शनिवार, 14 अक्तूबर 2017

सत्तर के दशक में पटना विश्व विद्यालय


  इतिहासकार डा.ओम प्रकाश प्रसाद ने ठीक ही लिखा है कि पटना विश्व विद्यालय में दाखिला लेने से ही समाज में प्रतिष्ठा बढ़ जाती थी।
  हालांकि 1972 जब मैंने पटना लाॅ कालेज में दाखिला लिया,तब तक वैसी बात नहीं रह गयी थी। फिर भी चीजें उतनी बिगड़ी भी नहीं थी।कभी ‘पूरब का आॅक्सफोर्ड’ कहलाने वाले इस विश्व विद्यालय में मेरे जमाने में  क्लासेज होते थे और छात्रावासों में पढ़ने के समय छात्र सिर्फ पढ़ा करते  थे।
परिसर में अपेक्षाकृत शांति रहती थी।
हां, इस विश्व विद्यालय से जुड़े लाॅ कालेज में थोड़ी स्थिति भिन्न जरूर थी।थोड़ी उन्मुक्तता थी।
 फिर भी वहां भी रेगुलर क्लासेज होते थे ।यहां तक कि मूट कोर्ट भी।
  हां, मेरे जैसे कुछ छात्रों को पढ़ने में रूचि कम थी।राजनीति में अधिक थी।
इसलिए हाजिरी लगा कर हम पास की  चाय  दुकान पर अड्डा मारने और राजनीतिक गपशप करने चले जाते थे।
 इस काम में मुख्य तौर पर मेरे साथ होते थे दीनानाथ पांडेय जो इन दिनों कलिम्पांग में वकालत करते हैं।
  दरअसल तब तक मैं सक्रिय राजनीति में था और सोद्देश्य पत्रिकाओं के लिए लिखता भी था।
  मैंने लाॅ कालेज में दाखिला इसलिए भी कराया था ताकि जरूरत पड़ने पर रोजी -रोटी  के लिए वकालत कर सकूं।
  उससे पहले राजनीतिक कार्यकत्र्ता के रूप में मैं छपरा के  वकील रवींद्र प्रसाद वर्मा के यहां रहता था।वर्मा जी एक समर्पित लोहियावादी थे और कम में ही गुजारा कर लेने की आदत मैंने उनसे सीखी थी।
अब वह नहीं रहे।पर मैं इतना कह सकता हूं कि वह यदि किसी बहुसंख्या वाली जाति से होते तो कम से कम विधायक तो जरूर ही हो गए होते ।
 खैर धीरे -धीरे  मैंने यह महसूस किया कि न तो राजनीति मेरे वश की बात है और न ही वकालत।इसलिए लाॅ कालेज में तीन साल पढ़ा जरूर , पर कोई परीक्षा नहीं दी।
प्रथम वर्ष की परीक्षा नहीं देने के बावजूद सेकेंड और बाद में थर्ड इयर में प्रवेश ले लेने की छूट थी।
 इस तरह मैं करीब तीन साल तक कभी के  ‘पूरब के आॅक्सफोर्ड’ कहलाने वाले विश्व विद्यालय का छात्र होने का सुख हासिल करता रहा। आपातकाल में सी.बी.आई.मेरी तलाश में लाॅ कालेज तक भी गयी थी।
सी.बी.आई. बड़ौदा डायनामाइट केस की जांच कर रही थी।उसे मेरे सिर्फ एक ही पक्के ठिकाने का पता चल सका था यानी पटना लाॅ कालेज। 
 लाॅ कालेज में  प्रेम प्रकाश सिंहा और महितोष मिश्र जैसे सिरियस छात्र भी मेरे मित्र थे और अक्षय कुमार सिंह जैसे छात्र नेता भी।
इन्हें राजनीति में गहरी रूचि थी।प्रेम प्रकाश तो शिक्षा अधिकारी बने थे,पर महितोष से बाद में कोई संपर्क नहीं रहा।
 कुछ अन्य  मित्र भी याद आते हैं जिनसे संपर्क नहीं रहा।वैसे लव कुमार मिश्र से लगातार संपर्क रहता है क्योंकि वह भी पत्रकारिता में ही हैं।
मेरे सहपाठी दुबले -पतले किंतु तेजस्वी अशोक जी
भी थे जो पटना हाईकोर्ट में वकालत करते हैं।कभी -कभी उनसे फोन पर बात हो जाती है।कभी देखना है कि वे अब भी उतने ही दुबले हैं क्या ?
अशोक जी  विदेशी लहजे में फर्राटे से अंग्रेजी बोलते थे।
तब लाॅ कालेज में बी.एन.श्रीवास्तव  प्राचार्य थे।पोद्दार साहब,प्रयाग सिंह  और हिंगोरानी जी प्रमुख  शिक्षकों में थे।
 1972 से पहले भी पटना विश्व विद्यालय के छात्रावासों में मैं जाता  था राजनीतिक चर्चाओं के लिए।
उन दिनों की एक खास बात मुझे याद है ,वह यह कि शाम में पढ़ाई के समय छात्रावासों में कोई बाहरी व्यक्ति जाकर गपशप नहीं कर सकता था।
  छात्रावासों के मेरे समाजवादी मित्र राम उदगार महतो,राम नरेश शर्मा ,राज किशोर सिंहा और सुरेश शेखर याद आते हैं।
 सुरेश प्रसाद सिंह उर्फ सुरेश शेखर ने 1966 में मैट्रिक में पूरे बिहार में टाॅप किया था।वह डा.लोहिया से प्रभावित थे।
 प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले सुरेश अत्यंत तेजस्वी और दबंग थे।
उन्होंने तब के युवा तुर्क चंद्र शेखर से प्रभावित होकर अपने नाम के साथ शेखर जोड़ा था।बाद में उन्हें राजनीति से निराशा हुई और रिजर्व बैंक की नौकरी में चले गये।अब वह इस दुनिया में नहीं रहे।वह नीतीश कुमार के दोस्त  थे।
  बातें तो बहुत है।फिलहाल इतना ही।
हां,एक इच्छा जरूर है । काश ! पटना विश्व विद्यालय में एक बार फिर कम से कम 1972 का भी माहौल कोई लौटा देता तो वह राज्य का बड़ा कल्याण करता।उससे पहले जाना तो बहुत कठिन काम है। 






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