कानोंकान
सुरेंद्र किशोर
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मिलावटों की आशंका कम करने के लिए दवाओं की कीमतंे घटानी जरूरी
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केंद्र सरकार कुछ महत्वपूर्ण दवाओं की भारी कीमतों में कमी लाने के प्रस्ताव पर विचार कर रही है।कीमतों में सत्तर प्रतिशत कमी का प्रस्ताव है।
यदि सरकार ने अंततः सचमुच ऐसा कोई निर्णय कर लिया तो उससे दवाओं में मिलावट की आशंका भी कम होगी।
ध्यान रहे कि जो महंगी दवाओं में मिलावट अधिक होती है।
सस्ती दवाओं में मिलावट कम होती है।
क्योंकि सस्ती दवाओं में मिलावट के धंधे में मुनाफा काफी कम होता है।
‘आयुष्मान भारत’ की दवाओं की कीमतें काफी कम हैं।
इसलिए उसमें कोई मिलावट करके भला कोई कितना कमाएगा ?
पुराने जमाने में सार्वजनिक क्षेत्र के आई.डी.पी.एल. कारखानों में निर्मित अत्यंत सस्ती दवाएं काफी असरदार होती थीं।क्योंकि उनमें मिलावट नहीं होती थी।
पर, जब उसी कम्पोजिशन वाला टेबलेट ब्रांडेड कंपनी भारी कीमत में बेचे तो जाहिर है कि उसमें मिलावट से समाजविरोधी तत्वों को काफी फायदा होगा।
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ठंडे पेय पदार्थों में कीटनाशक
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दवाआंें के साथ-साथ केंद्र सरकार ठंडे पेय पदाथों में कीटनाशक दवाओं की भारी मौजूदगी पर भी ध्यान दे।
उससे भी बीमारियां हो रही हैं।
कई साल पहले भारत की संसद में प्रतिपक्षी सदस्य ने सवाल पूछा था कि अमेरिका की अपेक्षा हमारे देश में तैयार हो रहे कोल्ड ड्रिंक में रासायनिक कीटनाशक दवाओं का प्रतिशत काफी अधिक क्यों है ?
इस पर केंद्र सरकार ने संसद को बताया था कि यहां कुछ अधिक की अनुमति है।
तब यह सवाल उठा था कि कोल्ड डिं्रक बनाने वाली अमरीकी कंपनी अपने देश में तो कीटनाशक की मौजूदगी के खिलाफ है। किंतु वही कंपनी भारत के लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ क्यों करती है ?
पिछली सरकारें भले यह बर्दाश्त करती रहीं।किंतु क्या मौजूदा केंद्र सरकार भी उसी लीक पर चलेगी ?
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छापेमारी में दुस्साहस
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बालू, पत्थर, कोयले और पशु के काले धंधे में काफी काला धन है।
इस धंधे में लगे माफियाओं को देश भर में शासन के एक हिस्से का गुप्त संरक्षण मिलता रहा है।
जगजाहिर है कि
इस काम में निचले व मझोले स्तरों के अफसरों की उनसे साठगांठ रहती है।
इसीलिए धंधेबाज समय -समय पर पुलिसकर्मियों को अपनी गाड़ियों से कुचलते रहे हैं।उन्हें लगता है कि उनका कुछ बिगड़नेवाला नहीं।
इस धंधे को निर्मूल करने की कोशिशें भी होती रहती हैं।पर,वह कभी सफल नहीं होती।
कोशिश सफल हो,उससे पहले उनकी गाड़ियों से कुचलने वाले अफसरों की जानें कैसे बचाई जाएं ?
इस पर बड़े अफसरों को विशेष तौर पर ध्यान देना होगा।कभी- कभी यह सवाल भी उठता है कि माफियाओं को रोकने के लिए कुछ अफसर अकेले या बहुत कम फोर्स के साथ मैदान में क्यों चले जाते हैं ?
क्या इस संबंध में शासन का कोई खास निदेश नहीं है ?
क्यों वे अफसर अति उत्साही हो जाते हैं ?
या माफियाओं के समक्ष अकेले चले जाने के पीछे उनका उद्देश्य कुछ और होता है ?
इस पर सरकारों को उच्च स्तर पर विचार करके कोई कठोर दिशा निदेश जारी करना चाहिए।
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जेल में फिर भी मंत्री
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नवाब मलिक जब तक जेल में रहे,मिनिस्टर भी बने रहे।
दिल्ली के मंत्री जैन साहब जेल में हैं।इसके बावजूद अब तक ऐसी कोई खबर नहीं है कि उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है।
पश्चिम बंगाल के मंत्री पार्थ चटर्जी जेल गए।पिछली खबर मिलने तक वे भी मंत्री बने हुए हैं।
यह कैसी परंपरा डाली जा रही है ?
इससे पहले तो नेता लोग जेल जाने से पहले मंत्री या मुख्य मंत्री पद से इस्तीफा दे देते थे।
मीडिया ट्रायल से संबंधित सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की ताजा टिप्पणी समयोचित है।
उस पर उन्हें कोई जजमेंट भी देना चाहिए। किंतु जेल में भी मंत्री पद पर बना रहे,इसे रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट कुछ नहीं करेगा ?
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भूली-बिसरी याद
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जस्टिस हंसराज खन्ना सन 1982 में ज्ञानी जैल सिंह के खिलाफ प्रतिपक्ष की ओर से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार थे।सुप्रीम कोर्ट के चर्चित जज रहे खन्ना साहब ने राष्ट्रपति की भूमिका पर अपनी राय दी थी जो आज भी मौजूं है।
जस्टिस खन्ना ने कहा था कि ‘‘राष्ट्रपति देश का प्रतीक होता है।
उसके आचार-विचार का समाज पर असर पड़ता है।
हालांकि उसे कड़ाई से संविधान के अंतर्गत ही कार्य करना होता है।
परंतु मैं समझता हूं कि इसी सीमा के भीतर वह देश के नैतिक पतन को रोकने में एक अच्छी भूमिका निभा सकता है।
इसका अर्थ यह नहीं है कि वह शासक दल से टकराव की स्थिति पैदा करेगा।
टकराव की तो असल में कोई संभावना ही नहीं है।
खास कर उस स्थिति में ,जबकि राष्ट्रपति देश के नैतिक पर्यावरण को साफ करने के प्रति चिंतित हो।
अपनी स्थिति की सीमाओं के भीतर ही उसे अपनी सक्रियता तय करनी होगी।’’
जस्टिस खन्ना की टिप्पणियां न्यायपूर्ण थी।
हाल में राष्ट्रपति चुनाव हुआ।उसके उम्मीदवार यशवंत सिन्हा तथा कुछ अन्य प्रतिपक्षी नेताओं की टिप्पणियों की जरा जस्टिस खन्ना की टिप्पणियों की तुलना करके देख लें।
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और अंत में
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जिन राज्यों में एक दलीय शासन है,वहां के मुख्य मंत्री यदि ईमानदार हैं,तो वे अपने मंत्रियों पर चैकस नजर रख सकते हैं।किंतु जहां मिली जुली सरकारें हैं,उन राज्यों के मुख्य मंत्रियों के सामने दिक्कतें हैं।
ऐसी दिक्कतें कैसे दूर हों ?
इस पर तो संबंधित दलीय हाईकमान को ही विचार करना होगा।
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कानोंकान
प्रभात खबर
पटना
25 जुलाई 22
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