सच्ची घटना या फसाना ?
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सुरेंद्र किशोर
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एक लोक सभा सदस्य ने अपने क्षेत्र के एक स्वजातीय दबंग परिवार के चार सदस्यों को बारी- बारी से नौकरी पर लगवाया।
उस परिवार ने पांचवें बेरोजगार परिजन को भी नौकरी दिलाने की एम.पी.साहब से मांग की।
किसी चीज की भी एक सीमा होती है।
पांचवें सदस्य को एम.पी.साहब नौकरी नहीं दिलवा सके।
नतीजतन,वह परिवार गुस्से में ‘पागल’ हो गया।
उस परिवार ने अपने आसपास के स्वजातीय मतदाताओं को समझा-बुझाकर अगले चुनाव में एम.पी.साहब के खिलाफ उम्मीदवार को वोट दिलवा दिया।
प्रतिपक्षी उम्मीदवार भी एक दूसरी दबंग जाति से आता था।
क्षेत्र के अन्य अनेक परिवारों को भी निवर्तमान सांसद ने मदद की थी।
पर जो मदद करता है,उससे मदद पाने वालों की मांग बढ़ती जाती है।
मांग पूरी नहीं होने पर अधिकतर लोग नाराज हो जाते हैं।
क्योंकि वे किसी एम. पी. को अलादीन का चिराग समझ लेते हैं।
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एम.पी.साहब जब चुनाव हार गए तो उनका उन संस्थानों पर से प्र्रभाव भी खत्म हो गया जहां उन्होंने अपने लोगों को काम दिलवाया था।
बारी -बारी से उस दबंग व्यक्ति के चारों परिजन नौकरी से बाहर कर दिए गए।
उनकी जगह नए एम.पी. के लोग बहाल हो गए।
यानी, पांचवें परिजन की नौकरी के चक्कर में पहले से बारोजगार परिजन बेरोजगार हो गए।
यानी, चैबे गए छब्बे बनने, दुबे बनकर आ गए।
जिसे जिताया गया ,उसे भी अपनी जाति के लोगों के काम करने से फुर्सत कहां थी ??
इसे आप सच्ची कहानी भी समझ सकते हैं या कोई फसाना भी।
पर,आज के समाज व राजनीति को देखते हुए यह सच भी हो सकता है।
मुझे तो तीन दशक पहले एक राजनीतिक कार्यकर्ता ने इसे सच्ची घटना बताकर यह कहानी सुनाई थी।
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19 मई 22.
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