शनिवार, 21 अक्तूबर 2017

सरदार हरिहर सिंह की नजर में श्रीबाबू

बिहार में लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे डा. श्रीकृष्ण सिंह के बारे में तरह -तरह के लोग तरह -तरह के विचार रखते हैं।ऐसा स्वाभाविक ही है क्योंकि उन्होंने आजादी के बाद व पहले की कांग्रेसी राजनीति व शासन को काफी प्रभावित किया था।


   पर एक अन्य मुख्य मंत्री सरदार हरिहर सिंह की नजरों से डा.श्रीकृष्ण सिंह को देखना अधिक महत्वपूर्ण बात होगी।सरदार साहब सन 1969 में बिहार के मुख्य मंत्री बने थे।

डा.श्रीकृष्ण सिंह यानी श्रीबाबू के बारे में सरदार साहब ने लिखा है कि ‘आजादी की लड़ाई के दिनों  श्रीबाबू खास तौर पर युवकों के नेता थे।ऐसे तो वे संपूर्ण जनता के नेता थे,पर अपने उग्र राष्ट्रीय विचारों के कारण वे युवकों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करते थे।उनके अपने स्वतंत्र विचार थे।वे किसी के ‘हिज मास्टर्स वायस’ नहीं थे।उनका अपना स्टैंड होता था,इसलिए वे हमारे जैसे युवकों के लिए ग्राह्य और प्रिय थे।

  सरदार हरिहर सिंह खुद भी एक महत्वपूर्ण हस्ती थे और आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण योगदान के लिए उनका नाम सरदार पड़ा था।

   सरदार साहब ने लिखा है कि श्रीबाबू सन 1930 से पहले मुंगेर जिले की राजनीति तक अपने को सीमित रखे हुए थे।वे राज्य के नेतृत्व में भाग लेते थे,लेकिन मुंगेर को अपना मुख्य केंद्र बना कर चलते थे।नमक सत्याग्रह के बाद वे बिहार के राजनीतिक क्षितिज पर छा गये।

तब से लेकर मरते दम तक छाये रहे।याद रहे कि डा.राजेंद्र प्रसाद व डा.अनुग्रह नारायण सिंह सहित कई नेतागण चंपारण सत्याग्रह के समय ही गांधी के साथ हो लिये थे।

  बिहार के  अत्यंत महत्वपूर्ण नेता  डा.अनुग्रह नारायण सिंह को लोग बाबू साहब कहते थे।बाबू साहब के  बारे में सरदार साहब ने लिखा है कि अनुग्रह बाबू से मेरा संबंध 1916 से था।हमारा उनका व्यक्तिगत संबंध था।
हम बाबू साहब के बहुत करीब थे।उनके साथ मेरा घनिष्ठ संबंध था,पर राजनीतिक स्तर पर हम श्रीबाबू से संबंधित थे।राजेंद्र बाबू और बाबू साहब सुधारवादी व नरमपंथी विचार के थे।उस जमाने के लिहाज से श्रीबाबू प्रगतिशील और उग्र विचार के थे।इसी कारण श्रीबाबू को युवको का समर्थन मिला।बहुत से उग्रवादी नेता जैसे राम विनोद सिंह,श्यामा बाबू ,योगेंद्र शुक्ल आदि श्रीबाबू के साथ जाना पसंद करते थे और साथ चले भी।याद रहे सरदार साहब ने क्रांतिकारियों के लिए अपने लेख में उग्रवादी शब्द का इस्तेमाल किया है।

   राजनीति में शालीनता के बारे में हरिहर सिंह ने लिखा कि उस समय के लोगों की सबसे बड़ी बात थी कि  राजनीति में शालीनता थी।श्रीबाबू का अपना स्टैंड जरूर होता था,लेकिन इसका मतलब दूसरे के प्रति अनादर और दुश्मनी नहीं थी।

बाबू साहब हों या राजेंद्र बाबू वे सबका आदर करते थे और सबको सम्मान देते थे।प्रारंभ में बाबू कष्ण बल्लभ सहाय बाबू साहब के साथ थे।उन्होंने 1937 में श्रीबाबू का विरोध किया।उसके बाद वे श्रीबाबू के संपर्क में आये।सहाय जी 1952 में श्रीबाबू के साथ थे।पर 1957 के चुनाव उन्होंने श्रीबाबू को हराने का असफल प्रयास किया।तब बिहार कांग्रेस विधायक दल के नेता पद का चुनाव श्रीबाबू और बाबू साहब के बीच हुआ था।श्रीबाबू जीते।

   उन दिनों की राजनीति की शालीनता का एक और उदाहरण देते हुए सरदार साहब ने लिखा कि एक बार श्रीबाबू महेश प्रसाद सिंह को मंत्री बनाना चाहते थे और बाबू साहब  दीप नारायण सिंह को।एक बार तो लगा कि दोनों में से कोई एक ही मंत्री बनंेगे।क्योंकि दोनों नेता एक ही जिले के थे।पर ंदोनों मंत्री बने । इसमें यह खूबी रही कि डा.अनुग्रह नारायण सिंह ने   महेश प्रसाद सिंह का नाम प्रस्तावित किया और डा.श्रीकृष्ण सिंह ने  दीप नारायण सिंह का।श्रीबाबू के मंत्रिमंडल में अनुग्रह बाबू हमेशा मुख्य मंत्री के बाद दूसरे स्थान पर रहे।

   सरदार साहब के अनुसार श्रीबाबू के भाइयों ने जब आजादी की लड़ाई के दिनों उनका साथ छोड़ दिया था तो महेश प्रसाद सिंह ने श्रीबाबू का साथ दिया था।डा.श्रीकष्ण सिंह का जीवन तो निष्कलंक था,पर महेश प्रसाद सिंह को लेकर कुछ लेागों ने डा.श्रीकृष्ण सिंह  को बदनाम करने की कोशिश की।पर श्रीबाबू ने उपकार का बदला व्यावहारिक ही नहीं,बल्कि सांस्कतिक स्तर पर भी महेश बाबू को चुकाया।जब श्रीबाबू ने अपनी सबसे प्रिय निधि यानी अपनी पुस्तकों को मुंगेर के श्रीकृष्ण सेवा सदन को सौंपा तो उस पुस्तकालय का नाम कमला-महेश पुस्तकालय रखा।लेकिन महेश प्रसाद सिंह ने डा.श्रीकृष्ण सिंह  की उदारता और व्यक्तिगत संबंध का उपयोग अपने को राजनीति में स्थापित करने तथा आगे बढ़ाने में किया।

  अपने खुद के  कटु अनुभव की चर्चा करते हुए सरदार हरिहर सिंह ने लिखा कि सन 1957 के चुनाव में टिकट को लेकर सत्य नारायण सिंह और महेश प्रसाद सिंह ने मेरे नाम का विरोध किया।इसके परिणामस्वरूप मुझे टिकट नहीं मिला।इससे मैं कुछ खिन्न था।बाद की राजनीतिक स्थिति को देखकर मुझे तकलीफ हुई।श्रीबाबू के निधन के कुछ समय पहले मैंने एक दिन कुछ दुःखी होकर कह दिया--‘मरने के वक्त आप भूमिहार हो गये और मैं राजपूत।नहीं तो कोई नहीं जानता था कि हम दोनों एक ही जाति के नहीं हैं।’यह सुनते ही श्रीबाबू रो पड़े।न कोई शब्द थे और न कोई सफाई।मात्र अश्रु धार मेरे सवाल का जवाब दे रहे थे।

(श्रीबाबू के जन्म दिन के अवसर पर विशेष)

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