शनिवार, 27 अप्रैल 2024

 इंदिरा गांधी की निजी संपत्ति

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सच क्या और झूठ क्या ?

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सुरेंद्र किशोर

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26 अप्रैल, 24 के दैनिक भास्कर के अनुसार

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि इंदिरा गांधी की प्राॅपर्टी बचाने के लिए राजीव गांधी की सरकार ने विरासत टैक्स कानून खत्म किया।

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टाइम्स आॅफ इंडिया के अनुसार छत्तीस गढ़ के पूर्व मुख्य मंत्री 

भूपेश बघेल ने कहा कि प्रधान मंत्री झूठे हैं।उनको इतिहास का पता नहीं।

सच तो यह है कि इंदिरा गांधी ने 1970 में ही अपनी सारी संपत्ति सरकार को दान कर दी थी।

(ध्यान दीजिए सरकार को।)

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अब आप 19 मई, 1985 के इलेस्टे्रटेड

वीकली आॅफ इंडिया (टाइम्स आॅफ इंडिया प्रकाशन समूह की साप्ताहिक पत्रिका--जिसका प्रकाशन अब बंद हो चुका है।)

में प्रकाशित इंदिरा गांधी के वसीयतनामे का संक्षिप्त विवरण पढ़िए।

‘‘..........आनन्द भवन (इलाहाबाद)मैंने जवाहरलाल नेहरू स्मारक फंड को दे दिया।

पिता जी के निजी पेपर्स नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी को दे दिए।

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अपने गहने मैंने अपने पुत्र,पतोहू,पोती -पोतों को दिए।

मेहरौली (दिल्ली के पास) फार्म हाउस राजीव-सोनिया के बच्चों को मिलेगा।

मेरे शेयर्स, सिक्युरिटीज, यूनिट्स तीन पोते -पोती में बराबर बंटेंगे।

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मेरे पास जो गहने बचे हैं,वे प्रियंका के होंगे।

पुरातात्विक महत्व की वस्तुएं, जो निबंधित हैं, प्रियंका को मिलेंगे।

देनदारी देने के बाद जो पैसे मेरे बैंक खातों में बचेंगे वे फिरोज वरुण के होंगे।

संजय की संपत्ति में मेरा जो शेयर है,वह फिरोज वरुण को जाएगा।’’

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इस वसीयतनामे पर प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने 4 मई 1981 को दस्तखत किया था।

गवाह बने थे

1.-एम.वी.राजन

2.-माखनलाल फोतेदार।

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इस वसीयतनाम का पूरा विवरण पढ़ने के लिए 19 मई 1985 का विकली पत्रिका पढ़िए जो पुस्तकालय में मिल सकती है।

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27- 4 -2024

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पुनश्चः

वसीयतनामे में इंदिरा गांधी ने वरुण के बारे में एक महत्वपूर्ण बात लिखी है--

  ‘‘मैं यह देखकर खुश हूं कि राजीव और सोनिया ,वरुण को उतना ही प्यार करते हैं जितना अपने बच्चों को।

  मुझे पक्का भरोसा है कि जहां तक संभव होगा,वो हर तरह से वरुण के हितों की रक्षा करेंगे।’’

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ं 


गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

 जब तक अपवादों को छोड़कर देश के सरकारी स्कूल-कालेजों में ढंग से पढ़ाई और कदाचारमुक्त परीक्षाएं नहीं होंगी,तब तक नौकरियों के लिए आयोजित भर्ती परीक्षाओं के प्रश्न पत्र लीक होते ही रहेंगे

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सुरेंद्र किशोर

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बिहार सहित इस देश में सरकारी नौकरियों के लिए जब -जब प्रतियोगिता परीक्षाएं होती हैं,अपवादों को छोड़ कर प्रश्न पत्र लीक हो ही जाते हैं।

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जब तक इस देश के सरकारी स्कूलों-कालेजों में ढंग से पढ़ाई नहीं होगी।

जब तक अपवादों को छोड़कर देश के सरकारी स्कूल-कालेज-विश्व विद्यालय की परीक्षाएं कदाचारमुक्त नहीं होंगी,तब तक भर्ती परीक्षाओं के प्रश्न पत्र लीक होते ही रहेेंगे।

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1963 में मैंने मैट्रिक की बोर्ड परीक्षा दी थी।

उससे पहले योग्य शिक्षकों से स्कूली पढ़ाई मैंने की थी।

मैं जिन स्कूलों में पढ़ा,वे स्कूल सरकारी नहीं थे।

प्रबंध समितियों द्वारा संचालित थे।

अपवादों को छोड़कर काहिली और कदाचार की समस्याएं बिहार के स्कूल-कालेजों के सरकारीकरण के बाद अचानक बढ़ी।

साठ के दशक तक बिहार में बोर्ड -विश्व विदयालय परीक्षाएं आम तौर पर कदाचारमुक्त होती थीं।

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तब मैट्रिक परीक्षा में इक्के दुक्के परीक्षार्थी ही फस्र्ट डिविजन से पास करते थे।

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अधिकतर परीक्षार्थी थर्ड डिविजन से पास करते थे।

सेकेंड डिविजन वाले भी कम ही होते थे।फस्र्ट डिविजनर लड़के को आसपास के गांव के लोग देखने आते थे।

उसके पिता का भी नाम होता था।

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अब कैसा रिजल्ट आ रहा है ?

सर्वाधिक परीक्षार्थी फस्र्ट डिविजन से पास कर रहे हैं।

उनसे कम सेकेंड डिविजन।

सबसे कम थर्ड डिविजन।

क्या ऐसा रिजल्ट आज की पढ़ाई के वास्तविक स्तर को प्रतिबिंबित करता है ?अपवादों को छोड़कर नहीं करता।

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बिहार में सन 1996 में पटना हाईकोर्ट-जिला जजों की देख -रेख में मैटिक-इंटर की कदाचारमुक्त परीक्षाएं हुई थीं।

मैट्रिक में करीब 13 प्रतिशत और इंटर में करीब 17 प्रतिशत परीक्षार्थी ही पास कर पाये थे।वह रिजल्ट तब की शिक्षा के स्तर का सही प्रतिबिंब था।

पर,उसके कारण जब ‘‘शिक्षा का व्यापार’’ बंद होने लगा ,शिक्षा माफियाओं को दर्द सताने लगा तो राज्य सरकार ने उनके दबाव में आकर अगले ही साल से कदाचार की पहले जैसी छूट दे दी।

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एक दशक पहले इस देश के एक बड़े उद्योगपति ने कहा था कि इस देश में हर साल जितने इंजीनियर डिग्री हासिल कर रहे हैं,उनमें से औसतन मात्र 27 प्रतिशत ही ऐसे हैं जिन्हें हम नौकरी पर रख सकते हैं।

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परीक्षाओं में कदाचार के जरिए लाखों डिग्रियां थमाने वाली सरकारें श्क्षिित बेरोजगारों 

की फौज खड़ी करके अपने लिए ही सिरदर्द मोल ले रही हैं।

हमारे जमाने में जो फेल कर जाता था,वह सरकारी नौकरियों का मोह छोड़कर किसी अन्य काम- धंधे में लग जाता था।

आज तो योग्यता विहीन शिक्षित बेरोजगार दूसरे ही काम में लग जाते हैं।

हां,आज भी योग्यता संपन्न बेरोजगारों को सरकारी नहीं तो निजी क्षेत्रों में काम मिल ही जा रहे हैं।

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साठ के दशक में इंटर पास विद्यार्थी अपना माक्र्स सीट दिखा कर सरकारी मेडिकल-इंजीनियरिंग कालेजों में दाखिला करा लेता था।

मेरे जमाने में जिसने भी फस्र्ट डिविजन से मैट्रिक पास किया,यदि चाहा तो डाकतार विभाग में माक्र्स सीट पर ही नौकरी पा गया।

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जब स्कूल-कालेजों का स्तर गिरा तो मेडिकल-इंजीनियरिंग काॅलजों में दाखिले के लिए भी प्रतियोगी परीक्षाएं होने लगी।

पर,अब तो उन प्रतियोगी परीक्षाओं का भी क्या हाल है,यह कहने की जरूरत नहीं है।

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इस समस्या का निराकरण कौन करेगा ?

यह समस्या देशव्यापी है।

किसी दल ने इस चुनाव में गंभीर रूप से यह मामला उठाया ???

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25 अपैल 24  


बुधवार, 24 अप्रैल 2024

 राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की पुण्यतिथि पर

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( 23 सितंबर, 1908-24 अप्रैल, 1974)

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रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का 24 अप्रैल (1974) की रात को मद्रास के एक अस्पताल में निधन हो गया।

  थोड़ी देर पहले तक वह समुद्र तट पर मित्रों के सामने कविता पाठ कर रहे थे--स्वस्थ और प्रसन्न थे।

   उसके भी पहले वेल्लूर जाने को मद्रास में ठहरे जयप्रकाश नारायण से वह मिल रहे थे और उन्हें एक लंबी कविता सुना रहे थे जो उन्हीं पर लिखी थी।

  एक दिन पूर्व तिरुपति मंदिर में देवमूर्ति को भी उन्होंने तीन बार कविताएं सुनायी थीं-तीनों बार नई रचना करके दर्शन किया था।

  समुद्र तट से लौटे तो सीने में दर्द उठा।

  घरेलू उपचार कारगर न होने पर मित्र रामनाथ गोयनका और गंगा शरण सिंह उन्हें तुरंत अस्पताल ले गये।

  पर तब तक आधे घंटे का ही जीवन शेष रह गया था।

  25 अप्रैल की सुबह 7 बजे लोगों ने आकाशवाणी का समाचार सुना।

  उन्हें अखबार से भी खबर मिल चुकी थी।

परंतु पटना में बहुत कम लोगों को मालूम हो सका कि उनका शव हवाई जहाज में मद्रास से दिल्ली और दिल्ली से पटना पहुंचेगा।

  दिल्ली में हवाई अड्डे पर मद्रास से आये जहाज से निकाल कर ताबूत पटना के जहाज में चढ़ा दिया गया जो छूटने को तैयार था।

  इसी बीच राजनीतिकों ,साहित्यकारों ,मित्रों और परिवार के लोगों ने उन्हें अंतिम श्रद्धांजलि अर्पित की।

 दोपहर में एक बजे पटना हवाई अड्डे पर साहित्यकारों सहित अन्य नागरिकों के अतिरिक्त मुख्य मंत्री अब्दुल गफूर और विधान सभाध्यक्ष हरिनाथ मिश्र उपस्थित थे।

ताबूत को स्वजनों ने विमान से उतार कर पुलिस वाहन में रखा,राजेंद्र नगर के मकान में उसे लाये।

  दोनों भाई ,पत्नी और सारा परिवार गांव से आ गया था।

 95 साल की मां ने अपने ‘नूनू’ को देखा।

अंतिम दर्शन के लिए लोग आने लगे।

शाम पौने छह बजे अर्थी उठी।

  आगे -आगे जन संपर्क विभाग के वाहन से रामधुन यायी जा रही थी।

रास्ते में हिन्दी साहित्य सम्मेलन भवन में फूल चढ़ाये गये।

  बांस घाट (गंगा किनारे) पर श्मशान का अंधेरा छाया हुआ था।कहीं से गैस बत्ती का इंतजाम किया गया।

  शव चिता पर रखा गया।

बिहार सशस्त्र पुलिस के जवानों ने लास्ट पोस्ट --अंतिम समय का बिगुल -बजाया।

पुत्र केदारनाथ सिंह ने मुखाग्नि दी थी।

कवि के लिए नगर नगर शोक सभाएं जुड़ीं।

प्रधान मंत्री (इंदिरा गांधी)ने कहा, देश का एक अन्यत्तम सृजनशील कलाकार चला गया।

  दिनकर जी निधन से कुछ दिन पहले अपने समकालीन साहित्यकारों ,राजनीतिकों और मनीषियों के जीवन पर एक पुस्तक तैयार कर रहे थे।

आशा है शीघ्र वह प्रकाश में आएगी।

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 साप्ताहिक पत्रिका ‘दिनमान’ ( 5 मई 1974 )के सौजन्य से। 

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24 अप्रैल 2024




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मंगलवार, 23 अप्रैल 2024

 


 23 अप्रैल-वीर कंुवर सिंह 

विजयोत्सव दिवस 

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सुरेंद्र किशोर

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स्वतंत्रता सेनानी पंडित सुन्दर लाल की चर्चित पुस्तक ‘‘भारत में अंग्रेजी राज’’( द्वितीय खंड) में यह लिखा गया है कि अंग्रेज बहादुर वीर कुंवर सिंह से लगातार कितनी बार हारे !

सुन्दर लाल समकालीन लेखक थे।

इतिहास के किस अन्य पुस्तक में ऐसा विस्तृत विवरण मिलता है ?

नहीं मिलता।

क्योंकि आजादी के बाद के हमारे शासकों के निदेश पर इतिहासकारों ने महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी जैसे योद्धाओं को भी कम करके दिखाया।

जानकार लोग बताते हैं कि तब के शासकों को यह भय था कि वे योद्धा जैसे वे थे,वैसा दिखाने पर देश में हिन्दुत्व की भावना बढ़ेगी।

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पंडित सुन्दर लाल की किताब में पहले पढ़िए 23 अप्रैल 1858 के युद्ध में पराजित अंग्रेज सेना

के अफसर की रोमांचक व्यथा-कथा

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 उस अंग्रेज सैनिक अफसर के शब्दों में,

‘‘वास्तव में, इसके बाद जो कुछ हुआ,उसे लिखते हुए मुझे अत्यंत लज्जा आती है।

  लड़ाई का मैदान छोड़कर हमने जंगल में भागना शुरू किया।

शत्रु हमें बराबर पीछे से पीटता रहा।

हमारे सिपाही प्यास से मर रहे थे।

एक निकृष्ट गंदे छोेटे से पोखर को देखकर वे उसकी तरफ लपके।

 इतने में कुंवर सिंह के सवारों ने हमें पीछे से आ दबाया।

 इसके बाद हमारी जिल्लत की कोई हद न थी।

हमारी विपत्ति चरम सीमा को पहुंच गई।

हम से किसी में शर्म तक न रही।

जहां जिसको कुशल दिखाई दी,वह उसी ओर भागा।

अफसरों की आज्ञाओं की किसी ने परवाह नहीं की।

व्यवस्था और कवायद का अंत हो गया।

चारों ओर आहों, श्रापों और रोने के सिवा कुछ सुनाई न देता था।

 मार्ग में अंग्रेजों के गिरोह के गिरोह मरे।

किसी को दवा मिल सकना असंभव था।

 क्योंकि हमारे अस्पतालों पर कुंवर सिंह ने पहले ही कब्जा कर लिया था।

 कुछ वहीं गिर कर मर गए ।

बाकी को शत्रु ने काट डाला।

हमारे कहार डोलियां रख -रख कर भाग गए।

सब घबराए हुए थे,सब डरे हुए थे।

सोलह हाथियों पर हमारे घायल साथी लदे हुए थे।

 स्वयं जनरल लीगै्रण्ड की छाती में एक गोली लगी और वह मर गया।

  हमारे सिपाही अपनी जान लेकर पांच मील से ऊपर दौड़ चुके थे।

उनमें अब बंदूक उठाने तक की शक्ति न रह गई थी।

 सिखों को वहां की धूप की आदत थी।

उन्होंने हमसे हथियार छीन लिए और हमसे आगे भाग गए।

गोरों का किसी ने साथ न दिया।

  199 गोरों में से 80 इस भयंकर संहार से जिन्दा बच सके।

हमारा इस जंगल में जाना ऐसा ही हुआ,जैसा पशुओं का कसाईखाने में जाना।

हम वहां केवल वध के लिए गए थे।’’

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इतिहास लेखक व्हाइट ने भी लिखा है कि 

‘‘इस अवसर पर अंग्रेजों ने पूरी और बुरी से बुरी हार खाई।’’

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  इससे पहले के युद्धों में अंग्रेजों 

  की लगातार पराजय के विवरण

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ईस्ट इंडिया कंपनी की फौजें कई युद्धों में जिस भारतीय राजा से हार गयी थी ,उस राजा का नाम था बाबू वीर कुंवर सिंह।

वीर कुंवर सिंह की याद में बिहार में बड़े पैमाने पर 23 अप्रैल को विजयोत्सव मनाया जाता है।

बिहार के जगदीशपुर के कंुवर सिंह जब अंग्रेजों से लड़ रहे थे, तब उनकी उम्र 80 साल थी।

यह बात 1857 की है।

  याद रहे कि  भोजपुर जिले के जगदीशपुर नामक पुरानी राजपूत रियासत के प्रधान  को सम्राट् शाहजहां ने  राजा की उपाधि दी थी।

  मशहूर पुस्तक ‘भारत में अंग्रेजी राज’ के यशस्वी लेखक पंडित सुन्दर लाल ने उन युद्धों का विस्तार से विवरण लिखा है।

  (अंग्रेजों के शासनकाल में ही यह पुस्तक लिखी गई थी।अंग्रेज सरकार ने इस किताब पर प्रतिबंध लगा दिया था।)

लेखक के अनुसार 

‘जगदीश पुर के राजा कुंवर सिंह आसपास के इलाके में अत्यंत सर्वप्रिय थे।

 कुवंर सिंह बिहार के क्रांतिकारियों का प्रमुख नेता और सन 57 के सबसे ज्वलंत व्यक्तियों में थे।

  जिस समय दानापुर की क्रांतिकारी सेना जगदीशपुर पहंची, बूढ़े कुंवर सिंह ने तुरंत अपने महल से निकल कर शस्त्र उठाकर इस सेना का नेतृत्व संभाला।

 कुंवर सिंह इस सेना सहित आरा पहुंचे।

 बिहार में 1857 का संगठन अवध और दिल्ली जैसा तो न था,फिर भी उस प्रांत में क्रांति के कई बड़े -बड़े केंद्र थे।

 पटना में जबर्दस्त केंद्र था जिसकी शाखाएं चारों ओर फैली  थीं।

पटना के क्रांतिकारियों के मुख्य नेता पीर अली को अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ा दिया।

 पीर अली की मृत्यु के बाद दानापुर की देशी पलटनों ने स्वाधीनता का एलान कर दिया।

ये पलटनें जगदीश पुर की ओर बढ़ीं।

बूढ़े कुंवर सिंह आरा पहुंचे।

उन्होंने आरा में अंग्रेजी खजाने पर कब्जा कर लिया।

जेलखाने के कैदी रिहा कर दिए गए।

अंग्रेजी दफ्तरों को गिराकर बराबर कर दिया गया।

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     आरा के बाग का संग्राम

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    29 जुलाई को दानापुर के कप्तान डनवर के अधीन करीब 300 गोरे सिपाही और 100 सिख सैनिक आरा की ओर मदद के लिए चले।

आरा के निकट एक आम का बाग था।कुंवर सिंह ने अपने कुछ आदमी आम के वृक्षों की टहनियों में छिपा रखे थे।

रात का समय था।

जिस समय सेना ठीक वृक्षों के नीचे पहुंची,अंधेरे में ऊपर से गोलियां बरसनी शुरू हो गयीं।

सुबह तक 415 सैनिकों में से सिर्फ 50 जिंदा बचकर दाना पुर लौटे।

डनवर भी मारा गया था।

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बीबी गंज का संग्राम

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इसके बाद मेजर आयर एक बड़ी सेना और तोपों सहित आरा किले में घिरे अंग्रेजों की सहायता के लिए बढ़ा।

2 अगस्त को आरा के बीबी गंज में आयर और कुंवर सिंह की सेनाओं के बीच संग्राम हुआ।

इस बार आयर विजयी हुआ।

उसने 14 अगस्त को जगदीश पुर के महल पर भी कब्जा कर लिया।

कुंवर सिंह 12 सौ सैनिकों व अपने महल की स्त्रियों को साथ लेकर जगदीश पुर से निकल गए।

उन्होंने दूसरे स्थान पर जाकर अंग्रेजों के साथ अपना बल आजमाने का निश्चय किया।

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   मिलमैन की पराजय

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  18 मार्च, 1858 को दूसरे क्रांतिकारियों के साथ कुंवर सिंह आजमगढ़ से 25 मील दूर अतरौलिया में डेरा डाला। 

मिलमैन के नेतृत्व में अंग्रेज सेना ने 22 मार्च 1858 को कुंवर सिंह से मुकाबला किया।मिलमैन हार कर भाग गया।

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    डेम्स की पराजय

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28 मार्च को कर्नल डेम्स के नेतृत्व में एक बड़ी सेना ने कुंवर सिंह पर हमला किया।

इस युद्ध में भी कुंवर सिंह विजयी रहे।

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   लार्ड केनिंग की घबदाहट

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कुंवर सिंह ने आजमगढ़ पर कब्जा किया।

किले को दूसरों के लिए छोड़कर कुंवर सिंह बनारस की तरफ बढ़े।

लार्ड केनिंग उस समय इलाहाबाद में था।

इतिहासकार मालेसन लिखता है कि बनारस पर कुंवर सिंह की चढ़ाई की खबर सुन कर कैनिंग घबरा गया।

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लार्ड मार्क की पराजय

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  उन दिनों कंुवर सिंह जगदीश पुर से 100 मील दूर  बनारस के उत्तर थे।

लखनऊ से भागे कई क्रांतिकारी कुंवर सिंह की सेना में आ मिले।

लार्ड कैनिंग ने लार्ड मारकर को सेना और तोपों के साथ कुंवर ंिसंह से लड़ने के लिए भेजा।

6 अप्रैल को लार्ड मारकर की सेना और कुंवर सिंह की सेना में संग्राम हुआ।

किसी ने उस युद्ध का विवरण इन शब्दों में लिखा है,‘

उस दिन 81 साल का बूढ़ा कुंवर सिंह अपने सफेद घोड़े पर सवार ठीक घमासान लड़ाई के अंदर बिजली की तरह इधर से उधर लपकता हुआ दिखाई दे रहा था।’

अंततः लार्ड मारकर हार गया।

उसे अपनी तोपों सहित पीछे हटना पड़ा।

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लगर्ड की पराजय

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कुंवर सिंह की अगली लड़ाई सेनापति लगर्ड के नेतृत्व वाली सेना से हुई।

कई अंग्रेज अफसर व सैनिक मारे गए।

कंपनी की सेना पीछे हट गयी।

कुंवर सिंह गंगा नदी की तरफ बढ़े।वे जगदीश पुर लौटना चाहते थे।

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डगलस की पराजय

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एक अन्य सेनापति डगलस के अधीन सेना कुंवर सिंह से लड़ने के लिए आगे बढ़ी।

नघई नामक गांव के निकट डगलस और कुंवर सिंह की सेनाओं में संग्राम हुआ।

अंततः डगलस हार गया।

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कुंवर सिंह गंगा की तरफ बढ़े

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कुंवर सिंह अपनी सेना के साथ गंगा की ओर बढ़े।

कुंवर सिंह गंगा पार करने लगे।बीच गंगा में थे।

अंग्रेजी सेना ने उनका पीछा किया।

एक अंग्रेज सैनिक ने गोली चलाई।गोली  कुंवर सिंह को लगी।

गोली दाहिनी कलाई में लगी।

विष फैल जाने के डर से कुंवर सिंह ने बाएं हाथ से तलवार खींच कर अपने दाहिने हाथ को कुहनी पर से काट कर गंगा में फेंक दिया।

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जगदीश पुर में प्रवेश

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22 अप्रैल को कंुवर सिंह ने वापस जगदीश पुर में प्रवेश किया।

आरा की  अंग्रेजी सेना 23 अप्रैल को लीग्रंैड के अधीन जगदीश पुर पर हमला किया।

इस युद्ध में भी कुंवर सिंह विजयी रहे।

पर घायल कुंवर सिंह की 26 अप्रैल, 1858 को मृत्यु हो गयी।

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कुंवर सिंह का चरित्र

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इतिहास लेखक के अनुसार ,

कुंवर सिंह का व्यक्तिगत चरित्र अत्यंत पवित्र था।

उनका जीवन परहेजकारी का था।

उनके राज में कोई मनुष्य इस डर से कि कुंवर सिंह देख न लंे, खुले तौर पर तंबाकू तक नहीं पीता था।

उनकी सारी प्रजा उनका बड़ा आदर करती थी और उनसे प्रेम करती थी।

युद्ध कौशल में वे अपने समय में अद्वितीय थे।

इतिहास लेखक होम्स ने लिखा है कि ‘‘उस बूढ़े राजपूत की,जो ब्रिटिश सत्ता के विरूद्ध इतनी बहादुरी और आन से लड़ा, 26 अप्रैल, 1858 को मृत्यु हुई।’’

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23 अप्रैल 24


सोमवार, 22 अप्रैल 2024

 कई दशक पहले की बात है।

घुसपैठियों की यहां बढ़ती संख्या से उपजी समस्याओं पर तब एक निजी टी.वी.चैनल पर गरमा गरम बहस चल रही थी।

देश के पूर्व विदेश सचिव मुचकुंद दुबे ओर शिवसेना के राज्य सभा सदस्य संजय निरुपम चर्चा में आमने -सामने थे।

मैं भी वह डिबेट सुन रहा था।

इस समस्या पर ‘‘नेहरू युग की नीति की लाइन’’ पर बोलते हुए दुबे जी

ने कहा कि यदि हम अपनी सीमाओं पर बाड़ लगाएंगे यानी पक्की घेराबंदी करेंगे तो दुनिया में भारत की छवि खराब होगी।

उस पर संजय निरुपम ने दुबे जी से सवाल किया--आप भारत के विदेश सचिव थे या बांग्ला देश के ?

शालीन दुबे जी चुप रह गये।

इसमें दुबे जी की भला क्या गलती थी ?

पचास के दशक में दुबे जी विदेश सेवा के लिए चुने गये थे।

तब भारत सरकार की वही नीति थी।

वे ढाका में भारत के उच्चायुक्त रह चुके थे।

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इस गैर जिम्मेदाराना नीति का हाल तक मजबूती से पालन होता गया।

नतीजतन सन 2017 तक हमारे देश में करीब 5 करोड़ बांग्लादेशी-रोहिंग्या घुसपैठिए भारत के ही वोट लोलुप नेताओं व भ्रष्ट सरकारी अफसरों-कर्मचारियों  की मदद से जहां तहां बस चुके हैं।बस रहे हैं।

उनके कारण इस देश के कई जिलों व इलाकों में आबादी का अनुपात बदल चुका है।

अब तो घुसपैठियों की यह संख्या और भी बढ़ गयी है।

आज घुसपैठियों के सबसे बड़े मददगार पश्चिम बंगाल के शासक हैं।आश्चर्य है कि सीमा पर

तैनात अर्धसैनिक बलों को भी लगभग निष्क्रिय कर दिया गया है।करीब 10-12 हजार रुपए में ही घुसपैठियों के सारे जरूरी सरकारी कागजात बन जाते हैं।

शायद इस चुनाव के नतीजे आ जाने के बाद कोई बड़ी कार्रवाई हो।

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22 अप्रैल 24


शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024

     मोदी व भाजपा को उनके विरोधियों ने अपनी 

     अदूरदर्शिता के कारण अधिक ताकत पहुंचाई 

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               सुरेंद्र किशोर

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मशहूर चुनाव विश्लेषक संजय कुमार ने लिखा है कि

 ‘‘चुनाव में राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व अब केंद्रीय मुद्दा बन गए हैं।’’

(दैनिक भास्कर--19 अप्रैल,2024)

हालांकि उन्होंने महंगी और बेरोजगारी को भी अहम मुद्दा माना है, लेकिन केंद्रीय मुद्दा नहीं।

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लेखक के अनुसार, ‘‘सी.एस.डी.एस.-लोकनीति के चुनाव पूर्व सर्वेक्षण से निष्कर्ष निकलता है कि भारतीय जनता पार्टी के लिए बड़े पैमाने पर वोट खींचने वाला फैक्टर आज पार्टी की छवि नहीं,बल्कि उसका शीर्ष नेतृत्व यानी मोदी फैक्टर बन चुका है।’’

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इस अवसर पर मैं एक पुराना वाकया दुहरा दूं।

 1990-91 के मंडल आरक्षण विवाद के दौरान लालू प्रसाद सामाजिक न्याय के हीरो बनकर उभरे थे।

उनके हीरों बनने में खुद उनका जितना योगदान था,उससे काफी अधिक योगदान तब के आरक्षण विरोधियों का था।

बाद के वर्षों में यदि लालू प्रसाद ने पैसा-परिवार को लेकर संयम बरता होता तो वे पिछड़ों के नेता के साथ-साथ उनके मसीहा भी बन गये होते।

आज तो वे पिछड़ों में भी तब की अपेक्षा एक छोटे समूह के नेता रह गये हैं।

याद रहे कि मंडल आरक्षण, केंद्र की वी.पी.सिंह सरकार का न सिर्फ संविधान सम्मत कदम था,बल्कि बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भीं उस पर मुहर लगा दी।

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आजादी के तत्काल बाद के वर्षों में कांग्रेस को बिहार में भी जब -जब पूर्ण बहुमत मिला,तब -तब उसने सिर्फ सवर्णों को ही मुख्य मंत्री बनाया।

  उस पर किसी सवर्ण नेता या बुद्धिजीवी ने कभी आवाज उठाई ?

हां,आज जब 1990 से लगातार पिछड़ी जातियों के नेता ही बिहार के मुख्य मंत्री बन रहे हैं तो उन्हंे उस पर एतराज हो रहा है।

अरे भाई,जो आपने बोया है,वही तो काट रहे हैं। 

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अब आप देश की मौजूदा स्थिति की समीक्षा करिए।

हिन्दुत्व और सनातन विरोधी राजनीतिक दलों और शक्तियों ने भाजपा व उसके नेता नरेंद्र मोदी को अनजाने में हीरो बना दिया है।(मोदी की ईमानदार छवि भी लोगों को आकर्षित करती है।)

  जिस राम मंदिर के पक्ष में अंततः सुप्रीम कोर्ट का भी निर्णय आया,उस मंदिर के खिलाफ 

अनेक भाजपा-राजग  विरोधी दलों ने दशकों तक न जाने कैसे -कैसे अभियान चलाये !

वह सब मुस्लिम वोट को खुश करने के लिए हुआ।

इस विरोध के खिलाफ बड़े हिन्दू समूह की गोलबंदी होनी ही थी।सो हुई।

जिस तरह 90 के दशक में पिछड़ों की 52 प्रतिशत आबादी के साथ हो रहे न्याय को कुछ लोगों ने बर्दाश्त नहीं किया ,उसी तरह देश की कुल आबादी के करीब अस्सी प्रतिशत हिन्दुओं की भावना का 

राजग विरोधी दलों ने ध्यान नहीं रखा।

ऐसा उन लोगों ने अल्पसंख्यक वोट के लोभ में किया।उसका परिणाम तो भुगतना ही पड़ेगा।

  आज राहुल गांधी नायनाड में किसके भरोस चुनाव लड़ रहे हैं ?

एस.डी.पी.आई.के भरोसे।

एस.डी.पी.आई.क्या है ?

यह पी.एफ.आई.का राजनीतिक विंग है।

पी.एफ.आई.क्या है ?

यह प्रतिबंधित संगठन है।

प्रतिबंधित क्यों है ?

क्योंकि उसके पास जो भूमिगत साहित्य मिला है,उसके अनुसार वह संगठन हथियारों के बल पर 2047 तक भारत को इस्लामिक देश बना देने के लिए दिन रात प्रयत्नशील है। 

यह सब अब छिपी हुई बात नहीं है।

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देश की सीमाओं को सुरक्षित रखना,घुसपैठियों को बाहर ढकेलना,जेहादियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करना हर राष्ट्रवादी देशवासी का कर्तव्य है।

 दुनिया के अन्य सारे देशों के लोग अपने जरूरत पड़ने पर ऐसा ही करते रहे हैं।इन दिनों चीन भी कर रहा है।

पर वोट बैंक और दूसरे लोभ में भाजपा को छोड़कर इस देश के लगभग सभी अन्य दलों ने राष्ट्र की सुरक्षा का यह काम सिर्फ भाजपा के जिम्मे छोड़ दिया।

ऐेसे में इस देश के राष्ट्रवादी लोगों का समर्थन भाजपा व उसके सहयोगी दलों को चुनाव में नहीं मिलेगा तो क्या वोट बैंक के सौदागरों को मिलेगा ?

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आज सी ए ए -एन आर सी-यू सी सी का समर्थन राष्ट्रवाद है।

आज घुसपैठियों का विरोध राष्ट्रवाद है।

इस बार का लोक सभा चुनाव रिजल्ट बता देगा कि अधिकतर मतदाताओं ने किसे राष्ट्रवादी माना और किसे नहीं माना।

यदि चीन सरकार अपने देश के जेहादी उइगर मुसलमानों के खिलाफ अभूतपूर्व सख्ती बरत रही है तो वह अपनी राष्ट्रवादी 

भूमिका ही तो निभा रही है।

पर,अपने देश के वैसे लोग अपने यहां ऐसे मामले में क्या कर रहे हैं जो चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का अक्सर गुणगान करते रहते हैं ?

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कुल मिलाकर स्थिति यह है कि मोदी को महाबली बनाने में खुद मोदी व भाजपा का जितना बड़ा हाथ है,उससे कई गुणा बड़ा योगदान वोट बैंक के सौदागरों की गतिविधियों व रणनीतियों का है।

जिस तरह मंडल आरक्षण के विरोधियों में से अनेक लोग बाद में अपने विरोध के निर्णय पर पछताए,उसी तरह कुछ खास वोट के लिए राष्ट्र के हितों का बलिदान करने वाले दल इस लोक सभा चुनाव का रिजल्ट आ जाने के बाद संभवतः पछताएंगे।

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19 अप्रैल 24


गुरुवार, 18 अप्रैल 2024

    एक अखबार समूह का 

  आर्थिक प्रबंधन ऐसा भी था

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कई दशक पहले की बात है।

एक अखबार समूह के मालिक को लगा कि 

यदि प्रेस की स्वतंत्रता बनाए रखनी है तो

अखबार के घाटे को पाटने के लिए आय का 

वैकल्पिक स्रोत भी बनाना पड़ेगा।

क्योंकि सिर्फ सरकारी विज्ञापनों के भरोसे अखबार नहीं 

निकाला जा सकता है।

कई बार कुछ स्वतंत्र अखबारों को कुछ सरकारें ‘‘अभियानी मीडिया’’कहने लगती हैं।

हालांकि अभियानियों की एक अलग प्रजाति आज भी है।

फिर उसे सरकारी विज्ञापन नाम मात्र का ही मिलता है।

या, नहीं मिलता रहा है।

वैसे अभियानी अखबारों को सरकार से उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए।

हां, वह आय का वैकल्पिक स्रोत तो खड़ा कर सकता है। 

 खैर, उसकी बातें जिनकी चर्चा मैंने शुरू की थी।

 इसीलिए उस मालिक ने देश के कुछ बड़े नगरों में अपनी बहुमंजिली इमारतें बनवाईं।

इमारत के कुछ स्थानों में अखबार के प्रेस व आॅफिस वगैरह रहे।

 बाकी को किराए पर उठा दिया ।

किराए के पैसों से अखबार का घाटा पूरा होने लगा।

हालांकि अखबार में आज जैसी शाहखर्ची नहीं थी।

मालिक गोयनका अपनी फियट के खुद ही ड्रायवर थे।

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18 अप्रैल 24