सोमवार, 17 जून 2024

 ‘पितृ दिवस’ के अवसर पर 

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बिन मांगे मोती मिले,मांगे मिले ना भीख !

(संदर्भ पद्मश्री सम्मान)

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काम के प्रति यदि एकाग्र निष्ठा हो तो बड़ी सफलता

 के लिए भी कमजोर पृष्ठभूमि बाधक नहीं

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सुरेंद्र किशोर

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  महत्वपूर्ण बात यह नहीं है कि आपने कितनी बड़ी उपलब्धि हासिल की हैं,बल्कि मेरी समझ से यह अधिक 

महत्वपूर्ण है कि आप कहां से उठकर कहां तक पहुंचे हैं।

    पटना के जिलाधिकारी शीर्षत कपिल अशोक ने परसों राष्ट्रपति प्रदत्त पद्मश्री सम्मान मेरे आवास पर आकर मुझे सौंपा ।

 कुुछ ही घंटों बाद यानी आज ‘‘पितृ दिवस’’ आ गया। 

  ऐसे अवसर पर यह बताना जरूरी है कि मेरे किसान पिता ने परिवार की नई पीढ़ी को शिक्षा का महत्व ठीक ढंग से समझाया था।

उन्होंने हर तरह का सहयोग दिया।जबकि खुद सिर्फ साक्षर थे।कोई स्कूली शिक्षा नहीं हुई थीं।

पर, उन्होंने समाज में सम्मान पाने के लिए हमारी शिक्षा को जरूरी समझा।कहते थे कि तुम लोगों को कहीं झगड़ा-झंझट में नहीं फंसना है।

‘‘आन-बान शान’’ वाली सामाजिक पृष्ठभूमि हमें कई बार उस ओर खींचती है। उस पृष्ठभूमि को शिक्षा में बाधक नहीं बनने देना है।

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मुझसे पहले मेंरे परिवार में किसी ने मैट्रिक तक पास नहीं किया था।

घर में कोई अखबार तक नहीं आता था।हमारे घर में सिर्फ रामचरित मानस,शुकसागर और आल्हा -ऊदल किताबें थीं।कोर्स के अलावा,अन्य कोई पठन सामग्री नहीं थी।

खरीदने के लिए पैसे नहीं थे।

मैं किताबों के लिए तरस जाता था।

पिता ने परिवार में शिक्षा जो बीजारोपण किया,वह अब फल-फूल रहा है।

आज मेरे परिवार के एक से अधिक सदस्य अब अपने -अपने क्षेत्रों में प्रादेशिक -राष्ट्रीय स्तर पर जाने जाते हैं।

मेरे बचपन में हमारी खेती-बारी तो अच्छी थी,पर कोई ऊपरी आय नहीं थी।खेतिहरों की हालत आज भी लगभग वही है।

आजादी के बाद केंद्र सरकार ने यदि पब्लिक सेक्टर की अपेक्षा सिंचाई का प्रबंध करके खेती के विकास पर अधिक

ध्यान दिया होता तो रोजगार के भी अवसर बढ़ते।

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शहर में रखकर दो पुत्रों को काॅलेज में पढ़ानें के लिए जमीन बेचनी जरूरी थी।

उसमें बाबू जी ने कभी कोई हिचक नहीं दिखाई।

तब स्थानीय मुखिया ने जब एक बार बाबू जी कहा था कि ‘आप सोना जैसी जमीन बेचकर लड़कंों को पढ़ा रहे हैं,पर पढ़-लिखकर वे आपको पूछेंगे भी नहीं।शहर में जाकर बस जाएंगे।’’

बाबू जी ने जवाब दिया --‘‘तोरा ने इ बात बूझाई।सोना जइसन जमीन बेच के हीरा गढ़त बानी।ने पूछिहन स, तबो कवनो बात नइखे,हमरा खाए-पिए कवन कमी बा !?’’

  खाने -पीने की तो कोई कमी नहीं थी,पर कई जरूरी व बुनियादी खर्चे पूरे नहीं हो पाते थे।एक मकई का बाल ले जाकर देने पर दुकानदार एक दियासलाई दे देता था।

 हाईस्कूल की पढ़ाई तक मेरे पैरों में चप्पल तक नहीं होती थी।उसी अनुपात में अन्य तरह के अभाव भीं।कुर्सी-टेबुंल तो हमारे लिए लक्जरी थी।

काॅलेज जाना शुरू करने के बाद ही जूता-चप्पल का  

प्रबंध हो सका।तीन किलोमीटर रोज पैदल चलकर हम लोग गांव से दिघवारा स्कूल जाते थे।मेरा छोटा भाई नागेंद्र मुझसे एक साल जूनियर था।

सन 1961 में मेरे लिए 98 रुपए में एवन साइकिल खरीदी गयी।वह भारी उपलब्धि मानी गयी थी।

मेरे पास के गांव में तब तक सिर्फ अपर प्राइमरी स्कूल ही था। 

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पर,अभाव ग्रस्त पृष्ठभूमि के बावजूद हमने शुरू से आज तक जो भी काम किया,एकाग्र निष्ठा से किया।

आप जो भी अच्छा-बुरा काम करते हैं,वह किसी से छिपा नहीं रहता है।

पूर्वाग्रह विहीन व होशियार लोग तुलनात्मक आकलन करके आपके बारे में ठोस राय बना लेते हैं।

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 पद्म सम्मान के लिए मैंने किसी से कभी कोई आग्रह नहीं किया।

 यह ऐसा सम्मान है जिसके लिए कोई अन्य व्यक्ति भी हर साल 15 सितंबर से पहले आपका नाम भारत सरकार को भेज सकते हैं।

 उसके साथ आपके व्यक्तिगत गुणों व उपलब्धियों विवरण  होना चाहिए।

  उसके बाद भारत सरकार आपके बारे में अनेक सरकारी और गैर सरकारी स्त्रोतों से पता लगवाती है।

यदि आप उस कसौटी पर खरे उतरते हैं,तो वह सम्मान आपको मिलेगा ही।

  बहुत पहले एक मित्र ने मुझसे कहा था कि मैंने आपका नाम पद्म सम्मान के लिए भेजा है।

 तब मैं मुस्कराकर रहा गया था।

न हां कहा और न ही ना।

मुझे लगा था कि मुझे सरकार भला क्यों देगी !

मैं खुद इस बारे में आश्वस्त नहीं था कि मैं इसके काबिल हूं भी या नहीं।

  लगे हाथ बता दूं कि संपादक बनने के करीब आधा दर्जन आॅफर के बावजूद मैंने वह पद कभी स्वीकार नहीं किया। क्योंकि मैं समझता हूं कि मैं उस पद के ‘लायक’ नहीं हूं।

 खैर,पद्म सम्मान के नामों के चयन का समय आने पर मैंने पाया कि मौजूदा प्रधान मंत्री कार्यकाल में चयन की शैली अब बिलुकल बदल गयी है।

अब अनेक उम्मीदवारों की योग्यता-क्षमता-उपलब्धियों को अनेक कसौटियों परं कसा जाता है।कोई पैरवी नहीं चलती।

इसीलिए इस साल भी पद्म सम्मानित लोगों की सूची देखकर आपको लगा होगा कि आपने पहले उनके नाम नहीं सुने थे।

  क्योंकि वे प्रचार से दूर रहकर सरजमीनी स्तर पर अपने ढंग के अनोखे काम कर रहे हैं ताकि लोगों का कल्याण हो।

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ऐसे अवसर पर मैंने बाबू जी की दूरदृष्टि के महत्व को एक बार फिर समझा।

क्योंकि पुश्तैनी जमीन बेचकर बच्चों को पढ़ाना किसी किसान के लिए बहुत बड़ी बात होती है।मेरी जानकारी के अनुसार हमारे यहां तो ऐसा कोई करता नहीं था।यदि हमारी जमीन नहीं बिकती तो हमलोग अधिक से अधिक मैट्रिकुलेट बनकर रह गये होते।

बता दूं कि अपर प्राइमरी स्कूल,खानपुर में पढ़ते समय मैं क्लास रूम में बिछाने के लिए रोज अपना बोरा अपने साथ ले जाया करता था।

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इधर हाल में कहीं पढ़ा कि कर्पूरी ठाकुर जब सी.एम.काॅलेज,दरभंगा में पढ़ते थे तो वे नंगे पैर ही काॅलेज जाते थे। 

यानी, कोई जूता -चप्पल नहीं।

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किसी जानकार व्यक्ति ने मुझे बताया कि बिहार से काम कर रहे किसी बिहारी पत्रकार को पहली बार पद्म श्री सम्मान मिला है और वह आपको मिला है।

यदि यह बात सच है तो उसके साथ यह भी जोड़ा जाना चाहिए कि एक किसान परिवार के सदस्य को मिला है जो कभी ं नंगे पांवं स्कूल जाता था।

कड़ी धूप में कच्ची सड़क से स्कूल से लौटते समय गर्म धूल से बचने के लिए वह छात्र किनारे की घास की ठंडी पड़त ढूंढ़ता रहता था।कभी मिलता था और कभी नहीं मिलता था।  

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16 जून 24

  


 

   


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