बिहार में ही क्यों,पूरे देश में जातिवाद है,
पर, इस राज्य के रिश्वत खोर और दहेज
दानव कभी जातिवाद नहीं करते
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--सुरेंद्र किशोर--
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कुछ लोग कहते हैं कि बिहार में बहुत जातिवाद है।
किंतु मेरा मानना है कि रिश्वत-खोरी और दहेज-खोरी
के क्षेत्रों में कोई जातिवाद नहीं है।
(हां,उत्तर बिहार के कतिपय समाजिक समूह में दहेज का प्रचलन नहीं रहा है।क्या अब भी वही स्थिति है ?मुझे नहीं मालूम।कोई बताए।)
सरकारी दफ्तरों के ‘‘आदतन भ्रष्ट रिश्वतखोर’’ अपनी जाति को भी नहीं बख्शते।
वे तुरंत कह देते हैं कि ‘‘अरे यार,मुझे ऊपर भी तो पहुंचाना पड़ता है।’’
ऐसा है तांे फिर भैया,अपना हिस्सा तो छोड़ दो।
इस पर वे कहते हैं कि हमारे भी तो बाल-बच्चे हैं।
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दहेज दानव तो और अधिक क्रूर होते हैं।वह तो जाति के भीतर का ही मामला है।
कुछ सरकारी कामों को तो आप टाल भी सकते हैं।
पर,बिटिया की शादी
तो नहीं टल सकती।
मेरी पांच बहनों की शादियों में बारी-बारीे से औसतन पांच बीघे जमीन बिक गयी थी।
हमारे पास तो बेचने के लिए जमीन थी और है भी ,तो काम चल गया,अब भी मेरा कोई बड़ा काम जमीन बेच कर ही होता है।
पर, जिनके पास साधन सीमित हैं,वे तो उस क्षण को कोसते होंगे जिस क्षण उनके यहां बिटिया पैदा हुई थी।
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राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के बारे में एक बात सुनी थी।
बात अपुष्ट है,इसलिए
जो अधिक जानकार हों,वे मुझे बताएं।मैं खुद को सुधार लूंगा।
उनकी कन्या की शादी होनी थी।
उन्हीें दिनों उन्हें सवा लाख रुपए का ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था।
जिस लड़के वाले के यहां राष्ट्रकवि जाते थे,उसकी नजर उस सवा लाख पर ही लगी होती थी।
पता नहीं, संवेदनशील दिनकर जी ने कैसे चीजों को संभाला होगा !
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दिनकर जी पर आज उनके स्वजातीय सहित पूरा समाज -देश गर्व करता है।
करना भी चाहिए।
पर,उस पीड़ा के दौर से किसने उनको बाहर किया होगा,इस पर मैं अपनी कल्पना के घोड़े ही दौड़ा सकता हूं।
(आज भी जो अत्यंत थोड़े से लोगों का जो ईमानदारी की कमाई पर किसी तरह जीवित हैं, कितने लोग ध्यान रखते हैं ?)
मेरे फेसबुक मित्र डा.रामवचन राय इस संबंध में दिनकर जी पर बेहतर प्रकाश डाल सकते हैं।
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आज की पीढ़ी के एक ‘अर्धाक्षर’ (साक्षर और निरक्षर के बीच का यह शब्द कैसा रहेगा !)पत्रकार ने दिनकर के बारे में हाल में कहीं लिख दिया कि ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ लिखने के बाद जब प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू नाराज हो गये तो दिनकर जेपी के साथ हो लिए।
अरे अर्ध ज्ञानी जी महाराज, आजादी के हीरो जेपी पर दिनकर ने प्रारंभिक दिनों में ही कविता लिख दी थी।
जब डा.लोहिया ने दिनकर से कहा कि जेपी पर तुमने लिखा,मुझ पर लिखो।
दिनकर का जवाब था-जेपी ने मुझे जितना प्रभावित किया,उतना आप भी प्रभावित कर देंगे तो मैं लिख दूंगा।
खैर,लगे हाथ यह भी बता दूं कि जेपी की चिट्ठी पर ही नेहरू जी ने दिनकर जी को पहली बार राज्य सभा का सदस्य बनाया था।
दूसरी और तीसरी बार भी बने।
चैथी बार नहीं बने।
चीनी आक्रमण के बाद यदि दिनकर ‘‘परशुराम की प्रतीक्षा’’ नहीं लिखते तो आगंे भी वे राज्य सभा में होते।
पर,दिनकर सहित उन दिनों की कई हस्तियों के लिए देश पहले था, पद बाद में।
राजनीति में तब आज जैसा कलियुग नहीं आया था।अपवादों को छोड़कर आज के इस युग को राजनीति के कलियुग के बदले ‘‘दुर्योधन युग’’ ही कहना शायद बेहतर होगा।
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29 जुलाई 23
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(यह पोस्ट उन पर लागू नहीं होता है जो आज के दौर में भी दहेज या रिश्वत नहीं लेते और अपनी -अपनी जगह में के.के.पाठक की तरह ही निडर और कर्तव्यनिष्ठ बने हुए हैं।)
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