सोमवार, 4 अप्रैल 2022

      एक भूली -बिसरी याद

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  नई दिल्ली से प्रकाशित हिन्दी साप्ताहिक ‘प्रतिपक्ष’ के 

  8 सितंबर, 1974 के अंक में मुख्य पृष्ठ का शीर्षक था ,

‘‘संसद या चोरों और दलालों का अड्डा ?’’

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इसके साथ दी गई स्टोरी में लाइसेंस घोटाले को उजागर किया गया था।उस घोटाले को पहले दबा दिया गया था।

  ‘प्रतिपक्ष’ की इस धमाकेदार स्टोरी और उसके शीर्षक को लेकर लोक सभा में पीलू मोदी और राज्य सभा में लालकृष्ण आडवाणी ने इस पत्रिका  के खिलाफ विशेषाधिकार हनन के प्रस्ताव पेश किये।

 इसके पीछे विरोधी दलों की एक रणनीति थी ।

वे इसी बहाने दबा दिये गये पांडिचेरी लाइसेंस घोटाले को एक बार फिर उजागर करना चाहते थे। 

 विरोधी दलों की रणनीति को पहले सत्ताधारी कांग्रेस ने नहीं समझा।

 इसलिए अनेक कांग्रेसी सदन में एक साथ खड़े हो गये।

संसद के प्रति अवमाननापूर्ण टिप्पणी पर वे अब तक एक कम चर्चित पत्रिका ‘प्रतिपक्ष’ के खिलाफ, जिस पत्रिका का तब मैं बिहार संवाददाता था, कार्रवाई करने के लिए स्पीकर से मांग करने लगे।

पर इस बीच किसी ने तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी को इसके पीछे की रणनीति के बारे में बता दिया।

फिर क्या था !

इंदिरा जी के इशारे पर कांग्रेसी सांसदगण स्पीकर जी.एस.ढिल्लो से  यह गुजारिश करने लगे कि पत्रिका के खिलाफ इस मामले को आगे नहीं बढ़ाना चाहिए।

मामला आगे बढ़ता तो केंद्र सरकार की फजीहत हो जाती।

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आज का ताजा हाल

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स्थानीय निकाय क्षेत्रों से बिहार विधान परिषद की 24 सीटों के  चुनाव के लिए आज वोट डाले जा रहे हैं।

 पटना की चर्चित व साहसी पत्रिका ‘‘समकालीन तापमान’’ ने ‘‘पांच अरब का अदृश्य खेल’’ शीर्षक के तहत इस चुनाव पर 

राजेश पाठक की एक रपट प्रकाशित की है।

 रपट में यह लिखा गया है कि 

‘‘यहां बड़ा सवाल यह भी है कि इस रूप में विधान परिषद की सदस्यता पाने में धन बल का इतना बड़ा खेल क्यों होता है ?

मोटा-मोटी यह माना जा सकता है कि विधान पार्षद

के तौर पर शासन-प्रशासन और समाज में रुतबा -रुआब तो कायम हो ही जाता है,सुख -सुविधाएं इतनी हैं कि उन्हें पाने की लालसा में आठ-दस करोड़ रुपए पानी में बहाने में धन बलियों को कोई दर्द नहीं होता।

वैसे भी ये रुपये पसीने की कमाई के तो होते नहीं हैं !’’

 कल हुई ‘तैयारी’ और आज के मतदान के दौरान इस चुनाव में रूचि रखने वाले पूरे राज्य के जानकार लोग यह जान गए होंगे कि पांच अरब रुपए खर्च हो रहे हंै या कम या फिर कोई खर्च नहीं हो रहा है !

  यदि अपार धन लगाकर सदस्य बनने की बात सही है तो फिर सवाल उठता है कि हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं का स्वरूप कैसा बनता जा रहा है ?

इसका प्रशासन,राजनीति व जन मानस पर कैसा असर हो रहा है ?

क्या ऐसे ही लोकतंत्र के लिए स्वतंत्रता सेनानियों ने त्याग किए थे,बलिदान दिए थे और कष्ट सहे थे ?

इन सवालों पर विचार करने के लिए आज कितने लोग इस देश में तैयार हैं ?

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सुरेंद्र किशोर

4 अप्रैल 22 


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