शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2021

 


  जन प्रतिनिधियों को चाहिए कि वे सम्मान ‘कमांड’ करें न कि डिमांड -सुरेंद्र किशोर 

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बिहार विधान सभा शताब्दी वर्ष समारोह में कुछ नेताओं ने  कहा कि 

‘‘सरकारी अफसर विधायकों से मिलने के समय खड़े भी नहीं होते।

प्रोटोकल व शिष्टाचार का पालन नहीं हो रहा है।’’

  विधायकों की यह शिकायत सही है।यह शिकायत आम है।

पर, सवाल है कि ऐसा अब होता क्यों है ?

कुछ दशक पहले तक तो ऐसी शिकायत इक्की-दुक्की ही थी।

इसके लिए क्या सिर्फ अफसर जिम्मेदार हैं ?

  कुछ कारण तो समझ में आता है।

बाकी के बारे में खुद विधायकों को आत्म चिंतन करना होगा।

आजादी के तत्काल बाद के वर्षों में आम तौर पर राजनीति ‘सेवा’ थी।

  दूसरी ओर, सरकारी सेवक आम तौर पर ‘नौकरी’ करते थे।

दोनों के बीच तब भी अपवाद थे और आज भी हैं।

  समय बीतने के साथ आम तौर पर राजनीति भी ‘नौकरी’ की तरह होती गई।

  अब तो पेंशन का भी प्रावधान है।

संविधान निर्माताओं ने तो पेंशन के बारे में सोचा भी नहीं था।

 फिर तो दोनों यानी नेता व अफसर बराबरी के स्थान पर आ गए।

विधायक -सांसद फंड ने राजनीति की गरिमा को  और  भी घटा दिया।

 विधायक -सांसद फंड में जारी घोटालों के खिलाफ खुद सांसदों-विधायकों को उठ खड़ा होना होगा।

एक बार फिर बता दूं कि अब भी राजनीति में सेवाभाव वाले लोग मौजूद हैं।

पर, बहुत थोड़े।

  इस गरिमा की वापसी कैसे होगी ?

उस पर सेवाभाव वाले नेतागण गंभीर विचार करें ।

उपाय कीजिए।

उस काम में सफल होइए।

फिर आप आदर-सम्मान ‘कमांड’ करेंगे।

आपको देखते लोगों के मन में आदर का भाव उमड़ आएगा।

आपको ‘डिमांड’ करने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

इस दिशा में एक ठोस  कदम पर विचार करें।

बेहतर तो यह होगा कि खुद सांसद और विधायकगण क्रमशः सांसद और विधायक फंड की समाप्ति की मांग करें यदि घोटाला -कमीशनखोरी न रोक पाते  हांे तो।

  अपवादों को छोड़कर  आज देश में सांसद व विधायक फंडों के खर्चे के सिलसिले में क्या-क्या हो रहा है,यह किसी से छिपा हुआ है ?   

  जन प्रतिनिधि गण मिलने पर अफसरों को खड़ा होने के लिए मजबूर कर सकते हैं।

क्योंकि वैसा नियम है।

पर, इसके बदले अपना व्यक्तित्व ऐसा बनाइए ताकि अफसर का दिल कहे कि आपको देखते ही उसे खड़ा हो जाना चाहिए। 

 कल्पना कीजिए कि कर्पूरी ठाकुर किसी अफसर के आॅफिस में जाते तो क्या अफसर उठकर खड़ा नहीं हो जाता ?

आप कहेंगे कि सब लोग कर्पूरी ठाकुर नहीं बन सकते।

पर,बनने की कोशिश तो कीजिए।

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    विरोध,विरोध और सिर्फ 

     अतार्किक विरोध !

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प्रधान मंत्री  नरेंद्र मोदी ने कहा है कि नए कृषि कानून किसी के लिए बंधन नहीं,बल्कि विकल्प हैं।

इसलिए इसके विरोध का कोई कारण नहीं है।

उन्होंने ठीक ही कहा है।

किंतु जो प्रतिपक्ष सी.ए.ए.के विरोध में हुई भीषण हिंसा करने वालों का भी समर्थन कर सकता है, उससे विवेकपूर्ण राजनीति की उम्मीद करना ही फिजूल है।

याद रहे कि सी.ए.ए.के जरिए इस देश के बाहर से यहां आए लोगों को नागरिकता देनी है।

यहां के किसी वैध नागरिक की नागरिकता पर उस कानून का कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ने वाला है।

  फिर भी सी.ए.ए.के खिलाफ कुछ महीना पहले इस देश में भीषण दंगे कराए गए।

  उसी तरह एन.आर.सी.से भी इस देश के असली नागरिकों को कोई नुकसान नहीं पहुंचने वाला है।

फिर भी कुछ खास लोग एन.आर.सी.के खिलाफ खड्गहस्त हैं।

  जबकि चीन और पाकिस्तान सहित हर सार्वभौम देश में नागरिकों का रजिस्टर रखा जाता है।

पर,हमारे यहां के जो लोग इस देश को देश नहीं,बल्कि धर्मशाला मानते हैं,वे सी.ए.ए.और एन.आर.सी.का विरोध करते हैं।

  ऐसे लोगों को क्या किया जाए ?

आम लोगों को सोचना है।

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छोटी नदियों पर चेक डैम 

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बिहार की छोटी नदियों पर चेक डैम बनाने की जरूरत बताई जाती रही है।

पर पता नहीं,इसका क्रियान्वयन क्यों नहीं हो पाता।

खबर है कि इस संबंध में कई महीने पहले एक सामाजिक कार्यकत्र्ता ने मुख्य मंत्री नीतीश कुमार को चिट्ठी लिखी थी।

मुख्य मंत्री ने उस चिट्ठी को अपने निदेश के साथ संबंधित विभाग को भेज भी दिया।

पर,बात अभी आगे नहीं बढ़ी है।

  जानकार लोग बताते हैं कि यदि छोटी-छोटी नदियों पर

कुछ -कुछ दूरी पर चेक डैम बन जाएं तो रुके हुए पानी से सिंचाई का प्रबंध हो पाएगा।

इससे भूजल स्तर के गिरने की समस्या कम होगी।

 उस पानी को साफ करके  पीने के काम में भी इस्तेमाल हो सकता है।

यदि राज्य में उद्योग-धंधे बढं़े तो उनमें इस्तेमाल करने के लिए भी  जल की कमी नहीं रहेगी।   

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  और अंत में

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जयप्रकाश नारायण अपने जीवन के प्रारंभिक वर्षों में माक्र्सवादी थे।

बाद के वर्षों में ‘लोकतांत्रिक समाजवादी’ बने।

उसके बाद सर्वोदयी हुए।

अंत में कांग्रेस सरकार के विरोध में जारी आंदोलन का सफल नेतृत्व किया।

डा.राम मनोहर लोहिया कभी कम्युनिस्टों के खिलाफ थे।

किंतु साठ के दशक में उन्होंने जनसंघ के साथ-साथ कम्युनिस्टों से भी राजनीतिक तालमेल किया।

 यानी इन नेताओं ने देश,काल और पात्र के भले को ध्यान में रखते हुए अपना राजनीतिक व वैचारिक रुख-रवैया तय किया।

उन बदलाव में जेपी-लोहिया का खुद का कोई निजी स्वार्थ नहीं था।

वे कभी सत्ता के पीछे नहीं दोड़े।

एक  सवाल आज खास तौर पर जेपी व लोहिया के अनुयायियों से है।

कल्पना कीजिए कि आज जेपी और लोहिया हमलोगों के बीच होते तो आज की स्थिति में उनकी कैसी राजनीतिक भूमिका होती ? 

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प्रभात खबर,पटना ,12 फरवरी 21


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