लगभग पांच दशक पहले पटना के दैनिक ‘प्रदीप’ के
संपादकीय पेज पर मेरा यह लेख छपा था।
मैंने यह लेख लिखा और संपादक रामसिंह भारतीय से मिलकर उन्हें दे आया।
तब संपादकों से मिलने के लिए पुर्जा नहीं भिजवाना पड़ता था।
गांधी टोपी पहने भरे-पूरे शरीर के स्वामी भारतीय जी धीर-गंभीर व्यक्ति लगे।
उनसे मेरी कोई जान-पहचान न थी।
न ही मैंने किसी से उनके यहां यह लेख छापने के लिए सिफारिश करवाई थी।
जब मैं उनके पास गया तो वे अपना सिर झुकाकर कुछ लिख रहे थे।
मेरे लेख पर उन्होंने एक नजर डाली और कहा--
‘ठीक है।’
देने को तो दे आया था,किंतु मुझे छपने की कोई उम्मीद नहीं थी।
दूसरे दिन यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि लेख संपादकीय पृष्ठ पर छप गया।
तब मैं राजनीतिक कार्यकत्र्ता की हैसियत से कर्पूरी ठाकुर का निजी सचिव था।
कर्पूरी जी को मैं कोई राजनीतिक सलाह तो नहीं देता था,(अब जाकर मेरी वह बौद्धिक हैसियत बनी है कि किसी नेता को राजनीतिक सलाह दे सकूं।)तब मेरी उम्र ही कितनी थी !
हां, कर्पूरी जी के साथ रहने के कारण मैं उनके जैसा आचरण करने की कोशिश जरूर करता था।
हाल में नीतीश कुमार ने भी अपने एक साथी से सकारात्मक ढंग से कहा भी कि
‘‘सुरेंद्र जी कर्पूरी जी के साथ रह चुके हैं।’’
यानी,कर्पूरी जी के साथ रहना भी एक क्वालिफिकेशन है।
मैंने कर्पूरी जी से कई बातें सीखी।
खैर,यह लेख छपने के बाद कर्पूरी जी के अत्यंत करीबी नेता प्रणव चटर्जी ने मुझसे शिकायत के लहजे में कहा था कि ‘‘किसी निजी सचिव को लेख नहीं लिखना चाहिए।’’
खैर, मैं खुद को राजनीतिक कार्यकत्र्ता अधिक व निजी सचिव कम समझता था।
संभवतः कर्पूरी जी ने ही प्रणव जी को मुझसे यह बात कहने के लिए कहा हो !!
कर्पूरी जी बुरा लगने वाली कोई बात सीधे किसी को नहीं कहते थे।
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अब लेख के विषय वस्तु पर आते हैं।
पढ़कर देखिए कि समाजवादी नेताओं को आपसी मतभेद व मन -भेद सलटाने में कितना समय देना पड़ता था !!!
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18 दिसंबर, 1972 के
दैनिक प्रदीप (पटना) में प्रकाशित
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समाजवादियों की फूट और एकता के प्रयास
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सुरेंद्र अकेला उर्फ सुरेंद्र किशोर
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संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के अलग -अलग पारित विलयन प्रस्तावों के बाद विलयन को औपचारिक तौर पर कारगर बनाने के लिए सोशलिस्ट पार्टी की जो तदर्थ समिति 7 अगस्त, 1971 को बनी ,वह नेताओं की ईष्र्या और द्वेषजनित कलह के कारण कुछ ही महीने के भीतर ही बुरी तरह बिखर गई।
पटने में समाजवादी कार्यकत्र्ताओं का अखिल भारतीय सम्मेलन टूटे खंडों को जोड़ने में कुछ हद तक अवश्य सफल हुआ है।
पर, सम्मेलन के आयोजक श्री कर्पूरी ठाकुर के दावे यदि सही मान लिए जाएं तो पटना सम्मेलन अब तक के सोशलिस्टों के आम सम्मेलनों से सर्वथा भिन्न और दूरगामी परिणामों वाला सिद्ध होगा।
ज्ञातव्य है कि श्री कर्पूरी ठाकुर ने दावा किया है कि देश के अधिकतर सोशलिस्ट कार्यकत्र्ता उनके एकता प्रयासों के साथ हैं जिसमें मध्य प्रदेश,राजस्थान,पश्चिम बंगाल और अन्य कई प्रांतों की पूरी की पूरी अविभाजित इकाइयां शामिल हैं।
लगता है कि एकता प्रयास असफल होने के बाद शाखाएं नेताओं को एक करने को बाध्य करेंगी।
सम्मेलन के ठीक पांच दिन पूर्व सोशलिस्ट पार्टी (लोहियावादी )
द्वारा एकताकांक्षियों के साथ मिल जाने का निर्णय श्री कर्पूरी ठाकुर की एक बड़ी उपलब्धि यांे कही जाएगी,पर प्रस्तावित सम्मेलन की अन्य उपलब्धियांें का अंदाजा लगाया जा सकता है जो पार्टी की टूट की संदर्भ कथा से अवगत हों।
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दिलचस्प और ़त्रासक
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अपने देश की समाजवादी पार्टी की कहानी दिलचस्प भी है और त्रासक भी।
कांग्रेसी हिमालय से निकली सोशलिस्ट पार्टी की गंगा कई धाराओं में बंटकर आपस में टूटती और जुड़ती तो चली, पर कभी सूखी नहीं।
सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ,संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी सोशलिस्ट पार्टी (लोहियावादी)आदि अनेक शब्द समूह उन्हीं धाराओं के नाम हैं।
पर,1972 की टूट की कहानी पूरी तरह पद लिप्सा और निजी महत्वाकांक्षाओं के टकराव की कहानी है।
श्री राज नारायण को राज्य सभा की टिकट से वंचित रखने की साजिश
में सोशलिस्ट पार्टी की तदर्थ समिति ने पार्टी द्वारा उम्मीदवारों की
नाम-जदगी के संबंध में जो नीति निदेशक सूत्र निर्धारित किया,उस पर श्री जार्ज फर्नांडिस तो बहुत पहले ही पछतावा व्यक्त कर चुके हैं,
पर श्री राजनारायण को इलाहाबाद शिविर सम्मेलन (मई 1972) एक नयी पार्टी बनाकर समाजवादी आंदोलन को कमजोर करने का कोई अफसोस नहीं।
इस बीच दोनों खंडों के उलाहना के पात्र बने कर्पूरी ठाकुर पिछले नौ महीनों से उनकी उपेक्षा और व्यंग्य की त्रासदी झेलते रहे हैं और इसी से बचने के लिए उन्होंने अब कार्यकत्र्ताओं का आह्वान किया क्योंकि शिखर के एकता प्रयत्न जब विफल हो गये थे तो शाखाओं से एकता प्रयास प्रारंभ करने आवश्यक थे।
शिखर से एकता प्रयत्न की विफलता की शुरूआत उसी दिन हो गई थी ,जबकि इलाहाबाद सम्मेलन में लोहियावादी सोशलिस्ट ने श्री कर्पूरी ठाकुर को अपने प्रतिनिधियों के बीच भाषण नहीं करने दिया।
इलाहाबाद से लौटने के बाद श्री ठाकुर ने सोशलिस्ट पार्टी ( मूल या शेष ? ) की ओर रुख किया।
सोशलिस्ट पार्टी (शेष) की राष्ट्रीय राष्ट्रीय तदर्थ समिति की बैठक पटने में 12 जून से होने वाली थी।
श्री कर्पूरी ठाकुर ने 12 जून को ही अपने निवास स्थान पर उनके समर्थकों की अनौपचारिक बैठक बुलाई और एक छह सूत्री फार्मला भी प्रस्तुत किया, जिसमें श्री राज नारायण पर से अनुशासनात्मक कार्यवाही समाप्त करने , अक्तूबर में राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करने तथा पार्टी को
19 मार्च, 1972 की पूर्व स्थिति में लाने की बातें शामिल थीं।
श्री कर्पूरी ठाकुर ने कहा था कि उनके इस छह सूत्री प्रस्ताव की एकतरफा स्वीकृति के बाद सम्पूर्ण एकता नहीं तो अधिकत्तम एकता तो अवश्य ही हो जाएगी।
उन्होंने एक भी कहा था कि श्री राजनारायण के राजी नहीं होने की स्थिति में वे दूसरे पक्ष में शामिल हो जाएंगे।
पर, श्री मधु लिमये के अथक प्रयासों के बावजूद राष्ट्रीय तदर्थ समिति ने श्री कर्पूरी ठाकुर के उक्त एकता फार्मूले को अस्वीकार कर दिया।
कहा जाता है कि इससे मधु लिमये इतने दुखी हुए कि समिति की अगली बैठकों में शामिल तक नहीं हुए।
फिर भी श्री कर्पूरी ठाकुर के एकता प्रयास चलते रहे।
पिछले अगस्त में श्री ठाकुर ने पार्टी के तीनों खंडों के एकताकांक्षियों को प्रयाग के संगम पर एकत्र किया,यह सोचकर शायद तीन नदियों का संगम स्थल तीनों गुटों को उसी तरह एक धारा में बदल सके।
पर काश ! राजनय नदियों की तरह पवित्र
हुआ करता।
फिर भी एकता के लिए एक समिति और तीन सूत्री फार्मला बन गए।
वे फार्मूले थे उचित प्रतिनिधित्व के आधार पर नीति आयोग गठित किया जाए।
आयोग देश के हर हिस्से में घूमकर साथियों और पदाधिकारियों से विचार विमर्श करे।
नीति कार्यक्रम विधान का मसविदा बनाये।
सदस्यता भर्ती और मध्य प्रदेश में सम्मेलन का स्थान चयन एवं तिथि निर्धारण आदि की व्यवस्था के लिए उचित प्रतिनिधित्व के अनुसार एक संचालन समिति गठित की जाए।
समीचीन होगा कि मध्यावधि काल में यानी सम्मेलन होने के पूर्व तक वत्र्तमान तदर्थ समिति निद्रारत रहे।
इस फार्मूले की पृष्ठभूमि में 12 सितंबर की बैठक में (जिसमें सोशलिस्ट पार्टी शेष और एकताकांक्षियों के प्रतिनिधि शामिल थे )जो एक तीन सूत्री फार्मूला स्वीकार किया गया,वह उपर्युक्त इलाहाबाद के फार्मूले का संशोधित रूप ही था।
श्री कर्पूरी ठाकुर को अधकार दिया गया कि वे इस फार्मूले के आधार पर श्री राजनारायण को एकता के लिए राजी करें।
पर, लोहियावादी सोशलिस्ट पार्टी ने संगठन कांग्रेस, भारतीय क्रांति दल और रिपब्लिकन पार्टी आदि से वृहद एकता के प्रस्ताव के बहाने उक्त प्रस्ताव को तब टाल दिया।
श्री कर्पूरी ठाकुर के समक्ष अब एक ही रास्ता बचा कि वे सोशलिस्ट पार्टी (शेष) में शामिल हो ही जाएं,पर उन्होंने 15 अक्तूबर को श्री मधु लिमये ,मधु दंडवते और श्री जार्ज फर्नांडिस को पटना बुलाया ताकि राजनारायण की अस्वीकृति ओर 12 सितंबर के फार्मूले के संदर्भ में बातें की जा सकंे।
पर वे नहीं आ सके।
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कार्यकत्र्ता सम्मेलन
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12 सितंबर को श्री कर्पूरी ठाकुर को अपने कुछ उत्साही सहयोगियों की सलाह मानकर पटने में कार्यकत्र्ताओं का एक अलग सम्मेलन बुलाने का निर्णय करना पड़ा।
पर, अब भी श्री कर्पूरी ठाकुर को उम्मीद है कि शत प्रतिशत नहीं तो 75 प्रतिशत एकता अवश्य हो जाएगी।
इस दिशा में लोहियावादी सोशलिस्ट द्वारा श्री कर्पूरी ठाकुर द्वारा बुलाये गये सम्मेलन में मिलकर प्रतिष्ठापूर्ण ढंग से एकाकार हो जाने की कोशिश हुई।
पर उनकी शत्र्त है कि श्री ठाकुर सोशलिस्ट पार्टी (शेष)के साथ किसी तरह की एकता वात्र्ता सदा के लिए रद कर दें।
हाल में ही एकताकांक्षियों और लोहियावादी सोशलिस्टों ने साथ मिलकर एक पार्टी का रूप देने का अंतिम रूप से सिर्फ फैसला ही नहीं कर लिया है, वरन एकताकांक्षियों के पटना सम्मेलन के लिए प्रसिद्ध पत्रकार श्री ओमप्रकाश दीपक द्वारा तैयार नीति वक्तव्य के मसविदे पर बहस भी कर अपने मनचाहे परिवत्र्तन भी किए हैं।
ऐसे तो एकताकांक्षियों और लोहियावादी सोशलिस्ट के बीच एकता की भविष्यवाणी सोशलिस्ट पार्टी शेष के श्री रामानंद तिवारी बहुत पहले से ही करते रहे हैं और उन्हें इसकी कोई परवाह भी नहीं रही है,पर उनके साथी मधु लिमये और जार्ज फर्नांडिस की स्थिति थोड़ी भिन्न है।
श्री कर्पूरी ठाकुर के साथ पटने में हो रही श्री मधु लिमये की बातचीत बहुत कुछ लोहियावादियों के रुख पर निर्भर करता है।
ज्ञातव्य है कि लोहियावादियों ने सर्वश्री मधु लिमये ,जार्ज फर्नांडिस और मधु दंडवते आदि को छह वर्षों के लिए पार्टी से निकाल देने का भी फैसला किया है।
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