गुरुवार, 11 जनवरी 2024

 मुझे गर्व है कि मैं 1972-75 में पी.यू.का छात्र था

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पटना विश्व विद्यालय का, जिसे कभी ‘‘पूर्व का आॅक्सफोर्ड’’ कहा 

जाता था, छात्र होना कभी गर्व की बात थी।

आज के हालात का पता चलता है तो दुख होता था

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सुरेंद्र किशोर 

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यही गौरव हासिल करने के लिए मैंने सन 1972 में पटना विश्व विद्यालय के लाॅ काॅलेज में नाम लिखवा लिया था।

जबकि, न तो मुझे वकालत करनी थी और न ही कोई नौकरी।

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अब जब इस विश्व विद्यालय के शिक्षण-परीक्षण के स्तर के बारे में सुनता हूं तो दुख होता है।

1963 में मैंने साइंस विषयों के साथ मैट्रिक पास किया था।फस्र्ट डिविजन मिला था।

किंतु साइंस काॅलेज में दाखिला लायक उच्च अंक नहीं थे।

इसलिए स्नातक तक बारी-बारी से मगध और बिहार विश्व विद्यालयों में पढ़ाई की।

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जब समाजवादी कार्यकर्ता के रूप में कर्पूरी ठाकुर का निजी सचिव बनकर छपरा से पटना आया तो सोचा कि देर से ही सही,वह गर्व हासिल कर लूं जिसके

अभाव में हीन भावना से ग्रस्त था।

---यानी, पटना विश्व विद्यालय जैसे गौरवशाली विश्व विद्यालय का छात्र नहीं बन सकने की हीन भावना।

याद रहे कि पटना आने के ठीक पहले मैं छपरा में सारण जिला संसोपा का कार्यालय सचिव था।

तय किया था कि कार्यकर्ता ही रहूंगा। शादी भी नहीं करूंगा।

(उन दिनों अनेक युवक सोशलिस्ट-कम्युनिस्ट पार्टी या अन्य दलों में  में विधायक-एम.पी.बनने के लिए नहीं शामिल होते थे बल्कि समाज के लिए कुछ करने के लिए शामिल होते थे।

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हालांकि राजनीति को करीब से देख लेने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि राजनीति मेरे वश की बात नहीं।इसलिए पत्रकारिता की राह पकड़ ली।

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पटना लाॅ कालेज का छात्र होने से यह सुविधा भी मिल गयी थी कि 

छात्रावासों में समाजवादी युवजन सभा का काम किया जा सके।

 हालंाकि तब के वहां के छात्र ,जो हमारे सयुस के सदस्य थे,शाम में स्टडी आॅवर शुरू होते ही मुझे अपने छात्रावास से चले जाने के लिए कह देते थे।

अब मैं नहीं जानता कि पटना विश्व विद्यालय के छात्रावासों में स्टडी आॅवर में अनुशासन का पालन होता है या नहीं।

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लाॅ काॅलेज में मैं तीन साल तक पढ़ा। पर कोई परीक्षा नहीं दी।

  दरअसल सेकेंड ईयर में नाम लिखवाने के लिए फस्र्ट ईयर पास करना जरूरी नहीं होता था।

उसी तरह थर्ड ईयर में नाम लिखाने के लिए सेकेंड ईयर पास करना जरूरी नहीं होता था।

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वैसे पढ़ने -लिखने से अधिक बगल में चाय की दुकान पर अन्य छात्रों के साथ राजनीतिक चर्चाएं हम खूब करते थे।

हमारे बैच में कुमुद रंजन झा,जो बाद में मंत्री बने थे।

मशहूर वकील वासुदेव प्रसाद के परिवार से दो थे।

हालांकि वे हमारी जमात में नहीं बैठते थे।

हमारे मित्र थे दीनानाथ पांडेय, जो अभी कोलिगपांग में वकील हैं,प्रेम प्रकाश सिन्हा,जो बाद में बिहार शिक्षा सेवा में गये,महितोष मिश्र,आनंद भवन होटल के मैनेजर श्रीवास्तव जी,

मूट कोर्ट में ‘‘बिलायती’’ लहजे में अंग्रेजी बोलने वाले  अशोक कुमार

सिन्हा,कदमकुआं और ऐसे ही कुछ राजनीतिक रूप से जागरूक छात्र।

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9 जनवरी 24 



 


 

 

 


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