शुक्रवार, 30 अगस्त 2024

       

      एक निवेदन अपने असहमतों से

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         सुरेंद्र किशोर

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 मेरे कुछ पोस्ट पर कुछ लोगों की इन दिनों बड़ी शिकायतें रहती हैं।

चूंकि वे भी बुद्धिजीवी ही हैं,इसलिए गाली-गलौज तो नहीं करते,पर मेरी मंशा पर सवाल जरूर उठाते रहते हैं।

  यदि वे मुझसे स्वस्थ बहस करना चाहते हैं तो उन्हें चााहिए कि वे मेरे तथ्यों को गलत साबित करें और मेरे तर्कों और निष्कर्षों का तार्किक ढंग से खंडन करें।

  पर, वे वैसा नहीं करेंगे,कर भी नहीं पाएंगे, यह मैं जानता हूं।क्योंकि उनमें से अनेक के विचार ठहर गये हैं।

इसलिए मैं उन्हें ‘अन फे्रंड’ कर देता हूं।क्योंकि उनसे बहस में पड़ने का मेरे पास समय भी नहीं है।

मुझसे असहमत लोगों से निवेदन है --आप खुश रहिए, मस्त रहिए, जिस विचार धारा में आप जी रहे हैं,उसमें ही बने रहिए।

मैं तो आपसे यह सवाल नहीं करता कि आप उस खास विचार धारा में क्यों पड़े हुए हैं ?

 मैं आपकी मंशा पर भी शक नहीं करता। मैं आपका अभिभावक नहीं हूं।

इसलिए आप भी किसी का अभिभावक बनने की कोशिश न करें,यही शिष्टता है।

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  मैं हमेशा कहता हूं कि अच्छे नेताओं और शासकों का यह कत्र्तव्य है कि वे देश, काल, पात्र की मौजूदा जरूरतों के अनुसार अपनी काल बाह्य नीतियों -रणनीतियों से बाहर निकलें ।अन्यथा, न तो देश बचेगा और न ही आपका नेतृत्व।

इस मामले में मैं इस देश के सिर्फ दो और दो विदेश के उदाहरण देता हूं।

डा.राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण ने समय -समय पर और देश की जरूरतों के अनुसार  

(भगवा धारी !)जनसंघ से सहयोग किया और लिया था।

इतना ही नही, डा.लोहिया को तो इस बात पर भी अफसोस रहा कि उनके समाजवादी सहकमियों ने उनके निदेश के बावजूद सन 1963 में जौनपुर जाकर जनसंघ के दीनदयाल उपाध्याय के चुनाव में उनकी मदद नहीं की।वहां लोस का उप चुनाव हो रहा था।उपाध्याय जी हार गये थे।क्योंकि उन्होंने ब्राह्मणवाद नहीं किया। 

  ध्यान रहे कि सिर्फ देश की तात्कालिक जरूरतों को ध्यान में रखते हुए ही दोनों महान नेताओं ने लीक से हटकर भी वैसे कदम उठाये थे।

  न तो समाजवादी, सर्वोदयी, भूदानी नेता जेपी को खुद सत्ता में आना था और न ही कट्टर समाजवादी लोहिया को।(आज भी देश के समक्ष कुछ अत्यंत कठिन समस्याएं और कुछ कठोर प्रश्न उपस्थित हैं।)

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सन 1967 में डा.लोहिया के ही प्रयास से जनसंघ,सी.पी.आई.और संयुक्त समाजवादी पार्टी के नेतागण एक साथ महामाया प्रसाद सिन्हा की बिहार सरकार में मंत्री थे।याद रखिए--उस सरकार में सी.पी.आई.के चंद्रशेखर सिंह और इंद्रदीप सिंहा कैबिनेट और तेज नारायण झा राज्य मंत्री थे।तब यू.पी. में भी उपर्युक्त तीनों दल एक साथ कैबिनेट में थे।

(दूसरी ओर ,मशहूर लेखक रशीद किदवई ने दैनिक भास्कर --17 मार्च 24--में लिखा है कि ‘‘समाजवादी विचारधारावाली पार्टियों और आर.एस.एस.नियंत्रित जनसंघ सहित मध्यमार्गी दक्षिणपंथी ताकतों के द्वारा गठबंधन की राजनीति में एक नया प्रयोग था।’’ उस संदर्भ में रशीद साहब सी.पी.आई.की चर्चा करना भूल गये।पता नहीं क्यों, जबकि देश की राजनीति की अभूतपूर्व घटना यही थी कि सी.पी.आई. और जनंसघ दोनों एकाधिक राज्यों के एक ही मंत्रिमंडल में मंत्री बने थे।)

जेपी आंदोलन (1974-77) में अ.भा.वि.प.के लोग भी शामिल थे।

1977 के चुनाव के बाद जो सरकारें केंद्र व राज्यों में बनीं,उनमें जनसंघ घटक के भी नेतागण मंत्री और मुख्य मंत्री बने थे।

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इसके बावजूद किसी ने यह आरोप नहीं लगाया कि समाजवादी लोहिया और जेपी भगवाधारी बन गये।

दरअसल इन दो महान नेताओं ने देश की तात्कालिक जरूरतों के अनुसार ही अपनी पिछली रणनीति बदली और उन्हें सफलता भी मिली।

उन लोगों को देश को विचारधारा से ऊपर रखा।

दरअसल विचारधारा देश के लिए होती है न कि देश विचारधारा के लिए।

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अब आप आज के रूस और चीन पर नजर दौड़ाइए।

 सन 1985 में ही एक चीनी पत्रकार ने लिख दिया था कि ‘‘आज का चीन बस पूंजीवाद का इस्तेमाल समाजवाद को सुदृढ़ करने के लिए कर रहा है।’’

एक चीनी शासक ने यह भी कहा है कि हम समाजवाद की रक्षा के लिए पूंजीवाद अपना रहे हैं।

  पर,भारत के कम्युनिस्टों की पब्लिक सेक्टर के बारे में क्या राय रही है ?

दरअसल वे यह बात समझ ही नहीं पाए हैं कि पब्लिक सेक्टर की सफलता के लिए भ्रष्ट और काहिल स्टाफ की जरूरत नहीं होती।

  कम्युनिस्टों के बारे में यह माना जाता रहा है कि वे धर्म निरपेक्ष होते हैं।सही भी है बशर्ते यह विचारधारा देश को नुकसान न पहुंचाए। (दरअसल ‘‘भाजपा को सत्ता से बाहर रखने ’’के बहाने कम्युनिस्ट लोग इस देश की भ्रष्टत्तम राजनीति से हाथ मिलाते रहते हैं,उन्हें ताकत पहुंचाते रहते हैं, जबकि कम्युनिस्टों में अधिकतर नेतागण खंुद ईमानदार होते हैं।इस गलत रणनीति के कारण न तो वे भाजपा को सत्ता में आने से रोक सके न ही अपना अस्तित्व ही बचा पा रहे हैं।)

 तदनुसार जब चीन की सरकार ने देखा कि उसकी अंध धर्म निरपेक्षता देश को खंडित कर देगी तो उसने उसके बदले राष्ट्रवाद अपनाया।(भारत में इसके विपरीत हो रहा है।)

 उसने चीन के दो करोड़ उइगर मुसलमानों के बीच के जेहादियों की अभूतपूर्व प्रताड़ना शुरू कर दी।

अब भी जारी है।उस प्रताड़ना के खिलाफ भारत के कोई प्रगतिशील बुद्धिजीवी या कम्युनिस्ट चीन के खिलाफ कभी कुछ नहीं बोलते।

जबकि यहां की ऐसी छोटी -छोटी घटनाओं पर भी शोर मचाने लगते हैं।यह उनके खिलाफ जाता है।

(उनमें से अधिकतर भारत को खोखला कर रहे जेहादियों से गलबहियंा करते हैं।शाहीन बाग में भी वे उनके साथ ही थे।)

दरअसल उइगर मुसलमान हथियारों के बल पर चीन के शिंगजियांग प्रांत में इस्लामिक जेहाद करने के काम में लगे थे।लगता है कि अब वहां के उइगर मुसलमान जेहाद भूल गये हैं।

भारत में भी पी.एफ.आई.तथा इस तरह के अन्य संगठन जेहाद के काम में गंभीरता से लगे हुए हैं।पर,भारत के कम्युनिस्ट उनका विरोध नहीं करते।

 ऐसे ही कारणों से पश्चिम बंगाल से माकपा साफ हो गयी और अब केरल में भी उनकी स्थिति डंावाडोल हो रही है।

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कभी पब्लिक सेक्टर के लिए जाना जाता था सोवियत संघ।

पर, बाद के वर्षों में जब रूस के हुक्मरानों ने देखा कि अब निजीकरण करना होगा तो वे उसी राह पर चल दिए।ऐसे बदलाव के नतीजतन ही रूस और चीन में कम्युनिस्ट पार्टी भी बची हुई है और कम्युनिस्टों की सरकारें भी चाहे आज स्वरूप जो भी हो।

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पर,हमारे यहां की कई ऐसी जमातों को यह पता ही नहीं चल रहा है कि भारत की आज की विषम समस्याएं कौन-कौन सी हैं और उनका क्या इलाज है ?या फिर वे ईमानदारी से सोच नहीं रहे हैं।जो लोग सोच भी रहे हैं,उन्हें बदनाम करने में वे लोग लगे हुए हैं।या कोई और बात है ?

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28 अगस्त 24 



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