हां, मैंने अपना विचार बदला है-
सिर्फ देश-काल-पात्र की जरूरतों को
ध्यान में रखकर।
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सुरेंद्र किशोर
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जो लोग आज मुझसे अलग विचार रखते और व्यक्त करते हैं,उन्हें मैं तो कभी नहीं टोकता,अशिष्ट भाषा में उन्हें अपमानित करने का तो मेरा स्वभाव भी नहीं।
क्योंकि मैं उनका गार्जियन नहीं हूं।
पर, मुझे टोकने वाले बहुत से लोग इन दिनों पैदा हो गये हैं।
पता नहीं,यह अधिकार उन्हें कहां से मिल जाता है !
सही तो यह होता कि सभी पक्षों के विचार जनता में जाते।
जनता को जो फैसला करना होता, वह करती।
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डा.राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण ने भी कभी अपने विचार बदले थे।
उन्होंने भी किसी भौतिक लाभ के लिए नहीं बल्कि देशहित मंे बदले थे।मैंने भी किसी भौतिक लाभ के लिए नहीं बल्कि देशहित में बदले हैं।
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इन दिनों भारत में भी इस्लामिक जेहाद की आंधी चल रही है।कुछ दिनों में यह आंधी, तूफान बन सकती है।
जेहादी संगठन पी.एफ.आई.(उसका राजनीतिक संगठन है -एस डी पी आई ) सन 2047 तक भारत को इस्लामिक देश बना देने के लिए कातिलों के दस्ते तैयार कर रहा है।इस के खिलाफ किसी तथाकथित सेक्युलर दल का
कोई बयान कहीं कभी देखा आपने ?
हां,जब कोई गो -तस्कर भीड़ का शिकार होता है तो सारे सेक्युलर चिल्लाने लगते हैं। यह रिश्ता क्या कहलाता है ?
इस देश में इस इस्लामिक आंधी को जो रोक सकता है या रोकने की ईमानदार कोशिश कर रहा है,मैं उनके साथ हूं।हालांकि मैं न तो शरीयत के साथ हूं और न ही हिन्दू राष्ट्र के।
मैं भारतीय संविधान के साथ हूं।
जांे उस आंधी को देखने के बावजूद वोट बैंक के नाराज होने के डर से चुप हंै,मैं उनके साथ नहीं हूं।
कौन कहां -कहां है ,यह विस्तार से बताने की जरूरत नहीं है।लोगबाग समझ ही रहे हैं।
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इस बीच मुझे पद्मश्री सम्मान मिल गया।मैंने न तो यह सम्मान किसी से मांगा था और न इसकी कोई आकांक्षा की थी।
मुझे इस देश में लोगबाग, कई पद्म सम्मानित लोगों की अपेक्षा अधिक जानते रहे हैं।
यानी, पद्मश्री से न तो मैं ऊपर उठा हूं और न नीचे गया हूं।इसके साथ कोई भौतिक लाभ भी तो नहीं।
सवाल उठेगा कि आपने स्वीकार क्यों किया ?
मैंने अपने परिवार खासकर पत्नी के ‘‘आत्म गौरव’’ के लिए इसे स्वीकार कर किया।उधर जिसने मुझे पद्म सम्मान दिया,उसकी कोई शर्त भी नहीं थी।
मैं कभी भाजपा या संघ की बैठक में जाता भी नहीं ,न कभी गया।
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मैंने कुछ साल पहले अपनी पत्नी से कहा था कि तुम्हें (मिडिल स्कूल के )हेड मास्टर पद पर प्रोन्नति की जो चिट्ठी मिली है,उसे अस्वीकार कर दो।वह मान गई।
ऐसा कोई दूसरा उदाहरण हो तो बताइएगा।
उसके कहने पर मैंने एक बहुत बड़े अफसर को फोन किया कि आप ऐसा करवा दीजिए।(वे इस बात की गवाही देने के लिए हमारे बीच अब भी मौजूद है।ं)उन्होंने यह इंतजाम कर दिया कि मेरी पत्नी सहायक शिक्षिका ही रहीं।
पूछिएगा कि मैंने वैसा क्यों किया ?
इसलिए किया कि हेड मास्टर को मिड डे मिल हैंडिल करना होता है।अभी व्यवस्था ऐसी हो गई है कि जो हेड मास्टर उसमें कुछ गडबड़ नहीं करेगा,तो उल्टे उसे सस्पेंड कर दिया जाएगा।क्योंकि ऊपर वाले को रेगुलर नजराना चाहिए।
दूसरी ओर , मेरे घर में आज तक दो नंबर का पैसा नहीं आया है।आगे भी न आए,उसका मैंने इंतजाम किया।
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लालू प्रसाद और नीतीश कुमार युवजन सभा के दिनों से ही मेरे मित्र रहे हैं।
मैं और लालू प्रसाद एक ही साथ सन 1968 में बिहार समाजवादी युवजन सभा के संयुक्त सचिव चुने गये थे।तीसरी संयुक्त सचिव थीं बेगूसराय की शांति देवी।सचिव शिवानन्द तिवारी चुने गये थे।
इन दोनों शीर्ष सत्ताधारी नेताओं को मेरी ‘‘गरीबी’’ कम करके खुशी होती।
मेरी बात पर भरोसा न हो तो लालू और नीतीश (दोनों ही उम्र में मुझसे छोटे हैं।)के कान में बतियाने वाले जो भी व्यक्ति हों,वे उनसे मेरा नाम लेकर पूछ सकते हैं कि उन्हें खुशी होती या नहीं ?
इसके विस्तार में जाना अशिष्टता होगी।बड़ बोलापन होगा।
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मुझे लगता है कि अब मेरा स्टैंड स्प्ष्ट हो चुका होगा।
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पुनश्चः
डा. लोहिया ने देश की सत्ता पर से कांग्रेस का एकाधिकार तोड़ने के लिए जनसंघ और कम्युनिस्ट सहित लगभग सभी प्रतिपक्षी दलों को 1967 में एक मंच पर लाया।
नतीजतन 1967 में बिहार-उत्तर प्रदेश की गैर कांग्रेसी सरकारों में जनसंघ और सी.पी.आई.के मंत्री एक साथ बैठकर सरकार चला रहे थे।
1972-74 में जब इंदिरा गांधी ने एकाधिकारवादी शासन शुरू किया तो जेपी ने उनके खिलाफ सभी प्रतिपक्षी दलों को एक करने की कोशिश की।जेपी ने कम्युनिस्टों को भी आमंत्रित किया था।पर वे नहीं आये। ए.के.राय- जैसे स्वतंत्र कम्युनिस्ट जेपी से जरूर जुड़े।
जनसंध और संघ के लोग तो जेपी आंदोलन में शामिल थे ही।
याद रहे कि न तो जेपी को खुद सत्ता में जाना था और न ही लोहिया को।
इसीलिए वे वोट बैंक के लोभ से ऊपर उठकर खुले दिमाग से देशहित में सोच सकते थे।
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देश, काल, पात्र की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए चीन और रूस की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपनी कार्य नीतियां बदलीं।इसीलिए वे अब भी ‘‘जीवित’’ हैं।सत्ता में बने हुए हैं
और अपने ढंग से देश की सेवा कर रहे हैं।चीन सरकार का उइगर जेहादियों के खिलाफ जितना कड़ा रुख है,उतना कड़ा रुख भारत के जेहादियों के खिलाफ भाजपा सरकार का नहीं है।जेहादी लगभग पूरी दुनिया में आज उन्मादी बने हुए हैं।
पर, उससे उलट भारत के कुछ कम्युनिस्ट सन 1917 में जी रहे हैं तो कुछ अन्य सन 1949 में।
इसीलिए उनका सफाया होता जा रहा है।अगले विधान सभा चुनाव में केरल की सत्ता से भी माकपा साफ हो जाएगी,ऐसा लगता है।गत लोक सभा चुनाव में माकपा को केरल में सिर्फ 1 सीट ही मिली है। काल बाह्य विचारों को बंदरमूठ की तरह पकड़े रहने का यह नतीजा है कि सबसे अधिक त्यागी-तपस्वी काॅडर वाले भारतीय कम्युनिस्ट दल अब अप्रासंगिक होते जा रहे हैं।यह स्थिति गरीबों में यह चिंता पैदा करती है।
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कम से कम मेरे वंशज यह तो नहीं कहेंगे कि जब छांगुर जैसा दुर्दांत जेहादी देश में तांडव मचा रहा था, तब भी मेरा पूर्वज मौन था।उसने एक पोस्ट भी नहीं लिखा।
लोगबाग आज जयचंद का नाम अधिक क्यों लेते हैं ?
हालंाकि वह मान सिंह से कम दोषी था।
मान सिंह तो अकबर के साथ मिल कर महाराणा के खिलाफ युद्ध लड़ रहा था।
पर जयचंद तो आखिरी गोरी-चैहान युद्ध में सिर्फ तटस्थ रह गया था।
आम धारणा है कि यदि जयचंद, चैहान से मिल कर लड़ा होता तो पृथ्वीराज चैहान नहीं हारता।इस देश का इतिहास नहीं बदलता।
इसीलिए जयचंद पर गुस्सा अधिक है।यह बात कम ही लोग जानते हैं कि गोरी की सेना ने चैहान के बाद जयचंद को भी मार डाला था।
आप आज के दौर में नजर दोैडाइए--मुझे उपदेश देने वाले यही चाहते हैं कि छांगुर की दरिंदगी पर मैं आज के सेक्युलर दलों तथा अन्य अनेक लोगों की तरह ही मौन रह जाऊं।
यह मुझसे नहीं होगा,चाहे आप मुझे जितनी गालियां दे लो।
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और अंत में
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क्या नीतीश सरकार और लालू सरकार ने मुझे किसी सरकारी कमेटी का एक मेम्बर तक बनने लायक भी कभी नहीं समझा था ?
या ,कोई और बात थी ?
जरा सोचिएगा ,यह आरोप लगाने से पहले कि मैंने मलाई के लिए इन दिनों अपने विचार बदल लिये हैं।
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24 जुलाई 25
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