रोहिणी आयोग की सिफारिश के लागू होने से ही समरूप लाभ संभव-सुरेंद्र किशोर
....................................
डा.राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि आरक्षण लागू होने के बाद उसका अधिक लाभ मजबूत पिछड़े ही पहले उठाएंगे।
आरक्षण के समर्थक डा.लोहिया को शायद उम्मीद रही होगी कि बाद के वर्षों में कमजोर पिछड़ों को भी आरक्षण का लाभ मिलने लगेगा।
किंतु उनका अनुमान सही नहीं निकला।
केंद्र सरकार की नौकरियों के लिए मंडल आरक्षण 1993 में लागू हुआ था।
पर ढाई दशक के बाद भी जब देश की करीब एक हजार पिछड़ी जातियां केंद्रीय सेवाओं में मंडल आरक्षण के लाभ से वंचित रहीं तो आरक्षण के उप वर्गीकरण की मांग उठी।
उस पर विचार करने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार ने 2017 में रोहिणी न्यायिक आयोग बनाया।
हाल में आयोग ने यह सिफारिश की है कि 27 प्रतिशत आरक्षण को चार श्रेणियों को बांट दिया जाना चाहिए।
...............................................
आयोग ने की वंचितों की पहचान
...........................................................
महीनों के सर्वेक्षण के बाद रोहिणी आयोग ने यह पाया कि
केंद्रीय सूची में शामिल कुल 2633 पिछड़ी जातियों में से करीब एक हजार जातियों के उम्मीदवारों को मंडल आरक्षण का अब तक कोई लाभ मिला ही नहीं।
इसलिए रोहिणी आयोग ने केंद्र सरकार से सिफारिश की है कि केंद्र सरकार की सूची में शामिल 2633 में से 97 अपेक्षाकृत सपन्न पिछड़ी जातियों के लिए 27 में से 10 प्रतिशत आरक्षण तय कर दिया जाए।
बाकी 17 प्रतिशत आरक्षण को तीन हिस्सों में बांट कर विभिन्न पिछड़ी जातियों को मंडल आरक्षण का लाभ दिया जाए।
यदि केंद्र सरकार ने आयोग की रपट को स्वीकार कर लिया तो पिछड़ों में से अति पिछड़ों व पूर्णतः वंचित पिछड़ों को भी मंडल आरक्षण का समुचित लाभ मिलने लगेगा।
इस सिफारिश का बड़ा सामाजिक व राजनीतिक महत्व है। ...........................................
आरक्षण का औचित्य बरकरार
.......................................
जो लोग सरकारी नौकरियों में पिछड़ों
के प्रतिनिधित्व के आंकड़े पर गौर नहीं करते,वही लोग समय -समय पर आरक्षण को समाप्त या पुनर्विचार करने की मांग करते रहते हैं।
इस मांग की प्रतिक्रिया होती है।उससे पिछड़ों के बीच के अतिवादी राजनीतिक तत्वों को एक बार फिर मजबूती मिल जाती है।
1990 में मंडल आरक्षण का विरोध करके उसी तरह की ताकत
जाने-अनजाने पहुंचाई गई थी।
मंडल आरक्षण से पहले केंद्र सरकार के विभागों में पिछड़ों का कितना प्रतिनिधित्व था,उसका एक नमूना यहां पेश है।
1990 में भारत सरकार के आठ विभागों में पिछड़ी जाति का एक भी क्लास वन अफसर नहीं था।
अन्य नौ विभागों में से प्रत्येक में क्लास वन अफसरों की संख्या एक से पांच तक ही थी।
लोकतंत्र में समुचित प्रतिनिधित्व की उम्मीद तो हर वर्ग के लोग करते ही हैं।
हां,एक बात और !
1990 में आरक्षण विरोधियों को उनके आरक्षण विरोधी आंदोलन के कारण उन्हें लाभ के बदले नुकसान ही हुआ था।यानी, ऐसे लोग सत्ता में मजबूत हो गए जो विकास के बदले सामाजिक समीकरण में विश्वास रखते थे।
उसी तरह यदि मजबूत पिछड़ी जातियां रोहिणी आयोग की रपट का विरोध करेंगी तो उन्हें भी उसका उसी तरह नुकसान हो सकता है।
वैसे इस संदर्भ में एक बात खास तौर पर प्रासंगिक है।
करीब दो साल पहले एक आंकड़ा प्रकाश में आया था।वह यह कि केंद्रीय सेवाओं में मंडल आरक्षण के तहत मिल रहे आरक्षण का प्रतिशत औसतन 15 ही है।
यानी, 27 प्रतिशत में से औसतन 12 प्रतिशत सीटें अब भी नहीं भर पा रही हैं।
1993 के बाद अनेक मंडल मसीहा केंद्र सरकार में रहे।आश्चर्य है कि उन सीटों को भरने का उपाय उन्होंने नहीं किया।
..................................
तमिलनाडु से सीखो
....................................
एक समय था जब दक्षिण भारत के एक हिस्से में द्रविड पृथकतावादी आंदोलन चल रहा था।
कई कारणों से वह अधिक दिनों तक नहीं चल सका।
कहते हैं कि भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के बाद वह आंदोलन ढीला पड़ गया।
किंतु इसके साथ एक और कारण रहा।
1962 में जब चीन ने भारत पर चढ़ाई करके हमारे बहुत बड़े भूभाग पर कब्जा कर लिया तो द्रविड पृथकतावादी के एक हिस्से की भावना बदली।
उसने सोचा कि रक्षा के लिए एक बड़े देश के रूप में हमें एकजुट बने रहना चाहिए।इस देश के एक दिन मजबूत हो जाने की गुंजाइश रहेगी। याद रहे कि चीनी सैनिक जब असम के कुछ हिस्से में घुस गए तो तत्कालीन प्रधान मंत्री ने रेडियो पर यह संदेश दिया कि हम असम को बचा नहीं पा रहे हैं,इसका हमें दुख है।
खालिस्तान की मांग करने वालों को 1962 से पहले के तमिल
पृथकतावादियों से सीख लेनी चाहिए।
कल्पना की कीजिए कि पंजाब एक अलग देश बन गया।फिर क्या होगा ?
क्या वह पंजाब अकेले पाकिस्तान के ‘लश्करों’ का मुकाबला कर पाएगा ?
...........................................
और अंत मंे
.....................
पटना नगर निगम क्षेत्र में आधुनिक शौचालयों की व्यवस्था की गई है।
इससे आम लोगों ,खासकर महिलाओं की असुविधाएं घटी हैं।
हालांकि जरूरत के अनुपात में अब भी शौचालयों की संख्या कम है।साथ ही,उसे साफ-सुथरा बनाए रखने की समस्या अलग से है।
पर उसी तरह राज्य की जिला व अनुमंडल अदालतों के परिसरों में भी पर्याप्त संख्या में शौचालयों की स्थापना की सख्त जरूरत है।
अदालतों में रोज सैकड़ों लोेग आसपास के क्षेत्रों से आते हैं।
पर्याप्त संख्या में स्वच्छ शौचालयों के अभाव में कई लोग रोग्रस्त भी होते हैं।
यानी शासन शौचालयों पर खर्च नहीं करेगा तो उसे अस्पतालों पर अधिक खर्च करना पड़ेगा।
....................................
प्रभात खबर,पटना-19 फरवरी 21
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें