सोमवार, 30 अक्टूबर 2017

नरेंद्रदेव को सम्मान देने में विफल रहे नेतागण


     
देश में समाजवादी आंदोलन के भीष्म पितामह आचार्य नरेंद्र देव को इतिहास में उचित जगह दिलाने में कांग्रेस के साथ-साथ समाजवादी नेतागण भी विफल रहे।
  बाल गंगाधर तिलक और अरविंद घोष से प्रभावित होकर 1915 में सार्वजनिक जीवन में आए आचार्य नरेंद्र देव का कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना में प्रमुख योगदान था।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान आचार्य जी जवाहर लाल नेहरू के साथ लगभग चार साल विभिन्न जेलों में रहे ।‘डिस्कवरी आॅफ इंडिया’ लिखने में आचार्य जी ने नेहरू की बड़ी मदद की थी।
  डा.राम मनोहर लोहिया की मशहूर पुस्तक ‘इंतिहास चक्र’ भी तभी लिखा जा सका था जब आचार्य जी ने यह काम लोहिया से जबरन करवाया।उन दिनों लोहिया जी आचार्य जी के आवास में ही रहते थे।चर्चा थी कि पुस्तक लिखने के लिए आचार्य जी ने लोहिया को  अपने घर के एक कमरे में कैद कर दिया  था।किताब पूरी होने पर ही उन्हें कहीं बाहर जाने दिया।
 इसके बावजूद बाद के वर्षों में जब  डा.लोहिया ने आचार्य जी की तीखी आलोचना कर दी,फिर भी आचार्य जी ने उसे बुरा नहीं माना ।हां,आचार्य जी के परिवार वालों को बहुत बुरा लगा था। 
इसके बावजूद आचार्य जी ने 1954 में आस्ट्रेलिया से पी.डी.टंडन को भेजे अपने पत्र में लिखा कि ‘डा.लोहिया के मुकदमे में क्या हुआ ?जब उन्हें तुम मिलना तो मेरी स्नेहमयी शुभकामनाएं देना।’
  उत्तर प्रदेश के सीता पुर में 30 अक्तूबर 1889 को जन्मे आचार्य जी के राजनीतिक शिष्यों में पूर्व प्रधान मंत्री चंद्र शेखर भी थे।आचार्य जी का 19 फरवरी 1956 को निधन हो गया।
  जवाहर लाल नेहरू ने अपने नातियों के नाम  आचार्य जी की सलाह पर ही राजीव और संजय रखे थे।
  पर जब 1988 में समाजवादियों ने यह प्रयास किया कि उनका जन्म शताब्दी समारोह राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाए तो केंद्र सरकार ने पूर्व समाजवादी सांसद गंगा शरण सिंह को लिखा कि ‘इस संबंध में केंद्र सरकार कुछ नहीं कर सकेगी।उत्तर प्रदेश सरकार इसमें रूचि लेगी।’
तब राजीव गांधी देश के प्रधान मंत्री थे।
   माक्र्सवाद और कम्युनिस्ट शासित देशों के बारे में  युगद्रष्टा आचार्य जी की भविष्यवाणी सटीक साबित हुई।
प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की बिहार शाखा के गया अधिवेशन में 1955 में आचार्य जी ने कहा था कि ‘यांत्रिक आर्थिक प्रगति के साथ -साथ सोवियत नागरिक राजनीतिक बंधनों को अस्वीकार करने लगेंगे और सोवियत संघ लोकतंत्र की ओर बढ़ेगा। ’ उनका मत था कि  मानव की स्वाभाविक अभिव्यक्ति  लोकतंत्र ही है।वे लोकतांत्रिक समाजवाद पर जोर देते थे।
आचार्य जी भारतीय संस्कृति और बौद्ध दर्शन के प्रकांड विद्वान थे और माक्र्सवाद के अध्येता भी ।
उन्होंने भारतीय प्राचीन परंपरा को माक्र्सवादी चिंतन से जोड़ा।पर, आचार्य जी ने यह भी कहा था कि ‘माक्र्सवाद कोई अटल सिद्धांत नहीं है। जीवन की गति के साथ वह भी बदलता रहता है।इसकी विशेषता क्रांतिकारी होना है।माक्र्सवाद की शिक्षा में हेरफेर करना उस समय तक संशोधनवाद नहीं है,जब तक इस परिवत्र्तन में आप उसके क्रांतिकारी तत्व को सुरक्षित रखते हैंं।’
  आचार्य  जी न तो उग्र थे और न ही अशिष्ट।
वे उन लोगों से अलग थे जो उग्र भाषा से अपनी क्रांतिकारिता का प्रदर्शन करते थे।
  वे नैतिक आचरण और शिष्टता को राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं के लिए जरूरी मानते थे।
आचार्य जी उत्तर प्रदेश विधान सभा, विधान परिषद और राज्य सभा के सदस्य रहे।वे 1954 में  प्रजा समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने थे।वे बी.एच.यू.सहित कई विश्व विद्यालयों के कुलपति भी रहे।
 पर उनके लिए पद को कोई खास महत्व नहीं था।
 1934 से 1947 तक ‘कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी’ कांग्रेस के भीतर ही रहकर स्वतंत्रता की लड़ाई में सक्रिय थी।
  पर आजादी के बाद कांग्रेस ने  कहा कि कहा कि वे अपने संगठन को कांग्रेस में मिला दें क्योंकि यहां दोहरी सदस्यता नहीं चलेगी।
 आचार्य जी और उनके साथी कांग्रेस में मिलने के लिए  राजी नहीं हुए।
 वे लोग  कांग्रेस से अलग हो गए।
तब आचार्य नरेंद्र देव के संगठन के एक दर्जन सदस्य उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य थे।
 उन लोगों ने तय किया कि हम विधान सभा की सदस्यता से इस्तीफा  दे देंगे क्योंकि हम कांग्रेस के टिकट पर जीते थे और अब उस दल में हम नहीं है।
  कुछ लोगों ने उन्हें समझाने की कोशिश की  कि अभी कांग्रेस की हवा है।आपके इस्तीफे के कारण फिर चुनाव होंगे और उसमें आप जीत नहीं पाएंगे।
  आचार्य जी आज के नेताओं जैसे तो थे नहीं।उन्होंने कहा कि चाहे हम हार जाएं, पर इस्तीफा देंगे ही।उन्होंने इस्तीफा दिया भी ।उप चुनाव हुए।एक को छोड़कर 11 पूर्व विधायक हार गए।अपराजित होने वालों में खुद आचार्य जी भी थे।
 आचार्य जी के क्षेत्र में कांग्रेस ने जानबूझ कर एक कट्टर हिंदूवादी को उम्मीदवार बना दिया था।उसने प्रचार किया कि आचार्य नरेंद्र देव नास्तिक हैं।इस प्रचार का भी असर हुआ।
इसके बावजूद आचार्य जी आजीवन अपने सिद्धांतों पर कायम रहे।
 ऐसे महा पुरूष को लोगों ंने लगभग भुला ही दिया।
----सुरेंद्र किशोर   
@ ‘फस्र्टपोस्ट’ हिंदी पर 30 अक्तूबर 2017 को प्रकाशित@   
    


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