मेरे गांव का एक दीवानी मुकदमा सन 1932 मेें शुरू हुआ।
मात्र आठ कड़ी जमीन के अतिक्रमण का केस था।
सन 1947 तक उसमें कोेई अंतिम निर्णय नहीं हुआ।
यानी, अंग्रेजों के राज में भी दीवानी मुकदमे कछुए की गति से चलते थे।
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आजादी के बाद भी सन 1969 तक वह केस चलता रहा।
अंत होने का नाम नहीं ले रहा था।
दोनों पक्षों का मुझ पर विश्वास था।
मैंने हस्तक्षेप किया।
सुलह हो गयी।
पर,आप कल्पना कीजिए कि 37 साल में लोअर कोर्ट से केस हाईकोर्ट और हाईकोर्ट से केस फिर लोअर कोर्ट जाता रहा।
कल्पना कीजिए कि दोनांे पक्षों को कितना खर्च करना पड़ा होगा !
शारीरिक तौर से भी कितनी दौड़ धूप करनी पड़ी होगी।
उन परिवारों का विकास कितना बाधित हुआ होगा !!
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इस घटना से कैसी शिक्षा मिलती है ?
यही कि गैर जरूरी खर्चे रोककर उस पैसे से परिवार को विकसित करके बाल -बच्चों को शिक्षित व आर्थिक रूप से ताकतवर बनाना हो तो कोर्ट-कचहरी जाने की जगह आपसी समझौते से ही मामले का निपटारा कर लेना चाहिए।
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सुरेंद्र किशोर
6 अप्रैल 24
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