आर.के.सिंह जैसे नेता को लोक सभा के
बदले राज्य सभा में भेजना चाहिए था
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सुरेंद्र किशोर
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आज की चालू राजनीति में
एक ईमानदार हस्ती की पीड़ा
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बात तब की है जब आर.के. सिंह पटना के डी.एम. थे।
डी.एम. ही प्राथमिक शिक्षा की जिला स्थापना समिति के प्रधान हुआ करते थे।
हम लोग पटना के लोहिया नगर में रहते थे।मेरी पत्नी पटना में ही, पर आवास से दूर स्थित एक सरकारी मिडिल स्कूल में पढ़ाने जाती थी।
अल्प वेतन का आधा पैसा रिक्शा भाड़े मेें चला जाता था।
लोहिया नगर के एक ‘बाबू साहब’ कभी- कभी मेरे घर आया करते थे।
एक दिन जब उन्हें चाय नहीं मिली तो पता चला कि मेरी पत्नी तो स्कूल जा चुकी हैं।
उन्होंने पूछा,‘इतनी जल्दी ?
अभी तो नौ ही बजे हैं ?’
मैंने कहा कि ‘दूर जाना होता है।इसलिए जल्दी चली गयी।’
उन्होंने कहा कि आर.के. मेरे परिचित हैं,उनसे मैं बात करूंगा।मैंने उन्हें मना नहीं किया।
एक दिन वे डी.एम.साहब से मिले।
उनसे कहा कि ‘‘सुरेंद्र किशोर को जानते हैं न !
जनसत्ता का रिपोर्टर है।
अपना ही जात-भाई है।
उसकी पत्नी कष्ट में है।
उसे नजदीक के किसी स्कूल में ट्रांसफर कर दीजिए।उसके घर के नजदीक भी कई स्कूल हैं।’’
इस पर आर.के. ने अनिच्छा दिखाते हुए कहा कि
‘‘पटना से पटना में बदली होती है ?
यह संभव नहीं है।’’
वे ऐसे कड़ियल अफसर थे कि कोई उनसे बहस नहीं कर सकता था।
बेचारे उदास ‘बाबू साहब’ दूसरे दिन मेरे पास आए।
कहा कि ‘‘गजब आदमी है आर.के. !
ऐसे -ऐसे कह दिया।’’
इधर मैं तो मन ही मन खुश हुआ।
एक ऐसा अफसर तो बिहार में है जो न जात के प्रभाव में आया और न ही जनसत्ता जैसे ‘‘उखारू-पछारू’’ अखबार से सहमा।
जरूर वह राज्य का भला करेगा,मैंने मन ही मन सोचा।
याद रहे कि उन दिनों जनसत्ता की 18 हजार प्रतियां पटना आती थीं।
कई विवादास्पद हस्तियों को यह आशंका रहती थी कि पता नहीं कल के जनसत्ता में किसके बारे में क्या छपा होगा !
बड़े बड़े सत्ताधारी लोग मुझे उपकृत करने के लिए उत्सुक रहते थे।
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जहां तक मुझे मालूम है, आर.के.कभी विवादास्पद रहे नहीं।
उन्हें किसी अखबार से भला क्यों डरना !
मैं कभी आर.के.सिंह से मिला नहीं।आज तक भी नहीं।
न ही अब कोई वैसा अवसर आने की उम्मीद है।क्योंकि मैंने कहीं आना-जाना काफी कम कर दिया है।
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केंद्रीय मंत्री रहे आर.के.सिंह ने तब कहा था कि ‘‘स्कूलों में मास्टर नहीं आते हैं और डी.एस.ई.आंखें मूंदे रहते हैं।
यह व्यवस्था सिर्फ बिहार में है।
सरकार को इस संबंध में विचार करना चाहिए।
बिहार में स्वास्थ्य विभाग का भी बुरा हाल है।प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर डाक्टर नहीं जाते।वे आरा और पटना में बैठकर प्रैक्टिस करते हैं।भागे रहने के एवज में सारे डाक्टर, सिविल सर्जन को कमाई का एक हिस्सा दे देते हैं।
आगे सिविल सर्जन क्या करते हैं, सबों को पता है।’
एम.पी.फंड की ठेकेदारी को लेकर क्या-क्या होता है,उससे भी दस साल में आर.के.परिचित हो चुके होंगे।
बिहार काॅडर के आई.ए.एस. रहे आर.के. सिंह ने वही कहा है जिसकी जानकारी सरकार को ‘छोड़कर’ पूरे बिहार को है।
आर.के.सिंह उन थोड़े से जन प्रतिनिधियों में शामिल हैं जो सांसद फंड से कमीशन नहीं लेते।
जो जन प्रतिनिधि लेते हैं,वे अफसरों के सामने लज्जित रहते हैं।वे भ्रष्ट अफसरों के खिलाफ इस तरह आवाज नहीं उठाते।
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स्कूल शिक्षक,डाक्टर और एम.पी.फंड के बारे में जिस नेता की ऐसी राय हो,वह दो बार लोक सभा चुनाव जीत गया,वही आठवां आश्चर्य हुआ।
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भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को आर.के. को लेकर पहले ही सावधानी बरतनी चाहिए थी।
उन्हें लोक सभा लड़वाने के बदले राज्य सभा मंे भेजना चाहिए था।
एम.पी.और केंद्रीय मंत्री के रूप में आर.के.सार्वजनिक काम मंे ही लगे रहते थे।
व्यक्तिगत काम से साफ मना कर देते थे।
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आर.के.केे बारे में यह कहा जा सकता है कि वे जिस पद पर बैठे या बैठेंगे,उस पद को ऊपरी कमाई का औजार नहीं बनने देंगे।
ऐसे नेताओं की मोदी राज में,यानी आज भी काफी कमी है।
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21 फरवरी 25
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