सुरेंद्र किशोर के फेसबुक वाॅल से
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मुझे इसलिए बेचनी पड़ी अपनी जमीन
--सुरेंद्र किशोर--
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अपनी जमीन बिक्री का रजिस्ट्रेशन कराने
कल मैं पटना रजिस्ट्री आॅफिस गया था।
मार्च तक यह आॅफिस रविवार को भी खुला रहेगा।
जमीन क्यों बेची,यह कहानी बाद में।
पहले आॅफिस परिसर के बारे में दो बातें।
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छज्जुबाग स्थित विस्तृत परिसर में इन दिनों यह आॅफिस अवस्थित है।
पहले गंगा किनारे कलक्टरी के पास था।
कलक्टरी का नया भवन बन रहा है।
इसलिए छज्जु बाग में स्थानांतरित कर दिया गया।
पहले इस बंगले में मंत्री रहते थे।
आगे भी रजिस्ट्री आॅफिस छज्जुबाग में ही बना रहेगा।
कलक्टरी भवन बन जाने के बाद भी वहां नहीं जाएगा,ऐसा मुझे बताया गया।
यह अच्छा फैसला है।
मौजूदा परिसर को देखकर अच्छा लगा।
सिर्फ एक बात को छोड़कर।
साफ-सुथरी जगह है।
लोगों के बैठने के लिए बहुत सारी कुर्सियां लगी हंै।
स्वच्छ पेयजल की भी व्यवस्था है।
परिसर में बड़े -बड़े वृक्ष हैं-गर्मी से राहत देने वाले।
कम्प्यूटरीकरण -मशीनीकरण से काम आसान हो गया है।
एप्वंाटमेंट पहले ही मिल जाता है कि दिन में कितने बजे आपको आना है।
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पर,शौचालय की दुर्दशा देखकर मन क्षोभ से भर उठा।
उसमें प्रबंधन से अधिक इस्तेमाल करने वालों का कसूर लगा।
अब स्कूलों में पढ़ाया जाना चाहिए कि टाॅयलेट का इस्तेमाल कैसे किया जाए।
यह पीढ़ी तो सीखने से रही।
अगली पीढ़ियां तो सीख जाएं !
समय -समय पर मैंने यह पाया है कि चाहे पटना के आलीशान ज्ञान भवन की बात हो या मौर्यलोक परिसर की,
कहीं भी शौचालय इस्तेमाल के लायक नहीं मिले।
मजबूरी में करना पड़ा।
उसकी देखरेख की स्थायी व्यवस्था होनी चाहिए।
उससे बिहार की छवि बेहतर बनेगी।
एक कहावत है कि व्यक्ति की सफाई-पसंदगी का पता उसके बैठकखाने से नहीं बल्कि उसके शौचालय के रख-रखाव से चलता है।
मैं जोड़ता हूं--सरकारी दफ्तरों का पता ‘साहब’ के चेम्बर से नहीं बल्कि शौचालय से चलता है।वैसे कोई एक ‘साहब’ भला क्या करेंगे ?
इस संबंध में तो राज्य स्तर पर कोई नीति तय हो।
नीतीश कुमार ऐसे नए -नए कामों करने के लिए जाने भी जाते हैं।
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खैर, अब जमीन के बारे में।
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करीब 25 साल पहले मैंने पटना के पास के एक गांव में बहुत ही सस्ती जमीन खरीद ली थी।
मुख्य नगर में बसने की आर्थिक क्षमता नहीं थी।
घर बनाने के लिए और उसमें से कुछ जमीन को बेचकर बुढ़ापे के गुजारे के लिए।
मेरी शिक्षिका पत्नी के नाम पर लिए गए एल.आई.सी. लोन और उनके सेवांत लाभ के पैसों से घर तो बन गया।
उनकी पेंशन राशि से चैके के खर्च तथा अन्य बुनियादी खर्च पूरे हो जाते हैं।
अब जमीन बेचकर मैं अपने निजी खर्चे का प्रबंध कर रहा हूं।
जमीन से मिले पैसों को बैंक में रखने से सूद मिलेगा।
उधर सरकार को आयकर का लाभ मिलेगा।
क्योंकि मैंने जमीन के सारे पैसे ‘व्हाइट’ में ही लिए हैं।
जमीन बच जाती तो हमारे बाल- बच्चों के लिए बहुत उपयोगी होती।
पर, मैं बेच देने को लाचार था।
मैं अपनी प्रस्तावित पुस्तकों पर काम कर रहा हूूं।
इस सिलसिले में लोगों से मिलने और पुस्तकालयों में जाने-आने में पैसे लगेंगे।
जमीन से मिले ये पैसे काम आएंगे।
पत्नी की पेंशन राशि पर पूर्ण निर्भरता वैसे भी सही नहीं है।
उन पैसों पर उनका ही पहला हक है।
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बिहार सरकार ने पत्रकारों के लिए पेंशन का प्रावधान किया है।
नीतीश कुमार का यह सराहनीय काम है।
मैं ऐसे कई प्रतिभाशाली लोगों को जानता हूं जो सरकारी नौकरी पा सकते थे, किंतु पत्रकारिता में आए।
क्योंकि पत्रकारिता कुछ दशक पहले तक सिर्फ रोजी-रोटी या धन कमाने वाला पेशा नहीं थी।
पर, पत्रकारिता की नौकरी में गुजारे लायक पेंशन का प्रावधान नहीं होने के कारण वैसे पत्रकार बुढ़ापे में कष्ट में रहे।
रिटायर हो जाने के बाद अधिकतर पत्रकारों को कोई नहीं पूछता जिनकी सेवा काल में बड़े -बड़े लोग खुशामद करते रहते हैं।
यह बात मैं पहले से जानता रहा हूं।
नियमतः मैं भी बिहार सरकार की पेंशन का हकदार था।
सन 1977 से ही पी.एफ. वाली नौकरी में रहा।
पर मैंने उसके लिए आवेदन नहीं किया।
इसलिए नहीं कि मैं पेंशन का विरोधी हूं।
मैं तो बिहार पत्रकार पेंशन योजना के विस्तार का पक्षधर हूं।
‘संख्या-वार’ और ‘राशि-वार’ भी।
वैसे मेरा काम उस पेंशन के बिना भी चल जाएगा।
अधिक जरूरतमंद को अधिक मिले,यह कामना है।
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पेशेवर पत्रकारिता में आने के समय ही मैंने अपने लिए कुछ ‘लक्ष्मण रेखाएं’ खींची थीं।
उसमें एक यह भी है कि जिस पैसे के लिए मैंने मेहनत नहीं की,उसे मैं स्वीकार नहीं करूंगा।
हां,मैं पी.एफ.से जुड़ी अपनी पेंशन राशि में बढ़ोत्तरी के पक्ष में जरूर हूं जो अभी हास्यास्पद ढंग से अत्यल्प है।
मुझे हर माह 1231 रुपए मिलते हैं।
केंद्र सरकार से उसकी बढ़ोत्तरी की लगातार मांग हो रही है।
पर कोई नतीजा नहीं।
उप सभापति बनने से पहले हरिवंश जी ने मेरा नाम लेकर राज्य सभा में यह बात उठाई थी।
फिर भी कुछ नहीं हुआ।
पी.एफ.पेंशन में वार्षिक बढ़ोत्तरी का कोई प्रावधान नहीं।
शायद दुनिया की यह ऐसी एकमात्र पेंशन व्यवस्था है जिसमें वार्षिक बढ़ोत्तरी या महंगाई के अनुपात में वृद्धि का कोई प्रावधान नहीं।
‘‘सबका साथ,सबका विश्वास’’ की कामना करने वाले प्रधान मंत्री तक शायद इस अन्याय की खबर नहीं पहुंच सकी है।
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8 फरवरी 21
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