कई साल पहले की बात है।
‘हंस’ के संपादक राजेंद्र यादव ने मुझे फोन किया।
कहा कि मुझे जिस एक खास लेख की जरूरत है,वह आपके ही पास मिलेगा,ऐसा मुझे बताया गया है।
अन्यत्र कहीं नहीं मिल रहा।
क्या आप मुझे भेज सकते हैं।
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अब बताइए,राजेंद्र यादव आपको फोन करें और आप बात टाल दें,यह कैसे हो सकता है ?
जब तक राजेंद यादव जीवित रहे,मैं लगातार हंस खरीदता रहा।
हंस के राजेंद्र यादव और आउटलुक के विनोद मेहता मेंरे प्रिय संपादकों में से रहे हैं।विनोद मेहता के बाद मैंने आउटलुक खरीदना भी बंद कर दिया।
आप इन दोनों से भले कई मामलों में असहमत हों,पर एक बात तय है कि उनके लेखन और संपादन में नयापन रहा।
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खैर,मैंने राजेंद्र यादव जी से कहा कि खोजने में मेहनत तो है,पर मैं आपके लिए यह काम जरुर करूंगा।
उन्हें एक ‘‘बौद्धिक बहस’’ में विजयी होने के लिए वह लेख जरूरी था।
मैंने खोजकर उन्हें भेज दिया।उसके आधार पर राजेंद्र यादव ने जवाबी लेख लिखा।
मुझे धन्यवाद देते हुए उस लेख में मेरा जिक्र भी किया।
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अब मैं खुद पर आता हूं।
मुझे अफसोस है कि मैं खुद से संबंधित तीन सामग्री संजोकर नहीं रख सका।
1.-सन 1967 में मेरे नाम लिखी डा.राम मनोहर लोहिया की चिट्ठी।
हैदराबाद के बदरी विशाल पित्ती के प्रकाशन द्वारा तैयार ‘‘लोक सभा में लोहिया’’ में मेरी उस चिट्ठी की फोटो काॅपी छपी हुई है।मस्तराम कपूर वाले में नहीं है।
2.-सन 1970 में मेरी कविता को प्रथम पुरस्कार मिला था।वह कविता राजेंद्र काॅलेज ,छपरा की पत्रिका राका में छपी थी।
3.-1977 में मैंने और पारसनाथ सिंह ने मिलकर जेपी का लंबा इंटरव्यू किया था।वह दैनिक आज (वाराणसी और कानुपर संस्करण)के मार्च, 1977 के किसी अंक में छपा था।उस इंटरव्यू को बी बी सी ने भी उधृत किया था।
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ये तीन चीजें मेरे पास नहीं हैं।
मैंने देश के अनेक मित्रों -परिचितों से निवेदन किया।पर,मुझे
अब तक अप्राप्त है।
मैंने राजेंद्र यादव के लिए जितनी मेहनत की,वैसी मेहनत करने के लिए कोई तैयार नहीं लगे।
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कभी -कभी मुझे लगता है कि मैं राजेंद्र यादव तथा उनके जैसे न जाने कितने मित्रों-परिचितों के लिए मेहनत क्यों करता रहता हूं ?
मेरा समय भी बहुमूल्य है।
यूं कहिए कि मेरे पास अब समय कम है अब भी काम ज्यादा।
इसीलिए इन दिनों मैं अपने घर से निकलता ही नहीं हूं।
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13 अक्तूबर 23
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