शुक्रवार, 29 अप्रैल 2022

 सिर में दर्द हो तो क्या सिर काट दोगे ?

राजद्रोह कानून का दुरुपयोग हो 

रहा है तो क्या इस कानून को ही खत्म कर दोगे 

जबकि देश में राजद्रोहियों की संख्या बढ़ती जा रही है ?     

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        सुरेंद्र किशोर

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   राजद्रोह कानून के औचित्य पर भारत का सुप्रीम कोर्ट इन दिनों विचार कर रहा है।

इस कानून के दुरुपयोग की खबरों से सुप्रीम कोर्ट का भी चिंतित हो जाना लाजिमी है।

किंतु उम्मीद है कि अंततः सुप्रीम कोर्ट इस कानून को जारी रखने के पक्ष में ही अपनी राय देगा।

सुप्रीम कोर्ट से यह भी उम्मीद की जाती है कि वह इस कानून के दुरुपयोग को रोकने के लिए कड़े कदम उठाने का सख्त निदेश सरकार को देगा।

यदि इस कानून को रद करने के पक्ष में राय देगा तो संभव है कि सुप्रीम कोर्ट को वैसे किसी आदेश पर देर- सबेर पुनर्विचार करना पड़ेगा।

क्योंकि इस देश में राजद्रोहियों की संख्या बढ़ रही है। 

 राजद्रोह कानून के दुरुपयोग को लेकर सुप्रीम कोर्ट सन 1962 में ही अपना दिशा -निदेश दे चुका है।

शासन यह सुनिश्चित करे कि 

1962 के उस ऐतिहासिक जजमेंट की धज्जियां नहीं उड़ाई जाएं।

हाल के वर्षों में भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हम इस संबंध में 1962 के अपने निर्णय पर कायम हैं।

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वैसे यह बात सभी पक्षों को समझ लेनी चाहिए कि जो शक्तियां इस देश में राजद्रोही गतिविधियां चला रही हैं,या जो किसी लाभ-लोभ के तहत उनके समर्थक हैं, वे चाहते हैं कि राजद्रोह कानून रद कर दिया जाए।

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   1962 के जजमेंट की कहानी

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26 मइर्, 1953 को बिहार के बेगूसराय में एक रैली हो रही थी।

फाॅरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के नेता केदारनाथ सिंह रैली को संबांधित कर रहे थे।

रैली में सरकार के खिलाफ अत्यंत कड़े शब्दों का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने कहा कि 

‘‘सी.आई.डी.के कुत्ते बरौनी में चक्कर काट रहे हैं।

कई सरकारी कुत्ते यहां इस सभा में भी हैं।

जनता ने अंगे्रजों को यहां से भगा दिया।

कांग्रेसी कुत्तों को गद्दी पर बैठा दिया।

इन कांग्रेसी गुंडों को भी हम उखाड़ फकेंगे।’’

   ऐसे उत्तेजक व अशालीन भाषण के लिए बिहार सरकार ने केदारनाथ सिंह के खिलाफ राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दायर किया।

केदारनाथ सिंह ने पटना हाईकोर्ट की शरण ली।

हाईकोर्ट ने उस मुकदमे की सुनवाई पर रोक लगा दी।

बिहार सरकार सुप्रीम कोर्ट चली गई।

सुप्रीम कोर्ट ने आई.पी.सी.की राजद्रोह से संबंधित धारा  

को परिभाषित कर दिया।

  20 जनवरी, 1962 को मुख्य न्यायाधीश बी.पी.सिन्हा की अध्यक्षता वाले संविधान पीठ ने कहा कि

 ‘‘देशद्रोही भाषणों और अभिव्यक्ति को सिर्फ तभी दंडित किया जा सकता है,जब उसकी वजह से किसी तरह की हिंसा, असंतोष या फिर सामाजिक असंतुष्टिकरण बढ़े।’’

 चूंकि केदारनाथ सिंह के भाषण से ऐसा कुछ नहीं हुआ था,इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ सिंह को राहत दे दी।

   देशद्रोह के हाल के कुछ मामलों को अदालतें 1962 के उस निर्णय की कसौटी पर ही कसे।

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राजद्रोह का ताजा मामला 9 फरवरी 2016 को जे एन यू कैम्पस में सामने आया था।

तब वहां कश्मीरी जेहादी अफजल गुरू की बरखी मनाई जा रही थी।

उस अवसर पर खुलेआम नारे लगे--

‘‘भारत की बर्बादी तक,कश्मीर की आजादी तक,

जंग रहेगी,जंग रहेगी।

भारत तेरे टुकड़े होंगे,

इंशाअल्लाह,इंशा अल्लाह।

अफजल हम शर्मींदा हैं,

तेरे कातिल जिंदा हैं।’’

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कौन कहेगा कि 2016 के बाद वैसे लोगों की संख्या इस देश में घट गई है जो 

इस लक्ष्य को लेकर चल रहे हैं कि ‘‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’’ ?

क्या ऐसे लोगों का मुकाबला शासन किसी हल्के कानूनों के जरिए कर सकता है ?

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याद रहे कि सुप्रीम कोर्ट ने आपात काल में दिए गए अपने एक मशहूर जजमेंट को खुद ही कुछ साल पहले गलत बताया।

वह निर्णय बंदी प्रत्यक्षीकरण को लेकर था।

तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आपातकाल में नागरिक अपने मौलिक अधिकारों की मांग नहीं कर सकता।

नागरिक अधिकारों में जीने का अधिकार भी शामिल है। 

उससे ठीक पहले केंद्र सरकार के वकील नीरेन डे ने सबसे बड़ी अदालत से   

कहा था कि यह इमरजेंसी (1975-77)ऐसी है जिसके दौरान यदि शासन किसी की जान भी ले ले तो उस हत्या के खिलाफ अदालत की शरण नहीं ली जा सकती।

सुप्रीम कोर्ट ने तब नीरेन डे की बात पर अपनी मुहर लगा दी थी।

याद रहे कि इमरजेंसी में पूरे देश मेें शासन ने भय और आतंक का माहौल खड़ा कर दिया था।

पर,जब वैसा माहौल नहीं रहा तो सुप्रीम कोर्ट को बाद में अपने उस पुराने निर्णय पर पछतावा हुआ था।

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