मंगलवार, 31 मई 2022

 हिन्दी पत्रकारिता दिवस

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सुरेंद्र किशोर

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राधव बाबू हमारे ग्रामीण इलाके में मीडिया के प्रतीक पुरुष थे।

तब मीडिया यानी सिर्फ अखबार ।

सारण जिले के मिर्जा पुर गांव के निवासी राघव प्रसाद सिंह 

दैनिक ‘आर्यावर्त’ के स्थानीय संवाददाता थे।

तब आर्यावर्त बिहार का सबसे बड़ा अखबार था।

हाल में उनका निधन हो गया।

संयमित जीवन के कारण वे करीब सौ साल जिए।

 बात उन दिनों की है जब मैं स्कूली छात्र था और गांव में रहता था।

उनका गांव मेरे गांव से कुछ ही दूरी पर है।

   ‘आर्यावर्त’ का संवाददाता होना उन दिनों बड़ी बात थी।

 हालांकि मेरे गांव में तब कोई अखबार नहीं खरीदता था।

किंतु राघव बाबू से जहां -तहां मुलाकात हो जाती थी।

 राघव बाबू शुद्ध हिन्दी बोलते थे।

कभी- कभी ही भोजपुरी बोलते थे।

मुझे स्कूली जीवन में अखबार से कोई संबंध नहीं था,किंतु राघव बाबू को देखकर यह लगता था कि अखबार में काम करने वालों को शायद शुद्ध हिन्दी में ही बात करनी होती है।

 स्वाभाविक है कि राघव बाबू को अफसर तथा दूसरे लोग सम्मान की नजर से देखते थे।

 उनके प्रति सम्मान देखकर लगा था कि यह सम्मानजनक काम है।

मेरे मन में भी अखबार व खासकर राघव बाबू के प्रति सम्मान था।

मीडिया से मेरा वह पहला परिचय था।उस समय कौन जानता था ,मैं भी कभी मीडिया से ही जुड़ूंगा।

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30 मई 22.


 


  मुफलिसी में भी सादिक अली ने 

  राज्य सभा की सीट ठुकरा दी थी

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किंतु अब राजनीति का हाल यह है कि यदि नेतृत्व ने किसी को दूसरी बार या तीसरी बार राज्य सभा नहीं भेजा तो अधिकतर नेता पार्टी छोड़ देते हंै।

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कहते हैं कि राजनीति में न तो कृतज्ञता होती है और न ही राजनीतिक लड़ाई के मैदान में कोई एम्बुलेंस होता है।

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--सुरेंद्र किशोर--

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ऐसे में स्वतंत्रता सेनानी सादिक अली, सर्वोदय नेता आचार्य राममूत्र्ति और राम इकबाल बरसी उर्फ ‘पीरो के गांधी’ याद आते हैं।

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‘पीरो के गांधी’

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डा.राममनोहर लोहिया ने राम इकबाल जी को ‘‘पीरो का गांधी’’ नाम दिया था।

 राम इकबाल जी सन 1969 में बिहार विधान सभा के सदस्य बने थे।

  1977 में जब पार्टी ने उन्हें पीरो से चुनाव लड़वाना चाहा तो उन्होंने कहा कि ‘‘हर बार हमीं लड़ेंगे ?

किसी दूसरे साथी को टिकट दीजिए।’’

 दूसरे को टिकट मिला और वह विजयी हुआ।

क्योंकि हवा

जनता पार्टी के पक्ष में थी।

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सादिक अली

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सादिक अली ने तो सत्तर के दशक में  भारी निजी आर्थिक दिक्कतों के बावजूद कर्नाटक से राज्य सभा में जाना मंजूर नहीं किया था।

     इस बारे में पूर्व विदेश मंत्री श्यामनंदन मिश्र ने बताया था कि 

    ‘‘पार्टी के सभी नेताओं ने सम्मिलित रूप से यह कहा कि सादिक अली कर्नाटका से राज्य सभा में जाएं। पर,जब यह प्रस्ताव विधिवत पारित होने के दौर में आया तो सादिक भाई से रहा नहीं गया। 

  अपने स्वभाव के विपरीत वे  ऐसा बमके कि सभी की सिट्टी -पिट्टी गुम।

   सादिक भाई बोले, 

‘‘राज्य सभा की सीट ? 

कर्नाटक से ?

क्या लेना -देना है मेरा वहां से ?’’

वे यह कहना चाहते थे कि न तो मैं वहां का निवासी हूं और न ही वोटर।

मैं कभी नहीं वहां से राज्य सभा जाऊंगा।’’

  मिश्र जी ने कहा था कि ‘‘शब्द मेरे हैं,पर करीब -करीब इसी तरह सादिक भाई ने अपनी भावना व्यक्त की।

यानी सादिक भाई शरणार्थी होकर 

केनिंग लेन में रहते रहे और जनता पार्टी की  सरकार के केंद्र में सत्ता में आने के बाद वहीं से सीधे राज्यपाल बन कर मुम्बई के राज भवन गये।’’

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    ‘  बाद के वर्षों में तो इस देश के कई नेताओं ने राज्य सभा की सदस्यता पाने के  लिए दल तोड़े, अपने नीति, सिद्धांत व ईमान बेंचे ।

   जिस नेता को कल तक ‘‘दूसरा भगवान’’ कहा,उसे ही बाद में भद्दी -भद्दी गालियां दीं।

साथ ही, जिस नेता को कल तक राक्षस बताया था, उसकी रातों -रात चरण वंदना शुरू कर दी।

 राज्य सभा की सदस्यता के लालच में इस देश के कर्णधारों ने इसके चुनाव के नियम ही बदल दिए।

  क्या आज राज्य सभा का स्वरूप वही है जिसकी कल्पना संविधान निर्माताओं ने की थी ?

 ऐसे में सादिक अली और भी याद आते हैं।

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  आचार्य राम मूर्ति

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आचार्य जी ने नब्बे के दशक में तत्कालीन प्रधान मंत्री वी.पी.सिंह और  मुख्य मंत्री लालू प्रसाद के ऐसे ही आॅफर को ठुकरा दिया था। 

  मैं पटना के श्रीकृष्ण स्मारक भवन में मौजूद था जब मुख्य मंत्री लालू प्रसाद ने यह बात सार्वजनिक रूप से बताई थी।

  उस सभा में आचार्य राममूर्ति और प्रधान मंत्री वी.पी.सिंह भी थे।

लालू प्रसाद ने कहा कि मैंने और राजा साहब (यानी वी.पी.सिंह) ने आचार्य जी से कहा था कि आपको हम राज्य सभा का सदस्य बनाना चाहते हैं।

लेकिन आचार्य जी ने साफ मना कर दिया।

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बाद में एक बार मैं अपने संपादक प्रभाष जोशी के साथ आचार्य राममूर्ति से मिलने पटना स्थित उनके आवास गया था।

  वे बहुत ही साधारण ढंग से रहते थे।

याद रहे कि वह उनका अपना मकान नहीं था।

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उने महत्व को समझने के लिए यह बात बताता हूं।

बिहार आंदोलन के दौरान जब जेपी इलाज कराने दक्षिण भारत गए थे तो उन्होंने अपनी जगह नेतृत्व का भार आचार्य राममूर्ति को ही सौंपा था।

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इन उदाहरणों को पढ़कर मेरे कुछ

फेसबुक फंे्रड यह लिखेंगे कि 

‘‘अरे भई,आप कब की बात कर रहे हैं ?

वह जमाना ही दूसरा था।

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 मैं इससे सहमत नहीं हूं।

उस जमाने में भी राजनीति में एक से एक भ्रष्ट व लोभी लोग थे।

 आज भी अनेक कई ईमानदार लोग हैं।

हां, तब ईमानदार अधिक थे आज बेईमान अधिक।

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यदि तब बड़ी संख्या में बेईमान नहीं होते तो 1985 आते -आते 100 सरकारी पैसे घिसकर 

15 पैसे कैसे रह जाते ?

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1963 में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष डी.संजीवैया 

  क्यों कहते  कि 

 ‘‘वे कांग्रेसी जो 1947 में भिखारी थे, वे आज करोड़पति बन बैठे।’’

इंदौर की सभा में गुस्से में बोलते हुए कांग्रेस अध्यक्ष ने  यह भी कहा था कि ‘‘झोपड़ियों का स्थान शाही महलों ने और कैदखानों का स्थान कारखानों ने ले लिया है।’’

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दरअसल राज्य सभा की सदस्यता के साथ बेशुमार घोषित-अघोषित सुविधाओं 

के इस बीच जुड़ जाने के कारण सदस्यता के लिए ‘मारामारी’ बढ़ गई है।

सांसद फंड का विशेष आकर्षण है। 

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जन हितकारी दलांे के नेताओं को चाहिए कि वे अपवादों को छोड़कर उच्च सदन की सदस्यता सिर्फ एक ही बार किसी को दिलाएं।

साथ ही, सांसद फंड की समाप्ति की गंभीर कोशिश करें। 

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30 मई 22


शुक्रवार, 27 मई 2022

 बिहार में 10 वीं कक्षा के 76 प्रतिशत बच्चे 

साइंस की ए बी सी डी भी नहीं जानते

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सुरेंद्र किशोर

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कल के दैनिक भास्कर की खबर का यही शीर्षक है।

दरअसल साइंस ही नहीं , अन्य विषयों का भी लगभग यही हाल है।

  सरकार द्वारा संचालित स्कूलों की शिक्षा की हालत दयनीय है।

यदि इस संबंध में फेसबुक वाॅल पर कोई पोस्ट लिखो तो कुछ शिक्षक टूट पड़ते हैं।

  वे खुद को छोड़कर सरकार सहित अन्य सारे तत्वों को इसके लिए जिम्मेदार ठहरा देते हैं।

  सरकार का कथन कुछ और ही होता है।

सब एक दूसरे पर आरोप फेंकते रहते हैं।

 दरअसल पीड़ित तो गरीबों के बच्चे होते हैं।

सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था का भी यही हाल है।

 गरीब लोग स्वास्थ्य व शिक्षा के लिए सरकार पर ही निर्भर रहते हैं।

 अमीरों के लिए तो अंग्रेजी स्कूल व बड़े निजी अस्पताल हैं ही।

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अब सवाल है कि सरकारी स्कूल व अस्पताल कैसे सुधरेंगे ?

पहले तो निष्पक्ष जांच से यह तो पता चले कि दुर्दशा के लिए कौन -कौन से तत्व जिम्मेदार हंै।

  इसकी परंपरागत ढंग से जांच कराने से लीपापोती हो जाएगी।

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इसलिए नमूने के तौर पर सरकारी स्कूलों और अस्पतालों कीे न्यायिक जांच होनी चाहिए।

इस काम के लिए जज के चुनाव में भी सावधान बरती जाए तो वास्तविक मर्ज पकड़ में आ जाएंगे।

 फिर जांच की सिफारिश को लागू करने के लिए एक ऐसी सरकार भी चाहिए जिसने हाल ही में ही चुनाव जीता हो।यानी, चुनाव उसके सिर पर न हो।

वह सरकार बेरहमी से ‘‘बुलडोजर बाबा’’ जैसी कार्रवाई करे।

फिर तो उसके नतीजे आएंगे।

अन्यथा न तो गरीबों की स्वास्थ्य रक्षा हो पाएगी और न ही उनके बच्चे शब्द के सही मायने में श्ाििक्षत हो पाएंगे।

शिक्षा और डिग्री में अब भारी फर्क पड़ गया है।

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27 मई 22


  

राज्य सभा के पूरी तरह ‘‘अमीरों की सभा’’में बदल जाने से अनिल हेगडे जैसे इक्के -दुक्के फटेहाल राजनीतिक कार्यकर्ता कितने दिनों तक रोक पाएंगे ?

   अगले कुछ वर्षों में शायद वैसे नेता भी नहीं रहेंगे जो अनिल हेगडे जैसों को राज्य सभा में भेजते हैं।

   लोक सभा और विधान सभाओं में अनुसूचित जाति-जन जाति के लिए आरक्षण भी है।

उच्च सदनों में तो वह भी नहीं।

क्यों नहीं उच्च सदनों की कम से कम 51 प्रतिशत सीटों को उन लोगों के लिए आरक्षित कर दिया जाए जो आयकर नहीं देते ?

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 सुरेंद्र किशोर

27 मई 22


    कपिल सिब्बल बनाम डा.स्वामी

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     सुरेंद्र किशोर

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डा.सुब्रह्मण्यन स्वामी ने इस देश के कतिपय महा भ्रष्ट नेताओं को जेल की हवा खिलवाई।

कुछ चरित्रहीन नेताओं का भी भंडाफोड़ किया।

डा.स्वामी जैसे नेता कम हैं या नहीं हैं।

महा भ्रष्टों से भरी राजनीति वाले इस देश में एक स्वामी की आज जरूरत अधिक है। 

पर,डा.स्वामी अब राज्य सभा में नहीं हैं।

स्वामी का एक ही कसूर है कि वे ‘मुक्त चिंतक’ व स्वच्छन्द व्यक्ति हैं ।

 बड़े उद्देश्य के लिए एक मुक्त चिंतक को बर्दाश्त कर लेना चाहिए।

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दूसरी ओर, कपिल सिब्बल इस देश के कई महा घोटालों के आरोपितों का बचाव किया और कर रहे हैं।

खैर वकील के रूप में उनका यह हक है।

पर, एक सार्वजनिक नेता के रूप में उनका यह कर्तव्य भी है कि वे महा भ्रष्टांे ,महा घोटालेबाजों और देशद्रोहियों से इस देश को मुक्त करने में इस सिस्टम को मदद करें।

नब्बे के दशक में सुप्रीम कोर्ट के एक जज रामास्वामी पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों का सदन में बचाव भी कपिल सिब्बल न ही किया था।

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कपिल सिब्बल को राज्य सभा में भेजते रहने के लिए वैसे कई राजनीतिक दल हमेशा उत्सुक रहे हैं जिनके नेताओं पर मुकदमे चल रहे हैं।

इस बार भी कई उत्सुक थे।

पर, इस बार तो सिब्बल अपनी शर्त पर राज्य सभा जा रहे हैं--यानी निर्दल रूप मंे।

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   स्वामी व सिब्बल के उदाहरण इस देश की एक गंभीर बीमारी के लक्षण हंै।

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27 मई 22




 जवाहरलाल नेहरू की पुण्य तिथि पर

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1947 से पहले के जवाहर लाल नेहरू को मेरा सलाम

      -- डा.राम मनोहर लोहिया

            -27 मई 1964 

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जालियांवाला बाग के नरसंहार से द्रवित होकर जवाहरलाल नेहरू आजादी की लड़ाई में कूद पड़े थे।

एक अत्यंत सुखमय -सुरक्षित जीवन को त्याग कर उन्होंने 

अपने लिए कंटकाकीर्ण मार्ग चुना था।देश के लिए उनके अपने सपने थे।

 कुछ लोग कहते हैं कि जेल में नेहरू को अंग्रेजों ने आराम से रहने दिया।

 ऐसा कहने वाले लोग क्या आज अपने लिए आरामदायक जेल जीवन भी स्वीकार करेंगे ?

यह और बात है कि सावरकर जैसे वीरों को जेल में अपार  कष्ट झेलने पड़े थे।

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पर,बात यहीं तक नहीं रुकती है।

आजादी के बाद प्रधान मंत्री के रूप में नेहरू ने देश को क्या दिया ?

कुछ तो जरूर दिया।

पर, क्या उतना कुछ दिया जितने की तत्काल जरूरत इस गरीब देश को थी ?

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नेहरू के अंध भक्तों से एक सवाल है।

1947 और 1985 के बीच 100 सरकारी पैसे घिसकर 15 पैसे रह गए थे।(राजीव गांधी के अनुसार)

यानी 85 प्रतिशत सरकारी धन की लूट हुई।

जब इतने पैसे लूट ही लिए गए तो सरकार के पास जनता को देने के लिए कितने धन बचे ?

इस लूट में जवाहरलाल नेहरू का कितना योगदान या मौन समर्थन रहा था ?

 उस अवधि में कौन-कौन नेता सत्ता के शीर्ष पर थे ?

जवाब है-- जवाहरलाल नेहरू,लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी ।

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जब सरकारी पैसों का 85 प्रतिशत लूट में चले गया तो देश का वांछित विकास कैसे होता !

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आज लूट कम जरूर हुई है,किंतु रुकी नहीं है।

 विशेषज्ञ इस पर शोध करके बताएं कि आज कितने प्रतिशत की लूट होती है।

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आज के ग्यारह दैनिक अखबार मेरे सामने हंै।

 उनमें से सिर्फ एक अखबार यानी ‘प्रभात खबर’ में नेहरू पर लेख है।

  यानी लगता है कि आज के अधिकतर संपादकों की यह राय है कि आज के लोगों को नेहरू में कोई खास रूचि नहीं है।

 नेहरू-गांधी परिवार के नेताओं के नाम इस देश के करीब 400 सरकारी संस्थानों से जोड़े गए हंै।

फिर भी लोक सभा में कांग्रेस की लगभग पचास सीटें ही हैं।

डा.लोहिया कहा करते थे कि किसी नेता की मूर्ति उसके मरने के सौ साल के बाद ही लगनी चाहिए।

क्योंकि तब तक देश उस नेता का सही आकलन कर चुका होता है--यानी उसने देश का कितना भला या बुरा किया।

जवाहरलाल नेहरू कहा करते थे कि यदि मैं प्रधान मंत्री नहीं रहूंगा तौभी मेरा गुजारा मेरी किताबों की राॅयल्टी से चल जाएगा।

  अब उनकी किताबों पर कितनी रायल्टी आती है ?

यह जानने की मेरी उत्सुकता है।

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27 मई 22


गुरुवार, 26 मई 2022

     हर सरकार को चाहिए कि वह पंजाब सरकार की ही तरह 

    अपने भ्रष्ट मंत्रियों को स्टिंग आपरेशन करवा कर पकड़वाए।

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    सुरेंद्र किशोर

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पंजाब के सी.एम.ने अपने मंत्री को भ्रष्टाचार के आरोप में बर्खास्त 

करते हुए न केवल उसे गिरफ्तार कराया बल्कि घूस मांगते हुए वीडियो भी जारी किया।

ग्रीक कहावत है कि ‘‘मछली पहले सिर से सड़ती है।’’

   ---दैनिक भास्कर के संपादकीय से

       26 मई 22

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उक्त संपादकीय का शीर्षक है--

‘‘हर राज्य में होने चाहिए भ्रष्टाचार पर ऐसे प्रहार’’

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कैसे मछली पहले सिर से सड़ती है,यह अपने रिसर्च से साबित किया था एक अमरीकी प्रोफेसर ने।

 साठ के दशक में अमरीकी प्रोफेसर पाॅल आर. ब्रास ने एक किताब लिखी थी।

नाम था- ‘फैक्सनल पाॅलिटिक्स इन एन इंडियन स्टेट।’

ब्रास ने उत्तर प्रदेश में अपने गहन रिसर्च के आधार पर अन्य बातों के अलावा यह भी पाया कि 

‘‘भ्रष्टाचार सत्ताधारी नेताओं ने ही ऊपर से नीचे की ओर फैलाया-अपने-अपने गुटों को मजबूत करने के लिए।’’

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मेरी समझ से इस देश की मुख्य समस्याएं हंै--

भ्रष्टाचार और आतंकवाद।

पूरे देश में फैलने की कोशिश में लगी आम आदमी पार्टी तो 

भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई कर रही है।

किंतु आतंकवाद के खिलाफ उसका रवैया नरम रहा है।

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नरम रवैया का प्रमाण यह है कि ‘आप’ ने हाल में दिल्ली से बंगलादेशी घुसपैठियों और रोहिंग्याओं को उजाड़े जाने का घोर विरोध किया।

इतना ही नहीं,

आम आदमी पार्टी की सरकार ने जे एन यू राजद्रोह मामले के आरोपितों के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति देने में एक साल की देर कर दी थी।साल भर टालमटोल करती रही।

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निष्कर्ष 

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यदि आम आदमी पार्टी और उसकी सरकारें भ्रष्टाचार के साथ-साथ आतंकवाद-जेहाद के मामलों में भी कड़ा रुख अपना ले तो उस दल के राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार से कोई शक्ति रोक नहीं सकती।

क्योंकि भाजपा या किसी अन्य दल की किसी सरकार ने अपने भ्रष्ट मंत्री पर ऐसा स्टिंग आपरेशन नहीं कराया है।

महाराष्ट्र सरकार तो भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से सने नवाब मलिक को जेल में भी मंत्री बनाए हुए है।

वैसे आतंकवाद-जेहाद आदि के मामलें में ‘आप’ के रवैये पर मुझे अब भी शंका है कि वह इस मामले में कभी पाक -साफ होकर निकलेगी।

देश के लिए बेहतर होगा ,यदि ‘आप’ और आप सरकारें मेरी इस श्ंांका को निर्मूल कर दंे।

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26 मई 22


शुक्रवार, 20 मई 2022

     सच्ची घटना या फसाना ?

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    सुरेंद्र किशोर

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एक लोक सभा सदस्य ने अपने क्षेत्र के एक स्वजातीय दबंग परिवार के चार सदस्यों को बारी- बारी  से नौकरी पर लगवाया।

  उस परिवार ने पांचवें बेरोजगार परिजन को भी नौकरी दिलाने की एम.पी.साहब से मांग की।

  किसी चीज की भी एक सीमा होती है।

पांचवें सदस्य को एम.पी.साहब नौकरी नहीं दिलवा सके।

 नतीजतन,वह परिवार गुस्से में ‘पागल’ हो गया।

उस परिवार ने अपने आसपास के स्वजातीय मतदाताओं को समझा-बुझाकर अगले चुनाव में एम.पी.साहब के खिलाफ उम्मीदवार को वोट दिलवा दिया।

  प्रतिपक्षी उम्मीदवार भी एक दूसरी दबंग जाति से आता था।

 क्षेत्र के अन्य अनेक परिवारों को भी निवर्तमान सांसद ने मदद की थी।

पर जो मदद करता है,उससे मदद पाने वालों की मांग बढ़ती जाती है।

मांग पूरी नहीं होने पर अधिकतर लोग नाराज हो जाते हैं।

क्योंकि वे किसी एम. पी. को अलादीन का चिराग समझ लेते हैं।

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एम.पी.साहब जब चुनाव हार गए तो उनका उन संस्थानों पर से प्र्रभाव भी खत्म हो गया जहां उन्होंने अपने लोगों को काम दिलवाया था।

बारी -बारी से उस दबंग व्यक्ति के चारों परिजन नौकरी से बाहर कर दिए गए।

उनकी जगह नए एम.पी. के लोग बहाल हो गए।

 यानी, पांचवें परिजन की नौकरी के चक्कर में पहले से  बारोजगार परिजन बेरोजगार हो गए।

यानी, चैबे गए छब्बे बनने, दुबे बनकर आ गए।

  जिसे जिताया गया ,उसे भी अपनी जाति के लोगों के काम करने से फुर्सत कहां थी ??

इसे आप सच्ची कहानी भी समझ सकते हैं या कोई फसाना भी। 

पर,आज के समाज व राजनीति को देखते हुए यह सच भी हो सकता है।

मुझे तो तीन दशक पहले एक राजनीतिक कार्यकर्ता ने इसे सच्ची घटना बताकर यह कहानी सुनाई थी।

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19 मई 22.    

  


मंगलवार, 10 मई 2022

   पूजा सिंघल के पास मनरेगा 

  घोटाले के कितने पैसे ?

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  73 हजार करोड़ रुपए के बजट वाले 

   मनरेगा को किसानों से जोड़ने की मांग 

   को अब नरेंद्र मोदी पूरा करें

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सुरेंद्र किशोर

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अब जाकर पता चल रहा है कि मनमोहन सिंह सरकार ने 

मनरेगा को किसानों से क्यों नहीं जोड़ा !

यदि जोड़ दिया होता तो पूजा सिंघल के पास इतने अधिक रुपए नहीं आ पातेे।

याद रहे कि मनमोहन सिंह सरकार के कृषि मंत्री शरद पवार ने अपने प्रधान मंत्री को यह लिखित राय दी थी कि मनरेगा के मजदूरों को किसानों से जोड़ दीजिए।

 मजदूर को किसान कुछ पैसे दें और बाकी सरकार दे दे।

इससे सरकारी धन भी बचेगा।

  शरद पवार ऐसे नेता नहीं हैं जिन्हें भ्रष्टाचार से नफरत है।

उन्हें चिंता इस बात की रही है कि किसानों को मजदूर अब कम मिल रहे हैं।

क्योंकि भारी जालसाजी के बावजूद उन्हें मनरेगा के तहत फिर भी कुछ मजदूरी तो मिल ही जाती है।

बाकी पैसे भले लूट लिए जाते हैं।

  याद रहे कि वित्तीय वर्ष 2022-23 का मनरेगा का बजट 73 हजार करोड़ रुपए है।

अब तो 80 करोड़ लोगों को केंद्र सरकार अनाज भी दे रही है।

  आरेाप है कि मनरेगा का जाली बिल बनाकर पूजा सिंघल जैसे अफसर और अनेक नेता लोग अपना हिस्सा ले रहे हैं।

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केंद्र सरकार देश के हर राज्य के कम से कम एक जिले के मनरेगा में लग रहे धन में हो रहे घोटाले की जांच कराए।

 उसकी रपट आने के बाद मुझे पूरी उम्मीद है कि मनमोहन सिंह ने शरद पवार की जिस सलाह को ठुकरा दिया,उसे नरेंद्र मोदी जरूर मान लेंगे।

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10 मई 22 


शनिवार, 7 मई 2022

      कर्पूरी ठाकुर चाहते थे कि उनका 

      पुत्र अंतरजातीय विवाह करे

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        सुरेंद्र किशोर

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सन 1972 की अपनी निजी डायरी मैं आज पलट रहा था।

तब मैं एक समाजवादी कार्यकर्ता की हैसियत से 

कर्पूरी ठाकुर का निजी सचिव था।

तब कर्पूरी जी विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता थे।

कोई गंभीर काम करने के लिए वे पटना के कोशी रेस्ट हाउस चले जाते थे।

8 जून, 1972 को मैंने अपनी डयरी में लिखा,

‘‘कर्पूरी जी ने रिक्शे पर (कोशी रेस्ट हाउस से आवास आते समय)लौटते समय मुझसे कहा कि आप रामनाथ से कहिए कि वह अंतरजातीय शादी करे।’’

   मुझे याद नहीं कि मैंने रामनाथ ठाकुर से यह बात कही थी या नहीं।कहीं ही होगी।क्योंकि कर्पूरी जी का निदेश था।

 किंतु आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो मुझे उस सलाह में कर्पूरी ठाकुर की उदारता नजर आती है।

  आज भी कितने नेता अपनी संतान से कह सकते हैं कि वह अंतरजातीय शादी करे ?

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मेरे फेसबुक वाॅल से

7 मई 22 


बुधवार, 4 मई 2022

 मुक्तिबोध ने पूछा था,

‘‘पार्टनर,तुम्हारी पालिटिक्स क्या है ?’’

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पिछड़ा आरक्षण पर आपकी क्या राय है प्रशांत किशोर जी ? 

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यदि आप बिहार में अपनी राजनीतिक गतिविधियां  

शुरू करना चाहते हैं तो लोग आपसे यदा कदा एक सवाल पूछ सकते हैं।

वह यह कि 

‘‘पिछड़ा आरक्षण पर आपकी क्या राय है।’’

  क्योंकि बिहार की राजनीति का अब यह एक मूल तत्व है।

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चूंकि राजनीतिक और समाजिक मामलों में आपकी खुद की स्पष्ट राय आनी अभी बाकी है,इसलिए उपर्युक्त सवाल जरूरी है।

 पिछड़ा आरक्षण पर लोगों की अलग -अलग राय रही है।

 कुछ लोग चाहते हैं कि 

1.-आरक्षण का दायरा बढ़ाया जाना चाहिए।

2.-कुछ अन्य लोग चाहते हैं कि आरक्षण के प्रावधान को ही समाप्त कर देना चाहिए।

3.-कुछ लोग चाहते हैं कि इसे और अधिक लाभकारी बनाने के लिए इसकी समीक्षा होनी चाहिए।

4.-यह राय भी है कि आरक्षण का लाभ कुछ ही मजबूत जातियों तक सिमटा न रहे , इसका भी उपाय हो।

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आपकी अपनी भी कोई स्पष्ट राय जरूर होगी,भले वह कम से कम मुझे नहीं मालूम।

 अब आपको उस राय को सार्वजनिक रूप में घोषित करना पड़ेगा।

तभी आपके बारे में बिहार के जागरूक लोग अपनी राय 

स्थिर करेंगे।

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सुरेंद्र किशोर

4 मई 22


मंगलवार, 3 मई 2022

     प्रशांत किशोर की उच्चाकांक्षा का भविष्य !

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        सुरेंद्र किशोर

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प्रशांत किशोर अपनी अगली योजना की

घोषणा परसों करेंगे।

 यदि वे अपनी राजनीतिक पार्टी बनाते हैं तो वह उनका अधिकार है।जरूर बनाएं।

इस देश में कुल 2293 राजनीतिक दल पहले से हैं ही।

  एक और दल सही !

राजनीतिक दल बनाना और चुनाव लड़ना आसान है।

अब तो उम्मीदवारों से भारी भरकम चंदा भी पार्टी को मिल जाता है।

 किंतु अकेले बल पर सीटें जीत पाना बहुत मुश्किल है।

प्रशांत यदि अपने दल को लोक सभा और विधान सभा के अगले चुनावों में उतारेंगे तो उनकी काबलियत की असलियत की भी जांच हो जाएगी।

  प्रशांत के उन प्रशंसकों के इस दावे की तो खास तौर पर  जांच हो जाएगी कि ंप्रशांत किशोर, अब तक मुख्य मंत्री और प्रधान मंत्री बनाते रहे हैं।

यह काम यानी दल बनाने को काम, जितनी जल्द हो जाए,उतना ही अच्छा।

अपने बल पर अकेले चुनाव लड़ने के बाद यदि उन्हें कोई उल्लेखनीय उपलब्धि मिल गई तो मैं प्रशांत के बारे में अपनी राय बदल लूंगा।

  इस देश-प्रदेश का अगला कोई भी चुनाव मुकाबला मुख्यतः

दो दलों या फिर दो गठबंधनों के बीच ही होगा।

तीसरे दल के लिए बहुत कम ही गुंजाइश बचेगी ।

क्योंकि अगले दो साल में राजनीति व समाज का अच्छा-खासा धु्रवीकरण हो चुका होगा।

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एक लघुत्तम दल के बड़े नामी-गिरामी  नेता डा.सुब्रह्मण्यम स्वामी ने कुछ दशक पहले मुख्य पटना में अपने दल के आॅफिस के लिए एक बड़ा मकान खरीद लिया था।

 तब उनकी घोषणा थी कि वे ‘लालू राज’ को उखाड़ फेकेंगे।

  पर,स्वामी के उस संकल्प का क्या हुआ ?

हुआ यह कि किदवई पुरी के उस मकान को स्वामी जी ने अंततः बेच दिया।

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वैसे स्वामी जी की एक बड़ी उपलब्धि रही है।इस मामले में मैं उनका भारी प्रशंसक रहा हूं।

उन्होंने पी.आई.एल.करके बड़े -बड़े भ्रष्ट नेताओं को जेल भिजवाया।

सिर्फ वही काम वे बेहतर ढंग से कर भी सकते हैं।

क्योंकि जिस दल में रहे,वहां के बड़े नेताओं के सिर पर ही .........................।

.पर, पता नहीं,उन्होंने एक जन कल्याणकारी व अच्छा-खासा  काम भी क्यों छोड़ दिया !

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प्रशांत किशोर मूलतः आंकड़ा एकत्र करने और उसे विश्लेषित करने के काम में रहे हैं।

  कई लोग उन्हें इस काम में माहिर भी मानते हैं।

पहले मैं भी मानता था।

पर,उन्होंने हाल में जब कांग्रेस को यह सलाह दे डाली कि वह बिहार -उत्तर प्रदेश में अब अकेले ही चुनाव लड़े तो मुझे उनकी आंकड़ा विश्लेषण क्षमता पर भी संदेह हो गया।

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      3 मई 22 


सोमवार, 2 मई 2022

  विकास के नये मंदिर ‘पूर्णिया इथेनाॅल कारखाने’

 को आशंकित बुरी नजरों से बचाने का प्रबंध करे 

 बिहार सरकार

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यदि कृषि आधारित और भी नए-नए कारखाने खुलेंगे तो

 बिहार का पिछड़ापन कम होगा

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सुरेंद्र किशोर

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पूर्णिया में इथेनाॅल कारखाने की स्थापना हुई है।

कृषि प्रधान बिहार में यह एक युगांतरकारी घटना है।

वहां मक्का और धान से इथेनाॅल तैयार होगा।

 अब किसानों को उनकी फसल की बेहतर कीमत मिलेगी।

खेती-किसानी वैसे लोगों के लिए भी लाभकारी पेशा बनेगी,जो मजदूरों से खेती करवाते हैं,खुद नहीं करते।

  मैं खुद किसान परिवार से आता हूं।

हमारे यहां मजदूरों से खेती कराई जाती है।

अनुभव बताते हंै कि खेती कुल मिलाकर घाटे का सौदा है।

क्योंकि अनाज ही एक ऐसा उत्पाद है जिसकी कीमत ग्राहक तय करता है, उत्पादक नहीं।

ग्राहक लागत खर्च का ध्यान तक नहीं रखते।

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आजादी के तत्काल बाद चैधरी चरण सिंह जैसे जमीन के नेताओं ने तत्कालीन केंद्र सरकार को यह सुझाव दिया कि पहले कृषि का विकास कीजिए।

उसी से उद्योग के विकास में भी मदद मिलेगी।

क्योंकि किसानों की आय जब बढ़ेगी तो किसान परिवारों की करखनिया माल खरीदने की क्षमता भी बढ़ेगी।

उसी से उद्योग बढं़ेगे।

किंतु केंद्र सरकार ने कृषि के बदले लोक उपक्रमों पर अधिक जोर दिया।

आरोप लगा कि अधिकतर स्वतंत्रता सेनानियों को अपने बाल-बच्चों ,रिश्तेदारों और लगुए-भगुए को ‘‘सफेदपोश नौकरियां’’ दिलवाने की जल्दीबाजी थी।

इसीलिए भी लोक उपक्रमोें पर अधिक ध्यान दिया गया।

सरकार की एक दूसरी गलतफहमी थी।

वह यह कि हम अपने कारखानों के माल विदेश भेजेंगे और उन्हीं पैसों से विदेश से अनाज खरीद कर यहां के लोगों को खिलाएंगे। 

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खैर, देर आए दुरुस्त आए।

कृषि आधारित उद्योग को सरकार अब बढ़ावा दे रही है।

कृषि विधेयक लागू हो गया होता तो खेती का और भी अधिक विकास होता।यदि मनमोहन सिंह सरकार ने नीतीश सरकार को इथेनाॅल कारखाने लगाने की अनुमति दे दी होती तो अब तक कई ऐसे कारखाने लग चुके होते।

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दो और काम सरकारें करें।

एक तो केंद्र सरकार मनरेगा को किसानों से जोड़ दे।

ऐसी मांग तत्कालीन कृषि मंत्री शरद पवार ने प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह से की थी।

पर आरोप है कि तब की सरकार ने यह काम इसलिए नहीं किया क्योंकि मनरेगा के पैसों को लूटने में प्रभु वर्ग को भारी असुविधा होती।आश्चर्य है कि नरेंद्र मोदी सरकार का भी इधर ध्यान नहीं है।

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अमृतसर जैसे धार्मिक स्थलों के आसपास नशे करना मना है।

उसी तरह विकास के नए मंदिर यानी पूर्णिया इथेनाॅल कारखाने के पास से वैसे तत्वों को दूर रखने का राज्य सरकार पक्का प्रबंध कर दे जिन तत्वों को घूस और रंगदारी से पैसे कमाने का नशा है।

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 2 मई 22