कायम हैं आपातकाल वाली प्रवृतियां
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सुरेंद्र किशोर
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आज भी अनेक नेता यह चाहते हैं कि उन
कानूनों को नरम कर दिया जाए,जो उनके आड़े आ रहे हैं।
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जिन इंदिरा गांधी ने 1975-77 के दौरान देश पर आपातकाल थोपा था,वह सिर्फ एक व्यक्ति नहीं ,बल्कि राजनीति की एक खास प्रवृति का प्रतिनिधित्व कर रही थीं।
चूंकि राजनीति के बड़े हिस्से में वह प्रवृति आज भी जीवित है,इसीलिए लोगों को वैसी प्रवृति से आगाह किया जाना आवश्यक है।
आपातकाल-पीड़ित लोग छिटपुट हर साल उसे याद करते हैं,
लेकिन अपनी राजनीतिक सुविधा के अनुसार कुछ नेता और दल उसका संस्मरण करना छोड़ भी देते हैं।
वे आपातकाल को अपने ढंग से परिभाषित करने लगते हैं जबकि जून, 1975 में आपातकाल लगाकर पूरे देश को एक बड़े जेलखाने में बदल दिया गया था।
आपातकाल के बारे में नयी पीढ़ी को सब कुछ परिचित कराने की जरूरत है।
प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाने का फैसला सिर्फ इसलिए कर
लिया था क्योंकि 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने लोक सभा की उनकी सदस्यता रद कर दी ।
जन प्रतिनिधित्व कानून की जिन धाराओं के
तहत उनकी सदस्यता रद की गई, उन धाराओं को ही बदल देने का इंदिरा गांधी ने निर्णय कर लिया।
उनका आकलन था कि बिना आपातकाल लगाए यह संभव नहीं है।
आज भी भ्रष्टाचार तथा अन्य आरोपों में मुकदमे झेल रहे अनेक नेतागण यह चाहते हैं कि उन्हें बचाने के लिए सरकार को पलट दिया जाना चाहिए।
या फिर उन कानूनों को नरम दिया जाना चाहिए जो उनके कारनामों के आड़े आ रहे हैं।
यदा कदा राष्ट्रद्रोही गतिविधियों में शामिल लोगों की मदद करने वाले आवाज उठाते रहते हैं कि राजद्रोह कानून को ही समाप्त कर दिया जाना चाहिए।
यह आपातकाल वाली प्रवृति है ।
तब इंदिरा सरकार ने जयप्रकाश नारायण सहित करीब एक लाख राजनीतिक नेताओं, कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को
जेलों में ठंूस दिया था।
लोक सभा की सदस्यता बचती, तभी इंदिरा गांधी की गद्दी बच पाती,
क्योंकि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उन्हें अगले छह साल तक चुनाव लड़ने से रोक दिया था।
इंदिरा सरकार ने आपातकाल में न सिर्फ आम लोगों के मौलिक अधिकारों को भी निलंबित कर दिया था, बल्कि कड़ी प्रेस सेंसरशिप भी लगा दी थी।
प्रतिपक्ष की सारी गतिविधियां ठप कर दी गई थीं।
अटार्नी जनरल नीरेन डे ने तब सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि जीवन का अधिकार अभी स्थगित है।
ं अपने एकछत्र शासन के लिए इंदिरा गांधी ने कुछ संवैधानिक संशोधन भी संसद से करवाये ।
उन चुनाव कानूनों को भी बदलवा दिया गया जिनके उलंघन के कारण उनकी सदस्यता गई थी।
1971 में हुए लोक सभा चुनाव में एक सरकारी सेवक यशपाल कपूर इंदिरा गांधी के चुनाव एजेंट थे।
सरकारी सेवा से अपना इस्तीफा मंजूर कराए बिना कोई व्यक्ति चुनाव एजेंट नहीं बन सकता था।
रायबरेली में स्थानीय प्रशासन ने इंदिरा की चुनाव सभा के लिए सरकारी खर्चे पर मंच तैयार किया था।
इन दोनों मामलों को इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज जगमोहन लाल सिंहा ने चुनाव कदाचार माना और इंदिरा गांधी का चुनाव रदद कर दिया।
आपातकाल में जन प्रतिनिधित्व कानून की संबंधित धाराओं में यह परिवत्र्तन कर दिया गया कि सरकारी कर्मी का इस्तीफा सरकारी गजट में प्रकाशित हो जाना काफी है।
किसी सरकार के लिए पिछली तारीख के सरकारी गजट में कुछ भी छपवा देना आसान काम है।यशपाल कपूर का इस्तीफा जनवरी, 1971 के गजट में छपवा दिया गया।
सरकारी मदद से चुनावी सभा मंच बनाने के मामले में भी कानून में इस तरह से संशोधन कर दिया गया ताकि इंदिरा गांधी के खिलाफ दिया गया कोर्ट का निर्णय निष्प्रभावी हो जाए।
आपातकाल के दौरान किये गये संविधान संशोधनों में 42 वें संशोधन के जरिए इंदिरा शासन ने इस देश के लोकतंत्र को अस्थायी रुप से ही सही,पर उसे पूरी तरह मटियामेट कर दिया।
इस संशोधन के जरिए यह संवैधानिक प्रावधान किया गया कि संविधान को संशोधित करने का संसद का अधिकार असीमित है।
संसद संविधान में कुछ भी जोड़ या घटा सकती है और ससंद के इस कदम को किसी कोर्ट में चुनौती भी नहीं दी सकती।
यह एकाधिकारवादी प्रवृति थी।
शुक्र है कि सन 1977 के आम चुनाव के बाद केंद्र में मोरारजी देसाई की गैर कांग्रेसी सरकार बन गई ।
उसने आपातकाल में संविधान व कानून के साथ की गई कई ज्यादतियों को रद कर दिया।
2011 में सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने कहा कि 1976 में इस अदालत द्वारा दिया गया वह फैसला सही नहीं था जो ,मौलिक अधिकार के हनन को लेकर था।
आज इस देश के अनेक दलों के दर्जनों नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के तहत मुकदमे चल रहे है।
उनमें से कुछ आरोपित हैं।कुछ सजायाफ्ता हैं।कुछ जमानत पर हैं।
इन नेताओं की ओर से एक ही बात कही जाती है कि हमारे खिलाफ बदले की भावना के तहत मुकदमे दर्ज किए गए,जबकि अदालतें उन्हें कोई राहत नहीं दे रही हैं।
कुछ नेता यह भी कहा करते हैं कि हमें जनता ने जिताया है और जब हमें जनता ने जिता दिया तो हम अपराधी कैसे ?
ऐसे लोग एक तरह से यह कह रहे हैं कि जो कानून हमारे अपकर्मों में आड़े आ रहे हैं,उन्हें बदल दो।
और सरकार हमारे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाए,उसे पलट दो।
इसी के तहत ईडी के नियम बदलवाने की कोशिश होती है
और सी.बी.आई. को जांच करने से रोका जाता है।
ऐसे नेता इन दिनों एकजुट होकर मोदी सरकार को अगले चुनाव में पराजित करना चाहते हैं।
वैसे तो इसकी उम्मीद फिलहाल नजर नहीं आती ,किंतु कल्पना कर लीजिए कि मोदी सरकार हट जाती है तो क्या होगा ?
क्या मुकदमे झेल रहे नेता कोई वैसी कोशिश नहीं करेंगे जैसी कोशिश करके इंदिरा ने अपनी लोक सभा सदस्यता बचा ली थी ?
यह काम तो मुश्किल है,पर,उनका हौसला तो वही है।
क्या यह आपातकाल वाली प्रवृति नहीं है ?
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दैनिक जागरण--28 जून, 23
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