शनिवार, 10 जून 2023

 मेरा यह लेख आज के दैनिक जागरण और दैनिक नईदुनिया के 

सारे संस्करणों में एक साथ प्रकाशित

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देशहित में नहीं राजद्रोह कानून का खात्मा

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      सुरेंद्र किशोर

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देश के समक्ष बढ़ रही चुनौतियों को देखते हुए राजद्रोह कानून के मामले में समग्र परिदृश्य को ध्यान में रखकर विचार करने की आवश्यकता है।

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देश में अक्सर यह बहस जोर पकड़ने लगती है कि अब राजद्रोह कानून की विदाई दे दी जाए।

  इसी शाश्वत बहस के बीच बीते दिनों विधि आयोग की ताजा रपट में 

इस कानून को बनाए रखने की अनुशंसा की गई है।

   देश की एकता और अखंडता के लिए इस कानून की आवश्यकता रेखांकित करते हुए विधि आयोग ने कहा है कि इस कानून में कुछ संशोधन किए जा सकते हैं।

  इस सिलसिले में निर्धारित सजा को बढ़ाने की बात भी उसने की।

 स्वाभाविक है कि ऐसी सिफारिश के बीच राजद्रोह कानून विरेाधी लाॅबी को नए सिरे से अपना विरोध करने का अवसर मिल गया है,लेकिन सामान्य समझ वाला कोई भी व्यक्ति सहजता से यह देख सकता है कि संप्रति देश में राजद्रोही मंशा एवं मनोवृति वाले तत्वों की संख्या बढ़ती जा रही है।

  ऐसे में इस कानून की समाप्ति राष्ट्रीय हितों के प्रति बड़ा आघात होगी।

  इस रिपोर्ट के संदर्भ में केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल ने कहा कि विधि आयोग की सिफारिश बाध्यकारी नहीं है और हम सभी हितधारकों से विचार-विमर्श के बाद ही राजद्रोह कानून पर कोई अंतिम फैसला करेंगे।

    वर्तमान में राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर नई चुनौतियों ने दस्तक दी है।

सरकार इससे जुड़ी समस्याओं का समाधान निकालने के लिए हर संभव प्रयास कर रही है।

इसमें न्यायिक तंत्र से भी आवश्यक सहयोग अपेक्षित है।

 न्यायिक तंत्र सामान्य अपराध और आतंकी अपराधों के बीच फर्क करें।

 राजद्रोह कानून की समाप्ति के पीछे सबसे बड़ा तर्क इसके दुरुपयोग का दिया जाता है।

 निःसंदेह ,दुरुपयोग रोकने के उपाय होने चाहिए,लेकिन याद रहे कि सिरदर्द होने पर सिर को तो नहीं काटा जाता।

  आखिर किस कानून का दुरुपयोग नहीं होता ?

फिर राजद्रोह कानून की समाप्ति पर इतना जोर क्यों ?

 खुद सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व में यह कहा कि राजद्रोह कानून के दुरुपयोग को लेकर उसने यानी सुप्रीम कोर्ट ने सन 1962 में जो दिशा निर्देश दिया,वह यानी सुप्रीम कोर्ट आज भी उससे सहमत है।

 हालांकि राजद्रोह कानून को लागू करने पर रोक से संबंधित हालिया फैसले से विचित्र स्थिति उत्पन्न हो रही है।

 उम्मीद है कि केंद्र सरकार संबंधित पक्षों से मंत्रणा कर  देशहित में सुप्रीम कोर्ट को ताजा स्थिति से अवगत कराएगी,क्योंकि राष्ट्रीय सुरक्षा की प्राथमिक जिम्मेदारी केंद्र सरकार की ही है।

  राजद्रोह कानून पर केंद्र सरकार किस तरह आम सहमति बनाती है,यह तो भविष्य के गर्भ में है।

लेकिन इस कानून से जुड़े कुछ विवादों पर दृष्टि डालने से यह स्पष्ट हो जाएगा कि किसी भी देश के लिए इस प्रकार का कानून कितना आवश्यक है।(भारत के लिए तो और भी आवश्यक है क्योंकि बाहर-भीतर की राष्ट्रद्रोही शक्तियां इस देश को खरबूजे की तरह काट कर बांट लेना चाहती हैं।उसके लिए वे तेजी से काम भी कर रही हैं।)

  इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के 1962 के एक फैसले को याद करना उपयोगी होगा।

 26 मई, 1953 को बिहार के बेगूसराय में एक रैली हो रही थी।

 फारवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के नेता केदारनाथ सिंह रैली को संबांेधित कर रहे थे।

सरकार के विरुद्ध कड़े शब्दों का उपयोग करते हुए उन्होंने कहा कि ‘सी.आई.डी. के कुत्ते बरौनी में चक्कर काट रहे हैं।

कई सरकारी कुत्ते यहां इस सभा में भी हैं।

जनता ने अंग्रेजों को यहां से भगा दिया।

कांग्रेसी कुत्तों को गद्दी पर बैठा दिया।

इन कांग्रेसी गुंडों को हम उखाड़ फेंकेंगे।’

ऐसे उत्तेजक और अमर्यादित भाषण के लिए बिहार सरकार ने केदारनाथ सिंह के खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा दायर किया।(तब डा.श्रीकृष्ण सिंह बिहार के मुख्य मंत्री थे।) 

केदारनाथ सिंह ने पटना हाईकोर्ट की शरण ली।

हाईकोर्ट ने मामले की सुनवाई पर रोक लगा दी।

बिहार सरकार सुप्रीम कोर्ट चली गई।

सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह से संबंधित आई.पी.सी.की धारा को परिभाषित किया।

20 जनवरी, 1962 को मुख्य न्यायाधीश बी.पी.सिन्हा (जो बिहार के ही शाहाबाद जिले के मूल निवासी थे)की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने कहा कि ‘राजद्रोही भाषणों और अभिव्यक्ति को सिर्फ तभी दंडित किया जा सकता है ,जब उसकी वजह से किसी तरह की हिंसा ,असंतोष या फिर सामाजिक आक्रोश बढ़े।’

चूंकि केदारनाथ सिंह के भाषण से ऐसा कुछ नहीं हुआ था,इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ सिंह को राहत दे दी।

(याद रहे कि आज इस देश के जो लोग राजद्रोह कानून की समाप्ति चाहते हैं,उनमें से अधिकतर लोग नक्सली और जेहादी हिंसा का प्रत्यक्ष या  परोक्ष रूप से समय -समय पर किसी न किसी बहाने समर्थन करते रहते हैं।इसलिए यह आम लोगों के लिए समझने की बात है कि राजद्रोह को समाप्त करवा कर कौन-कौन  शक्तियां अपने कैसे-कैसे लक्ष्य को हासिल करना चाहती हंै !!)

    हालांकि राजद्रोह के सभी मामले केदारनाथ सिंह सरीखे नहीं होते।

जैसे फरवरी, 2016 में जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय यानी जेएनयू परिसर में हुआ भारत विरोधी आयोजन। 

    उसमें कश्मीरी आतंकी अफजल गुरु की बरसी मनाई जा रही थी।

भारत की बर्बादी के नारे लगाए जा रहे थे।

नारा लगाने वाले जेएनयू में थे और इस आयोजन के कर्ताधर्ता कश्मीर में।

(कश्मीर में अफजल गुरु जैसे लोग क्या-क्या करते रहे हैं,यह किसी से कभी छिपा हुआ नहीं रहा है।)

जेएनयू मामले में राजद्रोह का केस दर्ज हुआ।

लेकिन विडंबना देखिए कि दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी ने मामला चलाने की  अनुमति देने में एक साल का समय लगा दिया।

मामला अब भी अदालत में लंबित हैै।

यह भी कोई संयोग नहीं कि आम आदमी पार्टी भी राजद्रोह कानून की समाप्ति के पक्ष में है।

(जेएनयू कांड के एक आरोपित कन्हैया कुमार अब कांग्रेस में हैं।पहले सी.पी.आई. में थे।

सी.पी.आई. के डी.राजा ने राज्य सभा में निजी विधेयक पेश कर रखा है।वह विधेयक राजद्रोह कानून की समाप्ति के लिए है।कांग्रेस तो राजद्रोह कानून की समाप्ति के पक्ष में है ही।)

सवाल वोट बैंक का जो है।

अब तो पापुलर फं्रट आॅफ इंडिया यानी पी.एफ.आई. भी देश में बड़े पैमाने पर सक्रिय है।

उसके पास से हाल में मिले साहित्य से यह स्पष्ट है कि उसका घोषित लक्ष्य है कि सन 2047 तक हथियारों के बल पर इस देश में इस्लामिक शासन कायम कर देना है।

  राजद्रोह कानून के अभाव में ऐसे तत्वों से निपटना आसान नहीं।

  किसी भी कानून के कार्यान्वयन पर रोक लगाने वाले सुप्रीम कोर्ट के सामने जब पूरे तथ्य आ जाते हैं तो अक्सर वह अपना पिछला निर्णय बदल देता है।

जैसे सुप्रीम कोर्ट ने आपातकाल(1975-77)के दौरान अपने एक चर्चित निर्णय से बाद में स्वयं को अलग कर लिया था।

 वह निर्णय बंदी प्रत्यक्षीकरण से जुड़ा था।

 तब यानी आपातकाल में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ‘आपातकाल में कोई नागरिक अपने मौलिक अधिकारों की मांग नहीं कर सकता।’

  उल्लेखनीय है कि मौलिक अधिकारों में जीने का अधिकार भी शामिल है।

तब केंद्र सरकार के वकील नीरेन डे ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि यह आपातकाल ऐसा है जिसके दौरान यदि शासन किसी की जान भी ले ले तो उस हत्या के विरुद्ध अदालत की शरण नहीं ली जा सकती।

सुप्रीम कोर्ट ने तब नीरेन डे की बात पर मुहर लगा दी थी।

वहीं,जब आपातकाल का आतंक समाप्त हुआ तो सुप्रीम कोर्ट को अपने उस निर्णय पर पछतावा हुआ।

ऐसी उदारता इस देश के सुप्रीम कोर्ट में मौजूद है।

ऐसे में राजद्रोह के मामले में भी शीर्ष अदालत को समग्र परिदृश्य को ध्यान में रखकर विचार करना चाहिए।

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(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ स्तभकार हैं।)

9 जून 23  

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नोट-इस लेख के बीच में जहां -तहां ब्रैकेट में कुछ वाक्य लिखे गए हैं।वे प्रकाशित लेख का हिस्सा नहीं हैं।बातें और भी स्पष्ट हों,इसलिए मैंने बाद में उसे जोड़ा है।याद रहे कि किसी ऐसे लेख में शब्द सीमा का ध्यान रखना पड़ता है।

    

  

  

   






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