जिन्हें मूत्र चिकित्सा का नाम सुनकर ही
घिन आती है,वे इस पोस्ट को कृपया न पढ़ें
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हा,ं जिन्होंने अपने कैंसरग्रस्त परिजन को
अंतिम समय में असहनीय दर्द से कराहते हुए देखा है,
वे तो जरूर पढ़ें।
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सुरेंद्र किशोर
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सन 2022 में भारत में करीब 9 लाख लोगों की कैंसर से मृत्यु हुई।
उस साल करीब 14 लाख नये कैंसर मरीजों का पता चला था।
एक अध्ययन के अनुसार इस देश में करीब 10 प्रतिशत लोग कैंसर से ग्रस्त हैं।सबसे खराब स्थिति पंजाब की है
जहां देश में सर्वाधिक मात्रा में खेतों में रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाएं डाली जाती है।
निगरानी के लिए तैनात भ्रष्ट सरकारी कर्मियों की जानबूझकर अनदेखी के कारण बिहार सहित
देश में बड़े पैमाने पर ऐसे खाद्य और भोज्य पदार्थ बेचे जा रहे हैं जो कैंसर कारक हैं।
कैंसर के शर्तिया इलाज के लिए दवा का आविष्कार अभी नहीं हुआ हैं।हालांकि हाल में यह पता चला है कि वैज्ञानिकों को जल्द ही सफलता मिलने की उम्मीद भी बंधी है।
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पर,जब तक वह उपलब्धि हासिल नहीं होती है, तब तक हमें इसकी एक उपलब्ध ‘‘शत्र्तिया’’ दवा के बारे में जान लेना चाहिए।
वह है स्वमूत्र चिकित्सा।
यदि कैंसर, लीवर में न हो और प्रारंभिक स्टेज में हो तो इसे आजमाना चाहिए।
वैसे आखिरी स्टेज वाले भी इससे ठीक हुए हैं।ं
मैं इस संबंध में कुछ लोगों के निजी अनुभव बताता हूं।
मोरारजी देसाई ने जिज्ञासा करने पर मुझे पत्र लिखकर उस पुस्तक का नाम सुझाया था जिसकी भूमिका उन्होंने लिखी है।मैंने उसे मंगाया है।
पूर्व प्रधान मंत्री खुद नियमित रूप से स्वमूत्र पान करते थे।अनेक चिट्ठयों के जरिए उन्होंने मुझे उसके फायदे बताए थे।मुझसे गलती यह हुई कि उस पर एक लेख बना कर मैंने गोरखपुर के प्राकृतिक चिकित्सालय ‘‘आरोग्य मंदिर’’ को भेज दिया--साथ में चिट्ठियों को भी भेज दिया था।
यदि लेख नहीं छपा तो उसका कारण है।
वहां के मशहूर प्राकृतिक चिकित्सक डा.बिठ्ठलदास मोदी स्वमूत्र चिकित्सा के खिलाफ थे।पर,मैंने यह उम्मीद की थी कि न छापने पर मोरारजी वाली चिट्ठियां मुझे लौट आएंगी।पर नहीं आईं।उन दिनों फोटोकाॅपी की सुविधा उपलब्ध नहीं थी।
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इस मूत्र चिकित्सा के जरिए मौत के मुंह से निकल आए डा.केशव प्रसाद सिंह से मैं 1997 में आरा के जयप्रकाश नगर जाकर मिला था।उससे पहले डा.सिंह पर टाइम्स आॅफ इंडिया में छपी रपट मैंने पढ़ी थी।
उन पर मैंने जनसत्ता में रिपोर्ट भी लिखा था जिसकी स्कैन काॅपी इस पोस्ट के साथ दी जा रही है।
एच.डी.जैन काॅलेज के राजनीति शास्त्र विभाग के अध्यक्ष रहे डा.सिंह ने मुझे बताया था कि ‘‘बंबई के टाटा स्मारक अस्पताल के डा.जस्सावाला ने मुझे लाइलाज घोषित कर दिया था।मुझे गले का कैंसर था।पर मैंने जब स्वमूत्र पान शुरू किया और तेजी से सुधार होने लगा तो डा.जस्सावाला ने देखकर कहा कि ‘‘इसे सिर्फ चमत्कार ही कहा जा सकता है।’’
केशव बाबू स्वस्थ होकर बाद में खुद लोगों की स्वमूत्र चिकित्सा करने लगे थे।मंैं एक मरीज लेकर उनके यहां गया था।मेरे साथ पत्रकार श्रीकांत भी थे।
मेरे मरीज को भी लाभ हुआ था।
पर चूंकि मेरे छोटे भाई के मर्ज की पहचान आखिरी समय में
हुई थी,इसलिए उसे बचाया न जा सका।
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वैसे तो कैंसर के कई कारण हैं,पर मेरी समझ से मुख्य कारण
खाद्य और भोज्य पदार्थों में बड़ी मात्रा में रासायनिक खाद और रासायनिक कीटनाशक दवाओं का अंधाधुंध इस्तेमाल है।
मिलावटखोरी पर कोई नियंत्रण नहीं।दूध का इस देश में जितना उत्पादन होता है,उससे करीब दुगनी आपूर्ति हो रही है।पर शासन सोया हुआ है।
कैंसर हमारी हरित क्रांति की भी देन है जिसे हमारे अदूरदर्शी शासकों ने तब शुरू किया था जब अमेरिका जैविक खेती की ओर लौट रहा था।
जब मैं छोटा था और गांव में रहता था तो हमारे चुनाव
क्षेत्रं गड़खा के प्रतिनिधि गांधीवादी जगलाल चैधरी हमारे दरवाजे पर भी आते थे।वे हमारे अभिभावक को आगाह करते थे कि आपलोग गोबर का ही खाद खेतों में डालिए।रासायनिक खाद से बहुत नुकसान होने वाला है।
पर भला कौन मानने वाला था !पैदावार जो बढ़ गयी थी।
उससे पहले गोबर खाद से उपजाये गये छोटे दाने वाले गेहूं की रोटी मैंने खाई है।
वह ‘‘सवाद’’और पौष्टिकता अब कहां ?
हां,पूर्व राज्य सभा सदस्य आर.के.सिंहा का मैं शुक्रगुजार हूं जो कोइलवर के पास जैविक खेती कराते हैं और उपभोक्ताओं तक पहुंचावाते हैं।इस तरह कुछ लोगों तक कैंसर पहुंचने से रोकते
हैं।
जैविक उत्पाद महंगा तो जरूर पड़ता है।किंतु कैंसर के इलाज में जो भारी खर्च आता है,उसके मुकाबले कुछ भी नहीं है।साथ ही, गत साल मेरे छोटे भाई जैसे बहुमूल्य ‘सवांग’ को कैंसर ने लील लिया।उसकी क्षतिपूतर््िा असंभव है।ऐसे अनेक उदाहरण है।पंजाब के
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रोज रात नौ बजे पंजाब के भटिंडा स्टेशन से ‘‘कैंसर ट्रेन’’(लोगों द्वारा यही नाम दिया गया है उस टे्रन का) खुलती है और सुबह छह बजे राजस्थान के बिकानेर पहुंचती है।इस ट्रेन में रोज करीब सौ कैंसर मरीज होते हैं।
बिकानेर के आचार्य तुलसी रिजनल कैंसर अस्पताल और रिसर्च सेंट्रल है।पंजाब सरकार कभी इस बात की जांच नहीं कराती कि जरूरत से अधिक खेतों में रासायनिक खाद क्यों दी जाती है।इसलिए नहीं कराती क्योंकि वह अढ़तियों और मंडी के दलालों के प्रभाव में रहती है।उनका इसमें निहित स्वार्थ है।
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3 अपैल 24
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