विदेशी हस्तक्षेप की राह रोकना जरूरी
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सुरेंद्र किशोर
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अपने देश में अधिकतर राजनीतिक दलों को विदेशी पैसों में तभी बुराई दिखती है,जब वह विरोधी दल को मिल रहा हो
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अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बीते दिनों यह कह कर चैंका दिया कि उनके पूर्ववर्ती जो बाइडन भारतीय चुनावों के दौरान देश में सत्ता परिवर्तन की जुगत में लगे थे।
ट्रंप के बयान से भारत के राजनीतिक गलियारों में हड़कंप मचा और इससे प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के उन आरोपों को ही बल मिला ,जिसमें संसदीय चुनाव के बाद उन्होंने अलग -अलग मौकों पर चुनावों में विदेशी हस्तक्षेप की बात कही थी।
फिलहाल इस पर बहस जारी है कि मतदान बढ़ाने के लिए अमेरिकी सहायता भारत आई या बांग्ला देश और यदि वह भारत आई तो खर्च कैसे हुई ?
जो भी हो,टं्रप के बयान को अनदेखा नहीं किया जा सकता है।
इससे पहले उनके करीबी और जाने माने उद्यमी एलन मस्क ने भी अमेरिकी संसाधनों के प्रयोग को लेकर सवाल उठाए थे।
इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि सलमान खुर्शीद और मणि शंकर अय्यर जैसे नेताओं का बांग्ला देश में हुए तख्ता पलट के बाद यह कहना था कि इस पड़ोसी देश में जो कुछ हुआ,उसकी भारत में भी पुनरावृति हो सकती है।
यह भी किसी से छिपा नहीं कि जार्ज सोरोस और उनकी संस्थाओं की संदिग्ध भूमिकाओं की चर्चा यदाकदा सतह पर उभरती रहती है।यह पूरा परिदृश्य गहन पडत़ाल की मांग करता है।
भारत जैसे संप्रभु देश में विदेशी हस्तक्षेप स्वीकार्य नहीं,लेकिन ऐसे आरोप पहली बार नहीं लगे हैं।
पूर्व में कांग्रेस सरकारों की या तो विदेशी शक्तियों के साथ साठगांठ रही या फिर उन्होंने ऐसे आरोपों को अनदेखा करना उचित समझा।
यह 1967 की बात है जब केंद्रीय गृह मंत्री वाई.बी.चव्हाण ने उन राजनीतिक दलों के नाम बताने से इन्कार कर दिया था,जिन्हें विदेश से पैसे मिले थे।
नतीजा यह हुआ कि बाहर-भीतर राष्ट्र विरोधी शक्तियों का मनोबल बढ़ता गया।
चूंकि सरकार ही ऐसे मामलों को लेकर उदासीन रही,इसलिए अवैध धन के इस्तेमाल को लेकर नेताओं और दलों की झिझक समाप्त होती चली गयी।याद रहे कि 1967 के आम चुनाव में सात राज्यों में कांग्रेस हार गई थी।
अन्य दो राज्यों में कुछ ही समय बाद कांग्रेस सरकारें दल बदल के कारण अपदस्थ हो गईं।
लोक सभा में कांग्रेस का बहुमत घट गया।
इन घटनाओं से तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की चिंता बढ़ गई थी।
उन्हें लगा कि विपक्षी दलों ने विदेश से मिले अवैध धन की मदद से कांग्रेस को हरा दिया।
परिणामस्वरूप केंद्रीय खुफिया एजेंसी से मामले की जांच कराई गई।
जांच से पता चला कि कांग्रेस सहित कई दलों और नेताओं को 1967 चुनाव लड़ने के लिए विदेश से पैसे मिले थे।
सरकार ने उस रपट को दबा दिया,लेकिन वह रपट एक अमेरिकी अखबार में छप गई।
यदि उसी समय उक्त मामले की नीर-क्षीर ढंग से जांच कराई जाती तो राजनीति को स्वच्छ बनाने में बड़ी सहायता मिलती।मगर जांच होती कैसे ?
लगभग हर दल के नेता इस दल -दल में धंसे हुए थे।
शीत युद्ध के समय जहां कम्युनिस्ट देश भारत में साम्यवाद फैलाने के लिए पैसे खर्च कर रहे थे ,वहीं पूंजीवादी देश साम्यवाद को रोकने के लिए।
जिस किसी देश में नेता से लेकर बुद्धिजीवी तक बिकने को तैयार हों, वहां विदेशी शक्तियों के लिए अपने संकीर्ण हितों को साधना कहीं आसान हो जाता है।
अपने देश में अधिकतर दलों को विदेशी पैसों में तभी बुराई दिखती है,जब वह विरोधी दल को मिल रहा हो।
यह रवैया उचित नहीं।
कुछ समय पहले भाजपा ने कांग्रेस पर आरोप लगाया था कि राजीव गांधी फाउंडेशन को चीन से वित्तीय मदद मिली।
उस पर कांग्रेस ठोस तरीके से अपना पक्ष नहीं रख सकी।
इस संदर्भ में सोवियत खुफिया एजेंसी के.जी.बी. के बारे में आपातकाल के दौरान प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की राय पर गौर किया जाए।
आपातकाल लगाने के अगले दिन इंदिरा गांधी ने केंद्र सरकार के सचिवों के साथ बैठक की।
प्रधान मंत्री के संयुक्त सचिव बिशन टंडन के अनुसार,इंदिरा गांधी ने सचिवों से कहा ‘‘प्रतिपक्ष नाजीवाद फैला रहा है।
नाजीवाद केवल सेना एवं पुलिस के उपयोग से ही नहीं आता।
कोई छोटा समूह जब प्रचार करके जनता को गुमराह करे तो वह भी नाजीवाद का लक्षण है।
भारत में दूसरे दलों की सरकारें भले बन जाएं ,पर मैं माक्र्सवादी कम्युनिस्टों और जनसंघ की सरकार नहीं बनने दूंगी।
जेपी आंन्दोलन के लिए रुपया बाहर से आ रहा है।अमरीकी खुफिया एजेंसी सी आई ए यहां बहुत सक्रिय है।
के.जी.बी.का कुछ पता नहीं।
उसकी सक्रियता का कोई प्रमाण सामने नहीं आया।
प्रतिपक्ष का सारा अभियान मेरे विरुद्ध है।मेरे अतिरिक्त मुझे ऐसा कोई व्यक्ति नजर नहीं आता जो इस समय देश के सामने आई चुनौतियों का सामना कर सके।’’
इंदिरा गांधी की यह बात कितनी निराधार थी,इसका भंडा -फोड़ के.जी.बी.से जुड़े मित्रोखिन ने किया।
क्रिस्टोफर एंड्रूज के साथ मिलकर वासिली मित्रोखिन ने दो किताबें लिखीं।
मित्रोखिन के अनुसार,‘‘के.जी.बी.ने कई भारतीय समाचार पत्रों ,बुिद्धजीवियों और नेताओं पर अरबो-खरबांें रुपए खर्च किये।
मित्रोखिन के रहस्योद्घाटन का तब कांग्रेसियों और कम्युनिस्टों ने खंडन किया।
ज्योति बसु ने कहा कि ‘‘मुझे यह तो नहीं मालूम कि के.जी.बी.ने इंदिरा गांधी को धन दिया या नहीं,परंतु एक बात मैं अच्छी तरह जानता हूं कि वामपंथियों की गतिविधियों को रोकने के लिए अमेरिका ने व्यक्तिगत रूप से इंदिरा गांधी को भी धन दिया था और कांग्रेस को भी।’’
क्या बसु की इस बात पर विश्वास करना संभव है कि कम्युनिस्ट देशों ने भारत में अघोषित ढंग से कोई खर्च नहीं किया ?
भारत में अमेरिका के राजदूत रहे डेनियल मोयनिहान ने अपनी पुस्तक ‘ए डेंजरस प्लेस’ में लिखा कि किस तरह कम्युनिस्ट फैलाव को रोकने के लिए अमेरिका ने भारतीय नेताओं को पैसे दिए।लगता है कि अब स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि इससे निपटना देश के लिए मुश्किल हो चला है।
लेकिन प्रधान मंत्री मोदी के चलते इसके समाधान की भी उम्मीद है।
बांग्ला देश में तख्ता पलट ,खुर्शीद एवं अय्यर की बयानबाजी और अब टं्रप एवं मस्क के बयानों के बाद देखना होगा कि मोदी भारत और भारतीयों को कितना आश्वस्त करते हैं कि यहां दखल संभव नहीं।
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(आज के दैनिक जागरण और नईदुनिया में एक साथ प्रकाशित)
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