सोमवार, 18 मार्च 2024

 मोदी है तो मुमकिन है

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सांसद फंड की समाप्ति के बिना भ्रष्टाचार 

को काबू में लाना असंभव

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समाप्ति का यह काम नरेंद्र मोदी ही कर सकते हैं।

अटल जी और मनमोहन जी तो चाहते हुए भी इसे 

समाप्त नहीं कर सके थे

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सुरेंद्र किशोर

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  मेरा मानना है कि सांसद क्षेत्र विकास फंड सरकारी व राजनीतिक भ्रष्टाचार का ‘‘रावणी अमृत कुंड’’ है।

  इस फंड के प्रावधान की समाप्ति के बिना शासन व राजनीति से भ्रष्टाचार की समाप्ति कौन कहें,इसे कम करने की भी कल्पना नहीं की जा सकती।

  प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी आज इतने लोकप्रिय और ताकतवर हैं कि वे ही इस फंड को समाप्त कर सकते हैं।

अभी लोहा गर्म है।

वैसे भी यह जन कल्याण का काम है।

नब्बे के दशक में भ्रष्टाचार को संस्थागत रूप देने के लिए ही इस फंड को शुरू किया गया था। 

खबर मिली थी कि कुछ साल पहले मोदी जी ने इस फंड की समाप्ति को लेकर सांसदों से राय मांगी थी।

पता चला कि सिर्फ 3 सांसदों ने इसकी समाप्ति के पक्ष में राय दी।इसकी ‘ताकत’ तो देखिए !!

अटल बिहारी वाजपेयी जी ,मनमोहन सिंह जी प्रधान मंत्री थे तो वे चाहते हुए भी इसे समाप्त नहीं कर सके थे।

पर मोदी दूसरी ही मिट्टी के बने हैं।मोदी लुंजपुंज नेता नहीं है।

मोदी है तो यह असंभव सा दिखने वाला यह काम भी 

मुमकिन है।इसके बड़े फायदे हैं।किसी अन्य एक काम से इतना फायदा नहीं।

लोक सभा के भाजपा उम्मीदवारों को, जो अपनी जीत के लिए आज मोदी पर ही निर्भर हैं, ‘‘चुनावी टिकट’’ देते समय ही भाजपा नेतृत्व उनसे यह लिखवा लें या उन्हें साफ -साफ कह दे कि नयी लोक सभा के कार्यकाल शुरू होते ही सांसद फंड बंद हो जाएगा।अन्य किसी दल से ऐसी उम्मीद नहीं की सकती।

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अब नहीं तो कभी नहीं मोदी जी !!

सांसद फंड में कमीशनखोरी और न खाएंगे और न खाने देंगे --दोनों बातें एक साथ कैसे चलेंगी ? !!

सांसद शब्द बड़ा पवित्र शब्द है,इसकी गरिमा बढ़ाने का काम तुरंत शुरू हो जाना चाहिए।

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18 मार्च 24 


 पाक,अफगानिस्तान और

बांग्ला देश से पीड़ित होकर 

भारत में शरण लिए गैर मुस्लिम 

शरणार्थियों के बारे में

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सुरेंद्र किशोर

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सी.ए.ए.के तहत उन्हें बारी -बारी से भारत की नागरिकता दी जा रही है।

उन्हें इस देश की अधिकतर सरकारें (ध्यान रहे,सब नहीं।)

तो मदद करेंगी ही।

साथ ही, देश के व्यापारी और उद्योगपति गण भी ‘‘कंपनी सामाजिक उत्तरदायित्व’’ यानी सी.एस.आर, के तहत उनकी योग्यता के अनुसार उन्हें मदद करें।

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याद रहे कि इस देश की कंपनियों के लिए यह अनिवार्य है कि वे अपने नेट मुनाफे में से 2 प्रतिशत सी.एस.आर.के तहत खर्च करें।करते भी रहें हैं।पर,यह नई जिम्मेदारी उठाकर उन्हें भी संतोष होगा।

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        दूरदर्शी सलाहकार जरूरी 

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दूरदर्शी सलाहकारों की कमी के कारण ही नीतीश कुमार ने बारी -बारी से दो बार राजग छोड़ दिय़ा था।

  इस बार जब नीतीश जी राजग में लौटे तो उन्होंने प्रधान मंत्री को सार्वजनिक रूप से यह आश्वासन दिया कि अब आपका साथ हम नहीं छोडे़ंगे।

नीतीश जी ने अच्छा किया।

अपने लिए भी और अपने समर्थकों-प्रशंसकों के लिए भी अच्छा किया।

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पर,लगता है कि पशुपति जी पारस के आसपास भी दूरदर्शी सलाहकारों की कमी है।

पारस जी को यह समझ लेना चाहिए कि राम बिलास पासवान जी का वोट बैंक अब चिराग के साथ है, आपके साथ नहीं।

इस संबंध में भाजपा नेतृत्व को सही जानकारी मिली है।

बाल ठाकरे के भतीजा उनके उतराधिकारी नहीं बने।

मुलायम जी के भाई नहीं बन सके।

लालू जी के साला नहीं बने और करूणनिधि के पुत्र ही उनके उत्तराधिकारी बने न कि कोई मारन जी।

वैसे चिराग जी के साथ दिक्कत यह है कि लगता है कि वे थोड़ा ‘जल्दीबाजी’ में हैं।सन 2020 के विधान सभा चुनाव में उनकी भूमिका से यही पता चला।आगे भी ऐसी ‘‘जल्दीबाजी’’ रहेगी तो उनके कैरियर के लिए ठीक नहीं रहेगा।

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केंद्र सरकार का पारस जी और पिं्रसराज के लिए फिलहाल  आॅफर सम्मानजनक है।

हाजीपुर से चुनाव लड़कर यदि हार जाइएगा तो केंद्र सरकार दोबारा आपको वह आॅफर नहीं देगी।

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16 मार्च 24


 रिटायर होने के बाद ‘‘चलो गांव की ओर’’

--यदि गांवों में आपके पास जमीन है।

हां, बिहार सरकार को भी चाहिए कि वह शहरों पर से बोझ घटाने के लिए कानून -व्यवस्था यू.पी. के स्तर पर लाए।

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सुरेंद्र किशोर

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दिल्ली का वायु प्रदूषण निवासियों की जीवन प्रत्याशा में करीब 12 साल की कमी कर रहा है।

  उसी तरह पटना का वायु प्रदूषण 10 साल आयु घटा रहा है।

मेरा आकलन है कि चुनाव लड़ने वाली कोई भी सरकार न तो परीक्षाओं में नकल या प्रश्न प्रत्र लीक की समस्या पर काबू पा सकती है और न ही प्रदूषण को कम कर सकती है।

हां,मोदी सरकार और नीतीश सरकार ने भ्रष्टाचार कम करके 

सरकारी राजस्व जरूर बढ़ा दिया जिससे अच्छी सड़ंकंे बन रही हैं।बिजली गांवों तक पहुंच गयी।

पटना में फ्लाई ओवर व बेहतर सड़कों से लोग खुश है।हां,जाम की समस्या को काबू करने में बिहार सरकार हांफ रही है।विफल है।

क्योंकि अधिकतर घूसखोर पुलिसकर्मियों व निगम कमियों पर राज्य सरकार का कोई कंट्रोल ही नहीं है।मध्य पटना में भी घूस लेकर बीच सड़क पर दुकानें सजवाई जाती हैं।

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जीने की समस्या का भी यदि समाधान नहीं हो रहा हैं तो इस बीच क्या किया जाये ?! 

‘‘बाईपास’’की तलाश कीजिए ।

मैंने तलाश कर ली है।

चलो गंाव की ओर।

अन्यथा, कैंसर और वायु प्रदूषण से घुट- घुट कर मरिए।

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मैं इन दिनों अपने पुश्तैनी गांव में भी अपना एक बसेरा बनाना चाहता हूं।

देखें सफल होता हूं या नहीं।

इसके लिए मैं

अक्सर गांव जा रहा हूं।

आज भी गया था।

जाने में करीब डेढ़ घंटे और आने में उतना ही समय लगा।

शेरपुर-दिघवारा गंगा पुल बन जाने पर करीब पौन घंटा लगेगा।

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बेहतर सड़कों व फ्लाई ओवर  के कारण गति बढ़ी है।

मेरे गांव से किसी मरीज को अब एक से डेढ़ घंटे में ही पटना एम्स पहुंचाया जा सकता है।

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बिजली की आपूर्ति तो अब गांव -गांव अबाध है।मेरे गांव में भी बिजली नीतीश सरकार के आने के बाद ही 2009 में गयी। 

पर,पेय जल का प्रबंध आपको खुद करना पड़ेगा।क्योंकि अपवादों को छोड़कर बिहार में सरकारी नल जल योजना भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुकी है।

’’’’’’’’’’’’’’’’

गांव में रहने पर आप जैविक खेती कर-करा सकते हैं।

क्योंकि अपवादों को छोड़कर नगरों में मिलने वाले दूध से लेकर आलू तक कैंसर कारक है।

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17 मार्च 24   

 


बुधवार, 6 मार्च 2024

 यदाकदा

सुरेंद्र किशोर

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 बेहतर कानून-व्यवस्था के लिए कारगर थानेदार जरूरी

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नीतीश सरकार ने बेहतर विधि-व्यवस्था के लिए हाल में अनेक ठोस कदम उठाए हैं।

राज्य सरकार की मंशा अपराधियों पर करारा प्रहार करने की है।न सिर्फ कानून कड़े किए जा रहे हैं बल्कि पुलिस को नये अधिकारों से लैस किया जा रहा है।

साथ ही,                                                                                               पुलिस तंत्र को बेहतर साधन भी मुहैया कराएं जा रहे हैं।

पर,इसके साथ ही,एक और तत्व पर गौर करने की सख्त जरूरत है।

वह है थानेदारों की तैनाती में पारदर्शिता लाने की जरूरत।

जब तक पेशेवर आधार पर थानेदारों की तैनाती नहीं होगी,तब तक कोई अन्य उपाय काम नहीं आएगा।

पेशेवर और गैर पेशेवर तरीकों के अंतर के विस्तार में जाने की यहां कोई जरूरत नहीं है।

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भूली बिसरी याद

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संविधान सभा के अध्यक्ष डा.राजेंद्र प्रसाद ने 26 नवंबर 1949 को कहा था कि 

‘‘जिन व्यक्तियों का निर्वाचन किया जाता है यदि वे योग्य,चरित्रवान और ईमानदार हैं तो वे एक दोषपूर्ण संविधान को भी सर्वोत्तम संविधान बना सकेंगे।

यदि उनमें इन गुणों का अभाव होगा तो यह संविधान देश की सहायता नहीं कर सकेगा।

आखिर संविधान एक यंत्र के समान एक निष्प्राण वस्तु ही तो है।

उसके प्राण तो वे लोग हैं जो उस पर नियंत्रण रखते हैं और उसका प्रवर्तन करते हैं ।

 देश को आज एक ऐसे ईमानदार लोगों के वर्ग से अधिक किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता नहीं है जो अपने सामने देश के हित को रखे।’’

डा.प्रसाद ने जो बातें संविधान के बारे में कही थी,वह बात इस देश के नये-पुराने कानूनों पर भी लागू होती हैं।

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दाखिल खारिज और सेवांत लाभ

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सरकारी सूत्रों के अनुसार बिहार में दाखिल-खारिज के करीब पौने आठ लाख मामले में लंबित हैं।

दाखिल-खारिज के मामलों के समाधान के लिए जमीन मालिकों को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

इसके कई कारण हैं।

पर,मुख्य कारण लाल फीताशाही है।

 समस्या सरकारी सेवकों के सेवांत लाभ के समय पर भुगतान को लेकर भी सामने आती है।

लाखों लोगों की इन कठिनाइयों का यदि बिहार सरकार समाधान करा दे तो सरकार की वाहवाही होगी।

पर,भुक्तभोगी बताते हैं कि ये काम हिमालय पहाड़ पर चढ़ने की तरह का ही कठिन काम है।

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सांसद-विधायक फंड की निगरानी 

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सुप्रीम कोर्ट ने ठीक ही कहा है कि सांसदों-विधायकों की निगरानी के लिए हम उनके शरीर पर चिप नहीं लगा सकते।

अदालत ने संबंधित याचिकाकर्ताओं को फटकारा भी ।अच्छा किया।

उनकी मांग ही गलत थी।

याचिकाकर्ता जन प्रतिनिधियों की सतत निगरानी की मांग कर रहे थे।मांग की गई थी कि सांसदों-विधायकों की गतिविधियों की 24 घंटे डिजिटल माध्यम से निगरानी के लिए अदालत केंद्र सरकार को निदेश दे।ऐसी मांग याचिकाकर्ता के दिमागी दिवालियापन की ही निशानी है।

पर, सरकार को एक काम करना चाहिए।

सांसद-विधायक फंड के सदुपयोग को सुनिश्चित करने की व्यवस्था करनी चाहिए।

इससे जन प्रतिनिधियों का जनता में सम्मान और भी बढ़ जाएगा।


सबक सिखाने वाली घटना

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भोजपुरी फिल्म अभिनेता पवन सिंह

चुनाव टिकट वापसी प्रकरण ने फिल्मी जगत को अच्छी-खासी सीख दे दी है।

भोजपुरी फिल्मों के गीतों ओर संवादों में अश्लीलता की शिकायतें वर्षों से मिलती रही है।

पर,कोई सुधारात्मक कदम नहीं उठाया गया।

पवन सिंह के अश्लील गानों का पश्चिम बंगाल में ऐसा विरोध हुआ कि 

उनका चुनाव टिकट कट गया।

भाजपा ने उन्हें आसनसोल से उम्मीदवार बनाया था।

अब राजनीतिक महत्वाकांक्षा वाले कोई अन्य फिल्म अभिनेता अश्लीलता से दूर ही रहेंगे,ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए।

वैसे दोष सिर्फ पवन सिंह जैसे अभिनेताओं का ही नहीं है।

 कसूर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड का है।बोर्ड फिल्मों में गैर जरूरी हिंसा

और अश्लीलता को रोकने में अघोषित कारणों से विफल रहा है।

अब आप शायद ही ऐसी फिल्म पाएंगे जिसे आप परिवार के साथ बैठकर  देख सकें।

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सरकार की पहल सराहनीय

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इस बीच यह खबर आई है कि केंद्र सरकार फिल्म प्रमाणन प्रक्रिया का कायाकल्प करने जा रही है।

इस संबंध में सलाह मांगी गयी।

 नियम बदले जाने हैं।

बोर्ड में अब अधिक महिलाएं रखी जाएंगी।

उम्मीद की जानी चाहिए कि नये नियम कड़े होंगे।पर,यह देखना होगा कि 

उन नियमों का पालन कितना हो रहा है।

प्रमाणन के पुराने नियम मैंने पढ़े हैं।

वे भी ठीकठाक ही हैं।पर लागू करने वालों ने उन्हें अघोषित कारणों से आम तौर पर लागू नहीं करते।

मैंने 1961 में पहली बार हिन्दी फिल्म देखी थी।गिरावट की रफ्तार भी मैंने देखी है।

यदि पुराने नियम ठीक से लागू हों तो ‘‘नदिया के पार’’ और ‘‘बागवान’’ जैसी फिल्मों को ही प्रमाण पत्र मिल सकते हैं।

पर,हो रहा है बिलकुल उल्टा।सन 2014 में घूसखोरी के आरोप में सेंसर बोर्ड के सी.ई.ओ.गिरफ्तार भी हुए थे।

फिर भी कोई फर्क नहीं पड़ा।सेंसर बोर्ड आम तौर पर असेंसर बोर्ड ही बना

रहा।उम्मीद की जानी चाहिए कि केंद्र सरकार की नई पहल कारगर होगी। 

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और अंत में

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बिहार सरकार को भी पुलिस कमीश्नरी सिस्टम की स्थापना पर विचार करना चाहिए।संभव है कि उसकी स्थापना से कम से कम बड़े नगरों में कानून-व्यवस्था ठीक करने में आसानी हो।देश के कई राज्यों में यह सिस्टम सफलतापूर्वक काम कर रहा है।

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प्रभात खबर बिहार संस्करण 

4 मार्च 2024

 

 




















































































यदाकदा

सुरेंद्र किशोर

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 बेहतर कानून-व्यवस्था के लिए कारगर थानेदार जरूरी

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नीतीश सरकार ने बेहतर विधि-व्यवस्था के लिए हाल में अनेक ठोस कदम उठाए हैं।

राज्य सरकार की मंशा अपराधियों पर करारा प्रहार करने की है।न सिर्फ कानून कड़े किए जा रहे हैं बल्कि पुलिस को नये अधिकारों से लैस किया जा रहा है।

साथ ही,                                                                                               पुलिस तंत्र को बेहतर साधन भी मुहैया कराएं जा रहे हैं।

पर,इसके साथ ही,एक और तत्व पर गौर करने की सख्त जरूरत है।

वह है थानेदारों की तैनाती में पारदर्शिता लाने की जरूरत।

जब तक पेशेवर आधार पर थानेदारों की तैनाती नहीं होगी,तब तक कोई अन्य उपाय काम नहीं आएगा।

पेशेवर और गैर पेशेवर तरीकों के अंतर के विस्तार में जाने की यहां कोई जरूरत नहीं है।

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भूली बिसरी याद

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संविधान सभा के अध्यक्ष डा.राजेंद्र प्रसाद ने 26 नवंबर 1949 को कहा था कि 

‘‘जिन व्यक्तियों का निर्वाचन किया जाता है यदि वे योग्य,चरित्रवान और ईमानदार हैं तो वे एक दोषपूर्ण संविधान को भी सर्वोत्तम संविधान बना सकेंगे।

यदि उनमें इन गुणों का अभाव होगा तो यह संविधान देश की सहायता नहीं कर सकेगा।

आखिर संविधान एक यंत्र के समान एक निष्प्राण वस्तु ही तो है।

उसके प्राण तो वे लोग हैं जो उस पर नियंत्रण रखते हैं और उसका प्रवर्तन करते हैं ।

 देश को आज एक ऐसे ईमानदार लोगों के वर्ग से अधिक किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता नहीं है जो अपने सामने देश के हित को रखे।’’

डा.प्रसाद ने जो बातें संविधान के बारे में कही थी,वह बात इस देश के नये-पुराने कानूनों पर भी लागू होती हैं।

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दाखिल खारिज और सेवांत लाभ

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सरकारी सूत्रों के अनुसार बिहार में दाखिल-खारिज के करीब पौने आठ लाख मामले में लंबित हैं।

दाखिल-खारिज के मामलों के समाधान के लिए जमीन मालिकों को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

इसके कई कारण हैं।

पर,मुख्य कारण लाल फीताशाही है।

 समस्या सरकारी सेवकों के सेवांत लाभ के समय पर भुगतान को लेकर भी सामने आती है।

लाखों लोगों की इन कठिनाइयों का यदि बिहार सरकार समाधान करा दे तो सरकार की वाहवाही होगी।

पर,भुक्तभोगी बताते हैं कि ये काम हिमालय पहाड़ पर चढ़ने की तरह का ही कठिन काम है।

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सांसद-विधायक फंड की निगरानी 

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सुप्रीम कोर्ट ने ठीक ही कहा है कि सांसदों-विधायकों की निगरानी के लिए हम उनके शरीर पर चिप नहीं लगा सकते।

अदालत ने संबंधित याचिकाकर्ताओं को फटकारा भी ।अच्छा किया।

उनकी मांग ही गलत थी।

याचिकाकर्ता जन प्रतिनिधियों की सतत निगरानी की मांग कर रहे थे।मांग की गई थी कि सांसदों-विधायकों की गतिविधियों की 24 घंटे डिजिटल माध्यम से निगरानी के लिए अदालत केंद्र सरकार को निदेश दे।ऐसी मांग याचिकाकर्ता के दिमागी दिवालियापन की ही निशानी है।

पर, सरकार को एक काम करना चाहिए।

सांसद-विधायक फंड के सदुपयोग को सुनिश्चित करने की व्यवस्था करनी चाहिए।

इससे जन प्रतिनिधियों का जनता में सम्मान और भी बढ़ जाएगा।


सबक सिखाने वाली घटना

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भोजपुरी फिल्म अभिनेता पवन सिंह

चुनाव टिकट वापसी प्रकरण ने फिल्मी जगत को अच्छी-खासी सीख दे दी है।

भोजपुरी फिल्मों के गीतों ओर संवादों में अश्लीलता की शिकायतें वर्षों से मिलती रही है।

पर,कोई सुधारात्मक कदम नहीं उठाया गया।

पवन सिंह के अश्लील गानों का पश्चिम बंगाल में ऐसा विरोध हुआ कि 

उनका चुनाव टिकट कट गया।

भाजपा ने उन्हें आसनसोल से उम्मीदवार बनाया था।

अब राजनीतिक महत्वाकांक्षा वाले कोई अन्य फिल्म अभिनेता अश्लीलता से दूर ही रहेंगे,ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए।

वैसे दोष सिर्फ पवन सिंह जैसे अभिनेताओं का ही नहीं है।

 कसूर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड का है।बोर्ड फिल्मों में गैर जरूरी हिंसा

और अश्लीलता को रोकने में अघोषित कारणों से विफल रहा है।

अब आप शायद ही ऐसी फिल्म पाएंगे जिसे आप परिवार के साथ बैठकर  देख सकें।

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सरकार की पहल सराहनीय

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इस बीच यह खबर आई है कि केंद्र सरकार फिल्म प्रमाणन प्रक्रिया का कायाकल्प करने जा रही है।

इस संबंध में सलाह मांगी गयी।

 नियम बदले जाने हैं।

बोर्ड में अब अधिक महिलाएं रखी जाएंगी।

उम्मीद की जानी चाहिए कि नये नियम कड़े होंगे।पर,यह देखना होगा कि 

उन नियमों का पालन कितना हो रहा है।

प्रमाणन के पुराने नियम मैंने पढ़े हैं।

वे भी ठीकठाक ही हैं।पर लागू करने वालों ने उन्हें अघोषित कारणों से आम तौर पर लागू नहीं करते।

मैंने 1961 में पहली बार हिन्दी फिल्म देखी थी।गिरावट की रफ्तार भी मैंने देखी है।

यदि पुराने नियम ठीक से लागू हों तो ‘‘नदिया के पार’’ और ‘‘बागवान’’ जैसी फिल्मों को ही प्रमाण पत्र मिल सकते हैं।

पर,हो रहा है बिलकुल उल्टा।सन 2014 में घूसखोरी के आरोप में सेंसर बोर्ड के सी.ई.ओ.गिरफ्तार भी हुए थे।

फिर भी कोई फर्क नहीं पड़ा।सेंसर बोर्ड आम तौर पर असेंसर बोर्ड ही बना

रहा।उम्मीद की जानी चाहिए कि केंद्र सरकार की नई पहल कारगर होगी। 

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और अंत में

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बिहार सरकार को भी पुलिस कमीश्नरी सिस्टम की स्थापना पर विचार करना चाहिए।संभव है कि उसकी स्थापना से कम से कम बड़े नगरों में कानून-व्यवस्था ठीक करने में आसानी हो।देश के कई राज्यों में यह सिस्टम सफलतापूर्वक काम कर रहा है।

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प्रभात खबर बिहार संस्करण 

4 मार्च 2024

 

 





















































































   द्रमुक सांसद ए.राजा की देश विरोधी टिप्पणी

   और टू जी मुकदमे की अद्यतन स्थिति

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सुरेंद्र किशोर

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द्रमुक एम.पी.व पूर्व केंद्रीय मंत्री ए.राजा ने कहा है कि भारत एक देश नहीं बल्कि एक उप महाद्वीप है।

 यह पढ़कर मुझे तुरंत याद आ गया--

टू जी स्पैक्ट्रम घोटाला मुकदमा अब भी दिल्ली हाईकोर्ट में अपील में है जिसमें राजा जी भी आरोपित हैं।

भले कुछ अनजान प्रवक्ता व एंकर लोग टी.वी.चैनलों पर आए दिन यह सवाल पूछते रहें कि टू जी घोटाला मुकदमे में क्या हुआ ? उनके अनुसार कुछ नहीं हुआ।

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जब भी हमारे देश के कुछ खास नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों वाले मुकदमे तेज होते हैं तो उनमें से अनेक के दिल ओ दिमाग में 

पृथकतावादी प्रवृतियां हिलोड़े मारने लगती है।

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सन 1962 के चीनी हमले से पहले तक तब के द्रमुक नेताओं में पृथकतावादी भावना आज की अपेक्षा अधिक प्रबल थी।पर,चीन ने जब हमारे बड़े भूभाग पर कब्जा कर लिया और प्रधान मंत्री नेहरू ने रेडियो प्रसारण में कहा कि अफसोस है कि (माई हर्ट गोज टू असमीज पीपुल)हम अपने कुछ भूभाग को बचा नहीं सके तो द्रमुक नेतागण सहम गये।

उसके बाद तो द्रमुक नेताओं को लगा कि जब पूरा भारत मिलकर अपने भूभाग को नहीं बचा सका तो मद्रास के अलग राज्य बन जाने पर मद्रास खुद को कैसे बचा सकेगा।

उसके बाद द्रमुक नेता कुछ सावधान हो गये।

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पर,उस दल की आज की पीढ़ी तो अपने स्वार्थ में वह सब भूल गयी।जबकि इधर पाक -चीन गठजोड़ की गिद्ध दृष्टि भारत पर है।

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5 मार्च 24    


 कांग्रेस के पराभव का कारण

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   सुरेंद्र किशोर

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अपेक्षाकृत कम योग्य उत्तराधिकारियों के कारण ही 

कांग्रेस समेत कई राजनीतिक दल संकट में हैं।

कुछ तो डूब रहे हैं।

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कई कारणों से 1929 से अब तक कांग्रेस ने नेहरू-गांधी परिवार के अपेक्षाकृत कम योग्य नेताओं को सत्ता और पार्टी के शीर्ष पर बैठाया।

    जवाहरलाल नेहरू,इंदिरा गांधी और राजीव गांधी को जब सत्ता सौंपी गई ,तब वे अपने समय के कांग्रेस के श्रेष्ठत्तम नेता नहीं थे।

  श्रेष्ठत्तम नेता कोई और थे,जिन्हें दरकिनार कर इस परिवार के नेताओं को आगे किया गया।

आज भी वही हाल है।

नतीजतन अगले लोक सभा चुनाव के पहले कांग्रेस से एक एक करके नेता निकलते जा रहे हैं।

 देश की मूल समस्याओं को समझने और उनके हल प्रस्तुत करने की क्षमता के अभाव में नेहरू-गांधी परिवार के सदस्य देश,सरकार और दल को सफल नेतृत्व प्रदान नहीं कर सके।

 आर्थिक,आंतरिक और वैदेशिक मोर्चों पर सफलताएं कम ही मिलीं।

कुछ क्षेत्रों में नेहरू-इंदिरा-राजीव की सफलताएं जरूर ध्यान खींचने वाली रहीं,पर इस गरीब देश को जिस तरह के निर्णायक नेतृत्व की जरूरत थी,वह आवश्यकता पूरी नहीं हो सकी।

  ऐसे में प्रधान मंत्री मोदी ठीक ही कहते हैं ‘इस देश के कई जरूरी काम मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे।’

  किसी देश के लिए आर्थिक मोर्चे पर सफलता अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है।

 आर्थिक साधनों से ही विकास,कल्याण और सुरक्षा के काम किए जा सकते हैं।

  इसी पृष्ठभूमि मेें 1985 में तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने कहा था,‘केंद्र सरकार 100 पैसे भेजती है ,पर गांवों तक उसमंे से सिर्फ 15 पैसे ही पहुंच पाते हैं।’

 यह काम एक दिन में तो नहीं हुआ होगा।

उसमें कुछ न कुछ योगदान 1947 से 1985 तक की सारी सरकारों का रहा ही होगा।

यानी उन दिनों की सरकारें भ्रष्टाचार के खिलाफ उतनी सख्त नहीं थीं जितनी किसी गरीब देश की सरकारों को होना चाहिए।

 केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय में कई दशक

पहले सचिव रहे एन सी सक्सेना ने यह सलाह दी थी कि बैंक खातों के जरिए ही लोगों तक आर्थिक मदद पहुंचाई जानी चाहिए।

उससे लीकेज बंद होगा,लेकिन यह काम मोदी सरकार ने ही बड़े पैमाने पर शुरू किया।

सक्सेना की नेक सलाह को मानने से कई सरकारों ने इन्कार कर दिया।

कारण स्पष्ट है।

  नेताओं के वंशज-परिजन के बीच से निकले अपेक्षाकृत कम योग्य उत्तराधिकारियों के कारण ही कांग्रेस समेत कई दल संकट में हैं।

कुछ तो डूब रहे हैं।

संकेत हैं कि आने वाले दिन भी उनके लिए सुखकर नहीं हैं।

इन दलों की स्थिति सुधरती नहीं देख कर बीते दिनों के कुछ लाभार्थी तरह-तरह के उपदेश दे रहे हैं।

कुछ तो विलाप और प्रलाप भी कर रहे हैं।

दलों के पराभव के मूल कारणों की गंभीर चर्चा संबंधित दलों के नेता भी नहीं कर रहे हैं,क्योंकि इससे हाईकमान के यहां उनकी पूछ खत्म हो जाएगी।

   कांग्रेस में वंशवाद की शुरूआत 1929 में ही हो चुकी थी।

उसे ठोस रूप महात्मा गांधी की मदद से मोतीलाल नेहरू ने दिया।

दोनों के बीच हुए पत्र-व्यवहार से यह साफ है कि गांधी जी ने प्रारंभिक हिचक के बाद ही जवाहरलाल नेहरू का आगे बढ़ाया।

  मोतीलाल नेहरू ने कांग्रेस मुख्यालय संचालन के लिए प्रयागराज का अपना विशाल आनंद भवन दे दिया था।

यह अंग्रेजी राज में बड़ी बात मानी गई।

गांधी जी पर संभवतः इस बात का असर रहा होगा।

 उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू ने 1928 में महात्मा गांधी को बारी -बारी स तीन चिट्ठियां लिखीं।

 उनके जरिए उन्होंने आग्रह किया कि वह जवाहरलाल को कांग्रेस अध्यक्ष बनवा दें।

पहले दो पत्रों पर गांधी राजी नहीं हुए।

 वह तब जवाहर को उस पद के योग्य नहीं मानते थे।

मोतीलाल जी के तीसरे पत्र पर गांधी जी बेमन से मान गए।

उक्त सारे पत्र नेहरू मेमोरियल में उपलब्ध हंै।

(उन पत्रों पर आधारित खबर की स्कैन काॅपी इस लेख के साथ दी जा रही है।)

   आजादी के तत्काल बाद जब प्रधान मंत्री पद पर किसी नेता को बैठाने की बात आई तो महात्मा गांधी ने सरदार पटेल के दावे को नजरअंदाज कर नेहरू को प्रधान मंत्री बनवा दिया,जबकि देश की 15 में से 12 प्रदेश कांग्रेस कमेटियों ने इस पद के लिए सरदार पटेल का नाम सुझाया था।

कांग्रेस के तब के अधिकतर शीर्ष नेतागण इस देश की जमीनी समस्याओं को ध्यान में रखते हुए इस पद के लिए सरदार पटेल को सर्वाधिक योग्य मानते थे।

  1958 में इंदिरा गांधी कांग्रेस कार्य समिति की सदस्य बना दी गईं।

कल्पना कीजिए,कितने बड़े -बड़े स्वतंत्रता सेनानी तब इस पद के लिए उनसे अधिक काबिल थे।

कुछ समय बाद इंदिरा गांधी कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दी गईं।

कांग्रेस सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री महावीर त्यागी ने इंदिरा को अध्यक्ष बनाए जाने के विरोध में जवाहरलाल नेहरू को कड़ा पत्र लिखा।

  वास्तव में नेहरू जी इंदिरा को कांग्रेस अध्यक्ष बनवाकर यह संकेत दे रहे थे कि उनके न रहने पर बेटी प्रधान मंत्री बने।

   अंततः ऐसा ही हुआ।

बीच में कुछ समय के लिए लालबहादुर शास्त्री प्रधान मंत्री बने।

  क्या 1984 में इंदिरा गांधी की नृशंस हत्या के बाद राजीव गांधी कांगेे्रस में पी एम पद के लिए सबसे योग्य नेता थे ?

ऐसा नहीं था।

राजीव गांधी ने जिस तरह अपनी सरकार और पार्टी चलाई,उसका यह नतीजा हुआ कि उनके बाद कांग्रेस को लोक सभा में पूर्ण बहुमत मिलना बंद हो गया।

याद रहे कि इंदिरा गांधी के शासनकाल में ही जनता ने पहली बार 1977 में कांग्रेस को केंद्र की सत्ता से हटा दिया था।

 दूसरी ओर बिना किसी पारिवारिक पृष्ठभूमि से राजनीति में आए मोदी के कारण भाजपा की चुनावी ताकत बढ़ती ही जा रही है,क्योंकि मोदी ने देश की मूल समस्याओं को समझा और उनके समाधान पूरे  मनोयोग से तलाशे।

  उसके सकारात्मक परिणाम भी देखे जा रहे हैं।

ऐसा नहीं है कि आजादी के तत्काल बाद के हमारे शासकों को सुशासन की सलाह देने वालों की कोई कमी थी।

 सिंगापुर के संस्थापक प्रधान मंत्री ली कुआन यू ने नेहरू को इस बारे में सलाह दी थी।

जब उनकी सलाह नहीं मानी गई तो ली कुआन यू ने कहा कि ‘समस्याओं के बोझ के कारण नेहरू ने अपने विचारों और नीतियों को लागू करने का जिम्मा मंत्रियों और सचिवों को दे दिया।

 अफसोस की बात है कि वह भारत के लिए वांछित परिणाम लाने में असफल रहे।’   

  ली कुआन 1959 से 1990 तक सिंगापुर के प्रधान मंत्री थे।उन्होंने सिंगापुर के लोगों की प्रति व्यक्ति आय को 500 डालर से बढ़ा कर 55 हजार डालर पर पहुंचा दिया।

भारत भी सिंगापुर की तरह तरक्की कर सकता था,लेकिन मौका गंवा दिया गया।

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6 मार्च 2024 के दैनिक जागरण,नईदुनिया और नवदुनिया के सारे संस्करणों में प्रकाशित