जब तक अपवादों को छोड़कर देश के सरकारी स्कूल-कालेजों में ढंग से पढ़ाई और कदाचारमुक्त परीक्षाएं नहीं होंगी,तब तक नौकरियों के लिए आयोजित भर्ती परीक्षाओं के प्रश्न पत्र लीक होते ही रहेंगे
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सुरेंद्र किशोर
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बिहार सहित इस देश में सरकारी नौकरियों के लिए जब -जब प्रतियोगिता परीक्षाएं होती हैं,अपवादों को छोड़ कर प्रश्न पत्र लीक हो ही जाते हैं।
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जब तक इस देश के सरकारी स्कूलों-कालेजों में ढंग से पढ़ाई नहीं होगी।
जब तक अपवादों को छोड़कर देश के सरकारी स्कूल-कालेज-विश्व विद्यालय की परीक्षाएं कदाचारमुक्त नहीं होंगी,तब तक भर्ती परीक्षाओं के प्रश्न पत्र लीक होते ही रहेेंगे।
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1963 में मैंने मैट्रिक की बोर्ड परीक्षा दी थी।
उससे पहले योग्य शिक्षकों से स्कूली पढ़ाई मैंने की थी।
मैं जिन स्कूलों में पढ़ा,वे स्कूल सरकारी नहीं थे।
प्रबंध समितियों द्वारा संचालित थे।
अपवादों को छोड़कर काहिली और कदाचार की समस्याएं बिहार के स्कूल-कालेजों के सरकारीकरण के बाद अचानक बढ़ी।
साठ के दशक तक बिहार में बोर्ड -विश्व विदयालय परीक्षाएं आम तौर पर कदाचारमुक्त होती थीं।
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तब मैट्रिक परीक्षा में इक्के दुक्के परीक्षार्थी ही फस्र्ट डिविजन से पास करते थे।
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अधिकतर परीक्षार्थी थर्ड डिविजन से पास करते थे।
सेकेंड डिविजन वाले भी कम ही होते थे।फस्र्ट डिविजनर लड़के को आसपास के गांव के लोग देखने आते थे।
उसके पिता का भी नाम होता था।
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अब कैसा रिजल्ट आ रहा है ?
सर्वाधिक परीक्षार्थी फस्र्ट डिविजन से पास कर रहे हैं।
उनसे कम सेकेंड डिविजन।
सबसे कम थर्ड डिविजन।
क्या ऐसा रिजल्ट आज की पढ़ाई के वास्तविक स्तर को प्रतिबिंबित करता है ?अपवादों को छोड़कर नहीं करता।
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बिहार में सन 1996 में पटना हाईकोर्ट-जिला जजों की देख -रेख में मैटिक-इंटर की कदाचारमुक्त परीक्षाएं हुई थीं।
मैट्रिक में करीब 13 प्रतिशत और इंटर में करीब 17 प्रतिशत परीक्षार्थी ही पास कर पाये थे।वह रिजल्ट तब की शिक्षा के स्तर का सही प्रतिबिंब था।
पर,उसके कारण जब ‘‘शिक्षा का व्यापार’’ बंद होने लगा ,शिक्षा माफियाओं को दर्द सताने लगा तो राज्य सरकार ने उनके दबाव में आकर अगले ही साल से कदाचार की पहले जैसी छूट दे दी।
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एक दशक पहले इस देश के एक बड़े उद्योगपति ने कहा था कि इस देश में हर साल जितने इंजीनियर डिग्री हासिल कर रहे हैं,उनमें से औसतन मात्र 27 प्रतिशत ही ऐसे हैं जिन्हें हम नौकरी पर रख सकते हैं।
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परीक्षाओं में कदाचार के जरिए लाखों डिग्रियां थमाने वाली सरकारें श्क्षिित बेरोजगारों
की फौज खड़ी करके अपने लिए ही सिरदर्द मोल ले रही हैं।
हमारे जमाने में जो फेल कर जाता था,वह सरकारी नौकरियों का मोह छोड़कर किसी अन्य काम- धंधे में लग जाता था।
आज तो योग्यता विहीन शिक्षित बेरोजगार दूसरे ही काम में लग जाते हैं।
हां,आज भी योग्यता संपन्न बेरोजगारों को सरकारी नहीं तो निजी क्षेत्रों में काम मिल ही जा रहे हैं।
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साठ के दशक में इंटर पास विद्यार्थी अपना माक्र्स सीट दिखा कर सरकारी मेडिकल-इंजीनियरिंग कालेजों में दाखिला करा लेता था।
मेरे जमाने में जिसने भी फस्र्ट डिविजन से मैट्रिक पास किया,यदि चाहा तो डाकतार विभाग में माक्र्स सीट पर ही नौकरी पा गया।
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जब स्कूल-कालेजों का स्तर गिरा तो मेडिकल-इंजीनियरिंग काॅलजों में दाखिले के लिए भी प्रतियोगी परीक्षाएं होने लगी।
पर,अब तो उन प्रतियोगी परीक्षाओं का भी क्या हाल है,यह कहने की जरूरत नहीं है।
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इस समस्या का निराकरण कौन करेगा ?
यह समस्या देशव्यापी है।
किसी दल ने इस चुनाव में गंभीर रूप से यह मामला उठाया ???
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25 अपैल 24
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