बुधवार, 18 अक्तूबर 2017

विभाजित मीडिया के बीच पाठक-श्रोता बेचारा !

इन दिनों पाठकों और दर्शकों की ओर से इस बात की अक्सर  शिकायतें मिलती रहती हैं कि कुछ  मीडिया समूह खास कर कुछ इलेक्ट्राॅनिक मीडिया संस्थान एकतरफा हो गये हंै। उनमें से एक उत्तर है तो दूसरा बिलकुल दक्षिण।पेशेवर निष्पक्षता का अभाव है। हालांकि  अनेक  मीडिया संस्थान अब भी अपनी निष्पक्षता बनाए रखने की कोशिश करते  हैं।

पर सवाल है कि ऐसा कब नहीं था ? कमोवेश पहले भी था।
पहले कम था।अब अधिक है। आजादी के तत्काल बाद तो कुछ अत्यंत बड़े सत्तासीन नेताओं के  अपने -अपने कुछ खास  करीबी पत्रकार थे। वे तब के बड़े पत्रकारों में  थे।

कुल मिलाकर मीडिया के एक हिस्से का एकतरफा व्यवहार थोड़ा- बहुत पहले भी था। पचास के दशक में सत्ताधारियों पर यदि मुख्य धारा का मीडिया आम तौर पर मोहित था तो उसका  कारण भी था।उन लोगों  ने आजादी जो दिलाई थी।वे देश के हीरो थे। उनकी कुछ गलतियांे को भी मीडिया के एक हिस्सा समय -समय पर नजरअंदाज  कर देता था।
पर साठ -सत्तर के दशकों से इस मामले में  फर्क आने लगा।

 साठ-सत्तर के दशकों में मैं तीन साप्ताहिक पत्रिकाएं अक्सर पढ़ता था - ब्लिट्ज, दिनमान और करंट।

ब्लिट्ज वामपंथी था तो करंट दक्षिणपंथी।‘दिनमान’ मध्यमार्गी - डा.राम मनोहर लोहिया के प्रति सहानुभूति से भरा हुआ। तब एक बार तो ‘दिनमान’ में एक पाठक की चिट्ठी छपी थी- ‘आप अपनी पत्रिका का नाम दिनमान के बदले लोहियामान क्यों नहीं रख देते ?’

सच्चिदानंद वात्स्यायन तब संपादक थे।संपादक की टिप्पणी भी उस पत्र के साथ छपी थी।याद रहे कि दिनमान में उनका पूरा नाम नहीं छपता था।
उनका पूरा नाम था-सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय। 
खैर,मेरे जैसे सजग पाठक तीनों पत्रिकाओं के अध्ययन के बाद देश-विदेश और राजनीति का पूरा हालचाल जान लेते थे।

पर समय बीतने के साथ बाद के दशकों में और फर्क आने लगा। वह फर्क कुछ सत्ताधारी नेताओं के मीडिया के प्रति अति संवदेनशील और रुखा हो जाने के कारण हुआ ।

 जवाहरलाल नेहरू और मोरारजी देसाई जैसे नेता मीडिया के प्रति आम तौर पर निरपेक्ष थे।दुर्गादास जैसे एक -दो घटनाएं अपवाद जरूर थीं।मशहूर स्तम्भकार दुर्गादास के खिलाफ प्रधान मंत्री ने एक अखबार के मालिक से शिकायत की थी।

वैसे नेहरू जी का प्रिय अखबार ‘हिंदू’ था।

कतिपय कारणों से कुछ दिनों के लिए नेहरू जब ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ और उसी ग्रूप के साप्ताहिक ‘द इलेस्टे्रटेड विकली आॅफ इंडिया’ से नाराज थे तो उन्होंेने तीन मूत्र्ति भवन में टाइम्स आॅफ इंडिया और ‘विकली’ मंगवाना बंद करवा दिया था।पर उन्होंने अखबार की आर्थिकी को क्षति पहुंचाने के लिए कोई  कार्रवाई  की, ऐसी कोई खबर नहीं है।
वामपंथी ‘ब्लिट्ज’ मोरारजी देसाई के खिलाफ अभियान चलाता था।उस पर मोरारजी की यही प्रतिक्रिया होती थी कि ‘मैं तो ब्लिट्ज पढ़ता ही नहीं।’

 एम.एस.एम.शर्मा के संपादकत्व में जब पटना के चर्चित दैनिक ‘सर्चलाइट’ ने बिहार के तत्कालीन मुख्य मंत्री डा.श्रीकृष्ण सिंह के खिलाफ आपत्तिजनक खबरें परोसनी शुरू कीं तो जनसंपर्क विभाग के एक अफसर ने मुख्य मंत्री से कहा कि आप कार्रवाई क्यों नहीं करते ?

अफसर उम्मीद करता था कि मुख्य मंत्री सर्चलाइट को मिल रहा सरकारी विज्ञापन बंद करा देंगे।

पर,मुख्य मंत्री ने कहा कि मैंने तो बहुत कठोर कार्रवाई कर दी है।अफसर ने कहा कि हमारे यहां तो ऐसा कोई आपका निदेश अभी आया  नहीं है।इस पर मुख्य मंत्री ने कहा कि मैंंने सर्चलाइट पढ़ना ही बंद कर दिया है।किसी अखबार के खिलाफ इससे बड़ी कार्रवाई और कौन सी हो सकती है ?
दरअसल नेहरू, मोरारजी और श्रीबाबू जैसे नेताओं को यह लगता था कि जब जनता हमारे साथ है तो अखबारों के कुछ लिख देने से कोई  फर्क नहीं पड़ जाएगा।

  पर बाद के दशकों में जब कुछ विवादास्पद  नेता सत्ता में आने लगे तो उन्होंने यह सुनिश्चित करने की कोशिश की कि उनके कुकर्माें की चर्चा अखबारों में न हो।होने पर अखबारों का भयादोहन शुरू हो गया।प्रेस पर अंकुश लगाने के लिए बारी- -बारी से बिहार और केंद्र सरकारों ने प्रेस विधेयक भी लाए। यदाकदा अखबारों के सरकारी विज्ञापन बंद होने लगे।

संपादक गिरफ्तार होने लगे। नेताओं  के कहने पर पत्रकार नौकरी से निकाले जाने लगे। या उनका तबादला होने लगा। इसका सीधा  असर अखबार की आर्थिकी पर पड़ा।

अखबार तो व्यवसायी ही निकालते हैं।जब राजनीति में ही गिरावट आने लगी तो व्यापारियों ने  समाज सुधार का ठेका तो ले नहीं रखा था। इसलिए रामनाथ गोयनका जैसे कुछ अत्यंत थोड़े से अपवादों  को छोड़कर अधिकतर अखबार मालिकों ने सरकारों के साथ तालमेल रखने में ही अपने उद्योग धंधे , अखबार तथा उसके स्टाफ का भला  समझा। 

मालिकों के साथ -साथ अधिकतर संपादकों को भी अखबार की आर्थिकी का ध्यान रखना पड़ा।संपादक ध्यान रखेंगे तो संपादकीय स्टाफ को भी रखना ही पड़ेगा। सरकार के खिलाफ खबरें आम तौर पर नहीं रुकीं,पर अभियानी पत्रकारिता पर काफी हद तक अंकुश लगा।

इलेक्टा्रॅनिक मीडिया के इस दौर में तो मीडिया के संचालन का खर्च बेशुमार बढ़ गया। अपवादों को छोड़ दें तो सबको कहीं  से भी पूंजी लाने, बचाने और बढ़ाने की चिंता रहने लगी। इस स्थिति में मीडिया के बड़े हिस्से के समक्ष संबंधित सरकार से सह अस्तित्व बना कर चलने की मजबूरी रही है।

इस देश में मीडिया का एक हिस्सा ऐसा भी है जो प्रतिपक्ष के एक हिस्से से तालमेल बैठाए हुए है ताकि जब वे सत्ता में आएंगे तो इनके भी अच्छे दिन आ जाएंगे।कुछ मामलों में विचारधारा भी हावी है।

एक जमाने में एक पेशवर यानी निष्पक्ष मीडिया के एक बड़े अधिकारी ने कहा था कि ‘यदि दुनिया में कहीं कम्युनिज्म आ रहा है तो हम उसे रोकने की कोशिश नहीं करेंगे।या कहीं से जा रहा है तो उसे बचाने की भी चेष्टा नहीं करेंगे।हम सिर्फ रिपोर्ट करेंगे कि फलां देश में आ रहा है और फलां देश से जा रहा है।’

अब ऐसी बात आम तौर से नहीं है।अपवादों की बात और है। कुल मिलाकर मोटा -मोटी यही स्थिति है।इसे ही स्वीकारना है।पाठकों -श्रोताओं के पास कोई और रास्ता भी नहीं है। रास्ता वही है जो मैं साठ -सत्तर के दशकों में करता था। सभी पक्षों की सुनिए,पर अपने मन की करिए। यानी आज के मीडिया के बीच के ‘ब्लिट्ज’, ‘दिनमान’ और ‘करंट’ तीनों को  वाॅच  करते रहिए। फिर किसी नतीजे पर पहुंचिए।

कोई टिप्पणी नहीं: