शुक्रवार, 27 अक्तूबर 2023

 



आज के दैनिक जागरण में प्रकाशित 

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संकट में काम आने वाला मित्र है इजरायल

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सुरेंद्र किशोर

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कारगिल संघर्ष के साथ 1971 के युद्ध में भी इजरायल ने हमारी मदद की थी,जबकि तब उससे हमारा राजनयिक संबंध नहीं था

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मित्रों का चयन सदैव सोच-समझकर और अपने हितों को ध्यान में रखकर करना चाहिए।

यह बात अंतरराष्ट्रीय संबंधों के मामले में भी लागू होती है।

हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि जवाहरलाल नेहरू की ओर से अनुपयुक्त मित्र का चयन होने के कारण हमने चीन के हाथों पराजय झेली थी।

मित्र सोवियत संघ ने उस कठिन दौर में भारत की मदद नहीं की।

आखिरकार भारत को अमेरिका के सामने मदद के लिए हाथ पसारना पड़ा।

प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 

इजरायल से दोस्ती करके पाकिस्तान के खिलाफ  कारगिल की कठिन लड़ाई जीती।

1962 के आसपास हमें ‘‘साम्यवादी अंतरराष्ठ्रीयतावाद’’ से लड़ना पड़ा था।

 1962 में चीन से युद्ध के बाद सी.पी.आई. से निकल कर 1964 में गठित सीपीएम अर्थात माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी दो हिस्सों में बंट गई।वैसे सी.पी.आई. से निकल कर 

 1964 में गठित सी.पी.एम.में शामिल हुए नेताओं ने भी तब चीन का ही साथ दिया था।

आज हमें ‘‘इस्लामिक अंतरराष्ट्रीयतावाद’’ से जूझना पड़ रहा है।यह किसी से छिपा नहीं है कि 

इस मामले में देश के कुछ लोग,दल एवं संगठन राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग राय रखती हैं।

   कठिन दौर में इजरायल ही हमारी मदद कर सकता है,इसे  ध्यान रखते हुए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने

इजरायल-हमास युद्ध में इजरायल के साथ खड़े होने का  निर्णय किया।यह निर्णय देशहित में है।  

कारगिल युद्ध के समय हमारी मदद करके इजरायल ने यह साबित  किया था कि गाढ़े वक्त में वही हमारी मदद कर सकता है।

 1971 के युद्ध के समय भी इजरायल ने हमारी मदद की थी, जबकि तब उससे हमारा राजनयिक संबंध नहीं था।

 इजरायल से भारत का पूर्ण  राजयनिक संबंध सन 1992 में  कायम हो सका ।तब तक संबंध न होने का कारण इस्लामी देशों की नाराजगी का भय भी था और वोट बैंक की घरेलू राजनीति भी।इजरायल से संबंधों को मजबूत बनाने में मोदी सरकार ने विशेष सक्रियता दिखई।

इसके चलते आज दोनों देशों के संबंध कहीं अधिक प्रगाढ़ हैं।

 1962 के युद्ध के समय में सोवियत संघ ने कहा था कि ‘‘हम मित्र भारत और भाई चीन के बीच के झगड़े में हस्तक्षेप नहीं कर सकते।’’

 बाद में यह पता चला कि चीन ने भारत पर हमला करने से पहले सोवियत संघ की सहमति ले ली थी। 

यह सही बात है कि बांग्लादेश युद्ध के समय सोवियत संघ की मदद भारत के बहुत काम आई थी।

लेकिन उसने हमेशा अपनी कम्युनिस्ट विचार धारा के हिसाब  से ही कदम उठाए।

अधिकतर देश अपने राष्ट्रहित को ध्यान में रखकर ही फैसले करते हैं,लेकिन आजादी के बाद भारत सरकार ने कई बार भावनाओं से काम लिया जो अव्यावहारिक साबित हुए और हमें उसके दुष्परिणाम भुगतने पड़े।

आज यदि  मोदी सरकार रूस-उक्रेन युद्ध में निष्पक्ष

है तो यह राष्ट्रहित में है।

  कारगिल संघर्ष के समय की विषम स्थिति को याद करें।

पाकिस्तानी  सैनिक तब ऊंची पहाड़ियों पर छितरे हुए थे।उन्हें वहां से भगाने के लिए हमारी सेना को उच्च तकनीकी वाले हथियार चाहिए थे।

इसके अतिरिक्त सेटेलाइट की सुविधा की जरूरत थी।

गोला-बारूद की भी कमी थी।

किसी अन्य देश ने हमारी मदद नहीं की।उस विकट स्थिति में इजरायल ने हमें सब कुछ दिया जिसकी हमें जरूरत थी।

यहां तक कि चालक रहित विमान और बराक मिसाइल सिस्टम भी।

अन्य देशों ने भारत को ऐसी मदद करने से इजरायल को रोका भी,लेकिन उसने उनकी परवाह न करके हमारी मदद की।

उस मदद के कारण हम पाकिस्तानी सैनिकों को अपने भूभाग से भगा सके।   

दूसरी ओर, यह देखें कि चीन युद्ध के समय सोवियत संघ ने 

क्या किया था ?

 1987 में मशहूर वकील व लेखक एजी.नूरानी ने चीनी दस्तावेजों और सोवियत प्रकाशन का संदर्भ देते हुए अपने शोध पूर्ण लेख में लिखा था, ‘‘जब चीनी नेताओं ने सोवियत संघ के नेता निकिता खु्रश्चेव को बताया कि सीमा पर भारत का रुख आक्रामक है तो उन्होंने भारत के खिलाफ चीनी कार्रवाई को मंजूरी दे दी।’’     

     नुरानी के अनुसार  2 नवंबर, 1963 के चीनी अखबार ‘द पीपुल्स डेली’ ने

लिखा था कि  8 अक्तूबर 1962 को चीनी नेता ने सोवियत राजदूत से कहा कि भारत हम पर हमला करने वाला है और 

यदि ऐसा हुआ तो चीन खुद अपनी रक्षा करेगा।’’

13 अक्तूबर 1962 को खु्रश्चेव ने चीनी राजदूत से कहा कि ‘हमें भी ऐसी जानकारी मिली है और 

यदि हम चीन की जगह होते तो हम भी वैसा ही कदम उठाते जैसा कदम उठाने को वह सोच रहा है।’

  इसके बाद  20 अक्तूबर 1962 को चीन ने भारत पर हमला कर दिया।

   सोवियत संघ की ओर से चीन का समर्थन करने का प्रमाण  सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार ‘प्रावदा’ में भी मिलता है।

25 अक्तूबर, 1962 को ‘प्रावदा’ ने अपने संपादकीय में लिखा कि चीन मैकमोहन रेखा को नहीं मानता और हम इस मामले में चीन का समर्थन करते हैं।

 5 नवंबर 1962 को इसी अखबार ने लिखा कि ‘‘भारत को चाहिए कि वह चीन की शर्त को मान ले।’’

चीनी हमले के समय हमारी सेना के पास न तो गर्म कपड़े थे और न ही जूते।

जब चीन ने हमला किया तो भारतीय सेना ने कैसे मुकाबला किया ?

 एक युद्ध संवाददाता के अनुसार ,

 ‘‘ हम युद्ध के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे।

 हमारी सेना के पास अस्त्र,शस्त्र की बात छोड़िये,कपड़े तक नहीं थे।

 प्रधान मंत्री ने कभी सोचा ही नहीं था कि 

चीन  हम पर हमला करेगा।

अंबाला से 200 सैनिकों को एयरलिफ्ट किया गया था।

उन्होंने सूती कमीजें और निकरें पहन रखी थीं।

उन्हें बोमडीला में एयर ड्राप कर दिया गया

जहां का तापमान माइनस 40 डिग्री था।

वे इतनी भीषण ठंड का सामना नहीं कर सके।

  14 नवंबर 1962 को रक्षा मंत्री वाई.बी.चव्हाण ने पुणे में कहा था,‘हमें यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि चीन के खिलाफ सोवियत संघ हमारा साथ देगा।’

   कुल मिलाकर अतीत में जब हमने सही दोस्त का चयन नहीं किया तो हमारे साथ धोखा हुआ।

बाद  में जब हम  सावधान हुए तो स्थिति सकरात्मक दिशा में बदली।इसी कारण इजरायल से मित्रता घनिष्ठ हुई।

इस घनिष्ठमता को और बढ़ाने की जरूरत है,क्योंकि वह हमारा सच्चा मित्र है और संकट में हमारा साथ देता है।

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20 अक्तूबर 23 


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