शनिवार, 29 जुलाई 2023

  बिहार में ही क्यों,पूरे देश में जातिवाद है,

पर, इस राज्य के रिश्वत खोर और दहेज 

दानव कभी जातिवाद नहीं करते  

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      --सुरेंद्र किशोर--

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कुछ लोग कहते हैं कि बिहार में बहुत जातिवाद है।

किंतु मेरा मानना है कि रिश्वत-खोरी और दहेज-खोरी 

के क्षेत्रों में कोई जातिवाद नहीं है।

(हां,उत्तर बिहार के कतिपय समाजिक समूह में दहेज का प्रचलन नहीं रहा है।क्या अब भी वही स्थिति है ?मुझे नहीं मालूम।कोई बताए।)

सरकारी दफ्तरों के ‘‘आदतन भ्रष्ट रिश्वतखोर’’ अपनी जाति को भी नहीं बख्शते।

वे तुरंत कह देते हैं कि ‘‘अरे यार,मुझे ऊपर भी तो पहुंचाना पड़ता है।’’

ऐसा है तांे फिर भैया,अपना हिस्सा तो छोड़ दो।

इस पर वे कहते हैं कि हमारे भी तो बाल-बच्चे हैं।

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दहेज दानव तो और अधिक क्रूर होते हैं।वह तो जाति के भीतर का ही मामला है। 

कुछ सरकारी कामों को तो आप टाल भी सकते हैं।

पर,बिटिया की शादी 

तो नहीं टल सकती।

मेरी पांच बहनों की शादियों में बारी-बारीे से औसतन पांच बीघे जमीन बिक गयी थी।

हमारे पास तो बेचने के लिए जमीन थी और है भी ,तो काम चल गया,अब भी मेरा कोई बड़ा काम जमीन बेच कर ही होता है।

पर, जिनके पास साधन सीमित हैं,वे तो उस  क्षण को कोसते होंगे जिस क्षण उनके यहां बिटिया पैदा हुई थी।  

’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के बारे में एक बात सुनी थी।

बात अपुष्ट है,इसलिए 

जो अधिक जानकार हों,वे मुझे बताएं।मैं खुद को सुधार लूंगा।

उनकी कन्या की शादी होनी थी।

उन्हीें दिनों उन्हें सवा लाख रुपए का ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था।

जिस लड़के वाले के यहां राष्ट्रकवि जाते थे,उसकी नजर उस सवा लाख पर ही लगी होती थी।

पता नहीं, संवेदनशील दिनकर जी ने कैसे चीजों को संभाला होगा !

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दिनकर जी पर आज उनके स्वजातीय सहित पूरा समाज -देश गर्व करता है।

करना भी चाहिए।

पर,उस पीड़ा के दौर से किसने उनको बाहर किया होगा,इस पर मैं अपनी कल्पना के घोड़े ही दौड़ा सकता हूं।

(आज भी जो अत्यंत थोड़े से लोगों का जो ईमानदारी की कमाई पर किसी तरह जीवित हैं, कितने लोग ध्यान रखते हैं ?)

मेरे फेसबुक मित्र डा.रामवचन राय इस संबंध में दिनकर जी पर बेहतर प्रकाश डाल सकते हैं।

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आज की पीढ़ी के एक ‘अर्धाक्षर’ (साक्षर और निरक्षर के बीच का यह शब्द कैसा रहेगा !)पत्रकार ने दिनकर के बारे में हाल में कहीं लिख दिया कि ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ लिखने के बाद जब प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू नाराज हो गये तो दिनकर जेपी के साथ हो लिए।

अरे अर्ध ज्ञानी जी महाराज, आजादी के हीरो जेपी पर दिनकर ने प्रारंभिक दिनों में ही कविता लिख दी थी।

जब डा.लोहिया ने दिनकर से कहा कि जेपी पर तुमने लिखा,मुझ पर लिखो।

दिनकर का जवाब था-जेपी ने मुझे जितना प्रभावित किया,उतना आप भी प्रभावित कर देंगे तो मैं लिख दूंगा।

खैर,लगे हाथ यह भी बता दूं कि जेपी की चिट्ठी पर ही नेहरू जी ने दिनकर जी को पहली बार राज्य सभा का सदस्य बनाया था।

दूसरी और तीसरी बार भी बने।

चैथी बार नहीं बने।

चीनी आक्रमण के बाद यदि दिनकर ‘‘परशुराम की प्रतीक्षा’’ नहीं लिखते तो आगंे भी वे राज्य सभा में होते।

पर,दिनकर सहित उन दिनों की कई हस्तियों के लिए देश पहले था, पद बाद में।

  राजनीति में तब आज जैसा कलियुग नहीं आया था।अपवादों को छोड़कर आज के इस युग को राजनीति के कलियुग के बदले ‘‘दुर्योधन युग’’ ही कहना शायद बेहतर  होगा।

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 29 जुलाई 23  

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(यह पोस्ट उन पर लागू नहीं होता है जो आज के दौर में भी दहेज या रिश्वत नहीं लेते और अपनी -अपनी जगह में के.के.पाठक की तरह ही निडर और कर्तव्यनिष्ठ बने हुए हैं।) 


 


बुधवार, 26 जुलाई 2023

 एक अनुमान के अनुसार इस देश में करीब 14 लाख 

करोड़ रुपए का काला धन हर साल पैदा हो रहा है

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     --सुरेंद्र किशोर--

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एक मोटे अनुमान के अनुसार इस देश की केंद्र और राज्य सरकारों के कुल सालाना बजट करीब 70 लाख करोड़ रुपए के होतेे हैं।

   अत्यंत थोड़े से अपवादों को छोड़कर सरकारी कामों में कमीशन या घूसखोरी की दर आम तौर पर औसतन 20 प्रतिशत है।

यानी, 14 लाख करोड़ रुपए का काला धन हर साल पैदा हो रहा है।

ये 14 लाख करोड़ रुपए किन -किन लोगों की जेबों में

जाते हैं, जरा आप भी मेरी जानकारी बढ़ाइएगा।

इतने पैसों का कितना उपयोग देशहित में होता है और कितना राष्ट्रद्रोह के काम में ?

इनमें से कितने पैसे हवाला के जरिए या दूसरे उपायों से विदेशों में भेज दिए जाते हैं ?

(इस देश के एक पूर्व केंद्रीय मंत्री पर यह आरोप है कि उसने छह देशों में डेढ़ लाख करोड़ रुपयों की निजी संपत्ति बनाई है।इ.डी. उसकी जांच कर रही है।)

  हर साल करीब एक लाख लोग भारत की नागरिकता छोड़कर विदेशों में बस रहे हैं।

उन में से कितने लोगों ने इस देश को लूटने के बाद विदेश में बसने का निर्णय किया है ?

भारत में आर्थिक विषमता तेजी से बढ़ रही है।

हमारे संविधान के नीति निदेशक तत्व वाले चैप्टर में यह लिखा गया है कि लोगों के बीच आर्थिक विषमता कम करने की शासन कोशिश करेगा।

आदि ...आदि 

और, कोई बात हो तो बताइए।

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नोट-बगोदर के माले विधायक दिवंगत महेंद्र प्रसाद सिंह वहां के सरकारी अफसरों से घूस लौटवाने का अभियान चलाते रहते थे।वे कभी चुनाव नहीं हारे।

महेंद्र जी जन दबाव से घूस वापस करा भी देते थे जो आम जनता से लिए गए होते थे।

जब वे बिहार विधान सभा में बोलते थे तो सभी पक्षों के लोग उन्हें ध्यान से सुनते थे।

  आज के ‘भ्रष्ट युग’ में भी यदि कोई राजनीतिक संगठन अंचल स्तर से राज्य स्तर तक के भ्रष्ट अफसरों आदि पर जन दबाव डाल कर घूस वापस कराने का सत्याग्रह करे तो वह राजनीतिक दल थोड़े ही दिनों में काफी लोकप्रिय हो जाएगा।पर,समस्या यही है कि आज महेंद्र सिंह जैसा कार्यकर्ता या नेता ढूंढ़ना बहुत मुश्किल काम है।

  याद रहे कि आज घूस के बिना सरकारी दफ्तरों में कहीं कोई काम नहीं हो रहा है,अपवादों की बात और है।

एक तरफ सरकारी पैसों की भारी लूट है और दूसरी तरफ अधिकतर सरकारी स्कूलों और सरकारी अस्पतालों में बुनियादी सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं। 

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25 जुलाई 23 

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  जाली कागजात के आधार पर ताज महल और लाल किले तक को बेच देने वाला नटवर लाल एक बार खुद ठगी का शिकार बन गया था

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सुरेंद्र किशोर

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करीब चार सौ लोगों को बारी -बारी से ठगने वाला नटवर लाल सत्तर के दशक में खुद ठगी का शिकार बन गया था।

  दशकों के उसके आपराधिक जीवन में उसने ताज महल और लाल किले तक को बेच डाला था।

संसद भवन को बेचने के लिए तो उसने राष्ट्रपति डा.राजेंद्र प्रसाद का नकली हस्ताक्षर कर दिया था।

  यह संयोग ही था कि डा.प्रसाद और नटवरलाल दोनों बिहार के अविभाजित सारण जिले के जिरादेई के मूल निवासी थे।अब जिरादेई सिवान जिले में है।

राजेंद्र बाबू के छात्र जीवन में एक परीक्षक ने उनकी उत्तर पुस्तिका में लिख दिया था कि परीक्षार्थी यानी राजेन्द्र प्रसाद परीक्षक से भी अधिक ज्ञानवान  है।

  उधर नटवरलाल शब्द, संज्ञा से सर्वनाम बन चुका है।

 मिथिलेश कुमार श्रीवास्तव उर्फ नटवर लाल के जयपुर में ठगे जाने की कहानी शकील अख्तर ने लिखी है।

  सन 1970 में नटवरलाल जयपुर केंद्रीय जेल का ‘मेहमान’ था।

उस समय उसकी उम्र 55 साल थी।

नटवर जब जेल लाया गया,उस समय उसके पास दो महंगे सूट थे।

जेल नियम के अनुसार दोनों सूट जेल में जमा कर लिए गए।

एक दिन एक जेल अधिकारी नटवर लाल का शानदार बंद गले का सूट

पहनकर नटवर से मिलने पहुंच गया।

अपना सूट दूसरे के शरीर पर देखकर नटवर चैंका।

उसने कहा कि यह तो मेरा सूट है,आपने कैसे पहन लिया ?

यह तो जेल में जमा रहना चाहिए।

जेल अधिकारी ने कहा कि आप तो इस सूट को वापस ले चुके हैं।

आपने हमारे रजिस्टर में इसे वापस करने के दस्तखत किये हैं।

नटवर बड़ा भन्नाया।

उसने सख्ती से कहा कि मैंने तो इसे वापस लिया ही नहीं।

जेल अधिकारी ने बड़े इत्मीनान से उसे जेल का  इंट्री रजिस्टर लाकर दिखा दिया।

  वहां वाकई दोनों सूट वापस लेने के लिए नटवरलाल के दस्तखत मौजूद थे।

एकदम असली दस्तखत।

ठग सम्राट बुरी तरह चैंेक गया।

यह नटवर की कल्पना से परे था।

जयपुर के उस जेल अफसर ने नटवरलाल को कांगजों में ही उसे मात दे दी थी।

जेल अफसर ने इस घटना का मजा लेते हुए बताया कि हमारे जेल में आने वाले हर कैदी की एंट्री के लिए एक रजिस्टर होता है।

उसमें हम उससे संबंधित जानकारियां दर्ज करते हैं।

उसी में कैदी के साथ जो सामान होता है,उसे जमा करके लिखा जाता है।

 उसमें दो सूट जमा थे।

एक बार पेशी की तारीख पर नटवर लाल बाहर गया था।

जाते समय वह अपना एक सूट ले गया।

 उस सूट की प्राप्ति के दस्तखत उसने किए थे।

 ठीक उसके नीचे उसका दूसरा सूट दर्ज था।

जेल अधिकारी ने कहा कि मैंने किया यह कि नटवर लाल ने जो एक सूट की प्राप्ति के दस्तखत किए थे उस दस्तखत के आगे एक कोष्ठक बना दिया।

अब वह दस्तखत दोनों सूटों की प्राप्ति के लिए हो गया।

पहली नजर में सीधे-सादे सामान्य से दिखने वाले नटवरलाल को जयपुर जेल में कड़े बंदोबस्त के साथ रखा गया था।

  जेलों से अक्सर भाग जाने का उसका इतिहास था।

इसलिए नटवर को फांसी की कोठरी नंबर दो में रखा गया था।

 पर,यह नटवर को मंजूर नहीं था।

उसने जयपुर के सेशन कोर्ट में अपील की।उसकी अपील अलग कोठरी में बंद किए जाने के खिलाफ थी।

वकालत की पढ़ाई कर चुका नटवर ने कहा कि उसे ‘कंडम सेल’ में रखा गया है,जो नियम के खिलाफ है।

जेल अधिकारी इस अपील के बाद परेशानी में पड़ गये।

जेल अधिकारी चाहते थे कि उसकी अपील मंजूर न हो।अन्यथा उसके लिए विशेष सुरक्षा की व्यवस्था करनी पड़ेगी।

 क्योंकि नटवर लाल बेहद शातिर था।वह बात करने में उस्ताद था।

किसी को भी वह जल्दी ही प्रभावित कर लेता था।

जेल शासन ने कोर्ट में ऐसी बहस की कि नटवर की अपील खारिज हो गयी।

नटवर लाल की कहानी अद्भुत है।

अब तो वह दंत कथाओं का पात्र बन चुका है।

सन 1912 में जन्मे नटवरलाल के बारे में नटवर लाल के भाई ने सन 2009 में कोर्ट में यह हलफनामा दिया कि नटवर लाल की मृत्यु 13 साल पहले हो चुकी है।

  याद रहे कि अदालत के आदेश से पुलिस 24 जून 1996 को नटवर लाल को कानपुर जेल से इलाज के लिए दिल्ली ले गई।लौटते समय यानी 25 जून को दिल्ली स्टेशन पर से संतरियों को चकमा देकर नटवरलाल फरार हो गया।उस समय उसकी उम्र 84 साल थी।उसके बाद वह कहीं नहीं देखा गया।

वैसे तो नटवर लाल ने वाराणसी से ठगी की शुरूआत की थी।पर,उसके खिलाफ आठ राज्यों में 100 मुकदमे दायर हुए थे।

उसके 52 छद्म नाम थे।

उसे कुल मिलाकर 113 वर्षों की सजा हो चुकी थी।

उसके खिलाफ सबसे चर्चित मामला

दिल्ली की कुछ मश्हूर इमारतों को बेच देने का था।

उसने अफसर बन कर विदेशियों को  ताज महल,लाल किला,राष्ट्रपति भवन और संसद भवन तक को बेच दिया।उसके लिए उसने जाली कागजात तैयार कर लिए थे।

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19 जुलाई 23

   


मंगलवार, 25 जुलाई 2023

      इस देश में निजी टी.वी. चैनलों पर हो रहे वाद-विवाद का स्तर अधिक ऊंचा है या संसद-विधान मंडलों के वाद-विवाद का स्तर अधिक ऊंचा है ?

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 ऐसे डिबेट्स से हमारी नयी पीढ़ी कैसी शिक्षा ,संस्कृति और जानकारियां हासिल कर रही हैं ?

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इससे नयी पीढ़ी के दिल ओ दिमाग में लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति सकारात्मक धारणा बन रही है या नकारात्मक ?

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     --सुरेंद्र किशोर

     25 जुलाई 23



रविवार, 23 जुलाई 2023

    वजन अधिक है तो दुर्घटना होने पर अधिक हड्डियां टूटेंगी

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         सुरेंद्र किशोर

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सड़क दुर्घटनाएं रोकना आपके वश में नहीं होता है।

किंतु अपने बढ़ते वजन पर काबू पाना आपके वश में है।

दुर्घटना होने पर अधिक मोटे लोगों की अधिक हड्डियां टूटती हैं।

सामान्य वजन वालों की कम हड्डियां टूटती हैं।

क्योंकि बढ़े वजन का बोझ हड्डियों को ही झेलना पड़ता है।

जिस करवट गिरोगे,बाकी शरीर का बोझ उसी हिस्से की हड्यिों को ही झेलना पड़ता है।

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सामान्य वजन किसे कहते हैं ?

यदि आपकी लंबाई 65 इंच है और आपका वजन 65 किलो ग्राम है तो उसे सामान्य वजन कहेंगे।

हां, 5 किलो कम या 5 किलो अधिक चलेगा।

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अब आपको ही चुनाव करना है।

भोजन पर कंट्रोल करके और शारीरिक गतिविधियां बढ़ाकर वजन पर काबू रखना है या जीभ का गुलाम बन कर और आलसी जीवन बिता कर अधिकाधिक हड्डियां तुड़वानी हंै ?

इस देश में जितने लोग भूख-कुपोषण से मरते हैं,उससे अधिक लोग अति-भोजन से मरते हैं।वजन बढ़ने का एक कारण अति भोजन भी है।

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23 जुलाई 23



शुक्रवार, 21 जुलाई 2023

   कैसे चलेगा वह देश जहां बेल 

   नियम और जेल अपवाद हो !

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       सुरेंद्र किशोर

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सुप्रीम कोर्ट के दिवंगत जस्टिस वी.आर.कृष्णा अय्यर ने कहा था कि ‘‘बेल नियम होना चाहिए और जेल अपवाद।’’

तिस्ता सितलवाड और ब्रजभूषण शरण सिंह को मिली जमानत के बाद मुझे कृष्णा अय्यर की वह मशहूर उक्ति याद आ गयी।

न्यायपालिका के भीष्म पितामह कहे जाने वाले कृष्णा अय्यर की उक्ति का अदालतें पालन कर रही हंै।

याद रहे कि जज बनने से पहले कृष्णा अय्यर सन 1957 में गठित ई.एम.एस.नम्बूदरीपाद की कम्युनिस्ट सरकार के मंत्री थे।

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यह संयोग नहीं है ।

 सन 2020 में आई.पी.सी.मामलों में इस देश में 59 प्रतिशत आरोपितों को अदालतों से सजा हुई थी।

पर सन 2021 में सजा की दर में दो प्रतिशत की कमी आ गयी।

सब जानते हैं कि बेल पर बाहर आने के बाद अधिकतर प्रभावशाली आरोपित कौन -कौन से जतन करते हैं।

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जापान में सजा की दर 99 प्रतिशत है और अमेरिका में 93 प्रतिशत।

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सन 2001 में वल्र्ड ट्रेंड सेंटर पर आतंकी हमले के बाद अमेरिका में पहले से मौजूद संबंधित कानून को और भी कड़ा बनाया गया।

पर,उसके विपरीत सन 2004 में सत्ता में आने के बाद मनमोहन सरकार ने आतंकवाद विरोधी कानून को ढीला कर दिया जबकि भारत में भी आतंकवादी घटनाओं की बाढ़ आई हुई थी।

  नाइन एलेवेन की घटना के बाद पटना की एक बड़ी सेक्युलर हस्ती ने एक अखबार में लेख लिखा कि हमला यहूदियों ने किया था जबकि ओसामा बिन लादेन ने कहा कि हमारे आदमियों ने हमला किया है।मुद्दई सुस्त,गवाह चुस्त। 

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नेहरू युग में विदेश सेवा में आए एक रिटायर अफसर को टी.वी.पर एक बार यह बोलते हुए मैंने सुना था कि हमारे देश की  सीमाआंे पर यदि हम बाड़ लगाएंगे तो दुनिया में भारत की छवि खराब होगी।तब उन्हें यही सिखाया गया था।

उस पर टी.वी.डिबेट में शामिल शिवसेना के सांसद ने उनसे सवाल किया--आप भारत के विदेश सचिव थे या बंाग्ला देश के  ?

ध्यान दीजिए आज घुसपैठियों की बाढ़ के कारण भारत में कैसी -कैसी विपत्तियां आ रही हैं।

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जस्टिस संतोष कुमार हेगडे ने कहा था कि इस देश के इस परंपरागत ‘‘न्याय शास्त्र’’ में परिवर्तन किया जाना चाहिए कि 

‘‘भले 99 दोषी छूट जाएं किंतु एक भी निर्दोष को

सजा न मिले।’’

बदली हुई परिस्थिति में अब होना चह चाहिए

कि ‘‘कोई भी दोषी सजा से बच न पाए, भले इस सिलसिले में दो -चार निर्दोष फंस जाएं।’’

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आज हमारे यहां बड़ी -बड़ी शक्तियों सक्रिय हैं जो इस बात की कोशिश करती रहती है कि हमारे यहां सुशासन न आए।

भ्रष्टाचार न रुके।

चाहे सीमाओं की रक्षा का सवाल हो या शिक्षण संस्थाओं में शिक्षकों की उपस्थिति सुनिश्चित कराने का प्रयास हो।

परीक्षा में चोरी रोकने पर तो यहां राज्य सरकार (नब्बे के दशक की उत्तर प्रदेश सरकार इसका उदाहरण है।)का ही पतन तक हो जाता है।

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और अंत में

एक स्कूली शिक्षक ने आठवीं कक्षा के छात्र से पूछा--

लोक सभा -विधान सभा के बारे में तुम कितना जानते हो ?

छात्र--ये वैसी जगहें हैं जहां बैठक शुरू होने के तुरंत बाद भारी हंगामा कर देने की मजबूरी होती है ताकि बैठक स्थगित हो जाए।

हम तो आपके क्लास रूम में कदम रखते ही शांत हो जाते हैं।

पर,लोक सभा -विधान सभा के हेड मास्टर लोगों (यानी स्पीकर)को भी वहां कोई कुछ नहीं समझता।

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21 जुलाई 23


  सन 1967 में दक्षिण पटना में साढ़े नौ सौ 

एकड़ में स्थापित लोहिया नगर को अब कोई

 लोहिया नगर नहीं कहता

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   सुरेंद्र किशोर

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पटना स्थित लोहिया नगर पोस्ट आॅफिस का नाम बदल कर अब कंकड़बाग पोस्ट आॅफिस कर दिया जाना चाहिए।

   क्योंकि जिस मुहल्ले में लोहिया नगर के नाम से पोस्ट आॅफिस अवस्थित है,उस मुहल्ले को अब कोई लोहिया नगर नहीं बोलता,न ही लिखता है।

यदि कोई लिखता-बोलता हो तो हमें जरूर बताएं।ं

 सन 1967 में करीब साढ़े नौ सौ एकड़ जमीन में लोहिया नगर बसाया गया था।

तब की महामाया प्रसाद सिन्हा सरकार में कई लोहियावादी मंत्री थे।

कर्पूरी ठाकुर तो उप मुख्य मंत्री ही थे।कट्टर लोहियावादी भोला प्रसाद सिंह एल.एस.जी.मंत्री थे।

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केंद्र सरकार ने जो पोस्ट आॅफिस स्थापित किया,उसका नाम लोहिया नगर रख दिया।

पर,समय बीतने के साथ यहां के लोगों ने लोहिया नगर का नाम लेना छोड़ दिया।

 उस इलाके में होने वाले शादी-विवाह ,अन्य समारोह ,सरकारी -गैर सरकारी कार्यक्रमों के कार्ड पर लोहिया नगर मैंने नहीं देखा।

अब सवाल है कि जिस मुहल्ले के पोस्ट आॅफिस का नाम लोहिया नगर पोस्ट आॅफिस है,उस मुहल्ले को लोगबाग लोहिया नगर क्यों नहीं कहते ?

क्या लोहिया के नाम से इतना एतराज है ?

यहां तक कि उस मुहल्ले के विकास व निर्माण कार्यों का जो सरकारी टंेडर होता है,उसमें भी कंकड़बाग ही लिखा होता हैंइसलिए सिर्फ पोस्ट आॅफिस ही क्यों ?

यह स्थिति लोहिया की याद को चिढ़ाने वाली है।

यह तो डा.लोहिया का अपमान भी है।

इसलिए पोस्ट आॅफिस का नाम जल्द बदल दिया जाना चाहिए।

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21 जुलाई 23




गुरुवार, 20 जुलाई 2023

      कहीं देर न हो जाए !!

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    सुरेंद्र किशोर

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पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एस.कृष्णमूर्ति ने लिखा है (हिन्दुस्तान-20 जुलाई 23)कि 

‘‘चुनाव के तुरंत बाद या नजीदीकी दिनों में पार्टियों में होने वाली टूट वास्तव में हमारी राजनीति का एक दुखद पहलू है।

यह हमें परिपक्व लोकतंत्रों की सूची से बाहर कर देता है।’’

  कृष्णमूर्ति साहब,अपवादों को छोड़कर आज इस देश की राजनीति ने व्यापार, यूं कहें कि ‘पारिवारिक उद्योग’ का स्वरूप ग्रहण कर लिया है।

उद्योग-व्यापार जगत में क्या होता है ?

होता यह है कि जब किसी कंपनी की तरक्की होने लगती है तो उसके शेयर का भाव बढ़ जाता है।

खरीदार उसी ओर दौड़ पड़ते हैं जिस तरह गुड़ की ओर चिटियां।

आम तौर पर चुनाव से ठीक पहले राजनीति के मौसमी पक्षियों का रुख उसी दल की ओर होता है जिस दल 

का भाव मतदातागण बढ़ा दिए होते हैं।

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दरअसल इसके साथ -साथ देश में दो-तीन अन्य भयंकर बुराइयों के बढ़ते जाने के कारण इस देश का लोकतंत्र भारी खतरे में है।वे बुराइयां हैं भीषण भ्रष्टाचार और व्यापक जेहादी हिंसा का मड़राता खतरा।भ्रष्टाचार से जेहादियों के हाथ मजबूत होते हैं।

सब भारत और इंडिया भक्त लोग मिलजुल कर इन खतरों से देश को  बचाइए अन्यथा आप जाने-अनजाने तानाशाही को बुलावा दे रहे हैं।

तरह -तरह के खतरे हमारे दरवाजों पर लगातार दस्तक दे रहे हैं ,पर अधिकतर लोग ‘स्वार्थ की नींद’ में डूबे हुए हैं।

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20 जुलाई 23

 


 कानून का उपहास उड़ाने की प्रवृत्ति

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शायद नेहरू-गांधी परिवार इसी भ्रम में है कि वह किसी भी कानूनी कार्रवाई से परे है।

यह प्रवृत्ति इस परिवार और कांग्रेस का भला करने वाली नहीं है।

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सुरेंद्र किशोर

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कानून और नियमों का उल्लंघन करने के बावजूद उसका परिणाम भुगतने से बच निकलना नेहरू-गांधी परिवार की खास फितरत रही है।

अतीत में यह परिवार इसमें सफल होता रहा है,लेकिन इस बार परिवार खुद को मुश्किल में फंसा देख रहा है।

    ताजा मामला मोदी सरनेम पर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की टिप्पणी से जुड़ा है।

यदि राहुल गांधी को इस मामले में सुप्रीम कोर्ट से भी राहत नहीं मिली तो

कानून के शिकंजे से बच निकलने वाली परिवार की परंपरा टूट जाएगी।

इस सिलसिले में शुरुआत प्रथम प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू 

के दौर से ही हो गई थी।

  नेहरू सरकार के दौर में हुए जीप घोटाले की जांच के लिए बनी समिति ने उसमें गड़बड़ी पाई,लेकिन उस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।

बाद में यह जानकारी आई कि जीप आपूर्ति करने वाली ब्रिटिश कंपनी के साथ सौदा संदिग्ध था।

उस कंपनी से जीप खरीद के सौदे का निदेश प्रधान मंत्री कार्यालय से ही सीधे लंदन स्थित उच्चायोग को दिया गया था।

  तब उच्चायुक्त रहे वी के कृष्णमेनन ने अपने दस्तखत से जीप खरीद का सौदा किया,जबकि उस समझौते पर दस्तखत संबंधित अधिकारी के होने चाहिए थे।

उस कंपनी को एक लाख 72 हजार पाउंड एडवांस भी दे दिए गए।

   जब जीप घोटाले पर हंगामा हुआ तो मेनन के खिलाफ कार्रवाई के बजाय 3 फरवरी, 1956 को उन्हें केंद्र में बिना विभाग का मंत्री बना दिया गया।

अगले साल उन्हें रक्षा मंत्री बनाया गया।

  मेनन को संतुष्ट इसलिए रखा गया ताकि जीप घोटाले का दाग किसी अन्य हस्ती पर न लगे।

हालांकि मेनन ने जीप घोटाले की असली कहानी 1969 में एक पत्रकार को बताई जो चुनावी सभाओं में मेनन के लिए दुभाषिए का काम कर रहे थे।

 मेनन तब बंगाल के मिदनापुर से लोक सभा का उप चुनाव लड़ रहे थे।

 प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की कहानी तो बहुत पुरानी भी नहीं है।

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 1975 में उनका लोक सभा निर्वाचन रद कर दिया।

 इंदिरा गांधी ने न्यायालय के आदेश का पालन करने के बजाय ऐसी परिस्थितियां बना दीं कि आपाताकल लगा दिया।

 उस दौरान तमाम ज्यादतियों के बावजूद वह कानूनी शिकंजे से बच निकलीं।

स्पष्ट है कि यह परिवार हमेशा खुद को नियम-कानून से ऊपर मानता रहा,लेकिन अब परिदृश्य बदल रहा है।

पहले कांग्रेस पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में रहती थी,मगर अब उसके पास लोक सभा में प्रतिपक्ष का नेता बनाने की पात्रता भी नहीं रही।

 याद रहे कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी नेशनल हेराल्ड मामले में जमानत पर हैं।

  इस परिवार के साथ एक रुझान यह भी रहा है कि भले ही उन पर कार्रवाई अदालतें करें ,लेकिन उनके समर्थक उसे सरकारों और विरोधी दलों की साजिश के रूप में प्रचाारित करते आए हैं।

1977 में इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी के विरुद्ध कांग्रेसियों ने मोरारजी देसाई सरकार के खिलाफ हंगामा किया था।

इसी तरह कांग्रेसियों ने राहुल गांधी के खिलाफ अदालती निर्णय को लेकर  

 मोदी सरकार के खिलाफ हंगामा किया और उसे जारी रखे हुए है।

आपातकाल की ज्यादतियों के खिलाफ मोरारजी देसाई सरकार ने शाह आयोग गठित किया था।

  संजय गांधी और उनके समर्थकों ने शाह आयोग के सुनवाई स्थल पर जाकर भारी तोड़फोड़ की थी।

 1979 में मोरारजी देसाई सरकार गिर गई।

इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के बाहरी समर्थन से चरण सिंह को प्रधान मंत्री बनवाया।

जब इंदिरा गांधी ने चरण सिंह को संदेश भिजवाया कि संजय गांधी के खिलाफ मोरारजी सरकार के दौर में शुरू हुए मुकदमे वापस करा लीजिए तो चरण सिंह इसके लिए तैयार नहीं हुए।

इदिरा गांधी ने समर्थन वापस ले लिया और चरण सिंह सरकार गिर गई।

फिर 1980 में इंदिरा गांधी सत्ता में लौटीं तो संजय के खिलाफ मामलों में अभियोजन पक्ष ने ढिलाई बरतनी शुरू कर दी और और अंततः न केवल संजय बल्कि वीसी शुक्ल जैसे उनके साथी भी बरी हो गए।

  बोफोर्स तोप खरीद में दलाली और घोटाले के दाग भी नेहरू-गांधी परिवार के दामन पर पड़े।

 राजीव गांधी भी इसकी जद में आए।

उस खरीद में दलाली के भुगतान की बात थी जबकि दलाली लेने की भारत सरकार ने पहले ही मनाही कर रखी थी।

 वी पी सिंह सरकार में उस मामले में प्राथमिकी दर्ज हुई।

वी.पी.सरकार गिरने के बाद राजीव के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने बाहर से समर्थन देकर चंद्रशेखर सरकार बनवाई।

 सरकार बनते ही राजीव गांधी ने चंद्रशेखर पर यह दबाव डलवाया कि वह बोफोर्स केस को ठंडे बस्ते में डाल दें।

 चंद्रशेखर ने ऐसा करने के बजाय प्रधान मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।

राजीव गांधी को इसकी कत्तई उम्मीद नहीं थी।

उन्होंने चंद्रशेखर को संदेश भिजवाया कि इस्तीफा वापस ले लीजिए,पर चंद्रशेखर ने यह कहते हुए उनकी बात ठुकरा दी कि ‘राजीव जी,प्रधान मंत्री के पद को मजाक का विषय मत बनाइए।’

 वाजपेयी सरकार के दौरान सी.बी.आई.ने बोफोर्स मामले को लेकर कोर्ट में आरोप पत्र दाखिल किया।

राजीव गांधी के निधन के बाद उनका नाम आरोप पत्र के दूसरे काॅलम में दर्ज था जैसा कि मृतक आरोपित के साथ होता है।

फरवरी, 2004 में जब दिल्ली हाईकोर्ट ने बाफोर्स मामले में राजीव गांधी तथा अन्य के खिलाफ घूसखोरी के आरोप खारिज कर दिए तो वाजपेयी सरकार ने उस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करने में देर कर दी।

इस बीच मनमोहन सिंह के नतृत्व में सरकार बन गई।

उस सरकार से अपील की उम्मीद बेमानी ही थी।

इस बीच बोफोर्स मामले में यह उल्लेखनीय घटनाक्रम सामने आया कि नवंबर, 2019 में आयकर विभाग ने बोफोर्स दलाल विन चड्ढा के मुंबई स्थित फ्लैट को करीब 12 करोड़ रुपए में नीलाम कर दिया, क्योंकि आयकर न्यायाधिकरण ने पता लगाया कि बोफोर्स में दलाली ली गई थी।

उस रकम पर भारत में कर देनदारी भी बनती थी।

मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ही सुब्रह्मण्यम स्वामी की याचिका पर नेशनल हेराल्ड मामले में कोर्ट और एजेंसियों ने नेहरू-गांधी परिवार के खिलाफ कार्रवाई शुरू की।

 वास्तव में तो यह पूरा मामला स्वामी,अदालत और परिवार के बीच का है।

फिर भी कांग्रेस इसे राजनीतिक रंग देने से बाज नहीं आ रही।

शायद परिवार इसी भ्रम में है कि वह किसी भी कानूनी कार्रवाई से परे है।

पता नहीं,यह प्रवृति इस परिवार और पार्टी को कहां ले जाएगी ?

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यह लेख 15 जुलाई 23 के दैनिक जागरण और दैनिक नईदुनिया में प्रकाशित 


   अखिल भारतीय सेवाओं में कत्र्तव्यनिष्ठ अफसरों 

  की भारी कमी से समस्याएं पैदा हो रही हैं।

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      --सुरेंद्र किशोर--

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 ईडी निदेशक आई.आर.एस.अधिकारी संजय मिश्र और बिहार के अपर मुख्य सचिव के.के.पाठक चर्चा में रहे हैं।

चर्चा में इसलिए रहे क्योंकि ये कर्तव्यनिष्ठ अफसर हैं।वे भ्रष्टाचार और काहिली से समझौता नहीं करते।

जिन अफसरों के आप नाम नहीं जानते,वे ‘‘यथास्थितिवादी’’ हैं।

संजय मिश्र से नरेंद्र मोदी सरकार बेहतर काम लेना चाहती थी,ले भी रही थी। और नीतीश कुमार सरकार के.के.पाठक से लाख बाहरी-भीतरी विरोध के बावजूद बेहतर काम अब भी ले रही है।

ईमानदार अफसर थर्मामीटर की तरह होते हंै।वे जहां जाते हैं भ्रष्टाचार व काहिली के बुखार की गंभीरता का तुरंत पता चल जाता है।

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संजय मिश्र का मामला दूसरा था।

केंद्रीय सेवाओं के अत्यंत ईमानदार अफसरों की भारी कमी के कारण केंद्र सरकार संजय मिश्र का कार्यकाल बढ़ाती जा रही थी तो सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया।

सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप गलत नहीं था।पर इसके लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका किन-किन नेताओं ने लगाई थी,वह गौर तलब है ?

वे थे--कांग्रेस,और तृणमूल कांग्रेस के नेतागण।

यह अकारण नहीं था।हालांकि केंद्र सरकार ने यह संकेत दे दिया है कि ‘‘बुखार नापने वाले’’ हमारे पास और भी अफसर उपलब्ध हैं।

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कई भाजपा विरोधी दलों के नेतागण आए दिन यह आरोप लगाते रहते हैं कि हमारे खिलाफ मोदी सरकार बदले की भावना से जांच एजेंसियों का लगातार दुरुपयोग करती रहती है।

पर,आरोप लगाने वाले इस शिकायत को लेकर कोर्ट नहीं जाते।क्योंकि वे जानते हैं कि उनके आरोपों में दम नहीं है।

वे नहीं जाते तो अब इन जांच एजेंसियों को ही कोर्ट जाकर ऐसे बयान देने वाले उन नेताओं के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर करना चाहिए।

 चाहे तो आरोपकर्ता यह साबित करें कि जांच एजेंसियां अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर रही हैं।

 या, फिर मानहानि के लिए अदालत आरोप लगाने वालों को कठोर सजा दे।

क्योंकि जांच एजेंसियों की प्रतिष्ठा का भी तो सवाल है।

नाहक आरोप लगाने से एजेंसियों पर से जन विश्वास डिगता है जो स्वस्थ लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है।

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सन 1996 से 1998 तक केंद्र सरकार के कैबिनेट सचिव रहे टी.एस.आर.सुब्रहमण्यम ने सन 2007 में लिखा था कि 

‘‘मेरे विचार से राष्ट्र के इन तीनों स्तम्भों (कार्यपालिका,न्यायपालिका और विधायिका )का कामकाज अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहा।’’

याद रहे कि सन 2007 के बाद से अब तक स्थिति और भी बिगड़ी है।इसे कैसे सुधारा जाए ?

के.के.पाठक और संजय मिश्र जैसे अफसरों की संख्या कैसे बढ़ाई जाए ?

यह यक्षप्रश्न है जिसके जवाब के साथ ही हमारे लोकतंत्र का भविष्य जुड़ा हुआ है।

अपवाद हर जगह हैं।पर, अपवादों से देश नहीं चलता।

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12 जुलाई 23

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    2024 लोक सभा चुनाव का महत्व

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वैसे तो हर चुनाव महत्वपूर्ण होता है।

पर,अगला लोस चुनाव सर्वाधिक महत्वपूर्ण होगा।

पहले के चुनाव मुख्यतः लोगों के जीवन को प्रभावित करते रहे।

सन 2024 का लोक सभा नतीजा इस देश के जीवन को प्रभावित करेगा।

अब इस मुद्दे पर इससे अधिक लिखना अभी ठीक नहीं होगा।

इस पोस्ट के महत्व का पता सन 2025 में चल जाएगा।

            -- सुरेंद्र किशोर

           20 जुलाई 23


  देश में जातीय जन गणना का संकल्प,

 यानी, नवगठित ‘इंडिया’ की सकारात्मक पहल

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सुरेंद्र किशोर

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नव गठित ‘‘इंडिया’’ ने अपने ‘बंगलुरू संकल्प’ में कहा है कि हम जातीय जन गणना कराएंगे और अल्पसंख्यकांें के खिलाफ घृणा के माहौल का मुकाबला करेंगे।

  सवाल है कि सिर्फ जातीय जन गणना करांएगे या उसे प्रकाशित भी करेंगे ?

मनमोहन सिंह सरकार ने तो सन 2011 में जातीय जन गणना भी करवाई थी ,किंतु लगातार मांग के बावजूद उसे कभी प्रकाशित नहीं किया।

खैर,संभवतः ‘‘इंडिया’’ पर नीतीश कुमार-लालू प्रसाद जैसे नेताओं के प्रभाव के कारण ही यह नया दलीय गठबंधन, जातीय जन गणना को तैयार हुआ है।

इससे आरक्षण के दायरे में आने वाले सामाजिक समूह के वोट को कुछ और प्रभावित करने का ‘‘इंडिया’’ को अवसर मिल सकता है।

याद रहे कि बाफोर्स घोटालेबाजों बेशर्म के बचाव और मंडल आरक्षण पर ढुलमुल रवैऐ के कारण ही कांग्रेस के पतन की शुरूआत हुई थी।

उसके बाद कांग्रेस को कभी पूर्ण बहुमत लोक सभा में नहीं मिला।

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पर,‘‘इंडिया’’ के संकल्प में स्वाभाविक रूप से देश की दो भीषण समस्याओं की

कोई चर्चा नहीं है,गंभीर चर्चा कौन कहे।

इसलिए नहीं है क्योंकि अधिकतर तथाकथित सेक्युलर दलों का उसमें निहित स्वार्थ है। 

1.-सन 2047 तक हथियारों के बल पर भारत को इस्लामिक देश बना देने के पी.एफ.आई.के संकल्प की कोई चर्चा नवगठित ‘इंडिया’के संकल्प में नहीं है तो लोग सवाल पूछेंगे कि क्यों नहीं है ?

याद रहे कि सन 2047 के लक्ष्य को हासिल करने के लिए पूरे देश में बाहरी-भीतरी तत्व लगातार भारी हिंसक गतिविधियों में लिप्त हैं।

बड़ी संख्या में उनके स्लीपर सेल सक्रिय हैं।ये सब बातें मीडिया में लगातार आती रहती हैं।

 किंतु इस देश का दुर्भाग्य है कि ‘‘60 प्रतिशत वोट कंट्रोंल करने’’ का दावा करने वाले राजनीतिक दलों के लिए यह कोई समस्या ही नहीं है।

बल्कि उनके लिए तो वह वोट की संपत्ति है।ऐसा अभागा देश दुनिया में और कोई भी नहीं है।

2.-भीषण भ्रष्टाचार से ‘‘इंडिया’’ वाले कैसे निपटेंगे,इसकी भी चर्चा नहीं है।

इस पर किसी ने ठीक ही कहा

 है कि घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खाएगा क्या ?

स्वाभाविक ही है कि भ्रष्टाचार व जेहाद पीड़ित देशवासियों से दोस्ती करने का कोई इरादा ‘‘इंडिया’’ के पास नहीं है।

बड़ी संख्या में घुसपैठियों और जबरन धर्म परिवर्तन

के कारण देश के जिले के जिले और गांव के गांव एक -एक करके हिन्दू बहुल से मुस्लिम बहुल होते जा रहे हैं।बंगाल व केरल की सबेस खराब स्थिति है।

इसके बावजूद ‘‘इंडिया’’ का संकल्प है कि वह अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा और घृणा अभियान का मुकाबला करेगा।

मानो हिंसा और घृणा का लक्ष्य एक ही ओर है।

करना ही है तो दोनों तरफ की हिंसा व घृणा का मुकाबला करो।उससे भाजपा कमजोर होगी।

किंतु ‘‘इंडिया’’में शामिल दलों के इस पर लगातार एकतरफा रवैये,खास कर चुप्पी या समर्थन से भाजपा मजबूत होती जा रही है और आगे भी होगी।उसके मजबूत होते जाने का लक्षण यह है कि अधिकतर दल बदल का लाभ भाजपा को ही मिल रहा है।मौसमी पक्षी यानी दल बदलू हवा का रुख अच्छी तरह पहचानते हैं।

सन 2014 के लोक सभा चुनाव में कंांग्रेस की भारी हार के बाद ए.के. एंटोनी कमेटी ने पार्टी से कहा था कि जनता को लगा कि कांग्रेस, अल्पसंख्यकों की ओर झुकी हुई है,इसलिए हम चुनाव हारे।

पर,कांग्रेस नेतृत्व ने अपना रवैया अब भी नहीं बदला।अब तो उसका इस मामले में और भी बुरा हाल है।ऐसा न हो कि उसका खामियाजा ‘‘इंडिया’’ में शामिल अन्य दों को भी भुगतना पड़े।सामाजिक समीकरण ही यदि सब कुछ होता तो गत साल आजम गढ़ व रामपुर लोक सभा उप चुनाव सपा नहीं हारती। 

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 हिंसंा और जेहाद की सबसे बड़ी ताकत पी.एफ.आई.-एस.डी.पी.आई.के समर्थक मतदाताओं की मदद से हीे तो कांग्रेस ने हाल में कर्नाटका विधान सभा चुनाव जीता है।

उस उपकार का बदला देना ही होगा अन्यथा आगे के चुनावों में ‘‘इंडिया’’ को दिक्कत होगी।

उधर इंडिया से जुड़ी ममता बनर्जी और उनकी सरकार की मदद से रोज ही सैकड़ों बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठिए इस देश में नाजायज तरीके से प्रवेश कर पूरे देश में फैल रहे हैं जिनमें से अनेक जेहाद के लश्कर भी बन रहे हैं।

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दरअसल लगता है कि इन दो क्षेत्रों को यानी भ्रष्टाचार व जेहाद को‘‘इंडिया’’ ने जाने-अनजाने ‘‘भारत’’ यानी भारतीय जनता पार्टी के लिए खुला छोड़ दिया है।

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20 जुलाई 23     


बुधवार, 19 जुलाई 2023

 यह तो सुप्रीम कोर्ट पर ही निर्भर करेगा कि मानहानि केस को लेकर वह राहुल गांधी के मामले में क्या फैसला करता है।

उसका जो भी निर्णय होगा,सबको मानना ही पड़ेगा।

पर,कैसे निर्णय का चुनावी राजनीति पर कैसा असर पड़ेगा,इसका अनुमान तो हम लगा ही सकते हैं।

यानी, दोषमुक्त होने पर अगला चुनाव ‘‘मोदी बनाम राहुल’’ हो सकता है,यदि प्रधान मंत्री पद के लिए कोई उम्मीदवार ‘‘इंडिया’’इस बीच घोषित न करे।

तब अनेक द्विविधाग्रस्त मतदाताओं को निर्णय करने में आसानी हो जाएगी।

कैसे आसानी होगी,यह समझने के लिए दिमाग पर बहुत जोर डालने की जरूरत नहीं है।

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सुरेंद्र किशोर

जुलाई 23

  

 


  आश्चर्य नहीं कि एक राजनीतिक गठबंधन का नाम 

  इस देश के नाम पर करने का तय हुआ

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कांग्रेस में आज भी जारी है (देवकांत)‘‘बरुआ-गिरी’’

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       --सुरेंद्र किशोर--

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सन 1976 में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरूआ ने नारा गढ़ा था-

‘‘इंदिरा ही इंडिया है और इंडिया ही इंदिरा ।’’

उसके बाद बरुआ जी का नाम चापलूसी का पर्यायवाची बन गया--यानी बरुआ-गिरी।

तब देश में आपातकाल के काले दिन थे।

    मौजूदा कांग्रेस ने तो एक गठबंधन का ही नाम इंडिया रखा है।

आपातकाल में तो एक व्यक्ति को देश का पर्यायवाची बना दिया गया था।उससे पहले बांग्ला देश युद्ध के तत्काल बाद दक्षिण भारत के एक कांग्रेसी सांसद ने (गलती से मीडिया ने इसका ‘श्रेय’ अटल बिहारी वाजपेयी को दे दिया था।)संसद में इंदिरा गांधी को दुर्गा कहा था।

क्या किसी पुरुष प्रधान मंत्री के कार्यकाल में देश युद्ध जीतेगा तो उस प्रधान मंत्री को राम,कृष्ण या शिव कहा जाएगा ?

ऐसे चापलूसों से भरी कांग्रेस पार्टी को सन 1977 के लोक सभा चुनाव में जनता ने सत्ता से बेदखल कर दिया।

  पता नहीं,सन 2024 के चुनाव में क्या होगा ?

दरअसल नेहरू-गांधी परिवार की पुरानी प्रवृति रही है कि अपने परिवार को ही देश मान लिया जाए।

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1972 में डी.के. बरुआ बिहार के राज्यपाल थे।

एक दिन मैं कर्पूरी ठाकुर के साथ राज भवन गया। 

कर्पूरी जी तो राज्यपाल से मिलने ऊपरी मंजिल पर चले गये।मैं नीचे प्रतीक्षा करने लगा।काफी देर के बाद कर्पूरी जी लौटे।

वे मिलकर अभिभूत थे।

बोले कि बरुआ साहब नेता के साथ- साथ बहुत बड़े बुद्धिजीवी भी हैं।

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बाद के वर्षों में पद पाने व बनाए रखने के लिए बड़़े -बड़े बुद्धिजीवियों को सत्ताधारी नेताओं की चापलूसी करते मैंने देखा है।

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पर,ऐसे लोग कई शीर्ष नेताओं को अंततः डूबो देते हैं।उनके डूबने के बाद वे खुद अपना ‘‘दरबार’’ बदल लेते हैं।

इंदिरा जी के जीवन काल में एक बार एक ने लिखा था कि इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में एक ही पुरुष हैं और बाकी सब महिलाएं हैं।

आज भी कांग्रेस की हालत कोई भिन्न नहीं है।

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19 जुलाई 23


शनिवार, 15 जुलाई 2023

 डा.लोहिया की जाति नीति पर रघु ठाकुर संपादित 

पुस्तक ‘जाति प्रथा’ का 16 जुलाई को पटना में लोकार्पण

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उस ‘जाति नीति’ को सही ढंग से समझने के लिए 

रघु ठाकुर संपादित पुस्तक श्रेष्ठ माध्यम

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सुरेंद्र किशोर

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सन 1962 में ही डा.राममनोहर लोहिया ने यह कह दिया था कि 

औरतों को ऊंची जातियों में नहीं गिनना चाहिए।

यानी, डा.लोहिया ऊंची जातियों की औरतों को भी पिछड़ा ही मानते थे और उनके लिए भी विशेष अवसर का प्रावधान चाहते थे।

  याद रहे कि डा.लोहिया ने विशेष अवसर का नारा दिया था।

वे कहते थे--‘‘पिछड़े पावें सौ में साठ।’’

उन्हीं के सिद्धांत को मानते हुए सन 1978 में तब के बिहार के मुख्य मंत्री कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़ों के लिए 26 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया था।

उसमें हर जाति की महिलाओं के लिए 3 प्रतिशत स्थान दिया गया था। 

 पर, सवर्णों की महिलाओं के लिए भी विशेष अवसर देने के हिमायती डा.लोहिया के बारे में कुछ लोगों ने यह बात फैलाई कि वे सवर्णों के खिलाफ थे।

हालांकि वह कुप्रचार बहुत चला नहीं।

यह संयोग नहीं था कि बारी -बारीे से लोहिया के जितने भी निजी सचिव रहे,लगभग सभी ब्राह्मण थे।

रघु ठाकुर ने राममनोहर लोहिया पर जिस पुस्तक को संपादित किया है,उससे डा.लोहिया के बारे में इस मुद्दे पर हुए कुप्रचार का खंडन होता है।

  इस पुस्तक में एक अध्याय है जिसका शीर्षक है--‘‘विशेष अवसर क्यों ?’’

उसमें इस संबंध में लोहिया के भाषण को प्रकाशित किया गया है।

उसमें डा.लोहिया साफ-साफ कहते हैं कि 

‘‘नीति के अनुसार औरतों को ऊंची जातियों में नहीं गिनना चाहिए।’’

प्रख्यात गांधीवादी ,समाजवादी चिंतक रघु ठाकुर देश में समता मूलक समाज की संरचना के लिए समर्पित हैं।

ठाकुर जी ने डा.लोहिया के विचारों को अपने जीवन में आत्मसात किया है।

इसलिए स्वाभाविक है कि रघु ठाकुर संपादित पुस्तक पर पूरा भरोसा 

किया जाएगा।

मैं दशकों से रघु ठाकुर को जानता हूं।मैंने कभी उन्हें अपने विचारों से डिगते हुए न देखा और न सुना।

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14 जुलाई 23

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नोट-पुस्तक ‘‘जाति प्रथा’’ का लोकार्पण पटना के बोरिंग रोड स्थित गोल्डन फ्लेवर बेंक्वेट हाॅल में 16 जुलाई को पूर्वान्ह 11 बजे आयोजित समारोह में होगा।

प्रतीक्षा में --विश्वजीत दीपांकर

मो.-8603106371

  6299924250

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शुक्रवार, 7 जुलाई 2023

 


  कायम हैं आपातकाल वाली प्रवृतियां 

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     सुरेंद्र किशोर

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 आज भी अनेक नेता यह चाहते हैं कि उन 

 कानूनों को नरम कर दिया जाए,जो उनके आड़े आ रहे हैं।  

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     जिन इंदिरा गांधी ने 1975-77 के दौरान देश पर आपातकाल थोपा था,वह सिर्फ एक व्यक्ति नहीं ,बल्कि राजनीति की एक खास प्रवृति का प्रतिनिधित्व कर रही थीं।

चूंकि राजनीति के बड़े हिस्से में वह प्रवृति आज भी जीवित है,इसीलिए लोगों को वैसी प्रवृति से आगाह किया जाना आवश्यक है।

   आपातकाल-पीड़ित लोग छिटपुट हर साल उसे याद करते हैं,

 लेकिन अपनी राजनीतिक सुविधा के अनुसार कुछ नेता और दल उसका संस्मरण करना छोड़ भी देते हैं।

वे आपातकाल को अपने ढंग से परिभाषित करने लगते हैं जबकि जून, 1975 में आपातकाल लगाकर  पूरे देश को एक बड़े जेलखाने में बदल दिया गया था। 

  आपातकाल के बारे में नयी पीढ़ी को सब कुछ परिचित कराने की जरूरत है।

प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाने का फैसला सिर्फ इसलिए कर 

लिया था क्योंकि 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने लोक सभा की उनकी सदस्यता रद कर दी ।

जन प्रतिनिधित्व कानून की जिन धाराओं के

तहत उनकी सदस्यता रद की गई, उन धाराओं को ही बदल देने का इंदिरा गांधी ने निर्णय कर लिया।

उनका आकलन था कि बिना आपातकाल लगाए यह संभव नहीं है।

  आज भी भ्रष्टाचार तथा अन्य आरोपों में मुकदमे झेल रहे अनेक नेतागण यह चाहते हैं कि उन्हें बचाने के लिए सरकार को पलट दिया जाना चाहिए।

या फिर उन कानूनों को नरम दिया जाना चाहिए जो उनके कारनामों के आड़े  आ रहे हैं।

 यदा कदा राष्ट्रद्रोही गतिविधियों में शामिल लोगों की मदद करने वाले आवाज उठाते रहते हैं कि राजद्रोह कानून को ही समाप्त कर दिया जाना चाहिए।

यह आपातकाल वाली प्रवृति  है ।

  तब इंदिरा सरकार ने जयप्रकाश नारायण सहित करीब एक लाख राजनीतिक नेताओं, कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को  

जेलों में ठंूस दिया था।

लोक सभा की सदस्यता बचती, तभी इंदिरा गांधी की गद्दी बच पाती,

  क्योंकि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उन्हें अगले छह साल तक चुनाव लड़ने से रोक दिया था।

 इंदिरा सरकार ने आपातकाल में न सिर्फ आम लोगों के मौलिक अधिकारों को भी निलंबित कर दिया था, बल्कि कड़ी प्रेस  सेंसरशिप भी लगा दी  थी।

प्रतिपक्ष की सारी गतिविधियां ठप कर दी गई थीं।

   अटार्नी जनरल नीरेन डे ने तब सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि जीवन का अधिकार अभी स्थगित है।

  ं अपने एकछत्र शासन के लिए इंदिरा गांधी ने कुछ संवैधानिक संशोधन भी संसद से करवाये । 

उन चुनाव कानूनों को भी बदलवा दिया गया जिनके उलंघन के कारण उनकी सदस्यता गई थी।

 1971 में हुए लोक सभा चुनाव में एक सरकारी सेवक यशपाल कपूर इंदिरा गांधी के चुनाव एजेंट थे।

 सरकारी सेवा से अपना इस्तीफा मंजूर कराए बिना कोई व्यक्ति चुनाव एजेंट नहीं बन सकता था।

 रायबरेली में स्थानीय प्रशासन ने इंदिरा की चुनाव सभा के लिए सरकारी खर्चे पर मंच तैयार किया था।

इन दोनों मामलों को इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज जगमोहन लाल सिंहा ने चुनाव कदाचार माना और इंदिरा गांधी का चुनाव रदद कर दिया।

  आपातकाल में जन प्रतिनिधित्व कानून की संबंधित धाराओं में  यह परिवत्र्तन कर दिया गया कि सरकारी कर्मी का इस्तीफा सरकारी गजट में प्रकाशित हो जाना काफी है।

किसी सरकार के लिए पिछली तारीख के सरकारी गजट में कुछ भी छपवा देना आसान काम है।यशपाल कपूर का इस्तीफा जनवरी, 1971 के गजट में छपवा दिया गया।

 सरकारी मदद से चुनावी सभा मंच बनाने के मामले में भी कानून में इस तरह से संशोधन कर दिया गया ताकि इंदिरा गांधी के खिलाफ दिया गया कोर्ट का निर्णय निष्प्रभावी हो जाए।

  आपातकाल के दौरान किये गये संविधान संशोधनों में 42 वें संशोधन के जरिए इंदिरा शासन ने इस देश के लोकतंत्र को अस्थायी रुप से ही सही,पर उसे पूरी तरह मटियामेट  कर दिया।

इस संशोधन के जरिए यह संवैधानिक प्रावधान किया गया कि संविधान को संशोधित करने का संसद का अधिकार असीमित है।

संसद संविधान में कुछ भी जोड़ या घटा सकती है और ससंद के इस कदम  को किसी कोर्ट में चुनौती भी नहीं दी सकती।

यह एकाधिकारवादी प्रवृति थी।

    शुक्र है कि सन 1977 के आम चुनाव के बाद केंद्र में मोरारजी देसाई की गैर कांग्रेसी सरकार बन गई ।

उसने आपातकाल में संविधान व कानून  के साथ की गई कई ज्यादतियों को  रद कर दिया। 

    2011 में सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने कहा कि 1976 में इस अदालत द्वारा दिया गया वह फैसला सही नहीं था जो ,मौलिक अधिकार के हनन को लेकर था।

आज इस देश के अनेक दलों के दर्जनों नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के तहत मुकदमे चल रहे है।

उनमें से कुछ आरोपित हैं।कुछ सजायाफ्ता हैं।कुछ जमानत पर हैं।

  इन  नेताओं की ओर से एक ही बात कही जाती है कि हमारे खिलाफ बदले की भावना के तहत मुकदमे दर्ज किए गए,जबकि अदालतें उन्हें कोई राहत नहीं दे रही हैं।

   कुछ नेता यह भी कहा करते हैं कि हमें जनता ने जिताया है और जब हमें जनता ने जिता दिया तो हम अपराधी कैसे ?

ऐसे लोग एक तरह से यह कह रहे हैं कि जो कानून हमारे अपकर्मों में आड़े आ रहे हैं,उन्हें बदल दो।

  और सरकार हमारे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाए,उसे पलट दो।

इसी के तहत ईडी के नियम बदलवाने की कोशिश होती है

  और सी.बी.आई. को जांच करने से रोका जाता है।



ऐसे नेता इन दिनों एकजुट होकर मोदी सरकार को अगले चुनाव में पराजित करना चाहते हैं।

  वैसे तो इसकी उम्मीद फिलहाल नजर नहीं आती ,किंतु कल्पना कर लीजिए कि मोदी सरकार हट जाती है तो क्या होगा ?

  क्या मुकदमे झेल रहे नेता कोई वैसी कोशिश नहीं करेंगे जैसी कोशिश करके इंदिरा ने अपनी लोक सभा सदस्यता बचा ली थी ?

यह काम तो मुश्किल है,पर,उनका हौसला तो वही है।

क्या यह आपातकाल वाली प्रवृति नहीं है ?

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दैनिक जागरण--28 जून, 23

 


गुरुवार, 6 जुलाई 2023

 अपवादों को छोड़कर !

इस देश की राजनीति का अधिकांश त्रिदोष-ग्रस्त हो चुका है।

यदि इस त्रिदोष का समय रहते इलाज नहीं हुआ तो एक दिन लोकतंत्र 

का ही अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।

आज के लोगों के वंशजों का भविष्य भी भारी खतरे में पड़ जाएगा।

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1.-भीषण भ्रष्टाचार

2.-बेेशर्म परिवारवाद-वंशवाद

3.-वोट के लिए जेहादियों का परोक्ष-प्रत्यक्ष समर्थन

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ऐसी ही स्थिति में किसी देश में तानाशाह पैदा होता है या गृह युद्ध होता है।

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इन दोनों आशंकाओं से इस देश को आखिर कौन बचाएगा ?

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एक पुराना दृश्य

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कुछ दशक पहलंे बिहार के एक बड़े नेता इस कारण ‘शहीद’ हो गए क्योंकि  उन्होंने अपने पुत्र को  

एम.एल.सी.नहीं बनाने की जिद नहीं छोड़ी।

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विपरीत दृश्य

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उत्तर प्रदेश के दो पूर्व मंत्री व प्रमुख नेता चाहते हुए भी भाजपा में इसलिए नहीं 

शामिल हो सके क्योंकि भाजपा ने उनसे कहा कि टिकट या तो पिता को मिलेगा या पुत्र को।

पर, उन्हें तो दोनों को टिकट चाहिए।

बिहार नेता की तरह पुत्र के कारण वे ‘शहीद’ नहीं होना चाहते थे।

परिवारवाद-वंशवाद  इस तरह प्रभावित कर रहा है राजनीति की दशा-दिशा को।

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आंध्र प्रदेश के कभी के महाबली नेता व मुख्य मंत्री रहे एन.टी.रामाराव अपनी पत्नी लक्ष्मी पार्वती को अपनी पार्टी का उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे।

 किंतु उनका दामाद चंद्रबाबू नायडु ने उनकी पूरी पार्टी का ‘अपहरण’ कर लिया। क्योंकि पार्टी व राज्य के अधिकतर लोग इस मामले में एन.टी.आर.के खिलाफ हो चुके थे।यानी पत्नी वाद ने एन.टी.आर.की राजनीति बर्बाद कर दी।

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परिवारवाद पर आए दिन खूब भ्रम फैलाया जाता है।

शरद पवार ने अपनी पुत्री को अपना उत्तराधिकारी बनाने के चक्कर में अपने अधिकतर विधायकों को खो दिया।

इसे वंशवाद -परिवारवाद कहते हैं।

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कांग्रेस सहित ऐसे कई दल हैं जिन्हें कोई न कोई परिवार कंट्रोल करता हैै।

‘‘पार्टी में परिवार’’ और 

‘‘परिवार में पार्टी’’ 

का अंतर समझिए। 

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भाजपा ने गत उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के साथ एक नियम बनाया--एक परिवार एक ही टिकट।

हालंाकि यह नियम भी क्यों ?

टिकट का आधार परिवार के बदले पार्टी के लिए कार्यकर्ता का योगदान बने।

हां,यदि किसी नेता के परिवार का सदस्य सचमुच अच्छा कार्यकर्ता रहा है तो उसे वंचित भी नहीं किया जाना चाहिए। 

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दूसरी तरफ अतिवाद

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दूसरी ओर, एक राजनीतिक दल को कंट्रोल करने वाले एक परिवार के तीन दर्जन से अधिक सदस्य किसी न किसी पद पर थे जब वह दल सत्ता में था।

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किसीे दल के सुप्रीमो के परिवार का कोई सदस्य यदि किसी भ्रष्टाचार में लिप्त हो जाए तो उसे बचाने के लिए सुप्रीमो को सत्ता विरोध की अपनी पिछली लाइन को नरम कर देना पड़ता है।

ताजा उदाहरण मायावती और के.चंद्रशेखर राव का हैं।

परिवारवाद की यह कमजोरी है।

नवीन पटनायक इस मामले में सौभाग्यशाली हैं।

उन्होंने अपनी बहन से कहा था कि अमेरिका से आकर हमारे काम में हाथ बंटाइए।

बहन ने साफ -साफ यह कह दिया कि राजनीति में हमारी कोई रूचि नहीं है।

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त्रिदोष की कहानियां अनंत हैं।

लिखने-पढ़ने वालों का यह कत्र्तव्य बनता है कि खतरा उठाकर भी ऐसी कहानियां लिखें।

लोगों को समय रहते हकीकत से आगाह करें।

अन्यथा,

उनके आने वाले वंशजों की धन,धर्म और धरती खतरे में पड़ जाएगी।

क्योंकि इन मुद्दों पर भारी कंफ्यूजन फैलाने वाले निहितस्वार्थी नेताआंे व बुद्धिजीवियों की बड़ी जमात आज अत्यंत सक्रिय है।

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सुरेंद्र किशोर

6 जुलाई 23