जिन दलों ने कभी सदन की कार्य संचालन नियमावली व प्रक्रिया तक का पालन नहीं किया,वे अब प्रोटेम स्पीकर की बहाली में भी संसदीय परंपरा का पालन चाहते हैं
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सुरेंद्र किशोर
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लोक सभा में आसन की मामूली अवमानना करने के कारण सन 1966 में तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी को स्पीकर सरदार हुकुम सिंह के समक्ष खेद प्रकट करना पड़ा था।
यह घटना 24 मार्च, 1966 की है।
यह खबर 25 मार्च 1966 के अखबारों में छपी थी।
उस दिन जब स्पीकर खड़ा होकर बोल रहे थे,तभी प्रधान मंत्री श्रीमती गांधी अचानक सदन से बाहर निकल गईं।
याद रहे कि नियमतः जब स्पीकर बोल रहे हों तो कोई सदस्य या मंत्री सदन से बाहर नहीं जा सकता।
इस नियम का पता इंदिरा गांधी को नहीं था।
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दरअसल ‘‘वंशानुगत अधिकारों’’ के तहत जब किसी को कोई पद मिल जाता है तो पद धारक सामान्यतः कुछ सीखने की जरूरत नहीं समझता।
याद रहे कि दो साल तक केंद्रीय सूचना-प्रसारण मंत्री रह चुकने के बावजूद इंदिरा गांधी नहीं समझ पाई थीं सदन की कार्य संचालन नियमावली व प्रक्रिया या सदन की परंपरा।
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फिर भी कुल मिलाकर वे दिन कुछ और ही थे।
तब प्रधान मंत्री को भी नियमों के समक्ष झुकना पड़ता था।
तब संसदीय परंपराओं का भी आम तौर से पालन होता था।
पर,पिछले दस साल में इस देश के प्रतिपक्षी दलों ने संसद के संचालन के सिलसिले में संबंधित नियमों और परंपराओं का कितना पालन किया ?
आए दिन सदन की बैठक हंगामे और शोरगल से शुरू होती थी और अपवादस्वरूप कुछ अवसरों को छोड़कर अंत तक अराजकता ही बनी रहती थी।
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इस बार तो सदन में प्रतिपक्षी दलों की संख्या और भी बढ़ गयी है।मनोबल भी।
इसीलिए हंगामों के अलावा ‘‘कुछ अधिक’’ की ही उम्मीद करिए।
वैसे भी मूल बात यह है कि जब तक शीर्ष प्रतिपक्षी नेताओं के खिलाफ मुकदमे चलते रहेंगे,तब तक सदन में भी शांति की उम्मीद मत कीजिए।जांच एजेंसियों की ओर से मुकदमों में नरमी का कोई संकेत भी नहीं है।नरेंद्र मोदी की अपनी ही शैली है।वे अपनी शैली से समझौता करेंगे तो कल होकर वे ‘‘नरेंद्र मोदी’’ नहीं रहेंगे।वे खुद भी इस बात को जानते हैं।इसीलिए मुकदमों में नरमी का सवाल कहां उठता है ?
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वैसे मनमोहन सिंह के शासन काल में भी संदनों की कार्यवाही आदर्श नहीं रही।
क्योंकि लोक सभा में तब की भाजपा नेत्री सुषमा स्वराज और राज्य सभा में भाजपा नेता अरुण जेटली की राय हंगामे और अवरोध के पक्ष में ही थी।
याद रहे कि 30 जनवरी 2011 को अरुण जेटली ने रांची में कहा था कि ‘‘संसद की कार्यवाही में बाधा डालना लोकतंत्र के पक्ष में है।इसलिए संसदीय बाधा अलोकतांत्रिक नहीं है।’’
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जब इस देश की राजनीति के पक्ष- विपक्ष का यह हाल है तब तो आगे भी देश के शांतिप्रिय लोगों के लिए यह तय करना मुश्किल ही बना रहेगा कि पार्लियामेंट और विधान सभाओं की बैठकों के दौरान अधिक अराजकता व अशिष्टता होती है या निजी टी.वी.चैनलों के डिबेट्स में अधिक होती है ?
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इस देश की राजनीति की दोहरे मापदंड का हाल यह है कि जो राजनीतिक दल जहां सत्ता में हैं,वे सदन में वहां शांति चाहते हैं।पर,वही दल जहां प्रतिपक्ष में हैं,वहां सदन की कार्यवाहियों को बेशर्मी से बाधित करते रहते हैं।
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24 जून 24
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