सोना जइसन जमीन बेच के हीरा गढ़त बानी।ने पूछिहन स, तबो कवनो बात नइखे,हमरा खाए-पिए कवन कमी बा !?’’

  खाने -पीने की तो कोई कमी नहीं थी,पर कई जरूरी व बुनियादी खर्चे पूरे नहीं हो पाते थे।एक मकई का बाल ले जाकर देने पर दुकानदार एक दियासलाई दे देता था।

 हाईस्कूल की पढ़ाई तक मेरे पैरों में चप्पल तक नहीं होती थी।उसी अनुपात में अन्य तरह के अभाव भीं।कुर्सी-टेबुंल तो हमारे लिए लक्जरी थी।

काॅलेज जाना शुरू करने के बाद ही जूता-चप्पल का  

प्रबंध हो सका।तीन किलोमीटर रोज पैदल चलकर हम लोग गांव से दिघवारा स्कूल जाते थे।मेरा छोटा भाई नागेंद्र मुझसे एक साल जूनियर था।

सन 1961 में मेरे लिए 98 रुपए में एवन साइकिल खरीदी गयी।वह भारी उपलब्धि मानी गयी थी।

मेरे पास के गांव में तब तक सिर्फ अपर प्राइमरी स्कूल ही था। 

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पर,अभाव ग्रस्त पृष्ठभूमि के बावजूद हमने शुरू से आज तक जो भी काम किया,एकाग्र निष्ठा से किया।

आप जो भी अच्छा-बुरा काम करते हैं,वह किसी से छिपा नहीं रहता है।

पूर्वाग्रह विहीन व होशियार लोग तुलनात्मक आकलन करके आपके बारे में ठोस राय बना लेते हैं।

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 पद्म सम्मान के लिए मैंने किसी से कभी कोई आग्रह नहीं किया।

 यह ऐसा सम्मान है जिसके लिए कोई अन्य व्यक्ति भी हर साल 15 सितंबर से पहले आपका नाम भारत सरकार को भेज सकते हैं।

 उसके साथ आपके व्यक्तिगत गुणों व उपलब्धियों विवरण  होना चाहिए।

  उसके बाद भारत सरकार आपके बारे में अनेक सरकारी और गैर सरकारी स्त्रोतों से पता लगवाती है।

यदि आप उस कसौटी पर खरे उतरते हैं,तो वह सम्मान आपको मिलेगा ही।

  बहुत पहले एक मित्र ने मुझसे कहा था कि मैंने आपका नाम पद्म सम्मान के लिए भेजा है।

 तब मैं मुस्कराकर रहा गया था।

न हां कहा और न ही ना।

मुझे लगा था कि मुझे सरकार भला क्यों देगी !

मैं खुद इस बारे में आश्वस्त नहीं था कि मैं इसके काबिल हूं भी या नहीं।

  लगे हाथ बता दूं कि संपादक बनने के करीब आधा दर्जन आॅफर के बावजूद मैंने वह पद कभी स्वीकार नहीं किया। क्योंकि मैं समझता हूं कि मैं उस पद के ‘लायक’ नहीं हूं।

 खैर,पद्म सम्मान के नामों के चयन का समय आने पर मैंने पाया कि मौजूदा प्रधान मंत्री कार्यकाल में चयन की शैली अब बिलुकल बदल गयी है।

अब अनेक उम्मीदवारों की योग्यता-क्षमता-उपलब्धियों को अनेक कसौटियों परं कसा जाता है।कोई पैरवी नहीं चलती।

इसीलिए इस साल भी पद्म सम्मानित लोगों की सूची देखकर आपको लगा होगा कि आपने पहले उनके नाम नहीं सुने थे।

  क्योंकि वे प्रचार से दूर रहकर सरजमीनी स्तर पर अपने ढंग के अनोखे काम कर रहे हैं ताकि लोगों का कल्याण हो।

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ऐसे अवसर पर मैंने बाबू जी की दूरदृष्टि के महत्व को एक बार फिर समझा।

क्योंकि पुश्तैनी जमीन बेचकर बच्चों को पढ़ाना किसी किसान के लिए बहुत बड़ी बात होती है।मेरी जानकारी के अनुसार हमारे यहां तो ऐसा कोई करता नहीं था।यदि हमारी जमीन नहीं बिकती तो हमलोग अधिक से अधिक मैट्रिकुलेट बनकर रह गये होते।

बता दूं कि अपर प्राइमरी स्कूल,खानपुर में पढ़ते समय मैं क्लास रूम में बिछाने के लिए रोज अपना बोरा अपने साथ ले जाया करता था।

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इधर हाल में कहीं पढ़ा कि कर्पूरी ठाकुर जब सी.एम.काॅलेज,दरभंगा में पढ़ते थे तो वे नंगे पैर ही काॅलेज जाते थे। 

यानी, कोई जूता -चप्पल नहीं।

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किसी जानकार व्यक्ति ने मुझे बताया कि बिहार से काम कर रहे किसी बिहारी पत्रकार को पहली बार पद्म श्री सम्मान मिला है और वह आपको मिला है।

यदि यह बात सच है तो उसके साथ यह भी जोड़ा जाना चाहिए कि एक किसान परिवार के सदस्य को मिला है जो कभी ं नंगे पांवं स्कूल जाता था।

कड़ी धूप में कच्ची सड़क से स्कूल से लौटते समय गर्म धूल से बचने के लिए वह छात्र किनारे की घास की ठंडी पड़त ढूंढ़ता रहता था।कभी मिलता था और कभी नहीं मिलता था।  

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16 जून 24

  


 

   


गुरुवार, 13 जून 2024

 नेहरू और मोदी की तुलना करने से पहले 

रजनीकांत पुराणिक की पुस्तक ‘‘नेहरू’ज

97 मेजर ब्लंडर्स’’ पढ़ लीजिए।

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सुरेंद्र किशोर

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एक काल्पनिक कहानी।

एक किसान के पास 100 एकड़ जमीन थी।

कुप्रबंधन और ऐयाशी के कारण उस किसान ने 100 में से 85 एकड़ जमीन बेच दी।

किसान के बेटे ने अपने पिता को घर से निकाल दिया।

(राजनीति में ऐसा नहीं होता।इस देश के दुर्भाग्य का यही मुख्य कारण है।)

नतीजतन 15 एकड़ जमीन बच गयी।उसमें बेहतर प्रबंधन के जरिए बेटे ने बाद में तरक्की कर ली।

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सन 1985 में तब के प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि हम दिल्ली से 100 पैसे भेजते हैं,पर उसमें से 15 पैसे ही गांवों तक पहुंच पाते हैं।

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अब सवाल है कि आजादी के तत्काल बाद से ही 85 प्रतिशत की लूट कौन करता था ?

कौन लूट की छूट देता था ?

इसका जवाब 

राजीव गांधी ने नहीं दिया।

पर,जाहिर है कि राजीव के पहले जो -जो नेता प्रधान मंत्री पद पर थे,उन्होंने ही अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई।लूट की छूट दी।

जीप घोटाले से शुरुआत हुई।

भारत में लूट की छूट सरकार की ओर से ही क्यों दी गई ,उसका जवाब लेखक पाॅल आर.ब्रास ने अपनी किताब में दिया है।

अमरीकी समाजशास्त्री पाॅल आर. ब्रास ने सन् 1966 में ही यह लिख दिया था कि 

‘‘भारत में भीषण भ्रष्टाचार की शुरूआत आजादी के बाद के सत्ताधारी नेताओं 

ने ही कर दी थी।’’

उससे पहले ब्रास ने उत्तर प्रदेश में रह कर भ्रष्टाचार की समस्या का गहन अध्ययन किया था।

आज देश में सरकारी -गैर सरकारी भ्रष्टाचारों के अपार मामलों को देखते हुए यह लगता है कि यदि ब्रास ने बिहार का अध्ययन किया होता तो यहां भी  वह उसी नतीजे पर पहुंचते।

याद रहे कि इन बीमारू प्रदेशों के कई बड़े नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगते रहे हैं।

  इस अध्ययन के बाद लिखी गयी  अपनी किताब ‘‘ फैक्सनल पाॅलिटिक्स इन एन इंडियन स्टेट: दी कांग्रेस पार्टी इन उत्तर प्रदेश ’’ में वाशिंगटन विश्व विद्यालय के समाजशास्त्र के प्रोफेसर  ब्रास ने लिखा कि ‘‘कांग्रेसी मंत्रियों द्वारा अपने अनुचरों को आर्थिक लाभ द्वारा पुरस्कृत करना गुटबंदी को स्थायी बनाने का सबसे सबल साधन है।’’ अपने शोध कार्य के सिलसिले में ब्रास ने उत्तर प्रदेश के दो सौ कांग्रेसी और गैर कांग्रेसी नेताओं और पत्रकारों से लंबी बातचीत की थी।

  ध्यान रहे कि आजादी के बाद उत्तर प्रदेश और बिहार सहित कई राज्यों के कांग्रेस संगठनों और सरकारों में गुटबंदी तेज हो गयी थी।हालांकि थोड़ी -बहुत गुटबंदी पहले से भी थी।

 अपने विस्तृत अध्ययन के बाद ब्रास ने यह पाया कि ‘‘जिलों में अधिकार और पुरस्कार बांटने के महत्वपूर्ण विभाग हैं गृह ,शिक्षा , सहकारिता  और उद्योग विभाग।

  मौका पर मिलने पर होम मिनिस्ट्री के जरिए विरोधी गुट के नेताओं को सबक सिखाया जाता है।अपने लोगों को फायदा देने के लिए शिक्षा विभाग सबसे अधिक सशक्त विभाग है।

विश्व विद्यालय और निजी शिक्षण संस्थानांें पर शिक्षा मंत्री का नियंत्रण रहता है।

उनकी आर्थिक सहायता और सैकड़ों विद्यार्थियों की छात्रवृत्ति उन्हीं की कृपा दृष्टि पर निर्भर करती है।

यू.पी. के हर जिले में अलग -अलग गुट के नेताओं ने अपनी -अपनी शिक्षण संस्थाएं स्थापित कर ली हैं।इस प्रकार उन्हें व्यवस्थापकों और छात्रों का बना -बनाया संगठन मिल जाता है।’’

पाॅल ने लिखा कि दो विरोधी गुटों के मंत्रियों की हमेशा चेष्टा रहती है कि वह किस प्रकार एक जिले में अपने समर्थकों को मजबूत और अपने प्रतिद्वंद्वियों को कमजोर कर सकें।

 इस चेष्टा को सफल बनाने के लिए समय -समय पर मंत्रियों के सरकारी दौरे सहायक सिद्ध होते हैं।परिणामस्वरूप कई बार जिलों में प्रशासनिक अधिकारी भी गुटबंदी से ग्रसित हो जाते हैं।इसका प्रशासन तंत्र पर प्रतिकूल असर पड़ता है।’’

पाॅल ब्रास का अध्ययन काफी पुराना है।

पर यह बात पुरानी नहीं है कि भ्रष्टाचार के आरोपियों को  सजा देने-दिलाने  में इस देश में आजादी के बाद से ही शासन का ढीला-ढाला रवैया रहा है।

नतीजतन हर स्तर के भ्रष्ट लोंगों का मनोबल समय बीतने के साथ बढ़ता चला गया, साथ ही लूट के माल के आकार-प्रकार में भी बेशुमार वृद्धि होती चली गयी।

  नतीजतन आज के अनेक नेतागण  और उनके परिजन अरबों से खेल रहे हैं।

पर जब कार्रवाई होती है तो वे सामाजिक न्याय और धर्म निरपेक्षता के मंत्र का जोर -जोर से जाप करने लगते हैं।



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दूसरी ओर, इस बात का पता लगाइए कि भारत सरकार का कुल राजस्व सन 2013-14 वित्तीय वर्ष में कितना था ?

2023-24 में कितना हुआ ?

गुगल गुरु से मदद लीजिए।

क्या शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार आज भी उतना ही है जितना मनमोहन सिंह के शासन काल में था ?

यह कह सकता हूं कि निचले स्तर पर भ्रष्टाचार में मोदी राज में भी कोई कमी नहीं आई है।

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सन 1963 में ही तत्कालीन कांग्रेस  अध्यक्ष डी.संजीवैया को  इन्दौर के अपने भाषण में यह कहना पड़ा  कि ‘‘वे कांग्रेसी जो 1947 में भिखारी थे, वे आज करोड़पति बन बैठे।( 1963 के एक करोड़ की कीमत आज कितनी होगी ?)

गुस्से में बोलते हुए कांग्रेस अध्यक्ष ने  यह भी कहा था कि ‘‘झोपड़ियों का स्थान शाही महलों ने और कैदखानों का स्थान कारखानों ने ले लिया है।’’ 

  नेहरू सरकार के वित मंत्री रहे सी.डी.देशमुख ने नेहरू को सलाह दी थी कि सरकार में जारी भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए उच्चाधिकार प्राप्त ट्रिब्यूल गठित कीजिए।

नेहरू ने यह कह कर मांग ठुकरा दी कि उससे प्रशासन में पस्तहिम्मती आएगी।(पुराणिक की पुस्तक का पेज नंबर-209 ) 

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13 जून 24

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पुनश्चः-- श्री पुराणिक की पुस्तक को पुस्तक महल ने प्रकाशित किया है। उम्मीद है कि इसका हिन्दी संस्करण भी उपलब्ध होगा।

    




 


 


   न्यूटन का तीसरा नियम अब चुनावी 

  राजनीति में भी लागू होने लगा है। 

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सुरेंद्र किशोर

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यह कितनी बड़ी विडंबना है कि आप जिसे हराने के लिए लामबंद होकर वोट करते हैं,बाद में उसी से मंत्रिपरिषद में हिस्सेदारी की मांग करते हैं।

   ----अमिताभ अग्निहोत्री

         वरिष्ठ टी.वी.पत्रकार,

 दैनिक जागरण,12 जून 24

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अब लामबंदी पर न्यूटन के तीसरे नियम का इस्तेमाल हो रहा है।

यानी, हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है।

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कर्नाटका और तेलांगना में गत साल विधान सभाओं के चुनाव हुए।

 कर्नाटका में अधिकतर मुसलमान मतदाताओं ने जेडी एस को छोड़ कर कांग्रेस के पक्ष में एकमुश्त मतदान किया।

तेलांगना में मुसलमानों ने सत्ताधारी बी.आर.एस.को छोड़कर कांग्रेस को एकमुश्त मतदान किया।

नतीजतन दोनों राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बन गयीं।

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उसकी प्रतिक्रिया हुई।

लोक सभा के ताजा चुनाव में कुछ राज्यों में गैर मुस्लिम मतों की भाजपा के पक्ष में लामबंदी हो गयी।नतीजतन,

कर्नाटका में भाजपा-जेडीएस गठबंधन को लोस की 19 सीटें मिलीं।कांग्रेस को सिर्फ नौ सीटें हासिल हुईं।

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तेलांगना में भाजपा और कांग्रेस को 8-8 सीटें मिलीं।

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संकेत हैं कि भविष्य में भी एक पक्ष की लामबंदी की क्रिया की 

प्रतिक्रिया भी हो सकती है।

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हालांकि यह सब नहीं होना चाहिए।

पर, इस उपदेश का उनके लिए कोई मतलब नहीं जो सरकार के अच्छे कामों के आधार पर नहीं बल्कि अपने किसी अन्य ‘‘लक्ष्य’’ को ध्यान में रखते हुए वोट करते हैं।

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12 जून 24

   


मंगलवार, 11 जून 2024

  यह मत कहो कि भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना है

बल्कि यह कहो कि इसे इस्लामिक देश बनने से रोकना है

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    सुरेंद्र किशोर

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किसी को यह नहीं कहना चाहिए कि भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना है,बल्कि उसकी जगह यह कहना चाहिए कि भारत के इस्लामिक देश बन जाने से रोकना है।

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  सेक्युलर दलों और उनके सहयोगी बुद्धिजीवियों को छोड़कर सब जानते हैं कि प्रतिबंधित जेहादी संगठन पाॅपुलर फं्रट आॅफ इंडिया तथा कुछ अन्य ‘‘इस्लामिक भारत’’ बनाने के लिए बड़े पैमाने पर कातिलों के हथियारबंद दस्ते तैयार कर रहे हैं।पुलिस जांच में इसके सबूत मिले हैं।

यहां तक कि कुछ साल पहले केरल के डी.जी.पी.ने पी.एफ.आई.पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश अपनी राज्य सरकार से की थी।किंतु वोट लोलुप सी.पी.एम.सरकार ने डी.जी.पी.की बात नहीं मानी।

अब पी.एफ.आई.और उसकेे राजनीतिक संगठन एस.डी.पी.आई.ने  केरल में सी.पी.एम.को छोड़कर कांग्रेस को मदद करना शुरू कर दिया है।

  कुछ राजनीतिक दल, जो राज्यों में सत्ता में हैं ,बांग्लादेशियों और रोहिंग्या को बड़े पैमाने पर भारत में प्रवेश दिलाकर उन्हें बसा रहे हैं और इस तरह पी.एफ.आई.का काम आसान कर रहे हैं।उसके बदले उन्हें पी.एफ.आई.से हाल के चुनाव में बड़ा उपहार मिला है--यानी मुस्लिम मतों का कुछ और अधिक एकत्रीकरण हुआ है।(हालांकि इस देश के शांतिप्रिय मुस्लिम पी.एफ.आई.से सहमत नहीं है।पी.एफ.आई. को इस बात का दुख है कि हमारे साथ 10 प्रतिशत मुसलमान भी नहीं हैं।) 

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तकलीफ की बात है कि राजग में शामिल कुछ तथाकथित सेक्युलर दल भी इस्लामीकरण की गंभीर कोशिश के खतरे की गम्भीरता को नहीं समझ पा रहे हंै।जेहादी स्लीपर सेल की खबर छापने पर एक सेक्युलर मुख्य मंत्री ने कुछ साल पहले एक पत्रकार की हल्की झिड़की दी थी।

जबकि उनको उस खबर से खुश होना चाहिए था।कार्रवाई करनी चाहिए थी।

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केंद्र सरकार के विभागों के वितरण से यह साफ हुआ है कि सहयोगी दलों से भाजपा यह उम्मीद कर रही है कि वे अपने राज्य के विकास पर अधिक ध्यान दें।

केंद्र के जो मुख्य काम हैं--मुख्यतःभ्रष्टाचारियों और जेहादियों के खिलाफ समझौतारहित कार्रवाई ---उन्हें केंद्र सरकार को करने की पूरी छूट दें।

उसमें धर्मनिरपेक्षता के नाम पर बाधा न पहुंचायें।

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संकेत हैं कि अब नीतीश कुमार को बिहार सरकार चलाने की पूरी छूट मिलेगी।जैसी छूट उन्हें 2005-13 में थी।

पिछले कुछ वर्षों में सहयोगी दलों के कुछ नेतागण जिस तरह नीतीश को अपने बयानों व कर्माें से परेशान कर रहे थे,वे अब वैसा नहीं करेंगे।लगता है कि भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने उसका इंतजाम कर दिया है।

भाजपा ने कह दिया है कि 2025 के बिहार विधान सभा चुनाव में भी नीतीश के नाम पर राजग चुनाव लड़ेगा।

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उधर टी.डी.पी.को आंध्र विधान सभा में अपना ही बहुमत है।पर राजधानी अमरावती बनाने के बड़े काम तथा अन्य कामों के लिए नायडु को केंद्रीय सहायता पर निर्भर रहना पडे़गा।इसलिए उम्मीद है कि टी.डी.पी.भी शांति बनाये रखेगा।

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अटल बिहारी वाजपेयी वाला जमाना अब नहीं है,भले आज भी मिलीजुली सरकार है।

 तब सहयोगी दलों को रेलवे और संचार जैसे महत्वपूर्ण विभाग मिला करते थे।देने पड़ते थे।

रात विलास पासवान ने तो पहले रेलवे और बाद में संचार मंत्रालय छिन जाने के कारण 2004 के चुनाव में वाजपेयी सरकार को अपदस्थ करा दिया था।अब वैसा राजनीतिक समीकरण भी नहीं है।

 हालांकि वाजपेयी सरकार के अपदस्थ होने में द्रमुक का भी हाथ था जिसे छोड़ कर राजग ने जय ललिता को राजग में शामिल कर लिया था।

यानी, सबको पुराने अनुभवों से अब सीखना है।

एक बात तय मानिए।

संकेत हैं कि मोदी सरकार भ्रष्टाचारियों और जेहादियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने में कोई ढिलाई  नहीं करेगी।

ढिलाई करेगी तो यह देश नहीं बचेगा।

याद रहे भाजपा ‘इंडिया फस्र्ट’ वाली पार्टी है।और मोदी दूसरी ही मिट्टी का बना हुआ है।

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11 जून 24  


सोमवार, 10 जून 2024

 इंडिया गठबंधन को सत्ता में आने से रोककर

यह देश भारी विपत्ति से बच गया !

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‘‘सी.बी.आई.-इ.डी. बंद होने चाहिए’’

----सपा नेता अखिलेश यादव

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इंडियन एक्सप्रेस --क्या इंडिया गठबंधन की सरकार दूरगामी परिणाम वाला ऐसा कदम उठाएगी ?

अखिलेश यादव--यह मेरा प्रस्ताव है।मैं इंडिया गठबंधन के समक्ष रखूंगा।

----इंडियन एक्सप्रेस -19 मई 2024

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सुरेंद्र किशोर

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कल्पना कीजिए कि गत लोक सभा चुनाव के बाद देश में ‘‘इंडिया गठबंधन’’ की सरकार बन गयी होती !

फिर क्या होता ?

सपा नेता अखिलेश यादव सी.बी.आई.-ई.डी.की समाप्ति का प्रस्ताव गठबंधन सरकार के सामने रखते।

सी.बी.आई.-ई.डी.से परेशान नेताओं से भरे इंडिया गठबंधन

का नेतृत्व सपा नेता के इस प्रस्ताव को मंजूर करता या नामंजूर ?

कांग्रेस के पिछले इतिहास को ध्यान में रखें तो यह कहा जा सकता है कि मंजूर कर लेता।चाहे बाद में उसका जो नतीजा होता।

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सी.बी.आई.--ई.डी.की अनुपस्थिति में इस देश के घोटालेबाज लोग सार्वजनिक संपत्ति के साथ कैसा सलूक करते ?

अब तक कैसा सलूक करते रहे हैं ?

जिन नेताओं पर सी.बी.आई.-ई.डी.घोटाले के मुकदमे चला रहे हैं , उन घोटालेबाजोें को अदालतंे आम तौर पर कोई राहत नहीं दे रही है।क्योंकि सबूत ठोस हैं।

वैसे भी कांग्रेस का तो अदालतों को भी निष्क्रिय कर देने का इतिहास है। 

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अखिलेश यादव की उपर्युक्त टिप्पणी 19 मई 2024 के अखबार में छपी थी।

यानी, अखिलेश यादव की मंशा जान लेने के बावजूद उत्तर प्रदेश के मतदाताओं के एक बड़े हिस्से ने सपा को भारी विजय दिलाई।

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शुक्र है कि राजग को बहुमत मिल गया और मोदी प्रधान मंत्री बन गये।

 नहीं बने होते तो कल्पना कीजिए इंडिया गठबंधन वाले नेता लोग इस देश के साथ कैसा सलूक करते ?!

यानी, यह देश भारी विपत्ति से फिलहाल बच गया।

वैसे बिल्ली अब भी दरवाजे के पास छिपकर घर वालों के लापारवाह होने की प्रतीक्षा कर रही है ताकि दूध पी सके।

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सिर्फ दो नमूने

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आपातकाल में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की सरकार ने एक विधेयक तैयार किया था।उसमें यह प्रावधान किया गया था कि प्रधान मंत्री और लोक सभा के स्पीकर के खिलाफ सामान्य अदालतों में मुकदमा नहीं चलेगा।

उसके लिए ़िट्रब्यूनल बनेगा।उसे संसद से पास करवाना था।पर,बाद में कुछ कारणवश विचार बदल गया और उसे पास नहीं करवाया गया।

पर मानसिकता तो देखिए। 

यू.पी.में जब सपा की सरकार थी तो उसने उन जेहादियों के खिलाफ जारी मुकदमों को उठा लिया था जिन पर धारावाहिक विस्फोट करके अनेक लोगों की हत्या करने का आरोप था।यह और बात है कि हाईकोर्ट ने सपा सरकार के उस आदेश का खारिज करके मुकदमा चलवाया और कई जेहादियों को फांसी की सजा हुई।

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 इलाहाबाद हाईकोर्ट ने चुनाव कानून की दो धाराओं के उलंघन के आरोप में इंदिरा गांधी की लोक सभा की सदस्यता 12 जून 1975 को रद कर दी।

उसके बाद इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगा दी।देश को खुले जेलखाने में बदल दिया।

शीर्ष अदालत तक को पालतू बना लिया गया।

जन प्रतिनिधित्व कानून की उन धाराओं को संसद से बदलवा  दिया गया जिनके उलंघन के आरोप में इंदिरा गंांधी की सदस्यता गयी थी।उस संशोधन को पिछली तारीख से लागू करा दिया।डरे हुए सुप्रीम कोर्ट ने उन संशोधनों को मान लिया।आम तौर से कानून पिछली तारीख से लागू नहीं किये जाते।

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10 जून 24 



 संकेत हैं कि नरेंद्र मोदी प्रतिपक्षी नेताओं के खिलाफ जारी मुकदमों में कोई राहत देंगे नहीं।

फिर सत्ता और प्रतिपक्ष में सामान्य सबंध 

का सवाल ही नहीं उठता !

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सुरेंद्र किशोर

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नई सरकार के गठन के बाद यह  

सवाल उठ रहा है कि नरेंद्र मोदी के अगले कार्यकाल (2024-29)में प्रतिपक्ष से सत्ता पक्ष का संबंध सामान्य हो पाएगा या नहीं ?

   मुझे तो इसकी कोई उम्मीद नहीं लगती।

संकेत हैं कि

पहले की ही तरह प्रतिपक्ष संसद को चलने नहीं देगा।

संसद के बाहर कुछ प्रतिपक्षी नेतागण 

अपमानजनक बयानबाजियां करते रहेंगे।

साथ ही, मानहानि के मुकदमे भी झेलते रहेंगे।

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कुछ लोग सवाल उठाते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार से प्रतिपक्ष का संबंध सामान्य क्यों और कैसे रहा था ?

मेरा जवाब है कि मोदी, अटल जी जितना ‘‘उदार’’ नहीं हैं।

क्योंकि वैसी उदारता पार्टी की छवि खराब करती है।

अटल जी ने नेहरू-गांधी परिवार को लाभ पहुंचाने के लिए चर्चित बोफोर्स मुकदमे को 2004 में एक तरह से दफना दिया था।

नरेंद्र मोदी सरकार अभी चल रहे किसी भी केस में प्रतिपक्ष की कोई मदद नहीं करेगी।फिर सामान्य संबंध कैसे कायम होगा ?

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सन 2004 में दिल्ली हाईकोर्ट ने बोफोर्स से संबंधित केस को समाप्त कर देने का आदेश दे दिया था।

   हाईकोर्ट के इस आदेश के खिलाफ सी.बी.आई. ने सुप्रीम कोर्ट मंे अपील तक नहीं की।

ऐसा उच्चस्तरीय संकेत 

 पर हुआ।तब अटल जी प्रधान मंत्री थे।

 4 फरवरी 2004 के हाईकोर्ट के उस अदालती निर्णय के खिलाफ अपील की अनुमति अटल सरकार ने सी.बी.आई.को नहीं दी।

  उसके बाद 22 मई 2004 को केंद्र में मन मोहन सिंह की सरकार गठित हो गयी।फिर तो अपील का सवाल ही नहीं उठता था।

अब समझ में आया कि प्रतिपक्ष अटल जी की तारीफ इन दिनों कुछ अधिक ही क्यों करता है ?

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8 जून 24


 पद ठुकराना और स्वीकारना 

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सुरेंद्र किशोर

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एन.सी.पी. नेता प्रफुल्ल पटेल ने राज्य मंत्री पद अस्वीकार कर दिया।

खैर, उनकी मर्जी !!

पर,बिहार के पूर्व मुख्य मंत्री चंद्रशेखर सिंह जब केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हुए तो उन्हें वहां राज्य मंत्री का ही दर्जा मिला था।

  हालांकि अस्सी के दशक में राज्य मंत्री का पद ठुकराते हुए भागवत झा आजाद राष्ट्रपति भवन से शपथ ग्रहण समारोह छोड़कर पैदल ही आवास लौट आये थे।

नब्बे के दशक में संयुक्त मोर्चा के सारे नेता वी.पी.सिंह के ड्राइंग रूम में बैठे रह गये,राजा साहब अपने घर के पिछले दरवाजे से निकल गये।

उन्हें एक बार फिर प्रधान मंत्री बनाने के लिए नेतागण उनके आवास गये थे।

  संयुक्त मोर्चा ने प्रधान मंत्री पद के लिए ज्योति बसु का नाम तय कर दिया था।पर सी.पी.एम.के पाॅलिट ब्यूरो ने उन्हें यह पद नहीं लेने दिया।

सी.पी.एम.के एक बड़े नेता ने बताया था कि ई,एम.एस.नम्बूदरीपाद आम तौर पर पाॅलिट ब्यूरो की बैठक में शामिल नहीं होते थे।पर ज्योति बसु को पी.एम.बनने से रोकने के लिए वे भी उस बैठक में शामिल हुए।

पर जब सोमनाथ चटर्जी को लोक सभा का स्पीकर बनाना हुआ तो पाॅलिट ब्यूरो ने विरोध नहीं किया।

बाद में ज्योति बसु ने कहा कि मुझे अवसर न देकर पार्टी ने गलती की थी।

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सत्तर के दशक में दारोगा प्रसाद राय और केदार पांडेय बारी- बारी से बिहार के मुख्य मंत्री रह चुके थे।पर बाद की कांग्रेसी सरकार के राज्य मंत्रिंडल में वे दोनों शामिल हुए।कैबिनेट मंत्री बने।

किसी ने दारोगा बाबू से पूछा,ऐसा आपने क्यों किया।

उन्होंने विनोद के लहजे से कहा ,मान लीजिए कि मुझे दिल्ली तुरंत जाना जरूरी है।मेल या एक्सप्रेस ट्रेन उपलब्ध नहीं है।तो क्या मैं पेसेंजर ट्रेन नहीं चला जाऊंगा ?

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और अंत में

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जदयू महा सचिव के.सी.त्यागी ने कहा है कि नीतीश कुमार को पी.एम.पद का आॅफर मिला था।ठुकरा दिया।

कांग्रेसी नेता ने इस दावे का खंडन किया है।

जदयू नेता संजय झा ने भी खंडन किया है।

 सवाल है कि जब ‘‘इंडिया’’ ब्लाॅक से नीतीश को उम्मीद थी,तब तो कांग्रेस ने उन्हें नेता नहीं बनाया।अब ‘‘कंगाल बैंक’’ का मैनेजर बनाने का आॅफर मिलने की बात हो रही है।

पहले भी नीतीश कुमार को उस पद की उम्मीद नहीं करनी चाहिए थी।

मद्रास के मुख्य मंत्री रहे के.कामराज की प्रतिष्ठा कई पूर्व प्रधान मंत्रियों से अधिक रही है।

मुख्य मंत्री पद से नीतीश को संतोष करना चाहिए।अब कानून-व्यवस्था ठीक करने व भ्रष्टाचार कम करने के काम पर ध्यान दें।ज्वलनशील तत्वों की बातों को नजरअंदाज करें तो नीतीश की छवि कुल मिलाकर अच्छी है सिर्फ दो ‘‘भटकावों’’ को छोड़कर।

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10 जून 24 


शनिवार, 8 जून 2024

 प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने 1969 में जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और प्रिवी पर्स समाप्त किया, तब उनकी पार्टी का लोक सभा में अपना बहुमत नहीं था

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सुरेंद्र किशोर

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 प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने 14 निजी 

बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया।

 पूर्व राजाओं के प्रिवी पर्स समाप्त कर दिए।

 तब उनकी पार्टी का लोकसभा में बहुमत नहीं था।कुछ अन्य दलों के सहारे वह सरकार चला रही थीं।

  दरअसल बड़े काम करने के लिए साहस और निष्ठा चाहिए।बहुमत तो जनहित के कामों से बढ़ता ही है। 

यह और बात है कि इंदिरा गांधी ने 1971 में

मिले पूर्ण बहुमत का सदुपयोग नहीं किया।

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   इन दिनों इस देश के महाभ्रष्ट लोगों और राष्ट्रद्रोहियों की बांछें खिली हुई हंै।

उन्हें लगता है कि अपना बहुमत न होने के कारण नरेंद्र मोदी, पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तरह समझौते करने को बाध्य होंगे।

  उन्हें यह भी लगता है कि उन्हें उससे राहत मिल जाएगी जिनके खिलाफ विभिन्न अदालतों में गंभीर आरोपों के तहत मुकदमे चल रहे हैं।

पर,मोदी सरकार की ओर से देश को यह संकेत मिल चुका है कि जोे काम पिछले 10 साल में हुए हैं, वह तो ट्रेलर मात्र था।

 पूरी फिल्म तो अब आने वाली है।

‘‘गरीबी हटाओ’’ के नाम पर इंदिरा गांधी की सरकार ने तब ऐसे कुछ अन्य काम भी किये थे।

और उससे मिली लोकप्रियता के आधार पर सन 1971 के लोक सभा चुनाव में उन्होंने पूर्ण बहुमत पा लिया था।यह और बात है कि तब इंदिरा ने देश को झांसा दिया था।देश की गरीबी मिटाने की जगह पुत्र के लिए मारूति कारखाना खेलवाने का फैसला किया।

  पर, नरेंद्र मोदी दूसरी ही मिट्टी के बने नेता लगते हैं।

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  अमरीकी समाजशास्त्री पाॅल आर. ब्रास ने सन् 1966 में ही यह लिख दिया था कि 

‘‘भारत में भीषण भ्रष्टाचार की शुरूआत आजादी के बाद के सत्ताधारी नेताओं ने ही कर दी थी।’’

पाॅल ने लिखा कि भ्रष्टाचार ऊपर से ही नीचे की ओर फैलाया गया।

 ब्रास ने उत्तर प्रदेश में रहकर भ्रष्टाचार की समस्या का गहन अध्ययन किया था।

  इस अध्ययन के बाद लिखी गयी  अपनी किताब ‘ फैक्सनल पाॅलिटिक्स इन एन इंडियन स्टेट: दी कांग्रेस पार्टी इन उत्तर प्रदेश ’ में वाशिंगटन विश्व विद्यालय के समाजशास्त्र के प्रोफेसर  ब्रास ने लिखा कि ‘कांग्रेसी मंत्रियों द्वारा अपने अनुचरों को आर्थिक लाभ द्वारा पुरस्कृत करना गुटबंदी को स्थायी बनाने का सबसे सबल साधन है।’ अपने शोध कार्य के सिलसिले में ब्रास ने उत्तर प्रदेश के दो सौ कांग्रेसी और गैर कांग्रेसी नेताओं और पत्रकारों से लंबी बातचीत की थी।

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यह सब जान-समझ कर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ ऊपर से कार्रवाई शुरू कर दी है।

अगले कार्यकाल में उन कार्रवाइयों को उनकी तार्किक परिणति तक पहुंचाना है।

यदि इस काम में मौजूदा सहयोगी दलों ने कोई बाधा पहुंचाई ,जिसकी उम्मीद नहीं है,तो उन्हें उसी तरह अगले चुनाव में नुकसान होगा जिस तरह का हश्र 1971 के चुनाव के बाद कुछ इंदिरा विरोधी दलों का हुआ था।

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और अंत में

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आज भी भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे की ओर जा रहा है।यानी ऊपर से प्ररित हो रहा है।

प्रधान मंत्री आॅफिस और केंद्रीय मंत्रिमंडल से तो इस काम के लिए नीचे प्रेरणा नहीं मिल रही है।

फिर कहां से मिली रही है ?

जांच कीजिए --क्या सांसद फंड की कमीशनखोरी से तो नहीं मिल रही है ?

अत्यंत थोड़े से अपवादों को छोड़कर सांसद फंड में खुलकर भारी कमीशनखोरी हो रही है।यह बात गांव -गांव के लोग जानते हैं।या तो सांसद फंड बंद करो या कमीशनखोरी।

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8 जून 24


शुक्रवार, 7 जून 2024

 जो इतिहास से नहीं सीखता,वह 

उसे दोहराने को अभिशप्त होता है।

क्या भारत एक बार फिर गुलामी के अपने 

इतिहास को दोहराने के कगार पर है ?

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दृश्य--1

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मध्य युग में जब मुस्लिम आक्रंाता इस देश को रौंद रहे थे तो मान सिंह जैसे शासक उसके पक्ष से खड़े थे।

(अपने परिवार की महिला के पृथ्वीराज चैहान द्वारा अपहरण के कारण)  

जयचंद जैसे शासक निष्क्रिय हो गये थे।

 महाराणा प्रताप जैसे देशभक्त अकबर का मुकाबला कर रहे थे।

(क्या आप आज यह नहीं देख पा रहे हैं कि राष्ट्रीय एकता-संप्रभुता पर आए खतरे के खिलाफ कुछ लोग तो लड़ रहे है।

कुछ अन्य लोग निष्क्रिय हैं और अन्य अनेक सत्तालोलुप लोग वोट बैंक के लिए राष्ट्र पर गंभीर खतरा पैदा कर रहे लोगों ं के साथ एकजुट हैं ?)

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इतिहास बताता है कि चितौड़ विजय के बाद तथाकथित अकबर महान ने 30 हजार हिन्दुओं को काट डाला।

हजारों स्त्रियों व बच्चियों ने बलात्कार से बचने के लिए अपने शरीर का जला (जौहर किया)लिया।

उस जीत पर अकबर ने कहा था कि ‘‘यह इस्लाम की जीत है।’’

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इसके बावजूद अस्सी के दशक में तब की केंद्रीय सरकार ने अकबर महान के सम्मान व गुणगान में सरकारी खर्चे पर राष्ट्रीय स्तर पर समारोह शुरू किया था।पर,दक्षिण भारत के विरोध के कारण उस समारोह को बीच में ही रोक देना पड़ा।

2006 में द इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस ने केंद्र सरकार को एक प्रस्ताव भेजा।प्रस्ताव था कि अकबर की 400 वां मृत्यु दिवस मनाया जाये।यह जानकारी सरकार ने राज्य सभा में दी थी।

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क्या आजादी के बाद नेहरू सरकार ने कभी महाराणा प्रताप या छत्रपति शिवाजी को इस तरह याद किया था ?

नहीं बल्कि ऐसा करने की मनाही की थी।

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    दृश्य--2

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उदारवादी ब्रिटिश इतिहासकार सर जे.आर.सिली (1834-1895)ने लिखा है कि ब्रिटिशर्स ने भारत को कैसे जीता।

मशहूर किताब ‘द एक्सपेंसन आॅफ इंगलैंड’ के लेखक सिली  की स्थापना थी कि 

‘‘हमने (यानी अंग्रेजों ने) नहीं जीता,बल्कि खुद भारतीयों ने ही भारत को जीत कर हमारे प्लेट पर रख दिया।’’

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मध्य युग में भी वीरता की कमी के कारण हम नहीं हारे।

बल्कि आधुनिक हथियारों की कमी और आपसी फूट के कारण हारे।याद रहे कि बाबर के पास तोपें थीं और राणा सांगा के पास तलवारें।

हमारे राजा अपने विदेशी दुश्मन की माफी को बार-बार स्वीकार कर उसे बख्श देते थे।

  पर, दुश्मन हमें एक बार भी नहीं बख्शता था।

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आजादी के तत्काल बाद के हमारे एकांगी ‘सेक्युलर’ हुक्मरानों ने यह सुनिश्चित किया कि ऐसा इतिहास लिखवाया जाए जिसमें हमारे देश के शूरमाओं के शौर्य और वीरता की चर्चा तक नहीं हो।

वे इस काम में सफल रहे।

उनका तर्क था कि इससे हिन्दुत्व पनपेगा।

यानी, उनकी मंशा थी कि भले दूसरा धर्म पनप जाए, किंतु हिन्दुत्व न पनपे।

यही थी अपने वोट बैंक की रक्षा की उनकी रणनीति।

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  दृश्य--3

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आज की स्थिति क्या है ?

आज इस देश में पाॅपुलर फं्रट आॅफ इंडिया नामक हथियारबंद जेहादी संगठन अति सक्रिय है जिसने अपने साहित्य (फुलवारीशरीफ,पटना में हुई छापामारी में वह साहित्य बरामद हुआ।)

में लिखा है कि हम हथियारों के बल सन 2047 तक भारत को इस्लामिक देश बना देंगे।

हालांकि उसने कहा है कि यदि इस देश के मुसलमानों में से 10 प्रतिशत लोग भी हमारे साथ हो जाएं तो हम जल्द ही सफल हो जाएंगे।

यानी, भारत के 90 प्रतिशत मुसलमान उसके साथ हथियारबंद होने को तैयार नहीं है।यह देश के लिए शुभ लक्षण है।

पर,इन दिनों अधिकतर मुस्लिम मतदातागण पी.एफ.आई.-एस.डी.पी.आई. के इशारे पर ही कुछ खास राजनीतिक दलों खासकर कांग्रेस को वोट दे रहे हैं।इस लोक सभा चुनाव में तो  यह बड़े पैमाने पर हुआ है।बसपा को इस बार मुस्लिम वोट एकदम नहीं मिला।

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  उसी वोट बैंक के लोभ में अधिकतर तथाकथित सेक्युलर राजनीतिक दलों के नेताओं में से किसी के मुंह से पी.एफ.आई.के खिलाफ कभी एक शब्द का बयान भी आप न सुनेंगे और देखेंगे।

इससे उल्टी बात हो रही है।

जो दल,नेता या बुद्धिजीवी पी.एफ.आई.के एजेंडे की जानकारी लोगों को देते हैं,उनके बारे में कांग्रेस तथा कुछ अन्य दल व सेक्युलर बुद्धिजीवी  कहते हैं कि वे देश में नफरत फैला रहे हैं।

ऐसा सिर्फ भारत में ही संभव है।

इसीलिए तो यह देश सैकड़ों साल तक गुलाम रहा।

यह सब देख-जान-सुन कर आपको अब इस बात का अफसोस नहीं होना चाहिए कि आप मध्ययुग में पैदा नहीं हुए थे।

 वही सारे दृश्य दोहराए जा रहे हंै जो हमने किताबों में पढ़े हैं या दंतकथाओं में सुने हैं।

यदि पी.एफ.आई.सन 2047 में सफल हो गया तो गैर मुस्लिमों के लिए वह गुलामी ही तो होगी !!

जिन्हें स्थिति की गंभीरता को समझना हो वे समय रहते समझ जाएं अन्यथा--

तब पछताए होत का जब चिड़िया चुग जाए खेत !!!!

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7 जून 24


गुरुवार, 6 जून 2024

    ं

मोदित्व बचा रहेगा तो सत्ता फिर मिल सकती है। 

पर, यदि तात्कालिक गद्दी मोह के लिए मोदित्व से समझौता कर लिया तो फिर सत्ता

मिलने में काफी दिक्कत होगी।

सुरेंद्र किशोर

6 जून 24

  


रविवार, 2 जून 2024

 मेरी तस्वीर लगाकर जाली प्रोफाइल से कोई व्यक्ति लोगों के फेसबुक वाॅल पर मेरी तरफ से फंे्रड रिक्वेस्ट भेज रहा है।

कृपया उसे नजरअंदाज कर दीजिएगा।मित्र रत्नेश सिंह ने मुझे यह जानकारी दी है। 

मैं फंे्रड रिक्वेस्ट नहीं भेजता क्योंकि मेरा कोटा फुल हो चुका है।

----सुरेंद्र किशोर