8 अप्रैल, 22 के दैनिक भास्कर (पटना) में संवाददाता गिरिजेश की खबर का शीर्षक है-
‘‘24 में 16 सीटों पर जिनके पास ज्यादा पैसा,वही जीते
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जीते प्रत्याशियों की औसत संपत्ति 73 करोड़’’
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इस साहसपूर्ण खबर के बारे में मेरा यह कहना नहीं है कि किसी के पास यदि अधिक पैसे हैं तो उसे सदन का सदस्य बनना चाहिए।
बल्कि, पैसे वालों का भी प्रतिनिधित्व होना ही चाहिए।
पर, जरा अनुपात तो देखिए !
असंतुलित अनुपात बोध इस देश की एक बड़ी समस्या है।
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समय बीतने के साथ ही बिहार ही नहीं, बल्कि देश के विभिन्न सदनों में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है।
सन 2014 में मायावती ने सार्वजनिक रूप से यह आरोप लगाया था कि एक निवर्तमान राज्य सभा सदस्य ने राज्य सभा का सदस्य फिर से बना देने के लिए मुझे 100 करोड़ रुपए का आॅफर दिया था।
हालांकि उस नेता जी ने उल्टे मायावती पर यह कहते हुए पलट वार किया कि मायावती जी ने ही मुझसे उतने रुपए मांगे थे।
उससे देश को यह तभी मालूम हो गया था कि कुछ खास सीटों का ‘रेट’ क्या चल रहा है।
खैर, उस मामले में कौन गलत था,कौन सही,यह जांचने का मेरे पास कोई जरिया नहीं।
किंतु इस देश- प्रदेश की राजनीति को दशकों से करीब से देखने -समझने का अनुभव मुझे जरूर है।
1967 से देख -समझ रहा हूं।
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धीरे -धीरे लोकतांत्रिक संस्थाओं से वैसे छोटे -बड़े नेता गायब होते जा रहे हैं जिनमें सिर्फ ज्ञान,योग्यता ,सेवा भाव किंतु गरीबी है।
हालंाकि अब भी वैसे इक्के- दुक्के सेवाभावी लोग सदन में नजर आ जाते हैं।पर वे भी अगले कुछ साल में गायब हो जाएंगे।
देश का दुर्भाग्य है कि अब उनकी संख्या तेजी से बढ़ रही है जिनके पास पारिवारिक पृष्ठभूमि है, अपार पैसे हैं, जातीय -घार्मिक भावना उभारने का कौशल है और जिन्हें खूंखार अपराधियों व भ्रष्टाचारियों से भी कोई दुराव नहीं है।
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यदि देश के सदनों की बनावट में तीव्र बदलाव की प्रक्रिया की रफ्तार यूं ही जारी रही तो अगले दो-तीन दशकों में देश की विभिन्न विधायिकाओं का स्वरूप कैसा बनेगा ?
अनुमान लगा लीजिए।
उसका देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा पर कैसा असर पड़ेगा ?
हां, वैसा तो बिलकुल ही नहीं जिसकी कल्पना हमारे स्वतंत्रता सेनानियों और संविधान निर्माताओं ने की थी।
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ताजा खबर यह है कि पांच विधान सभाओं के गत चुनाव में नरेंद्र मोदी ने किसी भाजपा संासद
के पुत्र को टिकट नहीं लेने दिया।
एक कंेद्रीय मंत्री के पुत्र को तो राज्य सरकार में मंत्री नहीं बनने दिया जबकि वे 2017 से ही विधायक रहे हैं।
इसको लेकर भाजपा के वैसे अनेक नेता गण मोदी से सख्त नाराज बताए जा रहे हैं जिनके पुत्र टिकट नहीं पा सके।
वह नाराजगी आने वाले दिनों में भाजपा के भीतर कौन सा गुल खिलाएगी,वह देखना दिलचस्प होगा।
क्या मोदी का यह ‘सफाई अभियान’ आगे भी जारी रह पाएगा ?
‘नागपुर’ का उस पर कैसा रुख रहेगा ?
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11 अप्रैल 22.
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