मुफलिसी में भी सादिक अली ने
राज्य सभा की सीट ठुकरा दी थी
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किंतु अब राजनीति का हाल यह है कि यदि नेतृत्व ने किसी को दूसरी बार या तीसरी बार राज्य सभा नहीं भेजा तो अधिकतर नेता पार्टी छोड़ देते हंै।
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कहते हैं कि राजनीति में न तो कृतज्ञता होती है और न ही राजनीतिक लड़ाई के मैदान में कोई एम्बुलेंस होता है।
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--सुरेंद्र किशोर--
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ऐसे में स्वतंत्रता सेनानी सादिक अली, सर्वोदय नेता आचार्य राममूत्र्ति और राम इकबाल बरसी उर्फ ‘पीरो के गांधी’ याद आते हैं।
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‘पीरो के गांधी’
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डा.राममनोहर लोहिया ने राम इकबाल जी को ‘‘पीरो का गांधी’’ नाम दिया था।
राम इकबाल जी सन 1969 में बिहार विधान सभा के सदस्य बने थे।
1977 में जब पार्टी ने उन्हें पीरो से चुनाव लड़वाना चाहा तो उन्होंने कहा कि ‘‘हर बार हमीं लड़ेंगे ?
किसी दूसरे साथी को टिकट दीजिए।’’
दूसरे को टिकट मिला और वह विजयी हुआ।
क्योंकि हवा
जनता पार्टी के पक्ष में थी।
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सादिक अली
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सादिक अली ने तो सत्तर के दशक में भारी निजी आर्थिक दिक्कतों के बावजूद कर्नाटक से राज्य सभा में जाना मंजूर नहीं किया था।
इस बारे में पूर्व विदेश मंत्री श्यामनंदन मिश्र ने बताया था कि
‘‘पार्टी के सभी नेताओं ने सम्मिलित रूप से यह कहा कि सादिक अली कर्नाटका से राज्य सभा में जाएं। पर,जब यह प्रस्ताव विधिवत पारित होने के दौर में आया तो सादिक भाई से रहा नहीं गया।
अपने स्वभाव के विपरीत वे ऐसा बमके कि सभी की सिट्टी -पिट्टी गुम।
सादिक भाई बोले,
‘‘राज्य सभा की सीट ?
कर्नाटक से ?
क्या लेना -देना है मेरा वहां से ?’’
वे यह कहना चाहते थे कि न तो मैं वहां का निवासी हूं और न ही वोटर।
मैं कभी नहीं वहां से राज्य सभा जाऊंगा।’’
मिश्र जी ने कहा था कि ‘‘शब्द मेरे हैं,पर करीब -करीब इसी तरह सादिक भाई ने अपनी भावना व्यक्त की।
यानी सादिक भाई शरणार्थी होकर
केनिंग लेन में रहते रहे और जनता पार्टी की सरकार के केंद्र में सत्ता में आने के बाद वहीं से सीधे राज्यपाल बन कर मुम्बई के राज भवन गये।’’
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‘ बाद के वर्षों में तो इस देश के कई नेताओं ने राज्य सभा की सदस्यता पाने के लिए दल तोड़े, अपने नीति, सिद्धांत व ईमान बेंचे ।
जिस नेता को कल तक ‘‘दूसरा भगवान’’ कहा,उसे ही बाद में भद्दी -भद्दी गालियां दीं।
साथ ही, जिस नेता को कल तक राक्षस बताया था, उसकी रातों -रात चरण वंदना शुरू कर दी।
राज्य सभा की सदस्यता के लालच में इस देश के कर्णधारों ने इसके चुनाव के नियम ही बदल दिए।
क्या आज राज्य सभा का स्वरूप वही है जिसकी कल्पना संविधान निर्माताओं ने की थी ?
ऐसे में सादिक अली और भी याद आते हैं।
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आचार्य राम मूर्ति
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आचार्य जी ने नब्बे के दशक में तत्कालीन प्रधान मंत्री वी.पी.सिंह और मुख्य मंत्री लालू प्रसाद के ऐसे ही आॅफर को ठुकरा दिया था।
मैं पटना के श्रीकृष्ण स्मारक भवन में मौजूद था जब मुख्य मंत्री लालू प्रसाद ने यह बात सार्वजनिक रूप से बताई थी।
उस सभा में आचार्य राममूर्ति और प्रधान मंत्री वी.पी.सिंह भी थे।
लालू प्रसाद ने कहा कि मैंने और राजा साहब (यानी वी.पी.सिंह) ने आचार्य जी से कहा था कि आपको हम राज्य सभा का सदस्य बनाना चाहते हैं।
लेकिन आचार्य जी ने साफ मना कर दिया।
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बाद में एक बार मैं अपने संपादक प्रभाष जोशी के साथ आचार्य राममूर्ति से मिलने पटना स्थित उनके आवास गया था।
वे बहुत ही साधारण ढंग से रहते थे।
याद रहे कि वह उनका अपना मकान नहीं था।
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उने महत्व को समझने के लिए यह बात बताता हूं।
बिहार आंदोलन के दौरान जब जेपी इलाज कराने दक्षिण भारत गए थे तो उन्होंने अपनी जगह नेतृत्व का भार आचार्य राममूर्ति को ही सौंपा था।
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इन उदाहरणों को पढ़कर मेरे कुछ
फेसबुक फंे्रड यह लिखेंगे कि
‘‘अरे भई,आप कब की बात कर रहे हैं ?
वह जमाना ही दूसरा था।
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मैं इससे सहमत नहीं हूं।
उस जमाने में भी राजनीति में एक से एक भ्रष्ट व लोभी लोग थे।
आज भी अनेक कई ईमानदार लोग हैं।
हां, तब ईमानदार अधिक थे आज बेईमान अधिक।
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यदि तब बड़ी संख्या में बेईमान नहीं होते तो 1985 आते -आते 100 सरकारी पैसे घिसकर
15 पैसे कैसे रह जाते ?
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1963 में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष डी.संजीवैया
क्यों कहते कि
‘‘वे कांग्रेसी जो 1947 में भिखारी थे, वे आज करोड़पति बन बैठे।’’
इंदौर की सभा में गुस्से में बोलते हुए कांग्रेस अध्यक्ष ने यह भी कहा था कि ‘‘झोपड़ियों का स्थान शाही महलों ने और कैदखानों का स्थान कारखानों ने ले लिया है।’’
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दरअसल राज्य सभा की सदस्यता के साथ बेशुमार घोषित-अघोषित सुविधाओं
के इस बीच जुड़ जाने के कारण सदस्यता के लिए ‘मारामारी’ बढ़ गई है।
सांसद फंड का विशेष आकर्षण है।
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जन हितकारी दलांे के नेताओं को चाहिए कि वे अपवादों को छोड़कर उच्च सदन की सदस्यता सिर्फ एक ही बार किसी को दिलाएं।
साथ ही, सांसद फंड की समाप्ति की गंभीर कोशिश करें।
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30 मई 22
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